कचेहरी धमाकों के आरोपी हकीम तारिक कासमी को 24 अप्रैल 2015 को पुलिस द्वारा लगाए गए तमाम आरोपों में विद्वान जज एसपी अरविंद ने दोषी पाते हुए छः बार उम्र कैद बा मशक्कत, और 50000-50000 रूपया का तीन जुर्माना की सजा सुनाई। ऐसा बहुत कम ही होता है जब पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को अदालत ने अक्षरशः स्वीकार कर लिया हो। देश के इस बहुचर्चित मुकदमे में, तारिक कासमी और स्व० खालिद मुजाहिद की बेगुनाही साबित करने वाली जस्टिस निमेष आयोग की रिपोर्ट की मौजूदगी में अभियोजन की इतनी बड़ी कामयाबी किसी चमत्कार से कम नहीं है। आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तारियों के बाद यह पहला अवसर था जब तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी (गिरफ्तारी जाहिर किए जाने से दस दिन पहले किए गए अपहरण) के खिलाफ आन्दोलन चला, एफ.आई.आर. दर्ज कराई गई, सी.जी.एम. कोर्ट आजमगढ़ में मुकदमा कायम हुआ, धरने और जन सभाएँ हुईं, अखबारों में गिरफ्तारी दिखाए जाने से पहले दर्जनों खबरें भी छपीं, प्रदेश सरकार ने निमेष आयोग का गठन किया उसकी रिपोर्ट में तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी को
अवैध मानते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विधि अनुसार कार्रवाई करने की संस्तुति की गई। प्रदेश सरकार ने जन दबाव में इस रिपोर्ट को स्वीकार भी किया और सदन के पटल पर भी रखा लेकिन कार्रवाई रिपोर्ट नहीं लाई। शायद यह आतंकवाद से सम्बंधित पहला मुकदमा था जिसमें प्रत्यक्षदर्शियों ने निमेष आयोग के समक्ष और अदालत में अपनी गवाहियाँ दर्ज करवाईं। अदालत को बताया कि उन्होंने हकीम तारिक और खालिद मुजाहिद को क्रमशः रानी की सराय, आजमगढ़ और मडि़याहू, जौनपुर से 12 दिसम्बर और 16 दिसम्बर 2007 को एस.टी.एफ. के जवानों द्वारा अगवा करते हुए देखा था। दोनों 22 दिसम्बर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार नहीं हुए थे जैसा कि एस.टी.एफ. दावा कर रही है बल्कि उस दिन गिरफ्तारी दिखाई गई थी। क्या निमेष आयोग की रिपोर्ट को मुँह चिढ़ाता बाराबंकी सेशन कोर्ट का यह फैसला उन सवालों का जवाब देता है जो जस्टिस निमेष ने अपनी रिपोर्ट में उठाए थे। यहाँ यह गौर तलब है कि निमेष आयोग के समक्ष प्रस्तुत क्षेत्राधिकारी राजेश पाण्डेय ने अपने शपथपत्र में कहा है “एस.टी.एफ. कार्यालय में एस.टी.एफ. टीम से विचार विमर्ष कर रहा था कि तभी समय करीब 2ः30 बजे द्वारा मुखबिर एस.टी.एफ. टीम के पुलिस उपाधीक्षक एस आनंद, निरीक्षक अविनाश मिश्रा, उपनिरीक्षक विनय कुमार सिंह, उप निरीक्षक धनन्जय सिंह व उप निरीक्षक ओ.पी. पाण्डेय को सूचना मिली कि कुछ संदिग्ध व्यक्ति बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास समय करीब प्रातः 6ः00 बजे आने वाले हैं, जिनके सम्बंध आतंकवादी संगठन से हैं। इनके पास घातक शस्त्र व विस्फोटक पदार्थ भी हैं जो किसी संगीन घटना को अंजाम देने की नीयत से लेकर आ रहे हैं”। (रिपोर्ट-एकल सदस्यीय निमेष जाँच आयोग, पेज-105) इस हलफनामे से स्वतः स्पष्ट होता है कि 22 दिसम्बर को तारिक और खालिद की कथित गिरफ्तारी से पहले इन दोनों के किसी आतंकवादी घटना में शामिल होने के बारे में एस.टी.एफ. को जानकारी नहीं थी। एस.टी.एफ. के अनुसार गिरफ्तारी के बाद उनके पास से हथियार और विस्फोटक बरामद हुए और पूछताछ में यह पता चला कि उनके सम्बंध आतंवादी संगठन हूजी से हैं और वह कचेहरी सीरियल धमाकों में शामिल थे। इस तरह अगर 22 दिसमबर 2007 को इन दोनों की बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तारी
संदिग्ध साबित हो जाती है या यह साबित हो जाता है कि एस.टी.एफ. के जवानों ने उन्हें पहले ही अगवा कर लिया था और अपनी गैरकानूनी हिरासत में यातना का शिकार बनाया था जैसा कि अभियुक्तों का दावा है। ऐसे में हथियारों और विस्फोटकों की बरामदगी से लेकर कचेहरी धमाकों में उनकी संलिप्तता का आरोप खुद ही खारिज हो जाता है और निमेष आयोग की रिपोर्ट में इस गिरफ्तारी को पूरी तरह संदेहास्पद मानते हुए यह संस्तुति कि “अतः उपरोक्त घटना क्रम में सक्रिय भूमिका निभाकर विधि विरुद्ध कार्य करने वाले
अधिकारी, कर्मचारीगण को चिह्नित कर उनके विरुद्ध विधि के अनुसार कार्यवाही करने की संस्तुति की जाती है”। (रिपोर्ट- एकल सदस्यीय निमेष जाँच आयोग, पेज-235)
जस्टिस निमेष ने आजमगढ़, जौनपुर और बाराबंकी में घटना स्थलों का दौरा किया। स्थानीय लोगों से बात चीत की। अभियोजन पक्ष के 46 और बचाव पक्ष के 25 साक्षीगणों से शपथपत्र लिए इसके अलावा 45 अन्य गवाहों का आयोग की तरफ से परीक्षण किया गया। तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के मोबाइल की लोकेशन उनके बयान और बचाव पक्ष के साक्षीगण द्वारा दिए गए हलफनामे की पुष्टि करती है। मिसाल के तौर पर हकीम तारिक ने अपने हलफनामे में कहा है कि उसे शंकरपुर चेक पोस्ट रानी की सराय जनपद आजमगढ़ के पास से बुधवार के दिन दोपहर में सफेद टाटा सूमो सवार एस.टी.एफ. के अहलकारों ने जबरदस्ती गाड़ी में बैठा लिया और लेकर बनारस की तरफ चले गए। उसके बाद शाम को वहाँ से लखनऊ लाए, लखनऊ में रख कर प्रताडि़त किया और 22 दिसम्बर की सुबह बाराबंकी रेलवे स्टेशन लाकर वहाँ से गिरफ्तारी दिखाई। प्रत्यक्षदर्शियों ने भी निमेष कमीशन और बाराबंकी अदालत के सामने अपनी गवाही में इसकी पुष्टि की है। इसके अलावा हकीम तारिक के मोबाइल का लोकेशन भी 12 दिसम्बर को दिन में 12ः23 बजे रानी की सराय यू०पी० (ईस्ट) की है। इस तरह मोबाइल का लोकेशन, अभियुक्त तारिक कासमी का बयान, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान तथा अखबारों में छपी खबरें इस बात की तस्दीक करती हैं कि तारिक कासमी 12 दिसम्बर 2007 को रानी की सराय चेकपोस्ट पर थे और वहीं से उसे अगवा किया गया था। उसके बाद तारिक कासमी का कहना है कि उसी दिन शाम को उसे बनारस से लखनऊ ले जाया गया था। उसके मोबाइल का लोकेशन भी उसके बाद 13 दिसम्बर से 21 दिसम्बर तक का लखनऊ बताता है। तारिक कासमी के परिजनों ने भी रानी की सराय थाने में जो रिपोर्ट लिखवाई थी उसमें साफ कहा गया था कि तारिक का मोबाइल कभी आफ हो जाता है कभी आन। इसलिए उसको सर्वेलांस पर लगा कर पता किया जाए कि तारिक कहाँ है और उसे किन लोगों ने अगवा किया है? लेकिन पुलिस ने यह तकलीफ कभी नहीं उठाई। पुलिस का यह रवैया कोई पहेली नहीं बल्कि साफ संकेत था कि कुछ गलत हो रहा है और चूँकि उसमें बड़े अधिकारियों की भूमिका है इसलिए वह कुछ भी करने में असमर्थ हैं। बहुत कम मामलों में खासकर आतंकवाद से जुड़ी हुई किसी घटना में सिलसिलेवार चार-चार साक्ष्य (अभियुक्त एवं प्रत्यक्षदर्शियों के बयान, मोबाइल लोकेशन और अखबारों में छपी खबरें) एक दूसरे की पुष्टि करते हुए पाए जाएँ। इसके अलावा रानी की सराय थाने में लिखवाई गई रिपोर्ट और सी.जे.एम. की अदालत में किया गया मुकदमा भी इन साक्ष्यों पर अपनी मुहर लगाता है। लेकिन अदालत ने इतने मजबूत साक्ष्यों को नजरअंदाज करके हकीम तारिक को छः बार उम्रकैद और 50000-50000 रूपये के तीन जुर्माने की सजा सुनाई।
वास्ताविकता यह है कि जस्टिस निमेष आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद से ही उत्तर प्रदेश के पुलिस मुहकमें में हड़कम्प मचा हुआ था। जिस प्रकार से इस केस में अभियुक्तों को गैरकानूनी हिरासत में रख कर प्रताडि़त करने और झूठा मुकदमा बनाने का आरोप प्रदेश के बड़े पुलिस
अधिकारियों पर लगा था और आयोग की रिपोर्ट में उन्हें चिह्नित कर विधि अनुसार कार्यवाही करने की संस्तुति की गई थी इससे उन
अधिकारियों के पसीने छूट गए थे। खालिद मुजाहिद की फैजाबाद से पेशी के बाद लखनऊ वापस जाते हुए बाराबंकी में अचानक होने वाली मौत के बाद भी उन्हीं अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाते हुए रिहाई मंच ने लखनऊ में विधान सभा के सामने अनिश्चित कालीन धरना दिया था जो 121 दिनों तक चला था। धरने के माध्यम से भी इन
अधिकारियों की गिरफ्तारी की माँग लगातार की जाती रही थी और यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि अपनी जान बचाने के लिए निमेष आयोग के अनुसार “विधि विरुद्ध कार्य करने वाले (पुलिस) अधिकारी, कर्मचारीगण” कोई खतरनाक खेल भी खेल सकते हैं या अपने पद और अपने राजनैतिक सम्पर्कों का दुरुपयोग कर सकते हैं। खालिद मुजाहिद की मौत-हत्या को भी इसी नजरिए से देखा गया था और बाराबंकी अदालत के इस फैसले के बाद अखबारों में छपने वाली प्रतिक्रिया में भी इसका अक्स साफ तौर पर देखा जा सकता है। किसी ने इसे राजनैतिक फैसला कहा है तो किसी ने दबाव में दिया गया फैसला। रिहाई मंच ने सीधे तौर पर यह आरोप लगाया कि “इस फैसले ने साफ कर दिया है कि जिस तरीके से सरकार ने बाराबंकी में झूठी बरामदगी दिखाने वाले एसटीएफ के अधिकारियों के अलावा पूर्व डी.जी.पी. विक्रम सिंह पूर्व ए.डी.जी. बृजलाल समेत 42 पुलिस आई.बी.
अधिकारियों को बचाने के लिए निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर एक्शन नहीं लिया अब उसी काम को अदालत द्वारा करवाया जा रहा है”। (जाँच कमीशनों का सियासी खेल हुकूमत को बंद कर देना चाहिए रिहाई मंच, इनकलाब उर्दू, 27 अप्रैल, 2015, पेज-7) जजमेन्ट के पेज नं0-56 व 57 पर माननीय न्यायाधीश ने विवेचनाधिकारी पर अपनी टिप्पणी भी की है जो इस प्रकार है- ‘‘बचाव पक्ष की ओर से विद्वान अधिवक्ता ने अपने विस्तृत तर्कों में विवेचक पी0डब्लू0-8 के सम्बन्ध में यह आरोप लगाया कि विवेचक के द्वारा विवेचना के दौरान सत्यता जानने हेतु उन समाचार पत्रों या पत्रों की जो प्रति अभियुक्त के व्यपहरण के सम्बन्ध में उसे दी गई को विवेचना में सम्मिलित कर कोई जांच नहीं की गई, पर आरोप लगाते हुए कहा कि विवेचन ने निष्पक्ष विवेचना नहीं की बल्कि अभियुक्त के विरुद्ध फर्जी साक्ष्य गठित कर उसे दोषी साबित करने का प्रयास करता रहा। ऐसे विवेचक के द्वारा दिया गया निष्कर्ष साक्ष्य से ग्राह्य नहीं है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में मेरी राय है, विवेचक पी0डब्लू0-8 की जिरह की स्वीकृति से जाहिर है कि बचाव पक्ष ने विवेचना के दौरान उसे अभियुक्त के गुम होने या उसे अपहृत कर ले जाने के सम्बन्ध में विवेचक को समाचार-पत्रों की जो कटिंग या उच्चाधिकारियों को प्रेषित पत्रों की जो प्रतियाँ दी गईं, उन्हें विवेचक ने विवेचना में सम्मिलित न करके विवेचना की लापरवाही अवश्य नजर आ रही है।’’
राजनैतिक कलाबाजियाँ, अदालती दाँव-पेच, पुलिस के हथकंडे, साम्प्रदायिकता, कारपोरेट जगत के कुचक्र और एक आम नागरिक की सीमाएँ यह सब अपनी जगह, बड़ा सवाल यह है कि जिन लोगों ने अपनी आँखों से अपहरण की इस घटना को देखा, पूरे एक सप्ताह तक अखबारों में खबरें पढ़ते रहे, धरनों और प्रदर्शनों में भाग लिया या उसके साक्षी रहे, जिनकी आवाज मीडिया या सरकारी हल्कों तक नहीं पहुँच पाती है, वह इस फैसले के बारे क्या सोच रहे होंगे? वह सीधा साधा नागरिक जो अदालतों को इंसाफ का मंदिर समझता है और जिसने 22 दिसम्बर 2007 को हकीम तारिक और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी दिखाए जाने से पहले बहुत कुछ देखा, सुना और जाना था उसके मन में इस मंदिर के प्रति अब क्या तस्वीर होगी? माननीय उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर विगत में कई सख्त टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन इस मामले का अलग महत्व है। यह मामला गाँव के किसी झगड़े की तरह नहीं है। आजमगढ़ और जौनपुर में कम ही लोग ऐसे होंगे जिन्हें गिरफ्तारी दिखाए जाने के दिन से पहले ही इस बड़े खेल के बारे में जानकारी न हो चुकी रही हो। इस मामले की गूँज विभिन्न माध्यमों से प्रदेश और देश के जागरूक और सामाजिक सरोकार रखने वालों तक भी पहले ही पहुँच चुकी थी। ऐसे में इस फैसले से उन्हें जो आघात पहुँचा होगा उसकी भारपाई कैसे हो पाएगी। इस फैसले को एक व्यक्ति या एक परिवार किस्मत का सितम मान कर सह लेगा लेकिन न्यापालिका पर आस्था को जो चोट पहुँची है उसके जख्म लम्बे समय तक हरे रहेंगे।
अवैध मानते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विधि अनुसार कार्रवाई करने की संस्तुति की गई। प्रदेश सरकार ने जन दबाव में इस रिपोर्ट को स्वीकार भी किया और सदन के पटल पर भी रखा लेकिन कार्रवाई रिपोर्ट नहीं लाई। शायद यह आतंकवाद से सम्बंधित पहला मुकदमा था जिसमें प्रत्यक्षदर्शियों ने निमेष आयोग के समक्ष और अदालत में अपनी गवाहियाँ दर्ज करवाईं। अदालत को बताया कि उन्होंने हकीम तारिक और खालिद मुजाहिद को क्रमशः रानी की सराय, आजमगढ़ और मडि़याहू, जौनपुर से 12 दिसम्बर और 16 दिसम्बर 2007 को एस.टी.एफ. के जवानों द्वारा अगवा करते हुए देखा था। दोनों 22 दिसम्बर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार नहीं हुए थे जैसा कि एस.टी.एफ. दावा कर रही है बल्कि उस दिन गिरफ्तारी दिखाई गई थी। क्या निमेष आयोग की रिपोर्ट को मुँह चिढ़ाता बाराबंकी सेशन कोर्ट का यह फैसला उन सवालों का जवाब देता है जो जस्टिस निमेष ने अपनी रिपोर्ट में उठाए थे। यहाँ यह गौर तलब है कि निमेष आयोग के समक्ष प्रस्तुत क्षेत्राधिकारी राजेश पाण्डेय ने अपने शपथपत्र में कहा है “एस.टी.एफ. कार्यालय में एस.टी.एफ. टीम से विचार विमर्ष कर रहा था कि तभी समय करीब 2ः30 बजे द्वारा मुखबिर एस.टी.एफ. टीम के पुलिस उपाधीक्षक एस आनंद, निरीक्षक अविनाश मिश्रा, उपनिरीक्षक विनय कुमार सिंह, उप निरीक्षक धनन्जय सिंह व उप निरीक्षक ओ.पी. पाण्डेय को सूचना मिली कि कुछ संदिग्ध व्यक्ति बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास समय करीब प्रातः 6ः00 बजे आने वाले हैं, जिनके सम्बंध आतंकवादी संगठन से हैं। इनके पास घातक शस्त्र व विस्फोटक पदार्थ भी हैं जो किसी संगीन घटना को अंजाम देने की नीयत से लेकर आ रहे हैं”। (रिपोर्ट-एकल सदस्यीय निमेष जाँच आयोग, पेज-105) इस हलफनामे से स्वतः स्पष्ट होता है कि 22 दिसम्बर को तारिक और खालिद की कथित गिरफ्तारी से पहले इन दोनों के किसी आतंकवादी घटना में शामिल होने के बारे में एस.टी.एफ. को जानकारी नहीं थी। एस.टी.एफ. के अनुसार गिरफ्तारी के बाद उनके पास से हथियार और विस्फोटक बरामद हुए और पूछताछ में यह पता चला कि उनके सम्बंध आतंवादी संगठन हूजी से हैं और वह कचेहरी सीरियल धमाकों में शामिल थे। इस तरह अगर 22 दिसमबर 2007 को इन दोनों की बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तारी
संदिग्ध साबित हो जाती है या यह साबित हो जाता है कि एस.टी.एफ. के जवानों ने उन्हें पहले ही अगवा कर लिया था और अपनी गैरकानूनी हिरासत में यातना का शिकार बनाया था जैसा कि अभियुक्तों का दावा है। ऐसे में हथियारों और विस्फोटकों की बरामदगी से लेकर कचेहरी धमाकों में उनकी संलिप्तता का आरोप खुद ही खारिज हो जाता है और निमेष आयोग की रिपोर्ट में इस गिरफ्तारी को पूरी तरह संदेहास्पद मानते हुए यह संस्तुति कि “अतः उपरोक्त घटना क्रम में सक्रिय भूमिका निभाकर विधि विरुद्ध कार्य करने वाले
अधिकारी, कर्मचारीगण को चिह्नित कर उनके विरुद्ध विधि के अनुसार कार्यवाही करने की संस्तुति की जाती है”। (रिपोर्ट- एकल सदस्यीय निमेष जाँच आयोग, पेज-235)
जस्टिस निमेष ने आजमगढ़, जौनपुर और बाराबंकी में घटना स्थलों का दौरा किया। स्थानीय लोगों से बात चीत की। अभियोजन पक्ष के 46 और बचाव पक्ष के 25 साक्षीगणों से शपथपत्र लिए इसके अलावा 45 अन्य गवाहों का आयोग की तरफ से परीक्षण किया गया। तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के मोबाइल की लोकेशन उनके बयान और बचाव पक्ष के साक्षीगण द्वारा दिए गए हलफनामे की पुष्टि करती है। मिसाल के तौर पर हकीम तारिक ने अपने हलफनामे में कहा है कि उसे शंकरपुर चेक पोस्ट रानी की सराय जनपद आजमगढ़ के पास से बुधवार के दिन दोपहर में सफेद टाटा सूमो सवार एस.टी.एफ. के अहलकारों ने जबरदस्ती गाड़ी में बैठा लिया और लेकर बनारस की तरफ चले गए। उसके बाद शाम को वहाँ से लखनऊ लाए, लखनऊ में रख कर प्रताडि़त किया और 22 दिसम्बर की सुबह बाराबंकी रेलवे स्टेशन लाकर वहाँ से गिरफ्तारी दिखाई। प्रत्यक्षदर्शियों ने भी निमेष कमीशन और बाराबंकी अदालत के सामने अपनी गवाही में इसकी पुष्टि की है। इसके अलावा हकीम तारिक के मोबाइल का लोकेशन भी 12 दिसम्बर को दिन में 12ः23 बजे रानी की सराय यू०पी० (ईस्ट) की है। इस तरह मोबाइल का लोकेशन, अभियुक्त तारिक कासमी का बयान, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान तथा अखबारों में छपी खबरें इस बात की तस्दीक करती हैं कि तारिक कासमी 12 दिसम्बर 2007 को रानी की सराय चेकपोस्ट पर थे और वहीं से उसे अगवा किया गया था। उसके बाद तारिक कासमी का कहना है कि उसी दिन शाम को उसे बनारस से लखनऊ ले जाया गया था। उसके मोबाइल का लोकेशन भी उसके बाद 13 दिसम्बर से 21 दिसम्बर तक का लखनऊ बताता है। तारिक कासमी के परिजनों ने भी रानी की सराय थाने में जो रिपोर्ट लिखवाई थी उसमें साफ कहा गया था कि तारिक का मोबाइल कभी आफ हो जाता है कभी आन। इसलिए उसको सर्वेलांस पर लगा कर पता किया जाए कि तारिक कहाँ है और उसे किन लोगों ने अगवा किया है? लेकिन पुलिस ने यह तकलीफ कभी नहीं उठाई। पुलिस का यह रवैया कोई पहेली नहीं बल्कि साफ संकेत था कि कुछ गलत हो रहा है और चूँकि उसमें बड़े अधिकारियों की भूमिका है इसलिए वह कुछ भी करने में असमर्थ हैं। बहुत कम मामलों में खासकर आतंकवाद से जुड़ी हुई किसी घटना में सिलसिलेवार चार-चार साक्ष्य (अभियुक्त एवं प्रत्यक्षदर्शियों के बयान, मोबाइल लोकेशन और अखबारों में छपी खबरें) एक दूसरे की पुष्टि करते हुए पाए जाएँ। इसके अलावा रानी की सराय थाने में लिखवाई गई रिपोर्ट और सी.जे.एम. की अदालत में किया गया मुकदमा भी इन साक्ष्यों पर अपनी मुहर लगाता है। लेकिन अदालत ने इतने मजबूत साक्ष्यों को नजरअंदाज करके हकीम तारिक को छः बार उम्रकैद और 50000-50000 रूपये के तीन जुर्माने की सजा सुनाई।
वास्ताविकता यह है कि जस्टिस निमेष आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद से ही उत्तर प्रदेश के पुलिस मुहकमें में हड़कम्प मचा हुआ था। जिस प्रकार से इस केस में अभियुक्तों को गैरकानूनी हिरासत में रख कर प्रताडि़त करने और झूठा मुकदमा बनाने का आरोप प्रदेश के बड़े पुलिस
अधिकारियों पर लगा था और आयोग की रिपोर्ट में उन्हें चिह्नित कर विधि अनुसार कार्यवाही करने की संस्तुति की गई थी इससे उन
अधिकारियों के पसीने छूट गए थे। खालिद मुजाहिद की फैजाबाद से पेशी के बाद लखनऊ वापस जाते हुए बाराबंकी में अचानक होने वाली मौत के बाद भी उन्हीं अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाते हुए रिहाई मंच ने लखनऊ में विधान सभा के सामने अनिश्चित कालीन धरना दिया था जो 121 दिनों तक चला था। धरने के माध्यम से भी इन
अधिकारियों की गिरफ्तारी की माँग लगातार की जाती रही थी और यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि अपनी जान बचाने के लिए निमेष आयोग के अनुसार “विधि विरुद्ध कार्य करने वाले (पुलिस) अधिकारी, कर्मचारीगण” कोई खतरनाक खेल भी खेल सकते हैं या अपने पद और अपने राजनैतिक सम्पर्कों का दुरुपयोग कर सकते हैं। खालिद मुजाहिद की मौत-हत्या को भी इसी नजरिए से देखा गया था और बाराबंकी अदालत के इस फैसले के बाद अखबारों में छपने वाली प्रतिक्रिया में भी इसका अक्स साफ तौर पर देखा जा सकता है। किसी ने इसे राजनैतिक फैसला कहा है तो किसी ने दबाव में दिया गया फैसला। रिहाई मंच ने सीधे तौर पर यह आरोप लगाया कि “इस फैसले ने साफ कर दिया है कि जिस तरीके से सरकार ने बाराबंकी में झूठी बरामदगी दिखाने वाले एसटीएफ के अधिकारियों के अलावा पूर्व डी.जी.पी. विक्रम सिंह पूर्व ए.डी.जी. बृजलाल समेत 42 पुलिस आई.बी.
अधिकारियों को बचाने के लिए निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर एक्शन नहीं लिया अब उसी काम को अदालत द्वारा करवाया जा रहा है”। (जाँच कमीशनों का सियासी खेल हुकूमत को बंद कर देना चाहिए रिहाई मंच, इनकलाब उर्दू, 27 अप्रैल, 2015, पेज-7) जजमेन्ट के पेज नं0-56 व 57 पर माननीय न्यायाधीश ने विवेचनाधिकारी पर अपनी टिप्पणी भी की है जो इस प्रकार है- ‘‘बचाव पक्ष की ओर से विद्वान अधिवक्ता ने अपने विस्तृत तर्कों में विवेचक पी0डब्लू0-8 के सम्बन्ध में यह आरोप लगाया कि विवेचक के द्वारा विवेचना के दौरान सत्यता जानने हेतु उन समाचार पत्रों या पत्रों की जो प्रति अभियुक्त के व्यपहरण के सम्बन्ध में उसे दी गई को विवेचना में सम्मिलित कर कोई जांच नहीं की गई, पर आरोप लगाते हुए कहा कि विवेचन ने निष्पक्ष विवेचना नहीं की बल्कि अभियुक्त के विरुद्ध फर्जी साक्ष्य गठित कर उसे दोषी साबित करने का प्रयास करता रहा। ऐसे विवेचक के द्वारा दिया गया निष्कर्ष साक्ष्य से ग्राह्य नहीं है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में मेरी राय है, विवेचक पी0डब्लू0-8 की जिरह की स्वीकृति से जाहिर है कि बचाव पक्ष ने विवेचना के दौरान उसे अभियुक्त के गुम होने या उसे अपहृत कर ले जाने के सम्बन्ध में विवेचक को समाचार-पत्रों की जो कटिंग या उच्चाधिकारियों को प्रेषित पत्रों की जो प्रतियाँ दी गईं, उन्हें विवेचक ने विवेचना में सम्मिलित न करके विवेचना की लापरवाही अवश्य नजर आ रही है।’’
राजनैतिक कलाबाजियाँ, अदालती दाँव-पेच, पुलिस के हथकंडे, साम्प्रदायिकता, कारपोरेट जगत के कुचक्र और एक आम नागरिक की सीमाएँ यह सब अपनी जगह, बड़ा सवाल यह है कि जिन लोगों ने अपनी आँखों से अपहरण की इस घटना को देखा, पूरे एक सप्ताह तक अखबारों में खबरें पढ़ते रहे, धरनों और प्रदर्शनों में भाग लिया या उसके साक्षी रहे, जिनकी आवाज मीडिया या सरकारी हल्कों तक नहीं पहुँच पाती है, वह इस फैसले के बारे क्या सोच रहे होंगे? वह सीधा साधा नागरिक जो अदालतों को इंसाफ का मंदिर समझता है और जिसने 22 दिसम्बर 2007 को हकीम तारिक और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी दिखाए जाने से पहले बहुत कुछ देखा, सुना और जाना था उसके मन में इस मंदिर के प्रति अब क्या तस्वीर होगी? माननीय उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर विगत में कई सख्त टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन इस मामले का अलग महत्व है। यह मामला गाँव के किसी झगड़े की तरह नहीं है। आजमगढ़ और जौनपुर में कम ही लोग ऐसे होंगे जिन्हें गिरफ्तारी दिखाए जाने के दिन से पहले ही इस बड़े खेल के बारे में जानकारी न हो चुकी रही हो। इस मामले की गूँज विभिन्न माध्यमों से प्रदेश और देश के जागरूक और सामाजिक सरोकार रखने वालों तक भी पहले ही पहुँच चुकी थी। ऐसे में इस फैसले से उन्हें जो आघात पहुँचा होगा उसकी भारपाई कैसे हो पाएगी। इस फैसले को एक व्यक्ति या एक परिवार किस्मत का सितम मान कर सह लेगा लेकिन न्यापालिका पर आस्था को जो चोट पहुँची है उसके जख्म लम्बे समय तक हरे रहेंगे।
-मसीहुद्दीन संजरी
मो0-08090696449
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-06-2015) को "घर में पहचान, महानों में महान" {चर्चा अंक-2008} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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