जालौन जिले के सुरपति गांव के अमर सिंह दोहरे उस वक्त चर्चा में आए जब यह मामला सामने आया कि उच्च जाति के लोगों के साथ खाना खा लेने के बाद उनकी नाक काट ली गई। उच्च जाति के लोगों ने दोहरे की नाक इसलिए काट ली कि उनकेसाथ खाना खाने की वजह से समाज में उनकी नाक कट गई थी। यह घटना उत्तर प्रदेश के उस दलित बाहुल्य गांव की है जिसमें दलित आबादी पचास फीसदी से अधिक है। वैसे तो न सिर्फ यह बुंदेलखंड या फिर यूपी ही नहीं बल्कि देश की ऐसी घटनाओं के लिए जाना जाता है बस फर्क इतना सा है कि इन घटनाओं पर देश ‘शर्मसार’ होकर इंडिया गेट पर ‘कैंडिल’ नहीं जलाता है। पर जिस बुंदेलखंड क्षेत्र को एसटी/एससी आयोग ने भी दलित ंिहंसा के लिए अति संवेदनशील घोषित किया है उस प्रदेश में यह कैसा ‘समाजवाद’ या फिर ‘बहुजनवाद’ पल रहा है, इसकी तफ्तीश जरूरी हो जाती है। क्योंकि यहां यह तर्क भी नहीं टिकता कि दलित या फिर पिछड़ा सत्ता को नियंत्रित नहीं कर रहा है।
ठीक इसी दौर में उस राजनीति जिसके खिलाफ गोलबंद होने के नारे के साथ ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति सत्ता के शिखर पर पहुंची हैं उसी ने पिछले दिनों अछूतों को धर्मयोद्धा करार देते हुए ‘कोई नहीं दलित-अछूत, सब हैं भारत माता के सपूत’ का नारा दिया। विहिप नेता अशोक सिंघल द्वारा फरवरी 2015 में इलाहाबाद के विहिप सम्मेलन से किया यह आह्वान हो या फिर 1983में भाजपा के समरसता आंदोलन के दौरान कालाराम मंदिर के पुजारी का दलितों के प्रति अपने पूर्वजों के व्यवहार पर मांफी मांगने की परिघटना स्पष्ट संकेत देती हैं कि हिन्दुत्वादी राजनीति दलितों को समाहित करने के लिए हर स्तर पर समरस हो सकती है। जिस कालाराम मंदिर में प्रतिरोध स्वरूप जब अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों के प्रवेश के वक्त उनकी हत्याएं की जाती हैं उस मंदिर के इस लचीलेपन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
यह तब और जरूरी हो जाता है जब यूपी में बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या गोबर-गणेश की पूजा को अंधविश्वास व आडंबर बताते हुए नकारते हैं तो बसपा की सुप्रिमो मायावती इसे मौर्या के निजी विचार कहते हुए किनारा कर लेती हैं। यह सब उस उत्तर प्रदेश में हो रहा है जहां इसी बुंदेलखंड में सितंबर 2014 में झांसी के एक दलित युवक को उच्च जाति के लोगों ने मल-मूत्र ही नहीं खिलाया बल्कि उस युवक के प्राइवेट पार्ट में आग भी लगा दिया। यह सवाल हो या फिर ऐसे बहुतेरे सवाल इन सवालों को न उठाने के पीछे ठोस विचार काम करता है। बहरहाल, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिकअधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन रिहाई मंच ने इस सवाल को न सिर्फ उठाया बल्कि फरवरी में विधानसभा सत्र के दौरान ‘इंसाफ दो’ धरना देकर अमर सिंह दोहरे के इंसाफ की मांग की। पर सवाल यह है कि सामाजिक न्याय और दलित राजनीति की जुगाली करने वाले नेता अंधविश्वास व रूढि़वादी विचारों के खिलाफ उस दौर में चुप्पी साध रखे हैं जब नरेन्द्र दाभोलकर और गोविंद पंसारे की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी
जाती है कि वह उन दकियानूस विचारों के खिलाफ सशक्त जनप्रतिरोध खड़ा करते हैं। इसके विपरीत जिस दूसरी राजनीति ‘तिलक, तराजू और तलवार’ को जूते मारने की बात कहकर व्यापक दलित समाज को संबोधित करते हुए सत्ता का सफर तय किया वह ‘गोबर-गणेश’ के सहारे सोशल इंजीनियरिंग कर रही है। 2012 के विधानसभा चुनावों में एक बसपा नेता ने तर्क दिया कि भारतीय राजनीति कीमुख्यधारा से दलित और ब्राह्मण कटे रहे हैं, इसलिए यह गठजोड़ जरूरी है।
दलित अस्मिताओं की राजनीति अपने इतिहासबोध से कोसों दूर मनुवादी व्यवस्था
में ही अपने अस्तित्व की तलाश कर रही है। एक तरफ दलित नेता अपनी अस्मिताओं का रोना रोते हैं, वहीं जब सवाल दलित उत्पीड़न का आता है तो वोट बैंक की राजनीति का पहाड़ा पढ़ाने लगते हैं। वस्तुतः दलित राजनीति अपने अपमानबोध से संघर्षों की यात्रा को भुला चुकी है। तभी तो दल राजनीति का खुद को अगुवा बताने वाले ‘लाल फीता धारियों’ के वर्चस्व वाले संगठन भी दलित हिंसा पर चुप्पी साध लेते हैं और अपना दायित्व जनपदीय, प्रादेशिक व राष्ट्रीय सम्मेलनों तक ही सीमित रखते हैं। जब व्यवहारिक राजनीति की बात आती है तो सरकारी नौकरी की दलील देते हुए और उसमें बना रहना ‘दलित समाज’ के लिए कितना जरूरी है, कहते हुए प्रतिरोध की संस्कृति को नकार देते हैं। वह जरूर मूल निवासियों के गौरवशाली इतिहास का प्रवचन करते हैं पर उस इतिहास के व्यवस्था विरोधी तेवर को वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ न खड़ा हो इसका हर संभव प्रयास करते हैं। ऐसा इसलिए कि उनका अस्तित्व बरकरार रहे।
एक तरफ जब देश ‘नमामि गंगे’ में मशगूल है तो वहीं इसकी कर्ता धर्ता और बुंदेलखंड इलाके से ही सांसद उमा भारती के निर्वाचन क्षेत्र में एक दलित की इसलिए हत्या कर दी जाती है कि उसने उन सामंती तत्वों की पार्टी को वोट नहीं दिया था। ऐसे में आदर्श गांव की जो परिपाटी देश में रचने की कोशिश की जा रही है उसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही है। अब सवाल यह है कि क्या केन्द्र सरकार संघ के ‘आदर्श ग्राम’ के एजेंण्डे पर तो काम नहीं कर रही है? आरएसएस के पास आदर्श ग्रामों को स्थापित करने का एक पुरातनपंथी खाका है। जिसमें दलितों और पिछड़ों का सैन्यीकरण करते हुए उनको उच्च जातियों का रक्षक अथवा हिंदू धर्म का योद्धा बताया जाता है। यदि उत्तर भारत में संघ द्वारा प्रचारित धारणाओं पर गौर करें तो पूरा मामला साफ हो जाता है। उदाहरण के तौर पर दलित जातियों के बाल्मीकी और पासी समुदाय को लिया जा सकता है। बाल्मीकी समुदाय को संघ परिवार ने क्षत्रिय बताते हुए यह धारणा
गढ़ी है कि वे उन्होंने मुसलमान बनना नहीं स्वीकार किया भले ही इसके एवज में उनसे मल-मूत्र साफ करवाया जाने लगा। ठीक इसी तरह पासी जाति को सूअर पालन की नसीहत जमीनी स्तर पर संघ परिवार के नेताओं द्वारा दी जाती रही है। ताकि पहले की तरह वह सूअर पालन करके आदर्श ग्रामों की मुसलमानों से रक्षा करें। 2014 लोकसभा का चुनाव इस बात की पुष्टि करता है कि संघ परिवार और भाजपा का यह अस्मिताओं का मायाजाल इस तरह फैल चुका है जिसका कोई काट दलित राजनीति के पास नहीं है।
कमण्डल की राजनीति के गर्भ से उपजी अस्मिताओं की राजनीति के पास शायद अब नैतिक साहस भी नहीं बचा है कि वह दलित हिंसा पर अपना प्रतिरोध दर्ज करा पाए। इसीलिए अमर सिंह दोहरे की नाक काटे जाने पर अस्मितावादी राजनीति आपराधिक चुप्पी साधे हुये है।
-अनिल कुमार यादव
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