गुरुवार, 24 मार्च 2016

राष्ट्र की अवधारणा-शिष्य को पत्र


    प्रिय भुवनेश, मैं राष्ट्र के प्रति तुम्हारी भावना की कद्र करता हूं लेकिन फिर भी कहूंगा कि यह एक कृत्रिम अवधारणा है। जिस तरह से किसी की धर्म या ईश्वर में आस्था होती है उसी तरह तुम्हारी आस्था राष्ट्र में है। किंतु तुम्हारी राष्ट्र के प्रति यह आस्था उतनी ही अंध है जितनी किसी की ईश्वर या धर्म के प्रति होती है। मुझे भी सीमा पर मरने वाले सैनिकों की चिंता होती है किंतु तुमसे अलग मुझे सीमा के दोनों तरफ मरने वालों की चिंता होती है सिर्फ अपनी तरफ के लिए नहीं। ये सैनिक बिना वजह मारे जा रहे हैं। इन कीमती जिंदगियों के अंत को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। मुझे बताओ जब दुश्मन देश के नेता कभी भी प्रेम से मिल सकते हैं, याद है न नरेन्द्र मोदी का अफगानिस्तान से भारत लौटते हुए अचानक पाकिस्तान रूकना और नवाज शरीफ के घर शादी में शरीक होना, तो ये हमारे सैनिकों को क्यों एक-दूसरे से मरवाते हैं? क्या तुमने कभी सुना है कि दुश्मन देश के दोनों नेताओं ने आपस में मिलते समय एक-दूसरे को मारने की कोशिश की हो? यदि आप सीमा पार सैनिकों को भी उतना ही प्रेम से मिलने की छूट दे दो जिस तरह नेता मिलते हैं तो शायद देशों के बीच दुश्मनी रहे ही न। वाघा सीमा के पार दोनों देशों के सैनिकों की यदि आपस में बात करने की इच्छा होती भी होगी तो उन्हें आधिकारिक तौर पर एक-दूसरे से दुश्मनी का ही सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ता है और हरेक शाम तो दोनों तरफ ऐसा माहौल निर्मित करना पड़ता है कि उनके देशवासी युद्धोन्मादी नारे लगा सकें। कल्पना कीजिए कि इन्हीं सैनिकों को हरेक शाम दोनों देशों के बीच मैत्री बढ़ाने वाला कोई कार्यक्रम करने को कह दिया जाए! पूरा माहौल ही बदल जाएगा। कार्यक्रम के स्वरूप में परिवर्तन के लिए सिर्फ एक सरकारी आदेश ही तो चाहिए! एक देश पहल लेगा तो दूसरे को भी ऐसा ही करना पड़ेगा। यह तो दोनों तरफ के नेता ही तय करते हैं कि उनके देशों के बीच दोस्ती रहेगी अथवा दुश्मनी। आम लोग तो दोनों तरफ शांति ही चाहते हैं। यह मैं अपनी पाकिस्तान की दस यात्राओं के आधार पर कह सकता हूं। तो हमारे नेता दोनों देशों के बीच आपसी समस्यायों का समाधान ढूंढ़ कर बीच की सीमा को वैसा क्यों नहीं बना देते जैसा कि यूरोपीय संघ के देशों के अथवा अमरीका-कनाडा के बीच है? हमारे सैनिक तो अधिकांश ग्रामीण इलाकों के नौजवान हैं जो नौकरी करने के लिए आते हैं। नेता या सम्पन्न लोग अपने बेटों को सेना में नहीं भेजते। मैंने सिर्फ गाज़ा में देखा है कि नेताओं के बेटे भी संघर्ष में मारे जाते हैं, शायद इसलिए कि यह एक बहुत छोटा सा देश है। क्या यह उचित है कि जिन नौजवानों के सामने कोई विकल्प नहीं हम उनके जीवन को कुर्बान कर देते हैं? क्या यह उचित है कि दो नौजवानों जिनमें से एक सीमा के इस पार पैदा हुआ, दूसरा उस पार, को हम अपने-अपने राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाकर, जबकि राष्ट्र की सीमाएं इतिहास में बदलती रहती हैं, एक-दूसरे की जान लेने के लिए आमने-सामने खड़ा कर देते हैं? आखिर भारत और पाकिस्तान 1947 के पहले तो एक ही मुल्क थे और भविष्य में वर्तमान रूप में ही मौजूद रहेंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं।
    तुम कहते हो कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनंद इसलिए उठा पा रहे हैं क्योंकि हमारे भारत माता को समर्पित सैनिक सीमा पर हमारी रक्षा कर रहे हैं। तुम्हें इस बात का भी अंदाजा तो होगा ही हम जिंदगी का आनंद उठा पाते हैं क्योंकि हमारे किसान की मेहनत से हमारे सामने खाने की मेज पर दिन में तीन-चार बार खाना आ जाता है। पिछले 25 वर्षों में करीब तीन लाख किसानों ने इसलिए आत्महत्या कर ली है क्योंकि वे अपने ऋण अदा न कर पाए, जो देश की रक्षा में मारे गए सैनिकों से कई गुना हैं। जो भाव हम सैनिकों के लिए व्यक्त करते हैं क्या हमने किसान के लिए भी कभी ऐसा महसूस किया है? आखिर सैनिक से मिलने वाली सुरक्षा किसान के किस काम की है? भारत का सम्पन्न वर्ग, हमारे नेताओं ने तो अपने लिए नाभिकीय शस्त्रों तक से बचने की भी व्यवस्था कर रखी है, तो सैनिकों के बिना भी जीवित रह सकता है लेकिन किसान के बिना कोई भी जीवित नहीं बचेगा। हमारे सैनिक तो दुश्मनों की वजह से मर रहे हैं लेकिन हमारे किसान अपनी सरकार की नीतियों के कारण मर रहे हैं, जिसे निश्चित रूप से रोका जा सकता है।
    तुम कहते हो कि तुम्हें भारतीय होने पर नाज़ है और तिरंगा झंडा देख कर तुम अपना सर गर्व से उठा लेते हो। ये तो सिर्फ भावनाएं हैं। तुम्हें प्रतीक अच्छे लगते होंगे और तुम भ्रम में रहना पसंद करते हो। यदि सच्चाई का सामना किया जाए तो मुझे शर्म आती है कि मैं भारत का नागरिक हूं क्योंकि मेरे देश की सकल घरेलू उत्पाद विकास दर अच्छी होते हुए भी उसका फायदा सिर्फ यहां का सम्पन्न वर्ग ही उठा पाता है और गरीब को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है। हमारे सामाजिक मानक दुनिया में सबसे खराब हैं। दुनिया में कुपोषित बच्चे सबसे अधिक अनुपात में हमारे देश में हैं। आधे बच्चे विद्यालय नहीं जाते। शौचालय की उपलब्धता की स्थिति भी दुनिया में सबसे खराब हमारे यहां है। हम अंतरिक्ष सम्बंधी शोध करने में गर्व महसूस करते हैं लेकिन हमारे यहां सफाई हेतु जिंदा इंसान को सीवर में उतारा जाता है जिनमें से कई की दम घुटने से मौत हो जाती है। अपराधी, धोखेबाजों व भ्रष्ट लोगों का राज है। सरकारी नीतियां इंसान की जरूरतों के हिसाब से नहीं बल्कि भ्रष्टाचार की संभावनाओं को देखकर बनाई जाती हैं। हम दोगले चरित्र के हैं जो पत्थर की मूर्ति पूजते हैं लेकिन जिंदा इंसान के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। पत्थर की मूर्ति तो आलीशान मंदिरों में रहती हैं लेकिन इंसान सड़क पर सोता है जहां से उसके बच्चे देह व्यापार के लिए गायब कर दिए जाते हैं। घरों के अंदर महिलाएं व बच्चे यौन शोषण से सुरक्षित नहीं हैं। सोनी सोरी की तरह के आदिवासियों के साथ राज्य लगातार अत्याचर करता है क्योंकि उसे उनपर भरोसा नहीं और 15 सालों से एक ऐसा कानून जिससे मावनाधिकार हनन हुआ है को हटाने के लिए उपवास पर बैठी इरोम शर्मीला की बात कोई सुनने को तैयार नहीं। वे लोग जिन्हें सरकार से न्याय नहीं मिला उनसे क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि वे भी तिरंगा देख कर आपकी तरह देश के प्रति गर्व महसूस कर सकें?
    आपने आपे पत्र का समापन ’जय हिन्द, जय भारत’ के अभिवादन के साथ किया है। महान राजनीतिक संत व महात्मा गांधी के अनुयायी विनोबा भावे ने ’जय जगत’ के अभिवादन को लोकप्रिय बनाया था। पर्यावरण को बचाने की जरूरत को देखते हुए शायद अब ’जय सृष्टि’ अधिक उपयुक्त अभिवादन होगा। मानवता के हित में क्या हमें अपनी दृष्टि का विस्तार विश्व या ब्रह्माण्ड तक नहीं करना चाहिए? आशा है तुम इन सब बातों पर विचार करोगे।
सप्रेम, संदीप
(यह पत्र भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग के बी.टेक. अंतिम वर्ष के छात्र भुवनेश कुमार शर्मा के मेरे जवाहरलाल नेहरू वि.वि. में 10 मार्च, 2016 को दिए गए भाषण में राष्ट्र की अवधारणा से विचलित होकर लिखे पत्र के जवाब में है। भुवनेश शैक्षणिक सत्र 2014-15 में डेवलेपमेंट स्टडीज़ की मेरी कक्षा में छात्र रह चुके हैं।)
- संदीप पाण्डेय

1 टिप्पणी:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

विचारोत्पादक लेख !

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