भारत
के विधि आयोग ने स्वप्रेरणा से गिरफ़्तारी के विषय में रिपोर्ट तैयार कर
विधि एवं न्याय मंत्रालय को प्रस्तुत की थी किन्तु इस पर की गयी कार्यवाही
की स्थिति निराशाजनक है .रिपोर्ट में कह गया है कि दिल्ली में मूल अपराध के
लिए गिरफ्तार लोगों की कुल संख्या 57,163 है , निवारक निरोध कानून के तहत
गिरफ्तार व्यक्तियों की कुल संख्या 39824 है व 50% लोगों को जमानती अपराध
के लिए गिरफ्तार किया गया. अगर हम उत्तर प्रदेश का उदहारण लें तो
निवारक प्रावधानों के तहत गिरफ्तारियां की संख्या मूल अपराधों के लिए की
कुल गिरफ्तारी संख्या से बहुत ऊपर है. जबकि निवारक गिरफ्तारियों 4,79,404
हैं, ठोस अपराधों के लिए गिरफ्तारी की संख्या 1,73,634 है. . जमानती
अपराधों में गिरफ्तार व्यक्तियों का प्रतिशत 45.13 है.
हरियाणा
में जमानती प्रावधानों के तहत गिरफ्तारी 94% है, केरल में यह 71% है,
असम में 90%, कर्नाटक में 84.8 % मध्य प्रदेश में 89% है और आंध्र
प्रदेश में यह 36.59% है. दरअसल उक्त सार के अवलोकन से जमानती अपराधों के
साथ साथ निवारक गिरफ्तारियों की अनावश्यक रूप से बड़ी संख्या का खुलासा होता
है. . यह मुश्किल से ही विश्वास किया जा सकता है कि इन सब अपराधों में,
गिरफ्तारी के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा जमानती वारंट जारी किए गए थे. वास्तव
में पुलिस द्वारा उन लोगों की गिरफ्तारी का बड़ा भाग बिना वारंट के था .
सेमिनार के दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा सुझाव दिया गया था कि
उनमें से कुछ की निवारक कानून के अंतर्गत गिरफ्तारी भले ही थी तो भी यह
समान रूप से परेशानीकारक है. यह आम जानकारी की बात है कि कानून प्रवर्तन
अधिकारियों द्वारा ज्यादतियों का अंतिम शिकार गरीब ही हैं. नियमित आय और
संपत्ति के बिना एक आदमी हमेशा चोरी या कुछ अपराध करने के संदेह के तहत
माना जाता है . इस अर्थ में, "गरीबी (ही) अपराध है" - जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
की उक्ति गूँजती है .
पुनः अपनी निर्धनता के कारण उनमें से
बहुत से व्यक्ति न्यायालय द्वारा निर्धारित जमानत नहीं दे पाने के कारण या
जमानत के लिए आवेदन नहीं कर सकने के कारण जेलों की पीड़ा सहन करते
हैं.न्यायालयों के ध्यान में ऐसे बहुत से मामले आये हैं जहाँ परीक्षणाधीन
व्यक्तियों को जेलों में उस समय से भी अधिक अवधि के लिए जेलों में रखा गया
जो कि जिस आरोप के लिए यदि वे दोषी पाए जाते तो भी उसकी दण्ड अवधि से अधिक
थीं .
वास्तव में समानता और स्वेच्छाचार एक दूसरे
के कट्टर शत्रु हैं एक का सम्बन्ध गणतंत्र में विधि के शासन से है जबकि
दूसरा बादशाही सनक और उन्माद से है .जहाँ एक कार्य स्वेछ्चारी है स्पष्ट है
कि वह राजनैतिक तर्क और संवैधानिक कानून दोनों के अनुसार असमान है और
इसलिए अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में है . अनुच्छेद 14 राज्य के स्वेच्छाचारी
कृत्यों पर प्रहार करता है और व्यवहार में औचित्य व समानता सुनिश्चित करता
है .तर्कसंगतता का सिद्धांत जिसका कानूनी के साथ साथ दार्शनिक समानता या
गैर स्वेछाचारीपन आवश्यक तत्व है जोकि अनुच्छेद 14 में से गुजरने वाली
प्रतिछाया है और अनुच्छेद 21 द्वारा स्थापित प्रक्रिया में परिभाषित
तर्कसंगता की जांच के प्रश्न का जवाब देने के लिए अनुच्छेद 14 के अनुरूप
होना चाहिए .यह सही , उचित एवं न्यायपूर्ण होनी चाहिए न कि स्वेच्छाचारी
,काल्पनिक या उत्पीडनकारी अन्यथा यह कोई प्रक्रिया नहीं होगी तथा अनुच्छेद
21 की आवश्यकताएं संतुष्ट नहीं होंगी ( मेनका गाँधी बनाम भारत संघ में
सुप्रीम कोर्ट ).
रिपोर्ट में आगे कहा है कि एक
व्यक्ति की मजिस्ट्रेट से बिना वारंट व आदेश के गिरफ़्तारी नागरिक की
स्वतंत्रता पर गंभीर आक्रमण है और वास्तव में गंभीर मामला है . जब एक
व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार किया जाता है तो उसे वारंट से गिरफ्तार
किये जाने के समान सामान्य सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती है .वारंट के अधीन
गिरफ़्तारी में मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर न्यायिक अधिकारी द्वारा
विचार किया जाता है और व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाने का निर्देश दिया
जाना उपयुक्त समझा जाता है जबकि बिना वारंट के पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी
पुलिस अधिकारी की व्यक्तिगत संतुष्टी के अधीन रहती है. सुप्रीम कोर्ट ने
अजायब सिंह के मामले में 1952 में कहा था कि वारंट जारी करते समय यह स्पष्ट
उल्लेख किया जाता है कि कथित व्यक्ति ने अपराध किया है या करना संभावित है
अथवा संदिग्ध है .बिना वारंट गिरफ़्तारी के मामलों में इसीलिए 24 घंटे के
भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित करने का प्रावधान रखा गया है ताकि
गिरफ्तार किये जाने की कानूनी अधिकृति और अपनाई गयी प्रक्रिया के संबंध
में न्यायिक विचारण हो सके जबकि वारंट के अधीन गिरफ़्तारी में न्यायिक
विचारण पहले से ही किया जा चुका होता है .
मेरे मतानुसार आयोग का
यह निष्कर्ष सही नहीं है व न्यायाधीशों का स्पष्ट पक्षपोषण है क्योंकि
जिन मामलों में गिरफ़्तारी अनावश्यक होती उनमें भी पुलिस द्वारा अभियुक्त को
प्रस्तुत करने पर न तो बिना शर्त छोड़ा जाता हैं और न ही पुलिस आचरण की कोई
भर्त्सना की जाती है तथा ऐसे मामलों का भी अभाव नहीं है जहाँ अनावश्यक
गिरफ़्तारी के मामलों में मात्र मजिस्ट्रेट ही नहीं अपितु सत्र न्यायधीशों
के स्तर तक जमानत से इंकारकर पुलिस के साथ मिलीभगत का खुला खेल खेला जाता
है . स्थिति यह है कि जब कभी अभिरक्षा में भेजने के निचले न्यायालय के
आदेश को उच्च या उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध , अनुचित या अवांछनीय पाया
जाता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाता है .बस जो कुछ होता है वह इतना ही
है . जिस न्यायिक अधिकारी ने किसी व्यक्ति को अवैध या अनुचित रूप से
अभिरक्षा में भेजकर कर उसकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किया का कुछ भी
नहीं बिगड़ता है .
रिपोर्ट में आगे कहा है कि
वास्तव में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत पुलिस अधिकारियों को दी गयी
गिरफ्तार करने की विस्तृत शक्तियां न्यायालयों को 100 वर्ष से भी अधिक समय
से परेशान कर रही हैं .न्यायालय यह कहते रहे हैं कि प्रत्येक गिरफ़्तारी के
लिए उचित कारण होना चाहिए .तथ्य यह है कि सरकारें बहुत ही कम मामलों में
पुलिस अधिकारियों द्वारा विधि विरुद्ध रोकने (निरुद्ध )के अपराधों में
अभियोजन पूर्व स्वीकृति देती हैं . ( राज्य पुलिस सेवा अर्थात उप अधीक्षक
से निचले स्तर के पुलिस अधिकारी के अभियोजन हेतु सामान्यतया ऐसी स्वीकृति
आवश्यक नहीं है क्योंकि वे राज्यपाल या राष्ट्रपति की शक्तियों के प्रयोग
में नियुक्त नहीं होते हैं .)यदि एक पुलिस अधिकारी का इस प्रकार अभियोजन
किया जाता है तो चाहे वह सिपाही या उप निरीक्षक या निरीक्षक हो , कुछ
अपवादों को छोड़कर ,वे मात्र उसे संरक्षण देने का ही प्रयास नहीं करेंगे
अपितु शिकायतकर्ता को नाना प्रकार से परेशान कर उसे शिकायत वापस लेने को
विवश किया जाता है .इस भय को निराधार एवं निर्मूल नहीं कहा जा सकता है
जिसके कारण पुलिस अधिकारियों के अभियोजन का लगभग अभाव रहता है .इस बात को
ध्यान रखे बिना कि बहुत सी गिरफ्तारियां अवैध होती हैं फिर भी पुलिस विभाग
की शक्ति को चुन्नोती देने का सामान्यतया कोई भी व्यक्ति साहस नहीं करता है
.
मेरे मतानुसार यदि एक पीड़ित व्यक्ति किसी राजपुरुष के विरुद्ध
परिवाद प्रस्तुत कर भी दे तो उस पर न्यायालयों द्वारा समुचित कार्यवाही
नहीं की जाती है .आखिर एक लोकसेवक अपनी बिरादरी के विरुद्ध कार्यवाही से
परहेज जो करते हैं .
-मनीराम शर्मा
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