रविवार, 5 अप्रैल 2015

घोर प्रतिगामी समय में एक योद्धा का जाना:जितेन्द्र रघुवंशी

 दुख चाहे जितना सघन हो, उसका आघात चाहे जितना गहरा, आंसू अन्ततः ख़ुश्क हो ही जाते हैं। स्पष्ट दिखाई न पड़ने के कारण मुझे नेत्र विशेषज्ञ से सम्पर्क करना पड़ा। जांच के बाद उन्होंने बताया कि अधिक पढ़ने के कारण आपकी आखें ख़ुश्क हो गयी हैं, यानी उनमें ड्राइनेस आ गयी है। कम से कम छः माह आंखो में दवा डालनी पड़ेगी। सो मैं आई ड्राप के सहारे दुनिया देख रहा हूं और पत्र पत्रिकाएं पढ़ पा रहा हूं। कुछ लिखने की भी कोशिश करता हूं।
    व्यवस्था के हाथों सफ़दर हाशमी की निमर्म जघन्य हत्या के बाद जितेन्द्र रघुवंशी का असमय, अत्यंत आकस्मिक रूप सेंहम सब को तड़पता बिलखता छोड़ कर चले जाना सांस्कृतिक साहित्यक व बौद्धिक जगत को भीतर तक हिला गया है। वेजन सांस्कृतिक आन्दोलन के अग्रणी नायक थे। अपने समय के संस्कृति कर्मियों, युवाओं व राजनैतिक कार्यकर्ताओं मे रचनात्मक उत्तेजना भर देने वाले उतने ही बहुआयामी संभावनाशील तथा प्रतिबद्ध एक दूसरे नायक का सहसा साथ छोड़कर जाना भीतर तक झझकोर कर रख गया। कितनी उम्मीदें लगाये बैठे थे हम, नित नई ऊर्जा पाने की आस में। नाव नहीं डूबी खेवन हार ही साथ छोड़ गया।
    औपनिवेशिक ग़़ुलामी से मुक्ति पाते ही हमारी राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था ने हत्या के कितने नये तरीके़ ईजाद कर लिए हंै। स्वाइन फुलू ऐसा ही एक तरीक़ा है। सामूहिक नरसंहार की ये भी एक पद्धति है। मनुष्य अपने-अपने परिजनों के प्रति ही संशय ग्रस्त रहेगा तो बुद्धि उसकी कुन्द हो ही जायेगी। धर्मवाद, आडम्बरकर्मकाण्ड की बल्ले-बल्ले। लोग जाति एवम् धर्म के नाम पर लड़ते रहें, एक दूसरे को मारते रहें। लूट ख़ोरों के सहारे टिकी ज़ालिम व्यवस्था को और क्या चाहिए। तीव्र गति से आधुनिक होता प्रगति करता हमारा महान देश बीसवीं सदी समाप्त होने से पहले ही 21वीं सदी में पहंुच गया परन्तु हम 18वीं व 19वीं सदी की आशंकाओं, यातनाओं, आघातों, घरों में घुसे एवम वातावरण में सक्रिय अपने शत्रुओं से मुक्ति नहीं प्राप्त कर पाये। हम पे कब कहां से कैसे हमला हो जाये हम नहीं जानते। कैसी धोर विडम्बना है कि इस प्रकार की अनेकानेक यातनाओं, हिन्दुस्तानी अवाम को अभावों, वंचनाओं का दंश देने उन्हें आधुनिकता प्रगति के अवदानों से दूर रखने के षडयंत्रों के खि़लाफ चलने वाले संघर्षों के लिए जीवन समर्पित कर देने की रोमांचक मिसाल क़ायम करने वाला एक दृढ़ संकल्पी योद्धा ही समय की क्रूरता का शिकार हो गया। जितेन्द्र किसी एक व्यक्ति का नहीं, उनके भीतर उपस्थित कई व्यक्तियों, एक संस्था, एक आन्दोलन का नाम है। उन्हें देखकर उनसे मिलकर जननाट्य आन्दोलन के भविष्य के प्रति आश्वस्ति की अनुभूति होती थी तथा अतीत की समूची भव्यता एवम रोमांच सामने आ खड़ा होता था एक से एक चमकीले सितारों की श्रंखला उर्दू में कहें तो कहकशंा। अनिल डी सिल्वा, हिमाँशु राय, विनयराय, बलराज साहनी, ख़्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफरी, ए0के0 हंगल, हबीब तनवीर रितविक घटक, आबिद रिज़वी विश्वनाथ आदिल, रशीद जहां, ज़ोहरा सहगल उजरा सहगल, सथ्यू, सत्यदेव दुबे, शैलेन्द्र, दमयंती, भीष्म साहनी स्वयम उनके पिता राजेन्द्र रघुवंशी, बिशनकपूर, बिशन खन्ना, अमृत लाल नागर, रजि़या सज्जाद, ज़हीर क़ुदसिया ज़ैदी, रफ़ी पीर, नियाज़ हैदर कैफ़ी आज़मी, शौकत कैफ़ी। अतीत और वर्तमान परम्परा और आधुनिकता को साधने का, उनके प्रति समान सजगता व सृजनशीलता बनाये रखने का उनमंे अदभुत कौशल था। ठीक उसी प्रकार जैसे लोक नाट्य परम्परा व आधुनिकरंगमंच के प्रति उनका कौतुहल एक सी सघनता रखता था। ये जानना विस्मय कारी हो सकता है कि वे भारतीय भाषाओं के रंगमंचों पर होने वाले विविध प्रयोगों, अन्वेषणों के साथ ही पाश्चात्य मंच की अधिकांश गतिविधियों नई विकसित होती पद्धतियों के बारे में चैंकाने वाली वाक़ाफि़यत रखते थे। इस वाक्फि़यत को वे अपनी सृजनात्मकता का हिस्सा बनाते हुए नित नया सीख़ने की ललक उनमें लगातार बनी रहती, ठीक उसी तरह जैसे उर्दू की प्रगतिशील शायरी व कथा साहित्य की उनकी जानकारी कभी कभी विस्मित करती थी। अक्सर वे इस बारे में नई अजानी बातें बताते। संस्मरणों का तो उनके पास जैसे एक विपुल ख़ज़ाना था। चुटकुले सुनने व सुनाने में उनकी ख़ासी दिल चस्पी थी। ये उनकी जि़न्दा दिली का सुबूत था। देसी चुटकुलों का आनन्द अपनी जगह उनसे रूसी चुटकुले सुनने का लुत्फ़ अलग था। आगरा में सम्पन्न शोक सभा में उनकी पत्नी का कथन कि वे ज्ञान का भण्डार थे, अतिश्योक्ति नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व का यथार्थ है। कल्पना कर पाना कठिन है कि इतनी सारी प्रतिभाओं ज्ञान विद्वता तथा दक्षताओं से सम्पन्न कोई व्यक्ति इतना सहज-हंसमुख हो सकता है। खाने-पीने घूमने के भी शौक़ीन। गंभीर बहसों विमर्शों में उनकी हिस्सेदारी उनके बहुआयमी व्यक्तित्व का एक दूसरा पक्ष उभारती थी। दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन था। वहां नामवर सिंह जी ने अपने व्यक्तव्य में कश्मीर के सम्बन्ध में एक ऐसी बात कह दी जिससे कई अन्य प्रतिभागियों के साथ वे भी सहमत नहीं थे, संयोग से वे मेरे ही बग़ल में बैठे हुए थे। सबसे पहले तो उन्होंने मुझसे ही अहमति प्रकट की। मैं उनके साथ था। नामवर जी की तक़रीर ख़त्म होते ही वे मंच की ओर गये और संचालक से अपनी बात कहने की अनुमति चाही। पूरी बे बाक़ी से उन्होंने अपनी असहमति दर्ज करायी। ग़लत से असहमति का उनका विवेक उतना ही प्रखर था जितना सच के समर्थन की उनकी तत्परता। उन्होंने एक बार मुझे महिला विरोधी हिंसा पर व्याख्यान देने के लिए आगरा आमंत्रित किया। आतिथ्य सत्कार की प्रशंसा मैं नहीं करूंगा, अपने व्याख्यान के दौरान जब मैंने भारतीय शिक्षा तंत्र में सक्रिय स्त्री अस्मिता पर आघात करने वाले तत्वों, विशेष रूप से पाठय सामग्री की ओर संकेत किया तो वहां उपस्थित एक पूर्व सांसद अथवा विधायक ने देश में गुरूकुल पद्धति की शिक्षा लागू करने की बात कही। इस पर मैंने जो कुछ कहा वो अपनी जगह, जितेन्द्र ने जो उस कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे, उन सज्जन का प्रतिवाद करते हुए तीखे पन से कहा कि इस प्रकार के विचार समाज को प्रगतिशील व आधुनिक बनाने के हमारे अभियान को क्षति पहुंचाते हंै। बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते हैं।
 आप में से बहुत से लोगो ने डा0 रशीद जहां का नाम सुना होगा। कथा कार व रंगकर्मी थीं, साथ में चिकित्सक और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी राजेन्द्र रघुवंशी के साथ वो भी मई 1943 में इप्टा के स्थापना सम्मेलन बम्बई में उपस्थित थीं। उनका शुमार इप्टा के संस्थापकों में होता है। उनके पति महमूदुज़्ज़फर विद्वान होने के साथ ही कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी थे। उनका सम्बन्ध एक रईस राज परिवार से था। रशीद जहां की क्षमताओं, अवास व अन्य साधनों का बड़ा हिस्सा पार्टी और प्रगतिशील लेखन व जन नाटय आन्दोलन को समर्पित था। वे इनकी गतिविधियो के लिए चन्दा जमा करने, फर्श पर दरी बिद्दाने, स्टेज सजाने, कहानी पढ़ने, से लेकर नाटक लिखने, तथा उनमे अभिनय करने तक का काम करती थीं। एक बार उन्हांेने अपने पति की शादी में मिली मूल्य वान शेर वानियां तथा अपने सभी अत्यंत क़ीमती कपड़े राजेन्द्र रधुवंशी जी को दे दिए थे कि इप्टा के नाटकों में इनका हस्बेज़रूरत इस्तेमाल हो सके।
राजेन्द्र रधुवंशी के रहते उनके आवास कि़दवाई पार्क (राजा की मंडी) जाने का मतलब होता था एक ऐसे लोक में पहुँचना जहां नाटक की रिहलसल, नृत्य व गायन का अभ्यास, प्लेरीडिंग से लेकर हारमोनियम व ढोलक की धुनांे एवमं तालें सुनने को मिल सकती थीं। समूचे परिवार को इन समस्त गतिविधियांे में संलग्न देखने का अपना भिन्न रोमांच था, अदभुत और उत्तेजक। राजेन्द्र जी का वृद्धावस्था में बच्चों किशोरो को गाना सिखाते देखना तो ग़ज़ब का अनुभव होता। राजेन्द्र जी का ये रंग संस्कार जितेन्द्र से होते हुए उनके समूचे परिवार का, संस्का बना। जिसमें बाद की पीढि़यां भी शामिल हैं। इस प्रकार उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को वंशानुगत मानने में संकोच नहीं होना चाहिए। इस स्मरण के साथ कि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का समृद्ध पुस्तकालय उनके बाबा ने स्थापित किया था। अतः विश्वास किया जा सकता है कि ये परम्परा उसी विविधता गरिमा से आगे भी जारी रहेगी। समूची इप्टा के समान वो भी धर्म निरपेक्ष पक्ष धरता से प्रतिबद्ध फ़ासीवादी साम्प्रदायिकता विरोधी जनाभियान के ज़रूरी भागीदार थे। वे इस मोर्चे पर कई तरह से अपना योगदान देते थे जैसे कि नाटक, गीत, भाषण, लेखन, ऐसे अवसरों पर सबको साथ ले चलने की उनकी छटपटाहट एक बड़ा मूल्य रचती थी। पारदर्शी लोकतांत्रिकता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा थी।
 आगरा, जहाँ उनके जीवन का बड़ा हिस्सा गुज़रा, सांस्कृतिक विवधता तथा सामाजिक समरसता के अनेक अध्याय अपने में संजोये है जहां सामंती अवशेषों के बीच संगीत, आध्यात्म, मेलों उत्सवों का अपना अलग ठाठ है। वो आगरा अपनी समूची चमक व लय के साथ उनके भीतर प्रत्येक सांस के साथ धड़कता था। आगरा की इस विविधता के प्रति वे उतने ही संवेदनशील थे जितने कि बामपंथी माक्र्सवादी वैज्ञानिकता के प्रति। इन्हीं विशिष्टताओं का प्रतिनिधित्व करते आगरा ही के लाल नज़ीर अकबराबादी उनके व उनके परिवार का आदर्श हंै। ताजमहल के पीछे स्थित नज़़ीर की मज़ार पर प्रत्येक बसंत पर जनोत्सव की जो बुनियाद राजेन्द्र जी ने रखी थी वो आज भी उसी शान से जारी है। मैं आगरा कई बार गया हँूं। नज़ीर की मज़ार भी गया लेकिन जीवन भर का अवसाद बन जाने वाले इस दंश को शायद मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा कि राजेन्द्र जी तथा जितेन्द्र के बार बार बुलाये जाने के बावजूद इच्छा होते हुए भी मैं इस उत्सव में कभी शरीक नहीं हो सका। जितेन्द्र की बहन ज्योत्सना ने जन ज्ञान विज्ञान समिति के लिए नज़ीर पर एक पठनीय पुस्तिका लिखी है।
    वे दिन जितेन्द्र के हमसे हमेशा के लिए बिछड़ने के दिन, धर्मान्धता रूढि़वाद, कर्मकाण्ड, जनदमन व अन्याय और सांप्रदायिकता के विरूद्ध किसी सधन धारदार अभियान के समान सक्रिय भाकपा के पूर्व विधायक कामरेड पानसरे की निर्मम क्रूर हत्या के विरूद्ध समूचे देश में निन्दा प्रतिरोध तथा विक्षोभ की अभिव्यक्ति के दिन थे। हम आर्द्रमन से सभाएं कर रहे थे, जुलूस निकाल रहे थे। उस दर्दनाक घटना से कुछ अर्सा पहले ही ढाका में खुली सड़क पर धार्मिक कट्टरवाद विरोधी एक बांग्लादेशी ब्लागर की सरेआम जघन्य हत्या के विरूद्ध भी हम चीख़ रहे थे, बाद में ऐसी कई इंसान मुख़लिफ़ घटनाएं घटती रही हैं, मानवता व संविधान के अपरा धी सम्मानित हो रहे हैं, हत्यारे कोर्ट से बरी किए जा रहे हैं। व्यापक रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय आन्दोलन की थाती बन आये सामाजिक राजनैतिक मूल्यों पर निर्लज्ज आघात हो रहे हैं, ऐसे में जितेन्द्र हमें बराबर याद आते रहे हैं । उनकी मोहक मुस्कुराहट अब भी हमारा पीछा करती है। उनकी संकल्प बद्धता हमें झिंझोड़ती है।
उनके व्यक्त्वि में व्याप्त ऊर्जा उत्साह तथा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की बेलौस प्रतिबद्धता उन्हें लगातार सक्रिय रखती थी। पार्टी कार्यक्रमों और मजदूर आन्दोलनों में, उनके मुकदमे इत्यादि में, उनकी दिलचस्पी व भागीदारी दूसरों को प्रेरित करती थी। कम्युनिस्ट पार्टी उसके कार्यक्रमों नीतियों में उनके विश्वास तथा उनके जुुझारूपन का ही परिणाम है कि निकट अतीत में सम्पन्न हुए आगरा पार्टी के जि़ला सम्मेलन में उन्हें सर्वसम्मति से जि़ला सचिव बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ। अपनी सृजनात्मक संगठनात्मक गतिविधियों के कारण जिससे उन्हें विनम्र असहमति प्रकट करनी पड़ी। इप्टा के राष्ट्रीय सचिव तथा प्रांतीय अध्यक्ष वो पहले ही से थे। उनके व्यक्तित्व का साहित्यिक पक्ष कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे एक साथ लेखक अनुवादक एवम् कवि-कथाकार की प्रतिभा अपने में संजोये हुए थे। वे छात्रप्रिय अध्यापक थे। अयोध्या आन्दोलन के अन्तर्गत अयोध्या मार्च के दौरान मैंने देखा कि सार्वजनिक सभाओं में जोशीले भाषण देने में अथवा नारे लगाने में वे किसी से पीछे नहीं थे। पिछले वर्षों में सोशल मीडिया-नेट के माध्यम से समान विचार धारा के लोंगों, संस्कृति कर्मियों, लेखकों तथा इप्टा की इकाइयों से सम्पर्क संवाद स्थापित करने, लोगों में नित नया उत्साह सृजित करने, नित नई जानकारियां देने, महत्वपूर्ण जो इस माध्यम पर घटित हो रहा है, लिखा जा रहा हैं उसे साझा करने का बीड़ा उठाये हुए थे। जो किसी सरल लक्ष्य की ओर बढ़ना नहीं था। बल्कि एक कठिन लक्ष्य को साधना था। वे ही मुझे फे़सबुक पर लाये। वे ही थे या उनके पिता जो बार-बार कहते थे, शकील साहब मुक्ति संघर्ष में लिखना मत छोडि़येगा। मौजूदा घोर प्रतिगामी समय में जबकि प्रगतिशील जनवादी कलाकर्म व मूल्यों के सम्मुख, चुनौतियां दिन प्रतिदिन अधिक जटिल होती जा रही है, उनका न रहना बुरी तरह साल रहा है।
कितने गुण, कितनी क्षमताएं, कितनी प्रताभाएं यकजा थीं उस एक आदमी में ।
ऐसी मेघाएं विरल होती हैं।
 वे विरल थे, अद्वितीय थे, बहुत बड़े थे।
 उन्हें सलाम लाल सलाम

शकील सिद्दीक़ी
टिकैतराय योजना, लखनऊ-17
मो0-09839123525
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून 20015 में प्रकाश्य

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (07-04-2015) को "पब्लिक स्कूलों में क्रंदन करती हिन्दी" { चर्चा - 1940 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

विनम्र श्रद्धांजलि ।

Mayur ने कहा…

दुख चाहे जितना सघन हो, उसका आघात चाहे जितना गहरा, आंसू अन्ततः ख़ुश्क हो ही जाते हैं।

विनम्र श्रद्धांजलि!

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