गुरुवार, 20 नवंबर 2014

मानव शरीर पर हाथी का सिर!


पौराणिक कथाओं का जादूभरा संसार
बचपन में जो चीजें मुझे सबसे अच्छी लगती थीं उनमें से एक थी पौराणिक कथाएं सुनना। मैं उस दुनिया में खो जाता था जिसमें भगवान हनुमान, अपनी श्रद्धा के पात्र श्रीराम के भाई लक्ष्मण की जान बचाने के लिए हवा में उड़कर जड़ीबूटी लेने जाते हैं, भगवान राम, पुष्पक विमान में यात्रा करते हैं और जब भगवान गणेश के पिता, उनका सिर काट देते हैं तब उनके धड़ पर हाथी का सिर लगाकर उन्हें पुनर्जीवित किया जाता है। इन सब बातों पर मैं कोई प्रश्न नहीं उठाता था। मैं आसानी से यह स्वीकार कर लेता था कि कर्ण, अपनी माँ के कान से पैदा हुआ था और गांधारी के गर्भ से निकले पिंड को सौ भागों में बांटकर, सुरक्षित रख देने से कौरव पैदा हुए थे। ये सभी कल्पनाएं इतनी रंगीन और मन को लुभाने वाली थीं कि उन पर शंका करने का मेरा कभी मन ही नहीं हुआ। मैं जब बड़ा हुआ तो विज्ञान से मेरा साबका पड़ा। और फिर करीब एक दशक तक मैं मेडिकल कॉलेज की कठिन पढ़ाई से गुजरा। इस नये ज्ञान ने मुझे मेरे पौराणिक नायकों की कथाओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। शनैः शनैः मुझे यह समझ में आया कि तथ्य और फंतासी, इतिहास और पुराण अलग.अलग चीजें हैं। उस कल्पना की सुंदरता और उन कथाओं की मनमोहकता अब भी मेरे हृदय के किसी कोने में जीवित है परंतु वह मेरी दुनियावी सोच व समझ की निर्धारक नहीं है।
मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान, मुझे यह समझ में आया कि मानव शरीर कितना जटिल है। हम रक्त समूहोंए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणालियों, ऊतकविकृतिविज्ञान व जैवअनुकूलन आदि के बारे में जानते हैं। अगर हम भगवान गणेश के हाथी के सिर वाली कथा पर तार्किकता से विचार करें तो हम कई प्रश्नों से घिर जाएंगे। अगर किसी का सिर, उसके धड़ से अलग कर दिया जाए तो वह कितने मिनिट जीवित रह सकता है? सिर में ही मस्तिष्क होता है जो हमारे शरीर की सारी गतिविधियों, जिनमें श्वसन और दिल का धड़कना शामिल है,को नियंत्रित करता है। प्रश्न यह है कि कोई व्यक्ति, जिसका सिर काट दिया गया हो, कितने वक्त तक अपने कटे हुए अंग के प्रत्यारोपण का इंतजार कर सकता है और वह भी हाथी के सिर का। मनुष्य और हाथी के शरीर की प्रतिरक्षा प्रणालियों में क्या अंतर हैं? एक मनुष्य की किडनी के दूसरे मनुष्य में प्रत्यारोपण के पहले सैंकड़ों टेस्ट किए जाते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि दानदाता की किडनी को प्राप्तकर्ता का शरीर स्वीकार करेगा या नहीं। मोदी के अनुसार, प्राचीन भारत में अंग प्रत्यारोपण की ऐसी तकनीक उपलब्ध थी जो आज भी विज्ञान हमें सुलभ नहीं करा सका है।
गर्भ से निकले हुए पिंड को क्या सौ भागों में विभाजित किया जा सकता है? निषेचित डिंब ;फर्टिलाईज्ड ओवमद्ध को सौ भागों में विभाजित करने के लिए कितने उच्च दर्जे की माइक्रोसर्जरी की आवश्यकता पड़ेगी?क्या गर्भाशय, कान के पास हो सकता है? मुझे यह पक्का विश्वास है कि ये सारे प्रश्न उन डाक्टरों के दिमाग में आए होंगे, जिन्हें उनके अस्पताल के उदघाटन के अवसर परए प्रधानमंत्री का भाषण सुनने का सौभाग्य मिला। उन्होंने अपने भाषण में कहा, 'हमारे देश ने एक समय चिकित्साशास्त्र में जो उपलब्धियां हासिल की थीं उन पर हम गर्व महसूस कर सकते हैं। हम सबने महाभारत में कर्ण के बारे में पढ़ा है। अगर हम थोड़ी गहराई से सोचें तो हमें यह समझ में आएगा कि कर्ण अपनी मां के गर्भ से पैदा नहीं हुआ था। इसका अर्थ यह है कि उस समय अनुवांशिकी विज्ञान था। तभी कर्ण अपनी मां के गर्भ के बाहर जन्म ले सका .हम सब भगवान गणेश की पूजा करते हैं। उस समय कोई न कोई प्लास्टिक सर्जन रहा होगा जिसने मानव शरीर पर हाथी का सिर फिट कर दिया और प्लास्टिक सर्जरी की शुरूआत की'।
मुझे उम्मीद है कि जिस अस्पताल का उदघाटन प्रधानमंत्री ने किया, वहां के डाक्टरों का इस तरह की चमत्कारिक शल्य चिकित्सा करने का इरादा नहीं है और वे मनुष्य के धड़ पर जानवरों के सिर लगाने व निषेचित डिंब को सौ टुकड़ों में बांटने जैसे अभिनव प्रयोग नहीं करेंगे। इस देश में कई ऐसे लोग होंगे जो प्रधानमंत्री द्वारा भारत के अतीत का महिमामंडन करने से बहुत प्रसन्न हुए होंगे। प्रधानमंत्री चाहे जो भी कहें या सोचें, सत्य यही है कि प्राचीन भारत, पशुपालक समाज रहा होगा या उसमें खेतीबाड़ी की शुरूआत भर हुई होगी। मनुष्य ने आखेट कर अपना पेट भरना बंद किया ही होगा। जाहिर है कि तथ्य, प्रधानमंत्री की सोच से मेल नहीं खाते।
इन कहानियों के सही होने की कोई संभावना नहीं है। महाभारत और रामायण में जो कुछ बताया गया है उसे व्यवहार में लाना असंभव है। हमारी दुनिया ने भौतिकी, खगोल.विज्ञान, फिजियोलॉजी आदि में कल्पनातीत प्रगति की है परंतु आज भी मोदी जिन 'गौरवपूर्ण उपलब्धियों' की बात कर रहे हैंए उनका सपने में भी सच होना संभव नहीं है। विज्ञान ने पिछली कुछ सदियों में बहुत तेजी से प्रगति की है और आज का मानव समाज कुछ सौ सालों पहले के समाज की तुलना में बहुत ज्यादा जानता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राचीन भारत की कुछ उपलब्धियां थीं, जिन्हें हमें रेखांकित करना चाहिए और प्राचीन भारतीयों के ज्ञान और उनकी तार्किक कार्यशैली पर प्रकाश डालना चाहिए। इनमें से कुछ का संबंध चरक संहिता व सुश्रुत संहिता से है। ये दोनों पुस्तकें चिकित्साशास्त्र और शल्यक्रिया की तकनीकों के बारे में हैं। आर्यभट्ट के खगोल विज्ञान में योगदान को भुलाया नहीं जा सकता और ना ही इस तथ्य को नजरअंदाज किया जा सकता है कि शून्य का आविष्कार भारत में हुआ था। महत्वपूर्ण यह है कि हम देश में ऐसी तार्किक सोच का विकास करें, जिससे हम ज्ञान की अगली सीढि़यां चढ़ सकें और ऐसी तकनीकों व तरीकों को सीख सकें जिनसे हमारे वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान में वृद्धि हो सके।
ऐसा नहीं है कि इस तरह की पौराणिक कल्पनाएं केवल भारत तक सीमित रही हों। सभी पुरातन सभ्यताओं में दिलचस्प मिथक रहे हैं। मिस्त्र में प्रागैतिहासिक काल के क्लियोपेट्रा के किस्सों से हमें पता चलता है कि संभवतः अन्य मिस्त्र वासियों की तरह, क्लियोपेट्रा कई ऐसे भगवानों में आस्था रखती थीं जिनके सिर, जानवरों के थे। उदाहरणार्थ, हैड्जवर का सिर लंगूर का था और एन्यूबिस का लोमड़ी का। अगर मोदी और उनके कुल के अन्य सदस्य मिस्त्र की इन प्राचीन आस्थाओं के बारे में जानते होते तो शायद वे अब तक यह कहने लगते कि प्राचीन भारत ने मिस्त्र तक अपने ज्ञान का निर्यात किया। वे कहते कि क्या यह मात्र संयोग है कि हमारे भगवान गणेश की तरह के देवता अन्य सभ्यताओं में भी थे? क्या यह भी प्लास्टिक सर्जरी का मामला है या कल्पना की उड़ान?  मिस्त्र और चीन की पौराणिक कथाओं में इस तरह के अनेक काल्पनिक चरित्र हैं।
हम केवल आशा कर सकते हैं.और ईश्वर से प्रार्थना भी.कि सत्ताधारी, इन फंतासियों का अध्ययन करने के लिए सरकारी धन का दुरूपयोग न शुरू कर दें। एक आम आदमी यह विश्वास कर सकता है कि भगवान राम पुष्पक विमान में यात्रा करते थे या कोई और व्यक्ति उड़ने वाली कालीन पर बैठकर पलक झपकते ही कहीं से कहीं पहुंच जाता था। परंतु यदि वे लोग इन बातों पर विश्वास करने लगेंगे जो सत्ता में है तो इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि जनता के पैसे का इस्तेमाल इन फंतासियों पर 'शोध'  करने के लिए किया जाने लगेगा। पाकिस्तान में जिया.उल.हक के शासनकाल में बाकायदा संगोष्ठी आयोजित कर इस बात पर विचार किया गया था कि देश में बिजली की कमी को जिन्नात की सहायता से कैसे पूरा किया जा सकता है। देश में ऐसा वातावरण बना दिया गया था कि सारा ज्ञान पहले से ही हमारी पवित्र धार्मिक पुस्तकों में मौजूद है। आश्चर्य नहीं कि संगोष्ठी में एक 'वैज्ञानिक' का 'शोधपत्र' इसी पर आधारित था कि जिन्नात अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत हैं और उनका इस्तेमाल कर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि पाकिस्तान में बिजली की कोई कमी ही न रह जाए। हमें उम्मीद है कि पाकिस्तान सरकार ने जिन्नात पर शोध के लिए सरकारी धन आवंटित नहीं किया होगा। वैसे भी, विज्ञान का संबंध किसी धर्म या देश से नहीं होता। हिंदू विज्ञान और मुस्लिम विज्ञान जैसी कोई चीज नहीं होती।
व्यक्तिगत स्तर परए देश के लोग यह विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं कि पुराणों में लिखा एक.एक शब्द सत्य है। परंतु अगर सरकार का मुखिया यह मानने लगेगा कि फंतासी ही इतिहास है तो मुश्किल हो जाएगी। इससे वैज्ञानिक और तार्किक सोच को गहरा धक्का लगेगा। पौराणिक कथाओं, धर्म और राजनीति का मिश्रण हालात को और खराब कर देगा। विभिन्न पौराणिक कथाओं के बीच अपनी.अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का संघर्ष शुरू हो जाएगा। हम तो यही चाहेंगे कि वह दिन कभी न आए जब जिन्नात बिजली का समस्या का हल करें और गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी हो।
- राम पुनियानी

1 टिप्पणी:

kuldeep thakur ने कहा…

आदरणीय आप ने सुंदर विशलेषण किया है, पर मैं सोचता हूं कि जो विज्ञान ने आज किया है उसकी कल्पना भी 100 वर्ष पहले नहीं की होगी। इस लिये 5 हजार वर्ष पहले जो हुआ उसे केवल दंत कथा कहना शायद पूरी तरह उचित न होगा। जो विक्षान ने आज सत्य करके दिखाया हैउसका वर्नण वेदपूराणों में हुआ है। जिसे आज हम केवल कल्पनामात्र मान रहे हैं संभव है भविष्य में वो भी विक्षान के कारण सत्य होगा।

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