गुजरात विश्वविद्यालय के कंवेंशन हॉल में आयोजित एक कार्यक्रम को
संबोधित करते हुए गत 2 अगस्त को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति
अनिल आर.दवे ने कहा कि 'अगर मैं भारत का तानाशाह
होता तो पहली कक्षा से गीता और महाभारत की पढ़ाई शुरू करवा देता। यही एक
तरीका है, जिससे आप यह सीख सकेंगे कि हमें कैसा जीवन जीना चाहिए। अगर कोई
कहे कि मैं धर्मनिरपेक्ष हूं या मैं धर्मनिरपेक्ष नहीं हूं तो इसके लिए मैं
क्षमा चाहूंगा परंतु हमें हर जगह से अच्छी चीजें लेनी होंगी।'
उनके इस कथन की देश के उदारवादी, प्रगतिशील तबकों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने भी न्यायमूर्ति दवे के विचारों का विरोध किया और उनपर अपनी चिंता जताई। परंतु उनके विरोध और चिंता के आधार अलग थे। कुछ लोगों ने इस संभावना पर चिंता व्यक्त की कि शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में धार्मिक पुस्तकों का समावेश किया जा सकता है ;यद्यपि यह पहली बार नहीं है कि इस तरह की चिंता व्यक्त की गई हो। कुछ अन्य का तर्क था कि 'गीता पढ़ाना भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विरूद्ध नहीं है परंतु केवल गीता पढ़ाना धर्मनिरपेक्षता का मखौल बनाना है।' इस मतविभिन्नता का कारण है धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना व उसकी परिभाषा के संबंध में एकमत का अभाव। क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अधार्मिकता है अथवा धर्म.विरोध ? क्या इसका अर्थ यह है कि हम सभी धर्मों और उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करें या सभी धर्मों का विरोध करें?उदाहरणार्थ, क्रिस्टोफर जेफरलॉट का तर्क है कि 'यह सिद्धांत ;धर्मनिरपेक्षता न तो धार्मिकता का समर्थन करता हैए ,न अधार्मिकता का और ना ही यह धार्मिकता का विरोधी है। बल्कि यह धार्मिकता से पूरी तरह सुसंगत है। राज्य,समाज में धर्म के महत्व को स्वीकार करता है और आवश्यकतानुसार सभी धर्मावलंबियों के समर्थन में हस्तक्षेप करता है। वह हर किस्म की धार्मिक गतिविधियों के लिए माली इमदाद उपलब्ध करवाता हैए चाहे वह सिक्खों की पाकिस्तान में स्थित उनके तीर्थस्थलों की यात्रा हो या हिन्दुओं की अमरनाथ यात्रा';जेफरलॉट 2014। कुछ अन्यों का तर्क है कि धर्म का मूलचरित्र ही दमनकारी है और अगर हमें समाज में समानता लानी है तो हमें हर किस्म के धार्मिक ढांचे को तोड़ना होगा। अंबेडकर का एक प्रसिद्ध कथन है,'असमानता, हिन्दू धर्म की आत्मा है'। इस तरहए अंबेडकर के लिए प्रजातांत्रिक,समतावादी भारत के निर्माण के उनके स्वप्न को पूरा करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागना आवश्यक था।
किसी व्यक्ति के लिए धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा चाहे जो हो परंतु भगवद्गीता जैसी पुस्तक को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव खतरनाक और चिंतित करने वाला है। इसका कारण मात्र यह नहीं है कि धार्मिक पुस्तकें किसी धर्मविशेष से जुड़ी होती हैं वरन् यह भी है कि आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव,हमारी शिक्षा व्यवस्था का केन्द्रीय तत्व है। और गीता जैसी पवित्र पुस्तक के मामले में तो आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाना लगभग असंभव हो जायेगा। इसके अलावा,जस्टिस दवे ने जिन'अच्छी चीजों'के लेने की बात कही है उसकी भी गहरी पड़ताल जरूरी है। जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच, दमनकारी व भेदभावपूर्ण व्यवस्था का आधार हैं। और भारतीय परंपरा में इस जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच का न केवल महिमामंडन किया गया है वरन् उसे 'भारतीय संस्कृति' का अविभाज्य हिस्सा मान लिया गया है। अगर भगवद्गीता को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जायेगा तो क्या उस पर बहस करने और उसका आलोचनात्मक अध्ययन करने का अधिकार विद्यार्थियों और शिक्षकों को दिया जायेगा ? जिस देश में धार्मिक मुद्दों को आस्था से जोड़कर,बहस और आलोचना से ऊपर रखा जाना सामान्य और औचित्यपूर्ण माना जाता हो वहां क्या इस बात की जरा सी भी संभावना है कि किसी धार्मिक पुस्तक की आलोचनात्मक व्याख्या को सहन किया जायेगा? इसलिएए, गीता चाहे कितनी भी शिक्षाप्रद और विद्वतापूर्ण पुस्तक क्यों न हो, उसे स्कूलों में पढ़ाया जाना एक गलत और खतरनाक कदम होगा। यहां यह समझना उपयोगी होगा कि गीता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने से पहले उसके आलोचनात्मक अध्ययन को स्वीकार्य बनाना क्यों आवश्यक है। यह भी समझना आवश्यक है कि ;जस्टिस दवे की मान्यता के विरूद्ध गीता,ज्ञान और प्रेरणा का अनन्य स्त्रोत नहीं है।
यह सही है कि गीता को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और उसकी शिक्षाओं ने कई धर्मों के लोगों को प्रेरणा दी है। इनमें शामिल हैं महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक और अरविंदो। परंतु यह भी उतना ही सही है कि अंबेडकर ने गीता की कटु आलोचना की है। गीता पर अंबेडकर के विचार, उनकी अप्रकाशित पुस्तक 'वोल्युशन एण्ड काउंटर रेवोल्यूशन इन एन्शिएन्ट इंडिया';प्राचीन भारत में क्रांति व प्रतिक्रांति में उपलब्ध हैं।
अंबेडकर की दृष्टि में, ,'भगवद्गीता न तो धार्मिक पुस्तक है और ना ही दार्शनिक ग्रंथ। गीता केवल कुछ धार्मिक रूढि़यों को दार्शनिक आधारों पर उचित ठहराती है। यह प्रतिक्रांति का दर्शनशास्त्रीय बचाव है';पंडित,1992। अंबेडकर के अनुसार, बौद्ध धर्म द्वारा भारत में लाई गई नैतिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांति की प्रतिक्रिया में, ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना के लिए जो अभियान चलाया, वह प्रतिक्रांति थी। वे लिखते हैं, 'प्रतिक्रांति को दार्शनिक आधार पर उचित ठहराने का प्रयास अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। गीता दो तरह के तर्कों का सहारा लेती है। पहला तर्क यह है कि दुनिया नाशवान और मनुष्य नश्वर है। हर मनुष्य को एक न एक दिन मरना है। इसलिए ज्ञानियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि कोई मनुष्य स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होता है या वह हिंसा में अपनी जान गंवाता है। जीवन मिथ्या है इसलिए उसके न रहने पर आंसू बहाना व्यर्थ है। मृत्यु अवश्यम्भावी है इसलिए इस बात की क्यों फिक्र करना की वह कैसे और कहां होती है...एक अन्य रूढि़, जिसके समर्थन में गीता दर्शनशास्त्रीय तर्क देती है वह है चातुर्वर्ण....वह चातुर्वर्ण को इस आधार पर उचित ठहराती है कि उसका संबंध मनुष्य के जन्मजात और प्रकृतिदत्त गुणों से हैं..............एक तीसरी रूढि़, जिसका गीता बचाव करती है वह है कर्म मार्ग। गीता के अनुसार, 'कर्म मार्ग का अर्थ है मुक्ति पाने के लिए यज्ञों आदि जैसे कर्मकाण्ड करना।'
अंबेडकर की गीता की इस आलोचना का मैंने विस्तार से वर्णन इसलिए किया है क्योंकि अगर गीता को पाठशालाओं में पढ़ाया जायेगा तो इस तरह के आलोचनात्मक स्वरों को कुचल दिया जायेगा। आलोचनात्मक विश्लेषण को 'ज्ञान' के हाशिए पर पटक दिया जायेगा। इस तरह की आलोचनाओं को हम सही मानें या गलत परंतु यह निश्चित है कि उन पर कक्षाओं में चर्चा नहीं की जायेगी.और यह भी हो सकता है कि ऐसे विचार रखने वालों को खलनायक बताया जाने लगे.और इससे भारत का प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तानाबाना खतरे में पड़ जायेगा। यह सही है कि ज्ञान और इतिहास का प्रभुत्वशाली वर्ग का संस्करण पहले से ही समाज पर छाया हुआ है और केवल गीता को पढ़ाए जाने से वह अस्तित्व में आयेगाए ऐसा नहीं है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने से विद्यार्थियों की उनके और 'दूसरों'के धर्मों की समझ पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। संभावना यही है कि पाठ्यक्रमों में गांधीजी द्वारा की गई गीता की प्रशंशा तो शामिल की जायेगी परंतु अंबेडकर द्वारा उसकी निंदा को कोई स्थान नहीं मिलेगा। इसके दो संभावित कारण हैं। पहला यह कि हमारे पाठ्यक्रमों में पहले से ही अंबेडकर की तुलना में गांधी को बहुत अधिक महत्व दिया जाता रहा है और दूसरे, अंबेडकर की आलोचना को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने से इस मान्यता को धक्का पहुंचेगा कि गीता अथाह ज्ञान की सर्वकालिकए त्रुटिरहित व अंतिम स्त्रोत है।
यही बात गीता की स्त्रीवादी टीकाओं के बारे में भी सही है। गीता के एक प्रसिद्ध प्रसंग में अर्जुन युद्ध लड़ने से इस आधार पर इंकार करते हैं क्योंकि उसके कारण बड़े पैमाने पर मानव वध होगा। वे चिंतित हैं कि युद्ध के बाद अराजकता फैल जायेगी और महिलाओं की स्थिति में गिरावट आयेगी। युद्ध के परिणामस्वरूप 'कुलक्षय' होगा। कुल के क्षय से अपना आशय स्पष्ट करते हुए अर्जुन कहते हैं कि महिलाओं की स्थिति में गिरावट का अर्थ है अंतर्जातीय विवाह और वर्गीय व जातिगत ढांचे का बिखरना। स्पष्टतः इसका मतलब यह है कि अंतर्जातीय विवाह उन सबसे घातक कृत्यों में से एक है जो कोई मनुष्य कर सकता है और यह महिलाओं की स्थिति में गिरावट के कारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त, गीता यह भी कहती है कि महिलाओं का स्वयं का कोई वजूद नहीं है और वे अपने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में अपने पिता,पति व पुत्रों पर निर्भर हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि इस तरह के विचारों का इस्तेमालए दकियानूसी ताकतों द्वारा 'पारंपरिक' या 'सभ्य' भारतीय नारी को परिभाषित करने के लिए किया जाने लगेगा और इन स्थापित नियमों का जरा सा भी उल्लंघन करने वाली महिलाओं का दानवीकरण होने लगेगा।
इस प्रकार, गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने से जो सबसे बड़ा खतरा है वह समानता, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता को है.चाहे धर्मनिरपेक्षता की हमारी परिभाषा व समझ कुछ भी क्यों न हो। इसका मूल कारण यह है कि अत्यंत श्रद्धा से देखे जाने वाले किसी भी धार्मिक ग्रंथ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने के बाद उसके किसी भी प्रकार के आलोचनात्मक अध्ययन व विश्लेषण की सभी संभावनाएं समाप्त हो जायेंगी और असहमति के सभी स्वरए जो पहले से ही हाशिए पर हैं,पूरी तरह कुचल दिए जाएंगे।
-रिदिमा शर्मा
उनके इस कथन की देश के उदारवादी, प्रगतिशील तबकों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने भी न्यायमूर्ति दवे के विचारों का विरोध किया और उनपर अपनी चिंता जताई। परंतु उनके विरोध और चिंता के आधार अलग थे। कुछ लोगों ने इस संभावना पर चिंता व्यक्त की कि शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में धार्मिक पुस्तकों का समावेश किया जा सकता है ;यद्यपि यह पहली बार नहीं है कि इस तरह की चिंता व्यक्त की गई हो। कुछ अन्य का तर्क था कि 'गीता पढ़ाना भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विरूद्ध नहीं है परंतु केवल गीता पढ़ाना धर्मनिरपेक्षता का मखौल बनाना है।' इस मतविभिन्नता का कारण है धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना व उसकी परिभाषा के संबंध में एकमत का अभाव। क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अधार्मिकता है अथवा धर्म.विरोध ? क्या इसका अर्थ यह है कि हम सभी धर्मों और उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करें या सभी धर्मों का विरोध करें?उदाहरणार्थ, क्रिस्टोफर जेफरलॉट का तर्क है कि 'यह सिद्धांत ;धर्मनिरपेक्षता न तो धार्मिकता का समर्थन करता हैए ,न अधार्मिकता का और ना ही यह धार्मिकता का विरोधी है। बल्कि यह धार्मिकता से पूरी तरह सुसंगत है। राज्य,समाज में धर्म के महत्व को स्वीकार करता है और आवश्यकतानुसार सभी धर्मावलंबियों के समर्थन में हस्तक्षेप करता है। वह हर किस्म की धार्मिक गतिविधियों के लिए माली इमदाद उपलब्ध करवाता हैए चाहे वह सिक्खों की पाकिस्तान में स्थित उनके तीर्थस्थलों की यात्रा हो या हिन्दुओं की अमरनाथ यात्रा';जेफरलॉट 2014। कुछ अन्यों का तर्क है कि धर्म का मूलचरित्र ही दमनकारी है और अगर हमें समाज में समानता लानी है तो हमें हर किस्म के धार्मिक ढांचे को तोड़ना होगा। अंबेडकर का एक प्रसिद्ध कथन है,'असमानता, हिन्दू धर्म की आत्मा है'। इस तरहए अंबेडकर के लिए प्रजातांत्रिक,समतावादी भारत के निर्माण के उनके स्वप्न को पूरा करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागना आवश्यक था।
किसी व्यक्ति के लिए धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा चाहे जो हो परंतु भगवद्गीता जैसी पुस्तक को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव खतरनाक और चिंतित करने वाला है। इसका कारण मात्र यह नहीं है कि धार्मिक पुस्तकें किसी धर्मविशेष से जुड़ी होती हैं वरन् यह भी है कि आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव,हमारी शिक्षा व्यवस्था का केन्द्रीय तत्व है। और गीता जैसी पवित्र पुस्तक के मामले में तो आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाना लगभग असंभव हो जायेगा। इसके अलावा,जस्टिस दवे ने जिन'अच्छी चीजों'के लेने की बात कही है उसकी भी गहरी पड़ताल जरूरी है। जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच, दमनकारी व भेदभावपूर्ण व्यवस्था का आधार हैं। और भारतीय परंपरा में इस जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच का न केवल महिमामंडन किया गया है वरन् उसे 'भारतीय संस्कृति' का अविभाज्य हिस्सा मान लिया गया है। अगर भगवद्गीता को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जायेगा तो क्या उस पर बहस करने और उसका आलोचनात्मक अध्ययन करने का अधिकार विद्यार्थियों और शिक्षकों को दिया जायेगा ? जिस देश में धार्मिक मुद्दों को आस्था से जोड़कर,बहस और आलोचना से ऊपर रखा जाना सामान्य और औचित्यपूर्ण माना जाता हो वहां क्या इस बात की जरा सी भी संभावना है कि किसी धार्मिक पुस्तक की आलोचनात्मक व्याख्या को सहन किया जायेगा? इसलिएए, गीता चाहे कितनी भी शिक्षाप्रद और विद्वतापूर्ण पुस्तक क्यों न हो, उसे स्कूलों में पढ़ाया जाना एक गलत और खतरनाक कदम होगा। यहां यह समझना उपयोगी होगा कि गीता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने से पहले उसके आलोचनात्मक अध्ययन को स्वीकार्य बनाना क्यों आवश्यक है। यह भी समझना आवश्यक है कि ;जस्टिस दवे की मान्यता के विरूद्ध गीता,ज्ञान और प्रेरणा का अनन्य स्त्रोत नहीं है।
यह सही है कि गीता को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और उसकी शिक्षाओं ने कई धर्मों के लोगों को प्रेरणा दी है। इनमें शामिल हैं महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक और अरविंदो। परंतु यह भी उतना ही सही है कि अंबेडकर ने गीता की कटु आलोचना की है। गीता पर अंबेडकर के विचार, उनकी अप्रकाशित पुस्तक 'वोल्युशन एण्ड काउंटर रेवोल्यूशन इन एन्शिएन्ट इंडिया';प्राचीन भारत में क्रांति व प्रतिक्रांति में उपलब्ध हैं।
अंबेडकर की दृष्टि में, ,'भगवद्गीता न तो धार्मिक पुस्तक है और ना ही दार्शनिक ग्रंथ। गीता केवल कुछ धार्मिक रूढि़यों को दार्शनिक आधारों पर उचित ठहराती है। यह प्रतिक्रांति का दर्शनशास्त्रीय बचाव है';पंडित,1992। अंबेडकर के अनुसार, बौद्ध धर्म द्वारा भारत में लाई गई नैतिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांति की प्रतिक्रिया में, ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना के लिए जो अभियान चलाया, वह प्रतिक्रांति थी। वे लिखते हैं, 'प्रतिक्रांति को दार्शनिक आधार पर उचित ठहराने का प्रयास अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। गीता दो तरह के तर्कों का सहारा लेती है। पहला तर्क यह है कि दुनिया नाशवान और मनुष्य नश्वर है। हर मनुष्य को एक न एक दिन मरना है। इसलिए ज्ञानियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि कोई मनुष्य स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होता है या वह हिंसा में अपनी जान गंवाता है। जीवन मिथ्या है इसलिए उसके न रहने पर आंसू बहाना व्यर्थ है। मृत्यु अवश्यम्भावी है इसलिए इस बात की क्यों फिक्र करना की वह कैसे और कहां होती है...एक अन्य रूढि़, जिसके समर्थन में गीता दर्शनशास्त्रीय तर्क देती है वह है चातुर्वर्ण....वह चातुर्वर्ण को इस आधार पर उचित ठहराती है कि उसका संबंध मनुष्य के जन्मजात और प्रकृतिदत्त गुणों से हैं..............एक तीसरी रूढि़, जिसका गीता बचाव करती है वह है कर्म मार्ग। गीता के अनुसार, 'कर्म मार्ग का अर्थ है मुक्ति पाने के लिए यज्ञों आदि जैसे कर्मकाण्ड करना।'
अंबेडकर की गीता की इस आलोचना का मैंने विस्तार से वर्णन इसलिए किया है क्योंकि अगर गीता को पाठशालाओं में पढ़ाया जायेगा तो इस तरह के आलोचनात्मक स्वरों को कुचल दिया जायेगा। आलोचनात्मक विश्लेषण को 'ज्ञान' के हाशिए पर पटक दिया जायेगा। इस तरह की आलोचनाओं को हम सही मानें या गलत परंतु यह निश्चित है कि उन पर कक्षाओं में चर्चा नहीं की जायेगी.और यह भी हो सकता है कि ऐसे विचार रखने वालों को खलनायक बताया जाने लगे.और इससे भारत का प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तानाबाना खतरे में पड़ जायेगा। यह सही है कि ज्ञान और इतिहास का प्रभुत्वशाली वर्ग का संस्करण पहले से ही समाज पर छाया हुआ है और केवल गीता को पढ़ाए जाने से वह अस्तित्व में आयेगाए ऐसा नहीं है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने से विद्यार्थियों की उनके और 'दूसरों'के धर्मों की समझ पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। संभावना यही है कि पाठ्यक्रमों में गांधीजी द्वारा की गई गीता की प्रशंशा तो शामिल की जायेगी परंतु अंबेडकर द्वारा उसकी निंदा को कोई स्थान नहीं मिलेगा। इसके दो संभावित कारण हैं। पहला यह कि हमारे पाठ्यक्रमों में पहले से ही अंबेडकर की तुलना में गांधी को बहुत अधिक महत्व दिया जाता रहा है और दूसरे, अंबेडकर की आलोचना को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने से इस मान्यता को धक्का पहुंचेगा कि गीता अथाह ज्ञान की सर्वकालिकए त्रुटिरहित व अंतिम स्त्रोत है।
यही बात गीता की स्त्रीवादी टीकाओं के बारे में भी सही है। गीता के एक प्रसिद्ध प्रसंग में अर्जुन युद्ध लड़ने से इस आधार पर इंकार करते हैं क्योंकि उसके कारण बड़े पैमाने पर मानव वध होगा। वे चिंतित हैं कि युद्ध के बाद अराजकता फैल जायेगी और महिलाओं की स्थिति में गिरावट आयेगी। युद्ध के परिणामस्वरूप 'कुलक्षय' होगा। कुल के क्षय से अपना आशय स्पष्ट करते हुए अर्जुन कहते हैं कि महिलाओं की स्थिति में गिरावट का अर्थ है अंतर्जातीय विवाह और वर्गीय व जातिगत ढांचे का बिखरना। स्पष्टतः इसका मतलब यह है कि अंतर्जातीय विवाह उन सबसे घातक कृत्यों में से एक है जो कोई मनुष्य कर सकता है और यह महिलाओं की स्थिति में गिरावट के कारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त, गीता यह भी कहती है कि महिलाओं का स्वयं का कोई वजूद नहीं है और वे अपने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में अपने पिता,पति व पुत्रों पर निर्भर हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि इस तरह के विचारों का इस्तेमालए दकियानूसी ताकतों द्वारा 'पारंपरिक' या 'सभ्य' भारतीय नारी को परिभाषित करने के लिए किया जाने लगेगा और इन स्थापित नियमों का जरा सा भी उल्लंघन करने वाली महिलाओं का दानवीकरण होने लगेगा।
इस प्रकार, गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने से जो सबसे बड़ा खतरा है वह समानता, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता को है.चाहे धर्मनिरपेक्षता की हमारी परिभाषा व समझ कुछ भी क्यों न हो। इसका मूल कारण यह है कि अत्यंत श्रद्धा से देखे जाने वाले किसी भी धार्मिक ग्रंथ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने के बाद उसके किसी भी प्रकार के आलोचनात्मक अध्ययन व विश्लेषण की सभी संभावनाएं समाप्त हो जायेंगी और असहमति के सभी स्वरए जो पहले से ही हाशिए पर हैं,पूरी तरह कुचल दिए जाएंगे।
-रिदिमा शर्मा
2 टिप्पणियां:
अपसे सहमत 1 भारतिय नारी फिर से द्रोपती बना दी जायेगी और पता नही क्या कुछ होगा बी जी पी ने तो अभी दुर्योधनों की भूमिका निभानी शुरू कर दी है1 मोदी अन्दरखाते हिन्दुत्व के लिये प्र्यासरत है1
बढ़िया लेखन , सर धन्यवाद !
I.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
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