क्या समाज के किसी वर्ग की खानपान की आदतों को राजनीति का विषय बनाया जा सकता है ? क्या कोई पशु, जिसे समाज का एक तबका, माता की तरह पूजता हो, राजनीति की बिसात का मोहरा बन सकता है? यद्यपि यह अकल्पनीय लगता है परंतु यह सच है कि गाय, भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण कारक बनी हुई है। महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा पारित 'महाराष्ट्र पशु संरक्षण ;संशोधन विधेयक 1995' को हाल में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई। इस नए कानून के अंतर्गत, गाय के अलावा बैलों का वध भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। इस कानून का उल्लंघन करने वालों को पांच साल तक की कैद और 10 हजार रूपये तक के जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। जब मैंने विधेयक के शीर्षक में शामिल'पशु संरक्षण' शब्दों को पढ़ा तो मुझे लगा कि यह उन सभी पशुओं के बारे में होगा, जिनका भक्षण मानव करते हैं और या फिर यह समाज द्वारा जानवरों के विभिन्न गतिविधियों में इस्तेमाल से संबंधित होगा। परंतु आगे पढ़ने पर मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह कानून केवल गौवंश पर लागू होगा। लगभग एक दशक पहले, मुझे यह पढ़कर बहुत धक्का लगा था कि प्राचीन भारतीय इतिहास के अनन्य अध्येता प्रोफेसर द्विजेन्द्र नाथ झा को फोन पर कई लोगों ने यह धमकी दी कि अगर उन्होंने उनकी पुस्तक 'होली काउ बीफ इन इंडियन डायटरी ट्रेडिशन' ;भारतीय खानपान परंपरा में पवित्र गाय का मांस को प्रकाशित किया तो उन्हें इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। यह विद्वतापूर्ण पुस्तक,भारतीय खानपान में गौमांस भक्षण की सदियों पुरानी परंपरा पर केन्द्रित है।
जाहिर है कि नए कानून का उद्धेश्य गौमांस भक्षण और गौवध के बहाने अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना है। सन् 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान जो कई नारे उछाले गए थे उनमें से दो थे, 'मोदी को मतदान, गाय को जीवनदान' और'बीजेपी का संदेश, बचेगी गायए बचेगा देश'। ये नारे भाजपा के 'गौ विकास प्रकोष्ठ' द्वारा गढ़े गए थे।
धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति में इस तरह के भावनात्मक व पहचान से जुड़े मुद्दों का इस्तेमाल आम है। हम सब जानते हैं कि किस प्रकार भाजपा ने पहचान से जुड़े एक अन्य मुद्दे.राममंदिर.का इस्तेमाल कर अपनी राजनैतिक ताकत बढ़ाई थी। गाय,लंबे समय से संघ.भाजपा की राजनीति का हिस्सा रही है। गौवध के मुद्दे पर सैकड़ों दंगे भड़काए गए हैं। सन् 1964 में आरएसएस द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के गठन के बाद से, योजनाबद्ध तरीके से गाय का मुद्दा समय.समय पर उठाया जाता रहा है। गाय और गौमांस भक्षण के संबंध में कई गलत धारणाएं प्रचारित की जाती रही हैं। गौमांस भक्षण को मुस्लिम समुदाय से जोड़ना, इनमें से एक है। मुसलमानों के एक वर्ग 'कसाईयों' को घृणा का पात्र बना दिया गया है। इस तरह की बातें कही जाती रही हैं जिनसे यह भ्रम होता है कि गौमांस भक्षण, मुसलमानों के लिए अनिवार्य है। समाज के एक बड़े वर्ग में यह धारणा पैठ कर गई है कि चूंकि गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र है इसलिए मुसलमान उसका वध करते हैं। यह भी कहा जाता है कि गौमांस भक्षण की परंपरा भारत में मुस्लिम आक्रांताओं ने स्थापित की। ये सभी धारणाएं तथ्यों के विपरीत हैं परंतु फिर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा इन्हें सही मान बैठा है।
इन मिथकों का निर्माण शनैः.शनैः किया गया। गौमांस से जुड़े मुद्दों को लेकर गायों के व्यापारियों और दलितों के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा की खबरें आती रहती हैं। गाय का इस्तेमाल समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए किया जाता रहा है। गायों की खाल का व्यापार करने वाले दलितों की हरियाणा के गोहाना सहित कई स्थानों पर हत्या की घटनाएं हुई हैं और विहिप के नेताओं ने इन हत्याओं को औचित्यपूर्ण ठहराया है।
सच यह है कि गौमांस भक्षण और गायों की बलि देने की परंपरा भारत में वैदिक काल से थी। कई धर्मग्रंथों में यज्ञों के दौरान गाय की बलि देने का जिक्र है। अनेक पुस्तकों में गौमांस भक्षण का जिक्र भी है। तेत्रैय ब्राह्मण का एक श्लोक कहता है 'अथो अन्नम विया गऊ' ;गाय सच्चा भोजन है । अलग.अलग देवताओं को अलग.अलग किस्म का गौमांस पसंद था। प्रोफेसर डीएन झा ने अपनी उत्कृष्ट कृति में इस तरह के कई उदाहरणों को उद्वत किया है।
भारत में अहिंसा की अवधारणा कृषि आधारित समाज के विकास के साथ आई। जैन धर्म हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ था। बौद्ध धर्म भी अहिंसा का पैरोकार व पशु बलि का विरोधी था। इन धर्मों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत की प्रतिक्रिया स्वरूप व उसके प्रतिउत्तर में, काफी बाद में, ब्राह्मणवाद ने गाय को अपने प्रतीक के रूप में अंगीकार किया। चूंकि ब्राह्मणवाद स्वयं को हिन्दू धर्म के पर्याय के रूप में प्रचारित करना चाहता था इसलिए उसने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि गाय सभी हिन्दुओं के लिए पवित्र और पूजनीय है। सच यह है कि समाज के कई वर्ग, विशेषकर दलित और आदिवासी, लंबे समय से गौमांस भक्षण करते आए हैं। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के बढ़ते प्रभाव के चलते कई समुदायों, जिनके लिए गौमांस प्रोटीन का समृद्ध व सस्ता स्त्रोत था, को इसे छोड़ने या छोड़ने पर विचार करने के लिए बाध्य किया जा रहा है।
भाजपा और उसके संगी.साथियों के दावों के विपरीतए स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में एक बड़ी सभा में भाषण देते हुए कहा थाए 'आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राचीनकाल में विशेष समारोहों में जो गौमांस नहीं खाता था उसे अच्छा हिंदू नहीं माना जाता था। कई मौकों पर उसके लिए यह आवश्यक था कि वह बैल की बलि चढ़ाए और उसे खाए' 'शेक्सपियर क्लब, पेसेडीना, कैलीर्फोनिया में 2 फरवरी 1900 को'बौद्ध भारत' विषय पर बोलते हुए 'द कम्पलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद', खण्ड 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997 पृष्ठ 536
स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रायोजित कई अन्य अनुसंधान परियोजनाओं ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। इनमें से एक में कहा गया है 'ब्राह्मणों सहित सभी वैदिक आर्य, मछली, मांस और यहां तक कि गौमांस भी खाते थे। विशिष्ट अतिथियों को सम्मान देने के लिए भोजन में गौमांस परोसा जाता था। यद्यपि वैदिक आर्य गौमांस खाते थे तथापि दूध देने वाली गायों का वध नहीं किया जाता था। गाय को 'अघन्य' ;जिसे मारा नहीं जाएगा कहा जाता था परंतु अतिथि के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता था वह था 'गोघ्न' ;जिसके लिए गाय को मारा जाता है । केवल बैलों, दूध न देने वाली गायों और बछड़ों को मारा जाता था। 'सुनीति कुमार चटर्जी व अन्य द्वारा संपादित 'द कल्चरल हेरीटेज ऑफ इंडिया'खण्ड.1m प्रकाशक रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता में सी कुन्हन राजा का आलेख'वैदिक कल्चर', पृष्ठ 217
महाराष्ट्र सरकार के विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के पश्चात्, मुंबई के देवनार बूचड़खाने के हजारों श्रमिकों, जो इसके कारण अपना रोजगार खो बैठेंगे, ने 11 मार्च को इसके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया। अलग.अलग धर्मों के कई व्यवसायी महाराष्ट्र सरकार के इस साम्प्रदायिक कदम का विरोध करने के लिए मुंबई के आजाद मैदान में एकत्रित हुए। नए कानून के खिलाफ बंबई उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें यह कहा गया है कि गौमांस पर प्रतिबंध, नागरिकों के अपना भोजन चुनने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
हमें आशा है कि समाज, राजनैतिक लक्ष्य पाने के लिए किए पहचान से जुड़े इस तरह के मुद्दों के दुरूपयोग को रोकने के लिए आगे आएगा। लोगों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, यह उनपर छोड़ दिया जाना चाहिए और मांस के व्यवसाय से जुड़े श्रमिकों और व्यवसायियों से उनकी रोजी.रोटी नहीं छीनी जानी चाहिए।
-राम पुनियानी
जाहिर है कि नए कानून का उद्धेश्य गौमांस भक्षण और गौवध के बहाने अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना है। सन् 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान जो कई नारे उछाले गए थे उनमें से दो थे, 'मोदी को मतदान, गाय को जीवनदान' और'बीजेपी का संदेश, बचेगी गायए बचेगा देश'। ये नारे भाजपा के 'गौ विकास प्रकोष्ठ' द्वारा गढ़े गए थे।
धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति में इस तरह के भावनात्मक व पहचान से जुड़े मुद्दों का इस्तेमाल आम है। हम सब जानते हैं कि किस प्रकार भाजपा ने पहचान से जुड़े एक अन्य मुद्दे.राममंदिर.का इस्तेमाल कर अपनी राजनैतिक ताकत बढ़ाई थी। गाय,लंबे समय से संघ.भाजपा की राजनीति का हिस्सा रही है। गौवध के मुद्दे पर सैकड़ों दंगे भड़काए गए हैं। सन् 1964 में आरएसएस द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के गठन के बाद से, योजनाबद्ध तरीके से गाय का मुद्दा समय.समय पर उठाया जाता रहा है। गाय और गौमांस भक्षण के संबंध में कई गलत धारणाएं प्रचारित की जाती रही हैं। गौमांस भक्षण को मुस्लिम समुदाय से जोड़ना, इनमें से एक है। मुसलमानों के एक वर्ग 'कसाईयों' को घृणा का पात्र बना दिया गया है। इस तरह की बातें कही जाती रही हैं जिनसे यह भ्रम होता है कि गौमांस भक्षण, मुसलमानों के लिए अनिवार्य है। समाज के एक बड़े वर्ग में यह धारणा पैठ कर गई है कि चूंकि गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र है इसलिए मुसलमान उसका वध करते हैं। यह भी कहा जाता है कि गौमांस भक्षण की परंपरा भारत में मुस्लिम आक्रांताओं ने स्थापित की। ये सभी धारणाएं तथ्यों के विपरीत हैं परंतु फिर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा इन्हें सही मान बैठा है।
इन मिथकों का निर्माण शनैः.शनैः किया गया। गौमांस से जुड़े मुद्दों को लेकर गायों के व्यापारियों और दलितों के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा की खबरें आती रहती हैं। गाय का इस्तेमाल समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए किया जाता रहा है। गायों की खाल का व्यापार करने वाले दलितों की हरियाणा के गोहाना सहित कई स्थानों पर हत्या की घटनाएं हुई हैं और विहिप के नेताओं ने इन हत्याओं को औचित्यपूर्ण ठहराया है।
सच यह है कि गौमांस भक्षण और गायों की बलि देने की परंपरा भारत में वैदिक काल से थी। कई धर्मग्रंथों में यज्ञों के दौरान गाय की बलि देने का जिक्र है। अनेक पुस्तकों में गौमांस भक्षण का जिक्र भी है। तेत्रैय ब्राह्मण का एक श्लोक कहता है 'अथो अन्नम विया गऊ' ;गाय सच्चा भोजन है । अलग.अलग देवताओं को अलग.अलग किस्म का गौमांस पसंद था। प्रोफेसर डीएन झा ने अपनी उत्कृष्ट कृति में इस तरह के कई उदाहरणों को उद्वत किया है।
भारत में अहिंसा की अवधारणा कृषि आधारित समाज के विकास के साथ आई। जैन धर्म हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ था। बौद्ध धर्म भी अहिंसा का पैरोकार व पशु बलि का विरोधी था। इन धर्मों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत की प्रतिक्रिया स्वरूप व उसके प्रतिउत्तर में, काफी बाद में, ब्राह्मणवाद ने गाय को अपने प्रतीक के रूप में अंगीकार किया। चूंकि ब्राह्मणवाद स्वयं को हिन्दू धर्म के पर्याय के रूप में प्रचारित करना चाहता था इसलिए उसने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि गाय सभी हिन्दुओं के लिए पवित्र और पूजनीय है। सच यह है कि समाज के कई वर्ग, विशेषकर दलित और आदिवासी, लंबे समय से गौमांस भक्षण करते आए हैं। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के बढ़ते प्रभाव के चलते कई समुदायों, जिनके लिए गौमांस प्रोटीन का समृद्ध व सस्ता स्त्रोत था, को इसे छोड़ने या छोड़ने पर विचार करने के लिए बाध्य किया जा रहा है।
भाजपा और उसके संगी.साथियों के दावों के विपरीतए स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में एक बड़ी सभा में भाषण देते हुए कहा थाए 'आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राचीनकाल में विशेष समारोहों में जो गौमांस नहीं खाता था उसे अच्छा हिंदू नहीं माना जाता था। कई मौकों पर उसके लिए यह आवश्यक था कि वह बैल की बलि चढ़ाए और उसे खाए' 'शेक्सपियर क्लब, पेसेडीना, कैलीर्फोनिया में 2 फरवरी 1900 को'बौद्ध भारत' विषय पर बोलते हुए 'द कम्पलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद', खण्ड 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997 पृष्ठ 536
स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रायोजित कई अन्य अनुसंधान परियोजनाओं ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। इनमें से एक में कहा गया है 'ब्राह्मणों सहित सभी वैदिक आर्य, मछली, मांस और यहां तक कि गौमांस भी खाते थे। विशिष्ट अतिथियों को सम्मान देने के लिए भोजन में गौमांस परोसा जाता था। यद्यपि वैदिक आर्य गौमांस खाते थे तथापि दूध देने वाली गायों का वध नहीं किया जाता था। गाय को 'अघन्य' ;जिसे मारा नहीं जाएगा कहा जाता था परंतु अतिथि के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता था वह था 'गोघ्न' ;जिसके लिए गाय को मारा जाता है । केवल बैलों, दूध न देने वाली गायों और बछड़ों को मारा जाता था। 'सुनीति कुमार चटर्जी व अन्य द्वारा संपादित 'द कल्चरल हेरीटेज ऑफ इंडिया'खण्ड.1m प्रकाशक रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता में सी कुन्हन राजा का आलेख'वैदिक कल्चर', पृष्ठ 217
महाराष्ट्र सरकार के विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के पश्चात्, मुंबई के देवनार बूचड़खाने के हजारों श्रमिकों, जो इसके कारण अपना रोजगार खो बैठेंगे, ने 11 मार्च को इसके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया। अलग.अलग धर्मों के कई व्यवसायी महाराष्ट्र सरकार के इस साम्प्रदायिक कदम का विरोध करने के लिए मुंबई के आजाद मैदान में एकत्रित हुए। नए कानून के खिलाफ बंबई उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें यह कहा गया है कि गौमांस पर प्रतिबंध, नागरिकों के अपना भोजन चुनने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
हमें आशा है कि समाज, राजनैतिक लक्ष्य पाने के लिए किए पहचान से जुड़े इस तरह के मुद्दों के दुरूपयोग को रोकने के लिए आगे आएगा। लोगों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, यह उनपर छोड़ दिया जाना चाहिए और मांस के व्यवसाय से जुड़े श्रमिकों और व्यवसायियों से उनकी रोजी.रोटी नहीं छीनी जानी चाहिए।
-राम पुनियानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें