गत 25 जून को महाराष्ट्र की मंत्रिपरिषद ने मराठा समुदाय को 16 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का निर्णय लिया। मराठा,राज्य की आबादी के लगभग 32 प्रतिशत हैं और यह आरक्षण, कुनबी मराठाओं को ओबीसी की हैसियत से पहले से ही मिल रहे आरक्षण के अतिरिक्त होगा। मंत्रिमंडल ने यह निर्णय भी लिया कि 50 पिछड़ी मुस्लिम जातियों को भी 5 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा। मुसलमान, राज्य की आबादी का 10.6 प्रतिशत हैं और यह आरक्षण ओबीसी की सूची में शामिल मुस्लिम जातियों को मिल रहे आरक्षण के अतिरिक्त होगा। वर्तमान में जुलाहा, मोमिनए अंसारी, रंगरेज, तेली, नक्कासी, मुस्लिम काकर, पिंजारी और फकीर जातियों के मुसलमानों को ओबीसी की हैसियत से आरक्षण मिल रहा है। इस नए 21 प्रतिशत आरक्षण के साथ, राज्य में शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़कर 73 हो गया है। बंबई उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर, मराठाओं को दिए गए 16 प्रतिशत आरक्षण को कई आधारों पर चुनौती दी गई है, जिनमें से प्रमुख यह है कि मराठा, शैक्षणिक या सामाजिक दृष्टि से पिछड़े नहीं हैं। महाराष्ट्र के 17 मुख्यमंत्रियों में से 10 मराठा थे। वर्तमान में राज्य विधानसभा के 288 सदस्यों में से 152 मराठा हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मराठा,राजनैतिक व सामाजिक दृष्टि से प्रभुत्वशाली हैं। वे बड़ी संख्या में सहकारी शक्कर मिलों,सहकारी बैंकों और व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों का संचालन कर रहे हैं। यहां तक कि यह मराठी राज्य, मराठा राज्य बन गया है।
संविधान के अनुच्छेद 16 ;4 के अनुसार राज्य ,नागरिकों के उन पिछड़े वर्गों के सदस्यों को नियुक्तियों या पदों में आरक्षण दे सकता हैए जिन्हें सरकारी सेवाओं में उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या मराठा और 50 मुस्लिम जातियां, सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं? मंत्रिमंडल ने मराठा समुदाय के बारे में निर्णय, नारायण राणे समिति की रपट के आधार पर लिया जबकि मुस्लिम समुदायों को आरक्षण देने का आधार बनी डाक्टर एम. रहमान की अध्यक्षता में नियुक्त अध्ययनदल की रपट। दरअसल, मराठाओं में इतनी उपजातियां हैं कि उन्हें एक समुदाय कहना ही गलत है। मराठा समुदाय के दो मुख्य हिस्से हैं.किसान उपजातियां व योद्धा उपजातियां। पहले, कुनबी कहलाते हैं और दूसरे शायनावकुली। योद्धा उपजातियों का प्रभुत्व अधिक है। दोनों अपनी अलग पहचान कायम रखे हुए हैं और उनके आपस में वैवाहिक संबंध नहीं होते। अतः उपजातियों के इन दोनों समूहों को एक समुदाय मानकर, उसे पिछड़ेपन की कसौटी पर कसना ही गलत है।
यह दिलचस्प है कि अध्ययन दल ने जिन 50 मुस्लिम जातियों को पिछड़ा बताया या माना है, उनके नाम न तो अध्ययन दल ने सार्वजनिक किए और ना ही सरकार ने। ये वे समुदाय हैं जिन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध होगा। जहां मराठा समुदाय के सभी सदस्यों को आरक्षण का लाभ मिलेगा वहीं 50 पिछड़ी मुस्लिम जातियों के उन सदस्यों को यह लाभ नहीं मिलेगा, जो कि क्रीमिलेयर में आते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने मीडिया के साथ बातचीत में कहा कि आरक्षण का आधार धर्म नहीं बल्कि पिछड़ेपन को बनाया गया है। मुख्यमंत्री ने यह स्पष्ट नहीं किया कि पिछड़ेपन को नापने के लिए किन मानकों का इस्तेमाल किया गया है। जहां तक अध्ययन समूह का सवाल है, उसकी रपट सन् 2001 की जनगणना,सन् 2006 की सच्चर समिति रपट और सन् 2009 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज के प्रोफेसर अब्दुल शब्बन द्वारा किए गए एक अध्ययन के आंकड़ों का संकलन मात्र है। तीनों रपटों में न तो पिछड़े मुस्लिम समुदायों के नाम बताए गए हैं और ना ही उनका अलग से अध्ययन किया गया है। उदाहरणार्थ, इनमें से किसी रपट में नक्षबंदी, बेग, मीर,ए हकीम, मुल्ला, हैदरी, नूरी, उस्मानी इत्यादि समूहों के शैक्षणिक स्तर, साक्षरता, जीवनयापन का जरिया, रोजगार, सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व, आमदनी का स्तरए लैंगिक अनुपात, बैंक ऋण व स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आदि के संबंध में अलग से कोई आंकड़े नहीं दिए गए हैं। सारे आंकड़े सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के हैं। जो चित्र इन रपटों से उभरता है वह निश्चय ही निराशाजनक है। बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर रहे हैं और इसका कारण गरीबी व बाल मजदूरी है। यद्यपि मुसलमानों की साक्षरता दर 78.1 है तथापि उनमें से केवल 2.2 प्रतिशत ग्रेजुएट हैं। मुस्लिम महिलाओं में ग्रेजुएशन करने वालों का प्रतिशत मात्र 1.4 है। शहरों और गांवों में रहने वाले मुसलमानों में से लगभग 60 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। मुसलमानों की कार्य सहभागिता दर ;आबादी का वह हिस्सा जो या तो कोई काम कर रहा है अथवा ढूंढ रहा हैद्ध केवल 32.4 प्रतिशत है और महिलाओं के मामले तो यह 12.7 प्रतिशत मात्र है। महाराष्ट्र काडर में कोई आईएएस अधिकारी मुसलमान नहीं है और पुलिस बल में केवल 4.4 प्रतिशत मुसलमान हैं। इस परिस्थिति में यह समझना मुश्किल है कि मंत्रिमंडल इस निर्णय पर कैसे पहुंचा कि पूरे मुस्लिम समुदाय नहीं वरन् केवल 50 मुस्लिम जातियों को आरक्षण की जरूरत है।
आरक्षण की राजनीति
आरक्षण के जरिए, राज्यए शनैः शनैः समाज में व्याप्त गैर.बराबरी को दूर करने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करता है। आरक्षण के जरिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि समाज के उस वर्ग के नागरिकों, जिन्हें ऐतिहासिक कारणों से आगे बढ़ने के उपयुक्त व पर्याप्त अवसर नहीं मिले,को ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाएं ताकि जो क्षति उन्हें हुई है उसकी पूर्ति हो सके। परंतु महाराष्ट्र सरकार के आरक्षण संबंधी हालिया फैसले का इस संवैधानिक दायित्व की पूर्ति से कोई लेना.देना नहीं है। आरक्षण,दरअसल, सत्ताधारी पार्टी द्वारा किसी जाति या समुदाय के वोट कबाड़ने के लिए उसे आकर्षित करने का जरिया बन गया है। शरद पवार ने तो मीडिया से यह तक कह दिया कि अगर सत्ताधारी दल चुनाव में लाभ उठाने के लिए भी आरक्षण देता है तो इसमे गलत क्या है। मुसलमान लगभग पिछले 30 सालों से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अपने लिए आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं। परंतु उनकी मांग की अब तक अनसुनी होती आई है। 16वें आम चुनाव में भाजपा.शिवसेना.आरपीआई गठबंधन द्वारा महाराष्ट्र की 48 में से 42 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर लेने के बाद कांग्रेस को यह समझ में आया कि जनता उसके साथ नहीं है। और इसलिए उसकी सरकार ने मराठाओं को आरक्षण देने का फैसला किया। मुसलमानों की कुछ जातियों को आरक्षण देने का उद्देश्य भी उनके पिछड़ेपन को समाप्त करना नहीं है बल्कि मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना है। दरअसल, शक्तिशाली मराठा समुदाय को खुश करने के सरकारी प्रयास में मुसलमान अनायास ही लाभांवित हो गए हैं। वरना, क्या कारण है कि अगर सरकार मुसलमानों के एक तबके को आरक्षण देना चाहती थी तो इस तबके की पहचान के लिए आवश्यक प्रयास क्यों नहीं किए गए।
पहचान की राजनीति व कांग्रेस और भाजपा की धर्मनिरपेक्षता
जब भारत के संविधान का निर्माण हुआ था तब उसकी उद्देशिका में'धर्मनिरपेक्षता' शब्द नहीं था। परंतु धर्मनिरपेक्षता, संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा थी। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 16 में प्रत्येक नागरिक को समानता की गारंटी दी गई है,भले ही उसका धर्म या जाति कोई भी हो। इसी तरह, अनुच्छेद 19 के अंतर्गत दी गई स्वतंत्रताएं भी समस्त नागरिकों को हासिल हैं। अनुच्छेद 25 देश के सभी रहवासियों को अंतर्रात्मा की स्वतंत्रता व अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। जो एकमात्र अधिकार धार्मिक समुदायों को है वह यह है कि वे धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन कर सकते हैं और धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थाओं की स्थापना व उनका प्रबंधन कर सकते हैं। अनुच्छेद 27 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष या धार्मिक संस्था को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स देने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 28ए राज्य द्वारा पूर्णतः वित्तपोषित शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेध करता है।
यह स्पष्ट है कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार व स्वतंत्रताएंए व्यक्तियों को उपलब्ध हैं न कि समुदायों या जातियों को। हां, संवैधानिक अधिकारों व स्वतंत्रताओं से लैस नागरिक, अपनी सामाजिकए सांस्कृतिक या धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एकसाथ मिलकर किसी संस्था का गठन कर सकते हैं। परंतु किसी भी स्थिति में, व्यक्तियों को उपलब्ध अधिकार व स्वतंत्रताएंए उनके समूह को स्थानांतरित नहीं हो सकतीं, चाहे वह समूह धार्मिक हो, नस्लीय, जातिगत या भाषायी। संविधान की यह मान्यता है कि ये समूह स्थायी नहीं है और इनकी दीवारें इतनी ऊँची नहीं होतीं कि कोई इन्हें लांघ न सके। सरल शब्दों में हम कहें तो एक धर्म का व्यक्ति जब चाहे किसी दूसरे धर्म को अपना सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई धार्मिक समूह,स्थायी संस्था नहीं है। उसके पुराने सदस्य उसे छोड़कर जा सकते हैं और नए सदस्य उसमें शामिल हो सकते हैं। हां, इस स्थिति के कुछ अपवाद भी हैं जैसे महिलाएं, बच्चे, अनुसूचित जाति व जनजातियों के सदस्य या शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग या ऐसे लोग जिन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय से वंचित रखा गया हो। ऐसे सभी नागरिक, सामूहिक रूप से कुछ अधिकारों के तब तक पात्र हैं जब तक कि वे कमजोर, सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े व भेदभाव के शिकार बने रहते हैं। इस तरह के वर्गों को आरक्षण व अन्य कल्याण कार्यक्रमों से लाभांवित होने का अधिकार है।
परंतु राजनैतिक दल अपने संकीर्ण लाभ के लिए इस संवैधानिक सिद्धांत की अवहेलना करते हैं। यह सुनिश्चित करने की बजाय कि हर व्यक्ति को वे स्वतंत्रता,मिलें, जिनका वह पात्र है और किसी को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय से वंचित न किया जाए, राजनैतिक दल जाति, समुदाय या नस्ल पर आधारित समूहों के हितों को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं। इससे इन समूहों को अपनी अलग पहचान को मजबूती देने में लाभ नजर आने लगता है और उनमें कट्टरता बढ़ती है। श्रेष्ठी वर्ग को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या नस्ल के आधार पर अलग पहचान को मजबूती देने में मदद करने के लिए राजनैतिक दल, सरकारी संसाधनों व सत्ता का दुरूपयोग करते हैं और जाति या समुदाय के आधार पर लोगों को उपकृत कर अपना हितसाधन करते हैं। कांग्रेसए समाजवादी पार्टी व बसपा जैसे राजनैतिक दलए जो कि स्वयं को 'सेक्युलर'बताते हैं,आर्थिक व राजनैतिक लाभों का वितरण मुख्यतः जाति के आधार पर करना चाहते हैं,जिसमें उनकी पंसदीदा जाति को उसकी पात्रता से अधिक हिस्सा मिले। दूसरी ओर, भाजपा, लाभों, पदों व अवसरों के वितरण का आधार धर्म को बनाना चाहती है।
इस प्रक्रिया में ये पार्टियां भारत को धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा व नस्ल पर आधारित समुदायों के महासंघ में परिवर्तित कर रही हैं.एक ऐसे महासंघ में, जिसमें विभिन्न समुदायों को अलग.अलग विशेषाधिकार प्राप्त हों। कुछ लोग यह मांग करते हैं कि मराठाओं को अधिक अधिकार व लाभ मिलने चाहिए,य कुछ अन्य चिल्ला.चिल्लाकर कहेंगे कि मुसलमानों को अन्य समुदायों की तुलना में अधिक सुविधाएं मिलनी चाहिए तो कुछ अन्य का दावा होगा कि हिन्दुओं का देश के संसाधनों पर अधिक अधिकार है। तथ्य यह है कि ये सभी वर्ग मिलकर हमारे संविधान का मखौल बना रहे हैं और कानून के राज को कमजोर कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे वातावरण में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली संस्कृति का बोलबाला हो जाता है। उस समुदाय या जाति को अधिक तवज्जो मिलती है जिसकी आबादी अधिक है या जिसके सदस्यों का राजनीति में ज्यादा दखल है। विभिन्न समुदायों के बीच अधिक से अधिक लाभ पाने की प्रतियोगिता भी चलती रहती है जिसके कारण विवाद और हिंसा होते हैं। क्या ही अच्छा हो कि हमारे राजनेता लोगों को समुदायों के तौर पर देखने की बजाए यह सुनिश्चितत करने का प्रयास करें कि हर व्यक्ति को समानता व समान अवसर का अधिकार मिले। और अगर राजनेता ऐसा नहीं करते तो क्या प्रजातंत्र की अन्य संस्थाएं सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए आगे आयेंगी?
-इरफान इंजीनियर
संविधान के अनुच्छेद 16 ;4 के अनुसार राज्य ,नागरिकों के उन पिछड़े वर्गों के सदस्यों को नियुक्तियों या पदों में आरक्षण दे सकता हैए जिन्हें सरकारी सेवाओं में उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या मराठा और 50 मुस्लिम जातियां, सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं? मंत्रिमंडल ने मराठा समुदाय के बारे में निर्णय, नारायण राणे समिति की रपट के आधार पर लिया जबकि मुस्लिम समुदायों को आरक्षण देने का आधार बनी डाक्टर एम. रहमान की अध्यक्षता में नियुक्त अध्ययनदल की रपट। दरअसल, मराठाओं में इतनी उपजातियां हैं कि उन्हें एक समुदाय कहना ही गलत है। मराठा समुदाय के दो मुख्य हिस्से हैं.किसान उपजातियां व योद्धा उपजातियां। पहले, कुनबी कहलाते हैं और दूसरे शायनावकुली। योद्धा उपजातियों का प्रभुत्व अधिक है। दोनों अपनी अलग पहचान कायम रखे हुए हैं और उनके आपस में वैवाहिक संबंध नहीं होते। अतः उपजातियों के इन दोनों समूहों को एक समुदाय मानकर, उसे पिछड़ेपन की कसौटी पर कसना ही गलत है।
यह दिलचस्प है कि अध्ययन दल ने जिन 50 मुस्लिम जातियों को पिछड़ा बताया या माना है, उनके नाम न तो अध्ययन दल ने सार्वजनिक किए और ना ही सरकार ने। ये वे समुदाय हैं जिन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध होगा। जहां मराठा समुदाय के सभी सदस्यों को आरक्षण का लाभ मिलेगा वहीं 50 पिछड़ी मुस्लिम जातियों के उन सदस्यों को यह लाभ नहीं मिलेगा, जो कि क्रीमिलेयर में आते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने मीडिया के साथ बातचीत में कहा कि आरक्षण का आधार धर्म नहीं बल्कि पिछड़ेपन को बनाया गया है। मुख्यमंत्री ने यह स्पष्ट नहीं किया कि पिछड़ेपन को नापने के लिए किन मानकों का इस्तेमाल किया गया है। जहां तक अध्ययन समूह का सवाल है, उसकी रपट सन् 2001 की जनगणना,सन् 2006 की सच्चर समिति रपट और सन् 2009 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज के प्रोफेसर अब्दुल शब्बन द्वारा किए गए एक अध्ययन के आंकड़ों का संकलन मात्र है। तीनों रपटों में न तो पिछड़े मुस्लिम समुदायों के नाम बताए गए हैं और ना ही उनका अलग से अध्ययन किया गया है। उदाहरणार्थ, इनमें से किसी रपट में नक्षबंदी, बेग, मीर,ए हकीम, मुल्ला, हैदरी, नूरी, उस्मानी इत्यादि समूहों के शैक्षणिक स्तर, साक्षरता, जीवनयापन का जरिया, रोजगार, सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व, आमदनी का स्तरए लैंगिक अनुपात, बैंक ऋण व स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आदि के संबंध में अलग से कोई आंकड़े नहीं दिए गए हैं। सारे आंकड़े सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के हैं। जो चित्र इन रपटों से उभरता है वह निश्चय ही निराशाजनक है। बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर रहे हैं और इसका कारण गरीबी व बाल मजदूरी है। यद्यपि मुसलमानों की साक्षरता दर 78.1 है तथापि उनमें से केवल 2.2 प्रतिशत ग्रेजुएट हैं। मुस्लिम महिलाओं में ग्रेजुएशन करने वालों का प्रतिशत मात्र 1.4 है। शहरों और गांवों में रहने वाले मुसलमानों में से लगभग 60 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। मुसलमानों की कार्य सहभागिता दर ;आबादी का वह हिस्सा जो या तो कोई काम कर रहा है अथवा ढूंढ रहा हैद्ध केवल 32.4 प्रतिशत है और महिलाओं के मामले तो यह 12.7 प्रतिशत मात्र है। महाराष्ट्र काडर में कोई आईएएस अधिकारी मुसलमान नहीं है और पुलिस बल में केवल 4.4 प्रतिशत मुसलमान हैं। इस परिस्थिति में यह समझना मुश्किल है कि मंत्रिमंडल इस निर्णय पर कैसे पहुंचा कि पूरे मुस्लिम समुदाय नहीं वरन् केवल 50 मुस्लिम जातियों को आरक्षण की जरूरत है।
आरक्षण की राजनीति
आरक्षण के जरिए, राज्यए शनैः शनैः समाज में व्याप्त गैर.बराबरी को दूर करने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करता है। आरक्षण के जरिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि समाज के उस वर्ग के नागरिकों, जिन्हें ऐतिहासिक कारणों से आगे बढ़ने के उपयुक्त व पर्याप्त अवसर नहीं मिले,को ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाएं ताकि जो क्षति उन्हें हुई है उसकी पूर्ति हो सके। परंतु महाराष्ट्र सरकार के आरक्षण संबंधी हालिया फैसले का इस संवैधानिक दायित्व की पूर्ति से कोई लेना.देना नहीं है। आरक्षण,दरअसल, सत्ताधारी पार्टी द्वारा किसी जाति या समुदाय के वोट कबाड़ने के लिए उसे आकर्षित करने का जरिया बन गया है। शरद पवार ने तो मीडिया से यह तक कह दिया कि अगर सत्ताधारी दल चुनाव में लाभ उठाने के लिए भी आरक्षण देता है तो इसमे गलत क्या है। मुसलमान लगभग पिछले 30 सालों से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अपने लिए आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं। परंतु उनकी मांग की अब तक अनसुनी होती आई है। 16वें आम चुनाव में भाजपा.शिवसेना.आरपीआई गठबंधन द्वारा महाराष्ट्र की 48 में से 42 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर लेने के बाद कांग्रेस को यह समझ में आया कि जनता उसके साथ नहीं है। और इसलिए उसकी सरकार ने मराठाओं को आरक्षण देने का फैसला किया। मुसलमानों की कुछ जातियों को आरक्षण देने का उद्देश्य भी उनके पिछड़ेपन को समाप्त करना नहीं है बल्कि मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना है। दरअसल, शक्तिशाली मराठा समुदाय को खुश करने के सरकारी प्रयास में मुसलमान अनायास ही लाभांवित हो गए हैं। वरना, क्या कारण है कि अगर सरकार मुसलमानों के एक तबके को आरक्षण देना चाहती थी तो इस तबके की पहचान के लिए आवश्यक प्रयास क्यों नहीं किए गए।
पहचान की राजनीति व कांग्रेस और भाजपा की धर्मनिरपेक्षता
जब भारत के संविधान का निर्माण हुआ था तब उसकी उद्देशिका में'धर्मनिरपेक्षता' शब्द नहीं था। परंतु धर्मनिरपेक्षता, संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा थी। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 16 में प्रत्येक नागरिक को समानता की गारंटी दी गई है,भले ही उसका धर्म या जाति कोई भी हो। इसी तरह, अनुच्छेद 19 के अंतर्गत दी गई स्वतंत्रताएं भी समस्त नागरिकों को हासिल हैं। अनुच्छेद 25 देश के सभी रहवासियों को अंतर्रात्मा की स्वतंत्रता व अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। जो एकमात्र अधिकार धार्मिक समुदायों को है वह यह है कि वे धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन कर सकते हैं और धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थाओं की स्थापना व उनका प्रबंधन कर सकते हैं। अनुच्छेद 27 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष या धार्मिक संस्था को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स देने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 28ए राज्य द्वारा पूर्णतः वित्तपोषित शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेध करता है।
यह स्पष्ट है कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार व स्वतंत्रताएंए व्यक्तियों को उपलब्ध हैं न कि समुदायों या जातियों को। हां, संवैधानिक अधिकारों व स्वतंत्रताओं से लैस नागरिक, अपनी सामाजिकए सांस्कृतिक या धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एकसाथ मिलकर किसी संस्था का गठन कर सकते हैं। परंतु किसी भी स्थिति में, व्यक्तियों को उपलब्ध अधिकार व स्वतंत्रताएंए उनके समूह को स्थानांतरित नहीं हो सकतीं, चाहे वह समूह धार्मिक हो, नस्लीय, जातिगत या भाषायी। संविधान की यह मान्यता है कि ये समूह स्थायी नहीं है और इनकी दीवारें इतनी ऊँची नहीं होतीं कि कोई इन्हें लांघ न सके। सरल शब्दों में हम कहें तो एक धर्म का व्यक्ति जब चाहे किसी दूसरे धर्म को अपना सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई धार्मिक समूह,स्थायी संस्था नहीं है। उसके पुराने सदस्य उसे छोड़कर जा सकते हैं और नए सदस्य उसमें शामिल हो सकते हैं। हां, इस स्थिति के कुछ अपवाद भी हैं जैसे महिलाएं, बच्चे, अनुसूचित जाति व जनजातियों के सदस्य या शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग या ऐसे लोग जिन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय से वंचित रखा गया हो। ऐसे सभी नागरिक, सामूहिक रूप से कुछ अधिकारों के तब तक पात्र हैं जब तक कि वे कमजोर, सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े व भेदभाव के शिकार बने रहते हैं। इस तरह के वर्गों को आरक्षण व अन्य कल्याण कार्यक्रमों से लाभांवित होने का अधिकार है।
परंतु राजनैतिक दल अपने संकीर्ण लाभ के लिए इस संवैधानिक सिद्धांत की अवहेलना करते हैं। यह सुनिश्चित करने की बजाय कि हर व्यक्ति को वे स्वतंत्रता,मिलें, जिनका वह पात्र है और किसी को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय से वंचित न किया जाए, राजनैतिक दल जाति, समुदाय या नस्ल पर आधारित समूहों के हितों को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं। इससे इन समूहों को अपनी अलग पहचान को मजबूती देने में लाभ नजर आने लगता है और उनमें कट्टरता बढ़ती है। श्रेष्ठी वर्ग को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या नस्ल के आधार पर अलग पहचान को मजबूती देने में मदद करने के लिए राजनैतिक दल, सरकारी संसाधनों व सत्ता का दुरूपयोग करते हैं और जाति या समुदाय के आधार पर लोगों को उपकृत कर अपना हितसाधन करते हैं। कांग्रेसए समाजवादी पार्टी व बसपा जैसे राजनैतिक दलए जो कि स्वयं को 'सेक्युलर'बताते हैं,आर्थिक व राजनैतिक लाभों का वितरण मुख्यतः जाति के आधार पर करना चाहते हैं,जिसमें उनकी पंसदीदा जाति को उसकी पात्रता से अधिक हिस्सा मिले। दूसरी ओर, भाजपा, लाभों, पदों व अवसरों के वितरण का आधार धर्म को बनाना चाहती है।
इस प्रक्रिया में ये पार्टियां भारत को धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा व नस्ल पर आधारित समुदायों के महासंघ में परिवर्तित कर रही हैं.एक ऐसे महासंघ में, जिसमें विभिन्न समुदायों को अलग.अलग विशेषाधिकार प्राप्त हों। कुछ लोग यह मांग करते हैं कि मराठाओं को अधिक अधिकार व लाभ मिलने चाहिए,य कुछ अन्य चिल्ला.चिल्लाकर कहेंगे कि मुसलमानों को अन्य समुदायों की तुलना में अधिक सुविधाएं मिलनी चाहिए तो कुछ अन्य का दावा होगा कि हिन्दुओं का देश के संसाधनों पर अधिक अधिकार है। तथ्य यह है कि ये सभी वर्ग मिलकर हमारे संविधान का मखौल बना रहे हैं और कानून के राज को कमजोर कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे वातावरण में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली संस्कृति का बोलबाला हो जाता है। उस समुदाय या जाति को अधिक तवज्जो मिलती है जिसकी आबादी अधिक है या जिसके सदस्यों का राजनीति में ज्यादा दखल है। विभिन्न समुदायों के बीच अधिक से अधिक लाभ पाने की प्रतियोगिता भी चलती रहती है जिसके कारण विवाद और हिंसा होते हैं। क्या ही अच्छा हो कि हमारे राजनेता लोगों को समुदायों के तौर पर देखने की बजाए यह सुनिश्चितत करने का प्रयास करें कि हर व्यक्ति को समानता व समान अवसर का अधिकार मिले। और अगर राजनेता ऐसा नहीं करते तो क्या प्रजातंत्र की अन्य संस्थाएं सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए आगे आयेंगी?
-इरफान इंजीनियर
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वोट की राजनीति, नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने देश को राज्यों के संघ से समुदायों का संघ बना दिया, अभी भी चूक नहीं रहे हैं
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