परसाई को याद करते हुए :22 अगस्त को जन्मदिवस पर विशेष
नई सरकार के अच्छे दिनों की बांट जोह रहा हूं। टमाटर हमारे ऊपर 15 रुपए पाव पड़ रहा है। स्विस बैंक नसे कालाधन लौटता नहीं दिखता। चहुं ओर धर्म की जय है। बुद्धिजीवियों को देश में नई ऊर्जा दिख रही है।
नई सरकार के अच्छे दिनों की बांट जोह रहा हूं। टमाटर हमारे ऊपर 15 रुपए पाव पड़ रहा है। स्विस बैंक नसे कालाधन लौटता नहीं दिखता। चहुं ओर धर्म की जय है। बुद्धिजीवियों को देश में नई ऊर्जा दिख रही है।
देश के बारे में सोचता हूं तो परसाई बरबस ही याद आते हैं। परसाई ने अपने
समय के राजनीतिक सवालों से सीधे मुठभेड़ करते हुए अपने लेखन से सांस्कृतिक
आंदोलन छेड़ा। पत्रकारिता और
साहित्य को समृद्ध करने इस लेखक ने नईदुनिया और देशबंधु समेत अन्य अखबारों
में अपने साप्ताहिक स्तंभों से आजादी के बाद से 70 के दशक तक पाठकों को अपने
कस्बे, शहर, प्रदेश, देश और अतंराराष्ट्रीय परिदृश्य से एक तार्कित चेतना के साथ
अवगत कराया। मध्यम वर्ग की मनोवृत्तियों को रेखांकित किया। परसाई ने अपने
कालम्स के जरिए जो लोक शिक्षण किया वह आज की हिंदी पत्रकारिता में दुर्लभ है।
परसाई के लेखन की खासियत रोज-मर्रा की आसपास की घटनाओं की राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय
स्तर तक व्याप्ति थी। दूसरे विश्वयु्द्ध के बाद देश और दुनिया की सभी प्रमुख
घटनाओं, आंदोलनों, और व्यक्तियों के बड़े सूक्ष्म और कलात्मक व्यंग्य चित्र उनके
कालमों मिल जाएंगे।
1957
के बाद से नईदुनिया में छपने वाला -सुन भई साधो-
नामक स्तंभ बड़ा लोकप्रिय था। परसाई इसमें कबीर के नाम से लिखते थे। वहीं
जनयुग
नईदिल्ली में 1965 से अदम के नाम से ये -माजरा क्या है- नामक स्तंभ अदम के
नाम से
लिखते थे। दैनिक देशबंधु में -पूछिये परसाई- से नामक स्तंभ बड़ा लोकप्रिय
था,
जिसमें परसाई पाठकों के सवालों के जवाब अपने विशिष्ट नजरिए से देते थे। इसी
प्रकार अरस्तू की चिट्ठी के अंतर्गत लिखी गई चिट्ठियों में अपने समय के
जीवन यथार्थ की
सटीक तीखी आलोचना मिलती है। धार्मिक पाखंड, अमानवीय आचरण, सांप्रदायिकता के
खिलाफ
आजीवन अपनी कलम चलाई। स्वतंत्रता के बाद के सामाजिक यथार्थ को परसाई ने
व्यंग्य की
कलात्मक विधा से साधा और हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के बाद संभवतः सबसे
बड़ी
सेलिब्रिटी का दर्जा प्राप्त किया। परसाई ने अथक लेखन किया। उनके समग्र
लेखन में
लघु कथात्मक व्यंग्य रचनाएं, दीर्घकथा, कहानियां, ललित विचारपरक तथ
पत्रात्मक
निबंध, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर व्यंग्य निबंध, संपादकीय आलेख,
साक्षात्कार, व्याख्यान और उपन्यास शामिल हैं। परसाई के व्यंग्य निबंध करीब
24
पुस्तकों में संकलित हैं। परसाई की प्रमुख पुस्तकों में सदाचार का ताबीज,
पगडंडियों का जमाना, जैसे उनके दिन फिरे, वैष्णव की फिसलन, ठिठुरता हुआ
गणतंत्र,
निट्ल्ले की डायरी, पाखंड का आध्यात्म, विकलांग श्रद्धा का दौर आदि प्रमुख
हैं।
परसाई की रचनाओं के फुटकर अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हुए।
मलयामल
में उनकी सर्वाधिक 4 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। परसाई ने 1956 में वसुधा नामक
पत्रिका का प्रकाशन संपादन किया। उन्होंने मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक
संघ की
स्थापना की।
उनका
जन्म होशंगाबाद जिले के जामनी गांव में 22 अगस्त
1924 को हुआ था। मेट्रिक के दौरान उनकी माताजी की मत्यु हो गई। पिता को
असाध्य
बीमारी के कारण गहन आर्थिक अभाव में उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियां
निभाईं। इस
संघर्ष ने उन्हें इस्पाती इरादे दिए और समाज की बीमारियों को पकड़ने की
दृष्टि दी।
उन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। फिर खंडवा और जबलपुर में अध्यापन कार्य
किया।
1943 से 1952 तक हाई स्कूल में अध्यापन किया और 1952 में इस्तीफा दे दिया।
1953 से
57 तक प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाया और फिर नौकरी को अलविदा कह दिया। इसके
बाद से आजीवन स्वतंत्र लेखन के बूते गुजर-बसर की। आजाद भारत की नब्ज पर
परसाई का हाथ
था और देश का तापमान उनकी रचनाओं से लोग जान लेते थे। सामाजिक, राजनीतिक
जीवन की
मूल्यहीनता का कोई भी पहलू उनकी विवेकदृष्टि से बच नहीं सका। समाज के
उत्पीड़ित
वर्ग, नारियों के प्रति परसाई में गहरी करुणा है। वे मनुष्य के ढोंग को
निर्ममता
से जाहिर करते हैं। उनकी रचनाओं से समकालीन भारतीय जीवन देखा-समझा जा सकता
है।
परसाई का हमारे देश के एक आध्यात्मिक गुरु रजनीश के
बारे में एक कोट है – अपनी कोशिश से मैं अपने को श्रद्धेय बना सकता था।
ताकत के लिए बिजली के इंजेक्शन देने वाले अपने को डाक्टर कहलवा देते हैं। मेरे शहर
में एक अध्यापक ने नेम प्लेट पर नाम के आगे आचार्य लिखवा लिया था। मैं समझ गया कि
यह आदमी ऊंचा जाएगा। वह गया। बंबई जाकर उसने नेमप्लेट में भगवान लिखवा दिया और
आजकल मान्यता प्राप्त भगवान है।
परसाई,
वाल्तेयर, शा, रसेल, सार्त्र, कामू, गोर्की, मायकोवस्की जैसे सामाजिक सक्रियतावादी
लेखकों की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने लेखन को
सामाजिक जिम्मेदारी का औजार और नागरिक कर्म की तरह अपनाया। अपने आसपास की दुनिया
को परसाई की नजर से देखो तो रोमांच होता है, परसाई जिस तरह सामाजिक व्याधियों और
विद्रूप को डायग्नोस करते है, वह पाठकों को शिक्षित करने के साथ दृष्टिसंपन्न करता
है जो सामाजिक बदलाव का माध्यम बनते हैं। आलोचक श्याम कश्यप के अनुसार परसाई की
भाषा सहज, सरल और अत्यंत धारदार है। इसमें विभिन्न प्रकटन, स्थितियों, संबंधों और
घटनाओं के यथार्थ वर्णन की अद्भुत क्षमता है। बुंदेली का हल्का सा शेड उनकी भाषा
में गजब की चमक ला देता है। परसाई के गद्य में अद्भुत कलात्मकता है। भारतेंदु,
प्रतापनारायण मिश्र, बाल मुकुंद गुप्त, और प्रेमचंद के जीवंत गद्य का अगली कड़ी
परसाई को कहा जा सकता है। परसाई का प्रभाव उनके समकालीन और बाद के कथाकारों
शिवमूर्ति, अखिलेश, रवींद्रनाथ त्यागी, यशवंत व्यास,.ज्ञान
चतुर्वेदी, प्रेम जन्मेजय. स्वयंप्रकाश को देखा जा सकता है। परसाई अपनी
रचनाओं में जिस तरह राजीनीति से सीधी मुठभेड़ करते हैं उसका असर हिंदी
साहित्य की तमाम विधाओं के रचनाकारों पर दिखाई देता है। संक्षेप
में परसाई का समूचा साहित्य समकालीन सामजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक, और
साहित्यिक परिदृश्य में एक रचनात्मक हस्तक्षेप है, जो हमें भारत में
सामाजिक बदलाव के लिए संस्कारित करता है।
-अभय नेमा, इंदौर 977446791
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