मंगलवार, 31 मार्च 2015

फर्जी डिग्री : डॉ राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय .


किसी राष्ट्र के बौद्धिक स्तर का आकलन वहां की शिक्षा व्यवस्था के स्तर पर निर्भर करती हैं। शिक्षा का पतन किसी भी राष्ट्र के पतन का द्योतक होता है और जब शिक्षा के कर्णधार ही क्षुद्र स्वार्थवश शिक्षा की नैया डुबोने लग जायें तो शिक्षा और राष्ट्र को पूरी तरह से रामभरोसे ही समझना चाहिए। व्यावसायिकता की मानसिकता का यह चरम बिन्दु है जब व्यक्ति ने सब कुछ व्यावसायिक ही समझ लिया है। वर्तमान समय में शिक्षा की व्यवसायिकता को देखते हुए यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि विद्या मन्दिर धन उगाही और शोषण के अड्डे बन गए हैं। जहां अयोग्य शिक्षितों की फौज तैयार की जा रही है। इन विद्या मन्दिरों द्वारा भारत के जिस युवा भविष्य का निर्माण किया जा रहा है वह भार साबित होगा और आज की थकी मांदी कानून व्यवस्था, खूंखार राजनीतिक व्यवस्था, नपुंसक नौकरशाही और शिक्षा के सामन्ती जिम्मेदारान; इन चारों की चैकड़ी ने शिक्षा को ऐेसे गर्त की ओर धकेल दिया है जिसके आगे अंधकार के सिवा कुछ नहीं है। यह अभी सबकी आंखो को नहीं दिखायी देता क्योंकि उन पर स्वार्थ, अज्ञानता, कूपमण्डूकता, उदासीनता इत्यादि का पर्दा पड़ा हुआ है। हकीकत यह है कि यह शिक्षा की वह भयावह स्थिति है जो आने वाली पीढ़ी की मानसिक विकलांगता इस स्तर तक बिगाड़ देगी जिसे सुधारने में सदियां शहीद हो जाएंगी। स्थिति बन्दूक से निकली गोली की हो जाय इससे पहले देश की शिक्षा के कर्णधार शिक्षा को लेकर सचेत हो जायं और दृढ़निष्ठ कर्तव्य में लग जायं।
    बात डाॅ0 राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों की है। गत दशक में महाविद्यालय कुकुरमुत्तों के अनुपात में उगे और शिक्षा को भी कुकुरमुत्ते के स्तर तक पहुँचाने में समूचे खानदान के साथ जुट गये। मान्यताएं मिलती गयीं और महाविद्यालय बढ़ते रहे। इन्ही के साथ रोपित भ्रष्टाचार भी बढता रहा। शिक्षा के मालवीयों का असंख्य संख्या में अवतार हुआ। जिन्होने अपने अपने अनुसार शिक्षा का पिण्डदान किया। शिक्षा मन्दिर के महन्तों ने शिक्षा को मन्दिर से निकालकर बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। यह सब किसी एक के द्वारा या अचानक नहीं हुआ। इसकी जड़ भी है और उसके नाश की दवा भी। इन महाविद्यालयों का शासनादेश से छत्तीस का सम्बन्ध होता है। स्ववित्तपोषित वित्तशोषित होते जा रहे हैं। महाविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार प्रत्यक्ष प्रकट है। बड़ा ही दुखद आश्चर्य होता है कि यह सब साक्षात होता देखकर राजनीति और प्रशासन दोनो ही मौन है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या कहा जा सकता है।
    स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों को संचालित करने हेतु समय समय पर विभिन्न शासनादेश जारी होते रहे हैं जो निश्चित ही स्वागत योग्य हैं। छात्रों की संख्या में जिस अनुपात में वृद्धि हूई उस अनुपात में महाविद्यालय खोल पाना सरकार के वश में नही था या फिर उन्होनंे कोशिश नहीं की। फलतः स्ववित्तपोषित व्यवस्था अस्तित्व में आयी। इसके शासनादेशों में महाविद्यालय के मानकों का निर्धारण किया गया, जिसका दुरूपयोग ज्यादा हुआ सदुपयोग बहुत कम। शोषण अभिभावक, प्राध्यापक और सरकारी अनुदानो का हुआ।
    महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर नियुक्ति की अपनी योग्यताएं हैं। योग्य प्राध्यापक की नियुक्ति के आधार पर विश्वविद्यालय सम्बन्धित महाविद्यालय को विषय का आवंटन, मान्यता आदि प्रदान करता है। आज यह सिस्टम आम हो गया है कि अभ्यर्थी के कागजात लेकर अनुमोदन तो करवा लिये जाते हैं लेकिन उन्हे पढ़ाने के लिए नही बुलाया जाता। वे कहीं अलग पढ़ाते है और अनुमोदन भी एकाधिक काॅलेजों से चलता रहता है। काॅलेज में अनुमोदित प्राध्यापक के स्थान पर अन्य लोग पढ़ाते है जो सामान्यतः नाॅनक्वालीफाइड होते हैं। एक अभ्यर्थी का अनुमोदन एकाधिक काॅलेज से होना अपराध है। जबकि व्यवहार में यह आम है। इसमें कभी कभी दोनो पक्ष की सहमति होती है और कभी कभी इस अपराध की जानकारी उस अभ्यर्थी को नहीं होती जिसका अनुमोदन उसकी बगैर जानकारी के हो जाता है। हद तो तब हो जाती है जब विश्वविद्यालय यह सब जानकार मौन बना रहता है और कोई कार्रवाई नही करता। इससे भ्रष्टाचार को शह मिलती है। शायद ही ऐसा कोई महाविद्यालय हो जहां पर समस्त अनुमोदित प्राध्यापक अध्यापन करते हैं।
प्राध्यापकोें के वेतन भुगतान का शासनादेश व्यावहारिक न होने से वह प्रबन्ध तंत्र का हथियार बन गया है जिसका प्रहार प्राध्यापक झेलता है। शासनादेश में पचहत्तर से अस्सी प्रतिशत तक वेतन मद में खर्च करने का प्रावधान है। जिसे कोई भी समझदार या गैर समझदार उचित नही कह सकता है। शासनादेश के अनुपालन में गिने चुने नाम मात्र महाविद्यालयों में प्राध्यापकों को मानक के अनुकूल वेतन मिलता होगा। सर्वाधिक संख्या ऐसे काॅलेजों की मिलेगी जहां के प्राध्यापको को मानकानुकूल वेतन नहीं मिलता (कहीं कहीं खाते पर भी नहीं दिया जाता)।सी0पी0कटौती तो गधे के सर की सींग ही समझिये। वेतन सम्बन्धी शासनादेश की पंगुता ने प्रबन्ध को मनमाना वेतन देने के लिए निरंकुश छोड़ दिया है और इसका खामियाजा वह शिक्षक पीढ़ी भुगत रही है जो उसे लेने को अभिशप्त है।
प्राध्यापक के निष्कासन से सम्बन्धित भी शासनादेश है। इस शासनादेश में कुछ त्रुटियां भी हैं। जैसे अनुमोदित प्राध्यापक का हर तीसरे या पांचवे साल नवीनीकरण कराना। एक तरह से टीचर को ठेके पर नियुक्ति देने जैसा है। नियमतः प्राध्यापक का निष्कासन विश्वविद्यालय द्वारा होना चाहिए लेकिन देखा यही गया है कि वह महाविद्यालय में विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त समय तक के लिए नही अपितंु प्रबन्ध समिति की मर्जी तक होता है। प्राध्यापक अस्थिरता के अवसाद से ग्रसित होता रहता है।
निरंतर और भयंकर होती जाती नकल प्रथा के विषदन्त ने शायद ही किसी स्ववित्तपोषित काॅलेज पर निशान न छोड़े हों। जिस तरह से आज शिक्षा के तथाकथित मालवीयों ने नकल को महाविद्यालयों का मानक बना लिया है। शिक्षा मन्त्री के काॅलेज से सामूहिक नकल पकड़ी जाती है। जो महाविद्यालय जितना ही अधिक नकल करा सकता है वह उतना ही अधिक छात्रों के एडवीसन पाता है। छात्र आकर एडमीशन कराता है फिर प्रवेश पत्र लेने आता है (अगर कोई परिचित काॅलेज मे हुआ तो वह भी घर ही पहुंच गया) और फिर परीक्षा देने। इसी प्रकार मात्र कुछ दिन आकर वह स्नातक और परास्नातक की डिग्री पा जाता है। ऐसे सिर्फ परीक्षा के दिनों आने वाले छात्रों की संख्या कोई कम नहीं है। जब उसी काॅलेज के बच्चे उसी काॅलेज में परीक्षा देंगे तो परीक्षा कैसे होगी ये तो सब जानते हैं।
तमाम काॅलेज ऐसे भी है जहां के पुस्तकालयों में दरिद्रता का साकार रूप दिखायी पड़ता है। एक तो छात्र की पढ़ने में रूचि की कमी है दूसरे पुस्तकालय के नाम पर खाना पूर्ती। पाठ्यक्रम की तो पुस्तकें शायद मिल जाएंगी लेकिन पत्र पत्रिकाएं पाठ्यक्रम से सम्बघित अन्य उपयोगी पुस्तको का दर्शन तो शायद ही मिले। पुस्तकालयाध्यक्ष की नियुक्ति में भी प्राध्यापक नियुक्ति जैसी खामियां है जो प्रबन्ध समिति को मनमाना करने को प्रेरित करती है।
बहुत काॅलेजो में क्लर्को की संख्या बहुत कम देखी जाती है। क्लर्को का आभाव, छात्रों की अधिक संख्या के कारण प्राध्यापको उन कागजों को निपटाता है। तमाम प्रबन्ध समिति का व्यवहार प्राध्यापकों के प्रति तानाशाही जैसा होता है। वे प्राध्यापकों पर मिलिट्री जैसा अनुशासन रखना चाहते हैं और तमाम रखते भी हैं। टीचर टीचर न रहकर बाबू बन जाता है।
ऐसा नहीं है कि उच्च शिक्षा के इन स्ववित्तपोषित संस्थानों की यह बीमारी लाइलाज है। चूँकि बीमारी का कारण है तो इसका समाधान भी है। पहली समस्या प्राध्यापकों के एकाधिक काॅलेजो के अनुमोदन की है जिसके कारण एक टीचर का अनुमोदन अनेक काॅलेजो से चलता रहता है और विश्वविद्यालय को गलत जानकारी देकर महाविद्यालयों को संचालित किया जाता है। वेतन भुगतान आदि की प्रक्रिया भी घपले में चलती रहती है। ऐसे में विश्वविद्यालय का यह दायित्व अपरिहार्य हो जाता है कि वह प्राध्यापक के अनुमोदन सम्बन्धी प्रक्रिया में पारदर्शिता लाते हुए अनुमोदित प्राध्यापकों का विवरण आॅनलाइन करे। प्रदेश स्तर पर प्राध्यापको का अनुमोदन आॅनलाइन हो जाने से एक प्राध्यापक का अनुमोदन एक ही काॅलेज से होगा जिससे योग्य प्राध्यापकों द्वारा अध्यापन सम्भव हो सकेगा। आॅनलाइन हो जाने से प्राध्यापक भी उसी काॅलेज मे अध्यापन कर सकेगा जहां से उसका अनुमोदन चल रहा है। महाविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने में विश्वविद्यालय को यह कदम अबिलम्ब उठाना होगा और यहीं से भ्रष्टाचार निवारण की ठोस शुरुवात करनी होगी।
प्राध्यापकों एवं अन्य कर्मचारियों के वेतन भुगतान हेतु स्पष्ट शासनादेश है कि शुल्क के रुप में प्राप्त आय का पचहत्तर से अस्सी प्रतिशत वेतन मद में खर्च किया जाएगा। अधिकांश महाविद्यालय ऐसे राजनीतिज्ञों के है जिनका सत्ता और राजनीति में काफी दखल होता है। लाखों करोड़ो रूपये खर्च करके महाविद्यालय अगर इतना रूपया वेतन मद में खर्च कर देेंगे तब तो वो फुटपाथ पर आ जाएंगे। आज शिक्षालय खोलना समाज सेवा नही है यह अर्थोपार्जन का माध्यम है। आज यह कहते आसानी से सुना जा सकता है कि आज के समय में सबसे बढि़या धन्धा स्कूल खोलना है। यह सही भी है आज पता नही कितने पूंजीपतियो ने राजनीतिज्ञों ने अपनी काली कमाई से स्कूल खोलकर अपने काले धन को गोरा बना लिया है। ऐसे में उनसे पचहत्तर से अस्सी प्रतिशत  वेतन मद में खर्च करने की अपेक्षा करना हास्यास्पद है। शासन को चाहिए कि वेतन सम्बन्घी शासनादेश को व्यवहारिक रूप दे। फीस के रूप में प्राप्त आय से वेतन का निर्धारण न करके न्यूनतम वेतनमान की व्यवस्था करे। शासनादेश के अनुपालन में वेतन भुगतान खाते से देना अनिवार्य करे। चूकि भविष्य केवल सरकारी प्राध्यापकों का ही नही होता है आज की महंगायी में नाम मात्र वेतन पर गुजारा करने वाले योग्य प्राध्यापकों का भी होता है। अतः सी0पी0एफ0 कटौती को अनिवार्य रूप से लागू किया जाना चाहिए।
प्राध्यापक के निष्कासन से सम्बन्धित शासनादेश व्यवहारिक है लेकिन  व्यवहार मे लाया नहीं जाता। वैसे तो प्राध्यापक का निष्कासन विश्वविद्यालय की संस्तुति से ही होता है लेकिन हकीकत यह है कि काॅलेज मे प्राध्यापक प्रबन्ध समिति की मर्जी तक कार्य कर सकता है। वह जब चाहे तब उसे हटा सकता है। ऐसे में प्राध्यापक अस्थिरता और पराधीनता की मानसिकता में जीता है। जब सरकारी प्राध्यापक और स्ववित्तपोषित प्राध्यापक की योग्यता समान रखी गयी है, कार्य समान रखा गया है तो अगर समान वेतन नही दे सकते तो नियुक्ति को तो स्थायी करने का पक्ष बनता ही है। प्राध्यापको का अनुमोदन स्थायी किया जाय या उन्हे अनुमोदन पत्र की जगह नियुक्ति पत्र दिया जाय। निश्चित अवधि पर नवीनीकरण करवाते रहने से पता क्या हित शासन, या विश्वविद्यालय का है यह समझ में नही आता। लगता है कि यह नियम प्राध्यापकों के मानसिक शोषण और उसकी पराधीनता को बनाये रखने के लिए बनाया गया है।
इन महाविद्यालयों में व्याप्त नकल व्यवस्था एक ऐसी समस्या बन चुकी है जिसका स्थायी समाधान अबिलम्ब खोजा जाना अति आवश्यक है। जब शिक्षालयों के संचालक नकल कराने को परम ध्येेय मान बैठे हों तब इसके विषय में सहज ही समझा जा सकता है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली नकल को रोकने में सक्षम नही हो सकती। जब उसी काॅलेज के छात्र उसी काॅलेज मे परीक्षा देंगे तो नकल तो करेंगे ही। विश्वविद्यालय प्रशासन को चाहिए कि नकल रोकने के लिए ठोस कदम उठाये। इस क्रम में सबसे पहला कदम यह उठाना होगा कि परीक्षा केन्द्रो को स्थायी न किया जाय। ऐसा करके ही काफी हद तक तक परीक्षा की सुचिता और पवित्रता बनायी रखी जा सकती है।
पुस्तकालय, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि के सम्बन्ध को विश्वविद्यालय को चाहिए कि वह महाविद्यालयो में मानको के औचक निरीक्षण की पारदर्शिता पूर्ण व्यवस्था करें। मानक पूरे न करने की दशा में विश्वविद्यालय द्वारा तुरन्त वैधानिक कार्रवाई की जानी चाहिए। क्लर्को की संख्या भी मानकानुकूल होना चाहिए।
विश्वास नही होता कि यह भ्रष्टाचार विश्वविद्यालय और प्रशासन की जानकारी में नही है। अगर जानकारी मे होने के बावजूद इस पर आज तक कोई ठोस कदम नही उठाया गया तो इसका क्या कारण हो सकता है यह आज के बुद्धिजीवियों के लिए चिन्तन से ज्यादाा चिंता का विषय है। और अगर इतना प्रत्यक्ष और विकराल भ्रष्टाचार उसके संज्ञान में नही है तो शिक्षा के जिम्मेदार अपनी कुर्सी पर बैठे रहने के योग्य नहीं हैं। जब ऐसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने वाले ही अंधे, बहरे, गूंगे की भूमिका निभाएंगे तो अदम जी की ये पंक्तियां ही रास्ता तलाशने पर विवश होंगी-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत, ये बात कह रहा हूँ मै होशो हवाश में।
---------------डॉ.अनिल कुमार  सिंह


1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अन्तर्राष्ट्रीय नूर्ख दिवस की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (01-04-2015) को “मूर्खदिवस पर..चोर पुराण” (चर्चा अंक-1935 ) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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