तुम्हारी रोज़मर्रा की जिंदगी ही तुम्हारा मंदिर और तुम्हारा धर्म है
-खलील जि़ब्रान (द प्रोफेट)
गत 3 जनवरी 2016 को पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में स्थित कालियाचक पुलिस स्टेशन पर एक भीड़ ने हमला किया। इस घटना की अखबारों में छपी रपटों में बताया गया कि यह मुसलमानों द्वारा किया गया सांप्रदायिक हमला था। पश्चिम बंगाल में भाजपा के एक मात्र विधायक के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल कालियाचक जाना चाहता था परंतु सरकार ने इसकी इजाज़त नहीं दी। चूंकि पश्चिम बंगाल में जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले थे, इसलिए सभी पार्टियों ने इस घटना का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने की पूरी कोशिश की। तृणमूल कांगे्रस ने कहा कि यह हमला सांप्रदायिक नहीं था। शुरूआत में भाजपा ने हमले को सांप्रदायिक बताया और उसके प्रवक्ताओं और पार्टी की बंगाल इकाई के प्रभारी महासचिव सिद्धार्थ नाथ ने कहा कि मीडिया एक ‘बड़ी’ घटना को मात्र इसलिए कवरेज नहीं दे रहा है क्योंकि हमलावर मुसलमान थे। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षतावादियों के दोहरे मानदंड हैं। इसके बाद, मीडिया ने इस घटना को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया और एक स्थानीय घटना को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया गया। भाजपा को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से उसे लाभ नहीं होगा क्योंकि वहां मुसलमानों की बड़ी आबादी है। बंगाल के रहवासियों में से लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम हैं। भाजपा ने भी बाद में इस बात से सहमति व्यक्त की कि कालियाचक पुलिस स्टेशन पर हमले के पीछे धार्मिक कारण नहीं थे। परंतु उसने तृणमूल कांग्रेस पर यह आरोप लगाना जारी रखा कि वह अपने ‘वोट बैंक’ को बचाने और ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के लिए असामाजिक तत्वों को संरक्षण दे रही है।
आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच, सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म व एएएमआरए की एक संयुक्त टीम ने कालियाचक जाकर स्थिति का अध्ययन करने और उस पर एक रपट तैयार करने का निर्णय लिया। टीम के सदस्यों ने हमले के पीडि़तों, प्रत्यक्षदर्शियो, अफसरों, राजनेताओं व प्रमुख नागरिकों से बात की। टीम ने कालियाचक पुलिस स्टेशन में पदस्थ पुलिसकर्मियों से भी बातचीत करने का प्रयास किया परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। जो टीम मालदा और कालियाचक पहुंची उसके सदस्य थे: (1) इरफान इंजीनियर, निदेशक सीएसएसएस, (2) सुभाप्रतिम राय चैधरी, एएएमआरए, (3) नसीम अख्तर चौधरी, एक्षन एड व (4) अनुपम अधिकारी।
पृष्ठभूमि
रेडक्लिफ अवार्ड के अंतर्गत 17 अगस्त, 1947 को अर्थात स्वाधीनता के दो दिन बाद, नक्से पर एक लाईन खींचकर भारत का विभाजन की दिया गया। यह लाईन खून से खींची गई थी और इस विभाजन के पश्चात, मौत का जो नंगा नाच हुआ उसमें हज़ारों निर्दोषों का खून बहा और लाखों लोग अपने ही देश में शरणार्थी हो गए। मालदा, भारत का हिस्सा बन गया परंतु उसका एक अनुभाग नवाबगंज तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के राजशाही जिले में शामिल कर दिया गया। हिंदू और मुस्लिम शरणार्थियों के सीमा के इस पार से उस पार जाने के कारण इलाके का जनसांख्यिकीय परिदृष्य बदल गया। अब उत्तर मालदा में हिंदुओं का बहुमत है और दक्षिण में मुसलमानों का।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार, मालदा जिले की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 51.27 और हिंदुओं का 47.99 है। जिले में कई जनजातियों और भाषायी समूहों के लोग रहते हैं, जिनमें खोटा, पंजारा, पोलिया, शे रसबादिया व संथाल शामिल हैं। मालदा में रहने वाले अधिकांश बंगाली मुसलमान सुन्नी हैं और एहलेहदीस समुदाय से वास्ता रखते हैं। मालदा के बंगाल से सटे ब्लाॅक कालियाचक-1 में मुसलमानों का प्रतिशत 90 है, जिसमें कई नस्लों व भाषायी समूहों के लोग षामिल हैं। यहां के मुसलमानों में शियाओं और सुन्नियों दोनों की खासी आबादी है।
कालियाचक-1 ब्लाॅक की एक अनूठी भौगोलिक स्थिति है। जो नदियां गंगा के मैदान के पूर्वी भाग को सींचती हैं, उनके बहाव की गति कम होने के कारण वे बड़ी मात्रा में तलछट निक्षेपित कर देती हैं। नदी किनारे रहने वाले समुदाय अपने जीवनयापन के लिए नदी पर निर्भर रहते हैं। फरक्का बांध बनने के बाद से इन समुदायों का रोज़गार और नदी-आधारित अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई। इसका कारण था बड़े पैमाने पर भूमि का कटाव। पिछले तीन दषकों में मानिकचैक, कालियाचक-1, 2 व 3 और रतुआ ब्लाॅकों में करीब साढ़े चार लाख लोग बेघर हो गए। इस तरह, कालियाचक की पारंपरिक कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था खतरे में है। मोज़मपुर, जादूपुर, दरियापुर व कालियाचक-1 ब्लाॅक के कुछ अन्य गांवों में मिट्टी के कटाव ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को लगभग नष्ट कर दिया है। यहां पर पहले कई तरह की सब्जियां, धान, जूट आदि की खेती होती थी परंतु उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत बह गई और ज़मीनें, रेत का ढेर बनकर रह गईं।
कालियाचक के बेघर और बेरोज़गार हो गए लोगों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था कि वे सीमा पार बांग्लादेश के साथ मवेशियों और ड्रग्स के अवैध व्यापार में अपने लिए काम तलाशें। फैन्सीडिल नामक खांसी की एक दवाई, जिसका बांग्लादेश में नशे के लिए इस्तेमाल होता है, भारत से तस्करी के रास्ते वहां भेजी जाने वाली प्रमुख वस्तुओं में से एक है। बढ़ती तस्करी ने तस्कर-बीएसएफ-पुलिस-आबकारी विभाग-राजनेताओं के एक गठबंधन को जन्म दिया। इसे और मजबूत बनाया इस इलाके में अफीम की खेती की शुरूआत ने। हमें बताया गया कि मुआजामपुर शहर में अपराधियों के दो गिरोह सक्रिय हैं। इनमें से एक का नेतृत्व असादुल्ला बिस्बास के हाथों में है और दूसरे का तुहुर बिस्बास के हाथों में। इन दोनों गिरोहों के बीच अक्सर विवाद होते रहते हैं। असादुल्ला बिस्बास एक समय वाम मोर्चे के साथ थे। अब वे टीएमसी से जुड़ गए हैं। जिस रैली के दौरान पुलिस थाने पर हमला हुआ, उसमें भाग लेने के लिए मुआजामपुर से बड़ी संख्या में लोग आए थे।
तस्कर-बीएसएफ-पुलिस-आबकारी विभाग-राजनेता का गठबंधन, सीमा के दोनों ओर धर्म के राजनीतिकरण को बढ़ावा दे रहा है। शाहबाग आंदोलन के बाद बांग्लादेश में कट्टरपंथियों ने तार्किकतावादियों पर बड़े पैमाने पर हमले किए और उनके कत्ल भी हुए। हिफाज़त-ए-इस्लाम नामक संगठन, जिसमें जमात-ए-इस्लामी के नेताओं ने घुसपैठ कर ली है, ने बांग्लादेश में तार्किकतावादियों पर हमलों मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिफाज़त-ए-इस्लाम, बांग्लादेशी राष्ट्रीय पहचान का इस्लामीकरण करना चाहती है।
दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पश्चिम बंगाल में हिंदुत्ववादी शक्तियां आक्रामक हो उठीं। चुनाव के पहले भाजपा की आमसभाओं में तीन मुद्दों पर ज़ोर दिया गया- एक-गुजरात का विकास का माॅडल (जिसका खोखलापन उजागर हो चुका है), दो-शारदा चिटफंड घोटाला व तीन-सांप्रदायिक धु्रवीकरण, जिसे करने के लिए यह प्रचार किया गया कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी, मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए बांग्लादेशी आंतकवादियों को शरण दे रही हैं। यह भी कहा गया कि मुसलमान, सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पार्टी का वोट बैंक हैं। मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान शुरू कर दिया गया और खगरागढ़ व अन्य स्थानों पर हुए मामूली बम धमाकों को मुसलमानों की कारगुज़ारी बताया गया। सांप्रदायिक धु्रवीकरण के कारण देगंगा, समुद्रगढ़, काकद्वीप व अन्य कई स्थानों पर सांप्रदायिक तनाव और हिंसा हुई। सांप्रदायिक धु्रवीकरण को बढ़ाने के लिए कई अन्य मुद्दों का भी इस्तेमाल किया गया। इनमें माटुआ, हिंदू शरणार्थी, फुरफुरा शरीफ आदि शामिल थे। बंगाल में सांप्रदायिक धु्रवीकरण अब अपने चरम पर है। असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहे मुसलमान, मुल्ला-मौलवियों की शरण में जा रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि मुल्ला-मौलवी, समुदाय को एक करेंगे और एक होकर वे अपनी रक्षा कर सकेंगे। प्रतिगामी, पितृसत्तात्मक सोच मुसलमानों पर हावी हो रही है। मालदा में कुछ मुस्लिम मौलवियों ने एक फतवा जारी कर यह कहा कि मुसलमान लड़कियों को फुटबाल नहीं खेलनी चाहिए। हिंदू खाप पंचायतें भी जाति आधारित प्रथाएं और परंपराएं थोप रही हैं। उत्तरी 24 परगना जिले के बसीरहाट सबडिवीजन में हिंदू खाप द्वारा यह आदेश जारी किया गया कि एक हिंदू परिवार, जिसने अपने एक मृतक को दफन कर दिया था, का बहिष्कार किया जाए। दोनों समुदायों के बीच सौहार्द और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लंबी परंपरा खतरे में पड़ती नज़र आ रही है।
पारंपरिक रूप से मालदा, कांग्रेस का गढ़ रहा है। कांग्रेस के नेता एबीए ग़नी खान चौधरी, घर-घर में जाने जाते हैं और उनका इलाके में बहुत सम्मान है। वे मालदा से लोकसभा के लिए कई बार चुने गए। उन्होंने मालदा रेलवे स्टेशन को क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन बनाने की कोशिश की। वे सबसे पहले 1957 में विधायक चुने गए और 1972-77 में पश्चिम बंगाल की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। वे 1980 में मालदा से लोकसभा के लिए चुने गए और उसके बाद से 2004 तक लगातार चुनाव जीतते रहे। सन 2006 में उनकी मृत्यु हो गई। सन 1982 से 1989 तक वे रेल मंत्री थे। ग़नी खान चैधरी के प्रयासों से मालदा में रेलवे ने एक बड़ा कारखाना स्थापित किया। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का गठबंधन था। एबीए ग़नी खान चौधरी की भतीजी मौसम ने यह चुनाव जीता। उन्हें 4.40 लाख वोट प्राप्त हुए जबकि सीपीएम के शैलेन्द्र सरकार को 3.80 लाख वोट ही मिल सके।
सन 2006 के विधानसभा चुनाव में कालियाचक से सीपीएम के विश्वनाथ घोष चुने गए। 1977 से 2006 के बीच सीपीआईएम 1982, 1987, 1991 व 2006 में चुनाव जीती जबकि 1977, 1996 और 2001 में कांग्रेस विजयी रही। इससे यह स्पष्ट है कि जहां तक मालदा संसदीय क्षेत्र का सवाल है, वहां से कांग्रेस लगातार जीतती आ रही है परंतु कालियाचक विधानसभा क्षेत्र में किसी एक पार्टी का वर्चस्व नहीं है और कांग्रेस/तृणमूल कांग्रेस व सीपीआईएम अलग-अलग समय पर यहां से जीतती रही हैं। कालियाचक ब्लाॅक में मुसलमानों का बहुमत है और यह स्पष्ट है कि वे बारी-बारी से दोनों प्रमुख पार्टियों को जिताते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दों का कालियाचक के लोगों के राजनैतिक व्यवहार पर विशेष असर नहीं पड़ा है।
कालियाचक में मुसलमानों के संगठन
कालियाचक व मालदा जिले के अन्य ब्लाॅकों में ‘‘अंजुमन एहले सुनातुल जमात’’ सक्रिय है। यद्यपि यह संगठन रूढि़वादी है तथापि वह सांप्रदायिक नहीं है और गैर-मुसलमानों से घृणा करने या उनके प्रति किसी भी तरह का बैरभाव रखने की बात नहीं कहता। इस संगठन के पितृसत्तात्मक दकियानूसीपन परप्रश्न उठाए जा सकते हैं और यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसे संगठन मुसलमानों का भला नहीं कर सकते परंतु यह भी सच है कि इस संगठन की मध्यमवर्गीय मुसलमानों में अच्छी पकड़ है। यह वह वर्ग है जो पुरानी धार्मिक परंपराओं का पालन कर सामाजिक हैसियत और सम्मान प्राप्त करना चाहता है। एक अन्य संगठन भी मुसलमानों के बीच सक्रिय हुआ है। इसका नाम है ‘‘इदारा-ए-शरिया’’। जहां अंजुमन, रूढि़वादी सलाफी-वहाबी इस्लाम का प्रचार करता है, जो सूफी संतों की दरगाह पर प्रार्थना किए जाने के खिलाफ है वहीं इदारा-ए-शरिया, बरेलवी परंपरा की हिमायत करती है जो सूफी संतों की दरगाह पर इबादत करने की विरोधी नहीं है और जो देववंदी इस्लाम की तुलना में अधिक समावेशी है। मुसलमानों पर अपनी पकड़ मजबूत करने और अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए इदारा-ए-षरिया ने 1 दिसंबर, 2015 को उत्तरप्रदेश के स्वनियुक्त हिंदू महासभा नेता कमलेश तिवारी द्वारा इस्लाम के पैगम्बर के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां किए जाने के विरोध में रैली का आयोजन करने का निर्णय किया। इस तरह की रैलियां देश के अन्य भागों में भी निकलीं, जिनमें से कई में कमलेश तिवारी को मौत की सज़ा दिए जाने की मांग की गई। किसी न किसी कारण से कालियाचक में होने वाला यह विरोध प्रदर्शन टलता गया। इस साल ईद-ए-मिलादुन्नबी, जो कि पैगम्बर का जन्मदिन है, 14 दिसंबर, 2015 को थी। तब तक इस टिप्पणी को 24 दिन गुज़र चुके थे। हर साल की तरह, एहले सुनातुल जमात ने इस दिन एक रैली का आयोजन किया, जिसमें करीब एक लाख लोगों ने भागीदारी की। जमात ने इस तरह यह साबित कर दिया कि उसकी जनता पर पकड़ है। यद्यपि देववंदी, मुसलमानों की आबादी का 20 प्रतिषत ही हैं परंतु वे तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं और मस्जिदों पर उनका नियंत्रण है। अधिकांश सुन्नी इमाम देववंदी हैं।
बरेलवी मूलतः अजलफ हैं, जो कि धर्मांतरण के पहले नीची जातियों के हिंदू थे। इसके विपरीत, देववंदी, ऊँची जातियों के हिंदुओं के धर्मपरिवर्तन करने से अस्तित्व में आए। उन्हें अशरफ भी कहा जाता है। मालदा में अधिकांश बरेलवी गैर-बंगाली हैं और उन्हें खोता मुसलमान कहा जाता है। वे खोता भाषा बोलते हैं जिसके शब्द तो बांग्ला के हैं परंतु उच्चारण हिंदी और उर्दू के समान हैं। खोता मुसलमानों को हाल में बंगाल की राज्य सरकार ने ओबीसी समुदायों की सूची में शामिल किया। खोता मूलतः बिहारी हैं और उनके राज्य में उन्हें खोरता भी कहा जाता है। शायद खोता मुसलमानों में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए इदारा-ए-शरिया ने 3 जनवरी, 2016 को विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की। इसके लगभग एक सप्ताह पहले से इस रैली के संबंध में पर्चे और पोस्टर जगह-जगह चिपकाए गए। इस रैली में कालियाचक और उसके आसपास के गांवों और शहरों केे लगभग एक लाख मुसलमान शामिल हुए।
सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास नहीं
कालियाचक में स्वाधीनता से लेकर आज तक कभी कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। तीन जनवरी की घटना को भी सांप्रदायिक दंगा नहीं कहा जा सकता। वह किसी प्रकार के सांप्रदायिक धु्रवीकरण का नतीजा नहीं थी और ना ही उसने हिंदुओं और मुसलमानों में सांप्रदायिकता की भावना जागृत की। दोनों समुदायों के लोगों के आपसी संबंध आज भी मधुर बने हुए हैं। हिंसक भीड़ का निशाना न तो हिंदू थे और ना ही वे दो मंदिर जो उसके रास्ते में थे। भीड़ का निशाना था पुलिस स्टेशन। आज भी हिंसा के शिकार व्यक्ति उसी इलाके में रह रहे हैं और उनके पड़ोसी व अन्य लोग उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रूख रखते हैं।
-इरफान इंजीनियर
-खलील जि़ब्रान (द प्रोफेट)
गत 3 जनवरी 2016 को पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में स्थित कालियाचक पुलिस स्टेशन पर एक भीड़ ने हमला किया। इस घटना की अखबारों में छपी रपटों में बताया गया कि यह मुसलमानों द्वारा किया गया सांप्रदायिक हमला था। पश्चिम बंगाल में भाजपा के एक मात्र विधायक के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल कालियाचक जाना चाहता था परंतु सरकार ने इसकी इजाज़त नहीं दी। चूंकि पश्चिम बंगाल में जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले थे, इसलिए सभी पार्टियों ने इस घटना का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने की पूरी कोशिश की। तृणमूल कांगे्रस ने कहा कि यह हमला सांप्रदायिक नहीं था। शुरूआत में भाजपा ने हमले को सांप्रदायिक बताया और उसके प्रवक्ताओं और पार्टी की बंगाल इकाई के प्रभारी महासचिव सिद्धार्थ नाथ ने कहा कि मीडिया एक ‘बड़ी’ घटना को मात्र इसलिए कवरेज नहीं दे रहा है क्योंकि हमलावर मुसलमान थे। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षतावादियों के दोहरे मानदंड हैं। इसके बाद, मीडिया ने इस घटना को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया और एक स्थानीय घटना को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया गया। भाजपा को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से उसे लाभ नहीं होगा क्योंकि वहां मुसलमानों की बड़ी आबादी है। बंगाल के रहवासियों में से लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम हैं। भाजपा ने भी बाद में इस बात से सहमति व्यक्त की कि कालियाचक पुलिस स्टेशन पर हमले के पीछे धार्मिक कारण नहीं थे। परंतु उसने तृणमूल कांग्रेस पर यह आरोप लगाना जारी रखा कि वह अपने ‘वोट बैंक’ को बचाने और ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के लिए असामाजिक तत्वों को संरक्षण दे रही है।
आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच, सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म व एएएमआरए की एक संयुक्त टीम ने कालियाचक जाकर स्थिति का अध्ययन करने और उस पर एक रपट तैयार करने का निर्णय लिया। टीम के सदस्यों ने हमले के पीडि़तों, प्रत्यक्षदर्शियो, अफसरों, राजनेताओं व प्रमुख नागरिकों से बात की। टीम ने कालियाचक पुलिस स्टेशन में पदस्थ पुलिसकर्मियों से भी बातचीत करने का प्रयास किया परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। जो टीम मालदा और कालियाचक पहुंची उसके सदस्य थे: (1) इरफान इंजीनियर, निदेशक सीएसएसएस, (2) सुभाप्रतिम राय चैधरी, एएएमआरए, (3) नसीम अख्तर चौधरी, एक्षन एड व (4) अनुपम अधिकारी।
पृष्ठभूमि
रेडक्लिफ अवार्ड के अंतर्गत 17 अगस्त, 1947 को अर्थात स्वाधीनता के दो दिन बाद, नक्से पर एक लाईन खींचकर भारत का विभाजन की दिया गया। यह लाईन खून से खींची गई थी और इस विभाजन के पश्चात, मौत का जो नंगा नाच हुआ उसमें हज़ारों निर्दोषों का खून बहा और लाखों लोग अपने ही देश में शरणार्थी हो गए। मालदा, भारत का हिस्सा बन गया परंतु उसका एक अनुभाग नवाबगंज तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के राजशाही जिले में शामिल कर दिया गया। हिंदू और मुस्लिम शरणार्थियों के सीमा के इस पार से उस पार जाने के कारण इलाके का जनसांख्यिकीय परिदृष्य बदल गया। अब उत्तर मालदा में हिंदुओं का बहुमत है और दक्षिण में मुसलमानों का।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार, मालदा जिले की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 51.27 और हिंदुओं का 47.99 है। जिले में कई जनजातियों और भाषायी समूहों के लोग रहते हैं, जिनमें खोटा, पंजारा, पोलिया, शे रसबादिया व संथाल शामिल हैं। मालदा में रहने वाले अधिकांश बंगाली मुसलमान सुन्नी हैं और एहलेहदीस समुदाय से वास्ता रखते हैं। मालदा के बंगाल से सटे ब्लाॅक कालियाचक-1 में मुसलमानों का प्रतिशत 90 है, जिसमें कई नस्लों व भाषायी समूहों के लोग षामिल हैं। यहां के मुसलमानों में शियाओं और सुन्नियों दोनों की खासी आबादी है।
कालियाचक-1 ब्लाॅक की एक अनूठी भौगोलिक स्थिति है। जो नदियां गंगा के मैदान के पूर्वी भाग को सींचती हैं, उनके बहाव की गति कम होने के कारण वे बड़ी मात्रा में तलछट निक्षेपित कर देती हैं। नदी किनारे रहने वाले समुदाय अपने जीवनयापन के लिए नदी पर निर्भर रहते हैं। फरक्का बांध बनने के बाद से इन समुदायों का रोज़गार और नदी-आधारित अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई। इसका कारण था बड़े पैमाने पर भूमि का कटाव। पिछले तीन दषकों में मानिकचैक, कालियाचक-1, 2 व 3 और रतुआ ब्लाॅकों में करीब साढ़े चार लाख लोग बेघर हो गए। इस तरह, कालियाचक की पारंपरिक कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था खतरे में है। मोज़मपुर, जादूपुर, दरियापुर व कालियाचक-1 ब्लाॅक के कुछ अन्य गांवों में मिट्टी के कटाव ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को लगभग नष्ट कर दिया है। यहां पर पहले कई तरह की सब्जियां, धान, जूट आदि की खेती होती थी परंतु उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत बह गई और ज़मीनें, रेत का ढेर बनकर रह गईं।
कालियाचक के बेघर और बेरोज़गार हो गए लोगों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था कि वे सीमा पार बांग्लादेश के साथ मवेशियों और ड्रग्स के अवैध व्यापार में अपने लिए काम तलाशें। फैन्सीडिल नामक खांसी की एक दवाई, जिसका बांग्लादेश में नशे के लिए इस्तेमाल होता है, भारत से तस्करी के रास्ते वहां भेजी जाने वाली प्रमुख वस्तुओं में से एक है। बढ़ती तस्करी ने तस्कर-बीएसएफ-पुलिस-आबकारी विभाग-राजनेताओं के एक गठबंधन को जन्म दिया। इसे और मजबूत बनाया इस इलाके में अफीम की खेती की शुरूआत ने। हमें बताया गया कि मुआजामपुर शहर में अपराधियों के दो गिरोह सक्रिय हैं। इनमें से एक का नेतृत्व असादुल्ला बिस्बास के हाथों में है और दूसरे का तुहुर बिस्बास के हाथों में। इन दोनों गिरोहों के बीच अक्सर विवाद होते रहते हैं। असादुल्ला बिस्बास एक समय वाम मोर्चे के साथ थे। अब वे टीएमसी से जुड़ गए हैं। जिस रैली के दौरान पुलिस थाने पर हमला हुआ, उसमें भाग लेने के लिए मुआजामपुर से बड़ी संख्या में लोग आए थे।
तस्कर-बीएसएफ-पुलिस-आबकारी विभाग-राजनेता का गठबंधन, सीमा के दोनों ओर धर्म के राजनीतिकरण को बढ़ावा दे रहा है। शाहबाग आंदोलन के बाद बांग्लादेश में कट्टरपंथियों ने तार्किकतावादियों पर बड़े पैमाने पर हमले किए और उनके कत्ल भी हुए। हिफाज़त-ए-इस्लाम नामक संगठन, जिसमें जमात-ए-इस्लामी के नेताओं ने घुसपैठ कर ली है, ने बांग्लादेश में तार्किकतावादियों पर हमलों मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिफाज़त-ए-इस्लाम, बांग्लादेशी राष्ट्रीय पहचान का इस्लामीकरण करना चाहती है।
दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पश्चिम बंगाल में हिंदुत्ववादी शक्तियां आक्रामक हो उठीं। चुनाव के पहले भाजपा की आमसभाओं में तीन मुद्दों पर ज़ोर दिया गया- एक-गुजरात का विकास का माॅडल (जिसका खोखलापन उजागर हो चुका है), दो-शारदा चिटफंड घोटाला व तीन-सांप्रदायिक धु्रवीकरण, जिसे करने के लिए यह प्रचार किया गया कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी, मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए बांग्लादेशी आंतकवादियों को शरण दे रही हैं। यह भी कहा गया कि मुसलमान, सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पार्टी का वोट बैंक हैं। मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान शुरू कर दिया गया और खगरागढ़ व अन्य स्थानों पर हुए मामूली बम धमाकों को मुसलमानों की कारगुज़ारी बताया गया। सांप्रदायिक धु्रवीकरण के कारण देगंगा, समुद्रगढ़, काकद्वीप व अन्य कई स्थानों पर सांप्रदायिक तनाव और हिंसा हुई। सांप्रदायिक धु्रवीकरण को बढ़ाने के लिए कई अन्य मुद्दों का भी इस्तेमाल किया गया। इनमें माटुआ, हिंदू शरणार्थी, फुरफुरा शरीफ आदि शामिल थे। बंगाल में सांप्रदायिक धु्रवीकरण अब अपने चरम पर है। असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहे मुसलमान, मुल्ला-मौलवियों की शरण में जा रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि मुल्ला-मौलवी, समुदाय को एक करेंगे और एक होकर वे अपनी रक्षा कर सकेंगे। प्रतिगामी, पितृसत्तात्मक सोच मुसलमानों पर हावी हो रही है। मालदा में कुछ मुस्लिम मौलवियों ने एक फतवा जारी कर यह कहा कि मुसलमान लड़कियों को फुटबाल नहीं खेलनी चाहिए। हिंदू खाप पंचायतें भी जाति आधारित प्रथाएं और परंपराएं थोप रही हैं। उत्तरी 24 परगना जिले के बसीरहाट सबडिवीजन में हिंदू खाप द्वारा यह आदेश जारी किया गया कि एक हिंदू परिवार, जिसने अपने एक मृतक को दफन कर दिया था, का बहिष्कार किया जाए। दोनों समुदायों के बीच सौहार्द और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लंबी परंपरा खतरे में पड़ती नज़र आ रही है।
पारंपरिक रूप से मालदा, कांग्रेस का गढ़ रहा है। कांग्रेस के नेता एबीए ग़नी खान चौधरी, घर-घर में जाने जाते हैं और उनका इलाके में बहुत सम्मान है। वे मालदा से लोकसभा के लिए कई बार चुने गए। उन्होंने मालदा रेलवे स्टेशन को क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन बनाने की कोशिश की। वे सबसे पहले 1957 में विधायक चुने गए और 1972-77 में पश्चिम बंगाल की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। वे 1980 में मालदा से लोकसभा के लिए चुने गए और उसके बाद से 2004 तक लगातार चुनाव जीतते रहे। सन 2006 में उनकी मृत्यु हो गई। सन 1982 से 1989 तक वे रेल मंत्री थे। ग़नी खान चैधरी के प्रयासों से मालदा में रेलवे ने एक बड़ा कारखाना स्थापित किया। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का गठबंधन था। एबीए ग़नी खान चौधरी की भतीजी मौसम ने यह चुनाव जीता। उन्हें 4.40 लाख वोट प्राप्त हुए जबकि सीपीएम के शैलेन्द्र सरकार को 3.80 लाख वोट ही मिल सके।
सन 2006 के विधानसभा चुनाव में कालियाचक से सीपीएम के विश्वनाथ घोष चुने गए। 1977 से 2006 के बीच सीपीआईएम 1982, 1987, 1991 व 2006 में चुनाव जीती जबकि 1977, 1996 और 2001 में कांग्रेस विजयी रही। इससे यह स्पष्ट है कि जहां तक मालदा संसदीय क्षेत्र का सवाल है, वहां से कांग्रेस लगातार जीतती आ रही है परंतु कालियाचक विधानसभा क्षेत्र में किसी एक पार्टी का वर्चस्व नहीं है और कांग्रेस/तृणमूल कांग्रेस व सीपीआईएम अलग-अलग समय पर यहां से जीतती रही हैं। कालियाचक ब्लाॅक में मुसलमानों का बहुमत है और यह स्पष्ट है कि वे बारी-बारी से दोनों प्रमुख पार्टियों को जिताते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दों का कालियाचक के लोगों के राजनैतिक व्यवहार पर विशेष असर नहीं पड़ा है।
कालियाचक में मुसलमानों के संगठन
कालियाचक व मालदा जिले के अन्य ब्लाॅकों में ‘‘अंजुमन एहले सुनातुल जमात’’ सक्रिय है। यद्यपि यह संगठन रूढि़वादी है तथापि वह सांप्रदायिक नहीं है और गैर-मुसलमानों से घृणा करने या उनके प्रति किसी भी तरह का बैरभाव रखने की बात नहीं कहता। इस संगठन के पितृसत्तात्मक दकियानूसीपन परप्रश्न उठाए जा सकते हैं और यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसे संगठन मुसलमानों का भला नहीं कर सकते परंतु यह भी सच है कि इस संगठन की मध्यमवर्गीय मुसलमानों में अच्छी पकड़ है। यह वह वर्ग है जो पुरानी धार्मिक परंपराओं का पालन कर सामाजिक हैसियत और सम्मान प्राप्त करना चाहता है। एक अन्य संगठन भी मुसलमानों के बीच सक्रिय हुआ है। इसका नाम है ‘‘इदारा-ए-शरिया’’। जहां अंजुमन, रूढि़वादी सलाफी-वहाबी इस्लाम का प्रचार करता है, जो सूफी संतों की दरगाह पर प्रार्थना किए जाने के खिलाफ है वहीं इदारा-ए-शरिया, बरेलवी परंपरा की हिमायत करती है जो सूफी संतों की दरगाह पर इबादत करने की विरोधी नहीं है और जो देववंदी इस्लाम की तुलना में अधिक समावेशी है। मुसलमानों पर अपनी पकड़ मजबूत करने और अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए इदारा-ए-षरिया ने 1 दिसंबर, 2015 को उत्तरप्रदेश के स्वनियुक्त हिंदू महासभा नेता कमलेश तिवारी द्वारा इस्लाम के पैगम्बर के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां किए जाने के विरोध में रैली का आयोजन करने का निर्णय किया। इस तरह की रैलियां देश के अन्य भागों में भी निकलीं, जिनमें से कई में कमलेश तिवारी को मौत की सज़ा दिए जाने की मांग की गई। किसी न किसी कारण से कालियाचक में होने वाला यह विरोध प्रदर्शन टलता गया। इस साल ईद-ए-मिलादुन्नबी, जो कि पैगम्बर का जन्मदिन है, 14 दिसंबर, 2015 को थी। तब तक इस टिप्पणी को 24 दिन गुज़र चुके थे। हर साल की तरह, एहले सुनातुल जमात ने इस दिन एक रैली का आयोजन किया, जिसमें करीब एक लाख लोगों ने भागीदारी की। जमात ने इस तरह यह साबित कर दिया कि उसकी जनता पर पकड़ है। यद्यपि देववंदी, मुसलमानों की आबादी का 20 प्रतिषत ही हैं परंतु वे तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं और मस्जिदों पर उनका नियंत्रण है। अधिकांश सुन्नी इमाम देववंदी हैं।
बरेलवी मूलतः अजलफ हैं, जो कि धर्मांतरण के पहले नीची जातियों के हिंदू थे। इसके विपरीत, देववंदी, ऊँची जातियों के हिंदुओं के धर्मपरिवर्तन करने से अस्तित्व में आए। उन्हें अशरफ भी कहा जाता है। मालदा में अधिकांश बरेलवी गैर-बंगाली हैं और उन्हें खोता मुसलमान कहा जाता है। वे खोता भाषा बोलते हैं जिसके शब्द तो बांग्ला के हैं परंतु उच्चारण हिंदी और उर्दू के समान हैं। खोता मुसलमानों को हाल में बंगाल की राज्य सरकार ने ओबीसी समुदायों की सूची में शामिल किया। खोता मूलतः बिहारी हैं और उनके राज्य में उन्हें खोरता भी कहा जाता है। शायद खोता मुसलमानों में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए इदारा-ए-शरिया ने 3 जनवरी, 2016 को विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की। इसके लगभग एक सप्ताह पहले से इस रैली के संबंध में पर्चे और पोस्टर जगह-जगह चिपकाए गए। इस रैली में कालियाचक और उसके आसपास के गांवों और शहरों केे लगभग एक लाख मुसलमान शामिल हुए।
सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास नहीं
कालियाचक में स्वाधीनता से लेकर आज तक कभी कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। तीन जनवरी की घटना को भी सांप्रदायिक दंगा नहीं कहा जा सकता। वह किसी प्रकार के सांप्रदायिक धु्रवीकरण का नतीजा नहीं थी और ना ही उसने हिंदुओं और मुसलमानों में सांप्रदायिकता की भावना जागृत की। दोनों समुदायों के लोगों के आपसी संबंध आज भी मधुर बने हुए हैं। हिंसक भीड़ का निशाना न तो हिंदू थे और ना ही वे दो मंदिर जो उसके रास्ते में थे। भीड़ का निशाना था पुलिस स्टेशन। आज भी हिंसा के शिकार व्यक्ति उसी इलाके में रह रहे हैं और उनके पड़ोसी व अन्य लोग उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रूख रखते हैं।
-इरफान इंजीनियर
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