शिक्षा जीवन के लिए अमूल्य वस्तु है, इसके बिना जीवन अधूरा है। हमारे देश में तीन प्रकार की शिक्षा प्रणाली है, प्राइमरी स्तर, माध्यमिक स्तर और उच्च शिक्षा। हम यहाँ भारतीय उच्च शिक्षा की स्थिति-परिस्थिति के बारे में विस्तृत विश्लेषण करेंगे कि कैसे इस देश की लगभग 55 प्रतिशत ओबीसी जनसंख्या को उच्च शिक्षा से बाहर कर दिया गया! सवाल सबके मन में यही उठता है, कि संविधान में आरक्षण का प्राविधान है फिर भी ऐसा कैसे हो सकता है कि बहुजनों को उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया जाय? जब मैंने इस समस्या पर विधिवत अध्ययन किया, तो मुझे पता चला कि भारत के आजाद होने के बाद यहाँ के सरकारी तंत्र और राजनैतिक तंत्र में एक जाति का प्रभुत्व हो गया, वह है “ब्राह्मण”। यह देश की सबसे वर्चस्ववादी जाति है। यह अपने हितों के अनुसार अपने आप को बदलने में माहिर है।
एक सोची समझी चाल के तहत, इस ब्राह्मणवाद ने “बहुजनों” को आरक्षण देने से मना कर दिया। लेकिन तमाम प्रयासों और संघर्षों के बाद, “बहुजनों” को सन् 1993 में सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया गया। लेकिन उच्च शिक्षा में आरक्षण न होने के कारण इनका उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व न के बराबर था। बहुजन बुद्धिजीवियों और छात्रों ने सड़कों पर आन्दोलन किया। कई आन्दोलन होने के बाद, 2006 में सरकार ने उच्च शिक्षा पर एक कानून पारित किया जिसमें “बहुजनों” के लिए भी 27 प्रतिशत सीटें प्रवेश में आरक्षित कर दी गईं और इसके साथ ही “मानव संसाधन विकास मंत्रालय” ने एक दिशा निर्देश जारी किया कि ओ.बी.सी. वर्ग को भी उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाय लेकिन इस दिशा निर्देश में एक शब्द जोड़ दिया गया कि-"The reservation will implement at level of Assistant Professor" इसमें कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ओ.बी.सी. को “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” के स्तर पर आरक्षण नहीं देना है। "Assistant Professor" शब्द होने के कारण, उच्च शिक्षा संस्थानों के कर्ता-धर्ता, यथास्थितिवादी मनीषियों ने मान लिया कि ओ.बी.सी. को “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” स्तर पर आरक्षण नहीं देना है।
इसके साथ ही अगर हम सरकारी आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि बहुजनों को 27 प्रतिशत में से केवल 12 प्रतिशत नौकरियाँ ही मिली हैं। इसका सीधा सा मतलब यह है कि “बहुजनों” को सरकारी तंत्र में आने से रोका गया है। अगर SC और ST को मिला दिया जाय तो कुल मिलाकर 30 प्रतिशत नौकरियाँ इस देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या को मिली हैं। बाकी 70 प्रतिशत नौकरियाँ इस देश के 15 प्रतिशत सवर्णों को मिली हैं जिसमें सबसे अधिक अनुपात ब्राह्मणों का है। आरक्षण के बिना ही, ये लोग इस देश के शासन तंत्र पर कब्जा किए हुए हैं। आज देश में जिस तरह का राजनैतिक समीकरण बना हुआ है उसमें कुछ लोग आरक्षण के पक्ष में है और कुछ इसके विरोध में। आर.एस.एस. के अगुवा मोहन भागवत जी कहते हैं कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। मैं भी कहता हूँ कि समीक्षा इस बात की जरूर होनी चाहिए कि आरक्षित सीटों पर किन लोगों को नौकरियाँ दी गई हैं या किन लोगों ने जानबूझ कर आरक्षित लोगों को आने नहीं दिया। आज उन लोगों की पहचान करनी चाहिए जो आरक्षित सीटों पर नौकरियाँ कर रहे हैं और उनकी पहचान करने के बाद उन्हें जेल में डाला जाना चाहिए। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा है कि आखिर क्यों ओ.बी.सी. का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है? इसकी समस्या कहाँ पर है? मैं इस लेख के माध्यम से कहना चाहता हूँ कि इस सारे खेल में एक कानूनी दाँवपेंच है जिसके तहत यह सबकुछ हो रहा है और इस कानूनी दावपेंच के अनुसार ओ.बी.सी. की सीटों को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर दिया जाता है। “Department of Personnel and Training” के नियमानुसार किसी ओ.बी.सी. सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन आप उसी पोस्ट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर सकते हैं जिसका सम्बन्ध " Scientific” पोस्ट से हो और इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अगर आप किसी भी आरक्षित सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित करते हैं तो इसके पहले सम्बंधित विभाग को “Department of Personnel and Training” को सूचित करना जरूरी होता है। किन्तु इसका ठीक उल्टा हो रहा है। विभागों में बैठे बड़े-बड़े मनीषियों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वह ओ.बी.सी. सीट पर विज्ञापन तो निकालते हैं लेकिन दो साल तक इस सीट को नहीं भरते हैं। फिर इसके बाद इसी सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर देते हैं। अगर हम सरकारी तन्त्र के विभागों पर नजर डालें तो हमें पता चलेगा कि इस देश में कई सारे विभागों में ओ.बी.सी. सीटों को सामान्य में बदल दिया गया है। इसी का परिणाम यह हुआ है, कि आज कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ ओ.बी.सी. प्रतिनिधित्व न के बराबर है।
अगर हम इस देश की उच्च शिक्षा पर नजर डालें तो पता चलता है कि ओ.बी.सी. की हालत बहुत ही खराब और सोचनीय है। देश के कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जहाँ आज भी ओ.बी.सी. वर्ग से कोई “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” नहीं है। अगर हम इस देश के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों को देखें जिनमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय हैं। इन तीनों विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी. वर्ग स्थिति बहुत ही बुरी है। आर.टी.आई. के द्वारा प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुल प्रोफेसरों की संख्या 600 के ऊपर है, लेकिन उसमें मात्र 26 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मात्र 2 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं जबकि कुल प्रोफेसरों की संख्या 600 के ऊपर है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में लगभग 30 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं। ये तीनों विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के मामले में ख्याति हासिल किए हुए हैं लेकिन इन तीनों विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी. वर्ग से एक भी “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” नहीं है।इसका अर्थ यह है कि सविंधान में जो नियम या प्रावधान हैं उनकी सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। इसी कारण देश के कई विश्वविद्यालयों में आज भी ओ.बी.सी. सीटें खाली हैं। जैसे कि विशाखा भारती विश्वविद्यालय में 50, हरिसिंह गौर विश्विद्यालय में 45, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय में 44, पुडुचेरी विश्वविद्यालय में 34, तेजपुर विश्वविद्यालय में 33, असम विश्वविद्यालय में 32, दिल्ली विश्वविद्यालय में 32, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 32 ओबीसी प्रोफेसरों के पद खाली हैं। इन सीटों के खाली रखने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि ओ.बी.सी. के अभ्यर्थी इसके लायक नहीं हैं। इस देश में हजारों बुद्धिजीवी हैं जिनमें से कुछ ने इस मामले को बहुत गंभीरता से लिया है जबकि दूसरे लोगों ने इसे सिरे से नकार दिया है। प्रो. योगेन्द्र यादव ने हमेशा इस मुद्दे को लोगों के सामने रखा है। उन्होंने ओ.बी.सी. को उच्च शिक्षा में कैसे लाया जाय इसके लिए, अथक प्रयास किए हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी जब ओ.बी.सी. वर्ग का
प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षा में नहीं हो पाया, तब सन् 2008 में, मिनिस्ट्री ऑफ ह्यूमन रिसोर्सेज डेवलपमेंट ने एक लेटर सभी आई.आई.टी. के लिए लिखा। जिसमें यह साफ किया गया है कि- “reservation of 15% [7% and 27% for SCs] STs and OBCs shall apply in full] including for the post of associate professors and professors-.” इसका मतलब यह कि सभी आई.आई.टी. में ओ.बी.सी. वर्ग को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर स्तर पर भी आरक्षण दिया जाएगा। इसके बावजूद अभी तक ओ.बी.सी. वर्ग का पूर्ण प्रतिनिधित्व इन संस्थानों में नहीं हो पाया है। ओ.बी.सी. आरक्षण पर “OBC Parliament Committee" ने अपनी रिपोर्ट संसद को मार्च 2015 में सौंपी जिसमें यह पाया गया कि ओ.बी.सी. की हालत उच्च शिक्षा में बहुत ही सोचनीय है। इस देश के जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में 16.30 प्रतिशत, कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में 4.40 प्रतिशत, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय में 20.13 प्रतिशत, तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय में 19.19 प्रतिशत, हेमवतीनंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में 5.24 प्रतिशत, दिल्ली केंद्रीय विश्वविद्यालय में 22.70 प्रतिशत, राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में 7.00 प्रतिशत, विश्व भारती विश्वविद्यालय में 22.45 प्रतिशत ओ.बी.सी. छात्र-छात्राओं का प्रतिनिधित्व है। इसमें सबसे दयनीय हालत कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में 4.40 प्रतिशत, और हेमवतीनंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में 5.24 प्रतिशत, की है। ये आंकड़े एक इशारा करते हैं कि व्यवस्था में बैठे हुए लोगों ने ओ.बी.सी. वर्ग को उच्च शिक्षा में जाने से रोकने के लिए षड्यंत्रपूर्ण प्रयास किया है और आज भी कर रहे हैं। अगर हम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की बात करें, तो पता चलता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में 21.52 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में 18.90 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में 24.70 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खरगपुर में 25.49 प्रतिशत, एन.ई.टी. कुरुक्षेत्र में 24.26 प्रतिशत, एन.ई.टी. श्रीनगर में 17 प्रतिशत, आई.आई.एस.इ.आर. कोलकता में 14.87 प्रतिशत और आई.आई.एस.इ.आर. पुणे में 23.69 प्रतिशत ओ.बी.सी. छात्रों का प्रतिनिधित्व है। अगर हम केंद्रीय विश्वविद्यालयों और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों को तुलनात्मक रूप से देखते हैं तो पाते हैं कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में ओ.बी.सी. वर्ग का प्रतिनिधित्व थोड़ा ठीक है। लेकिन दोनों में समानता यह है कि ओ.बी.सी. का 27 प्रतिशत आरक्षित कोटा अभी तक नहीं भरा गया है। ओ.बी.सी. सामाजिक न्याय को लेकर कई सांसद समय-समय पर संसद में यह मुद्दा उठाते रहते हैं, लेकिन इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं करना चाहता है। सब लोग दो मिनट की बात सुनकर टाल देते हैं।
एक सोची समझी चाल के तहत, इस ब्राह्मणवाद ने “बहुजनों” को आरक्षण देने से मना कर दिया। लेकिन तमाम प्रयासों और संघर्षों के बाद, “बहुजनों” को सन् 1993 में सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया गया। लेकिन उच्च शिक्षा में आरक्षण न होने के कारण इनका उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व न के बराबर था। बहुजन बुद्धिजीवियों और छात्रों ने सड़कों पर आन्दोलन किया। कई आन्दोलन होने के बाद, 2006 में सरकार ने उच्च शिक्षा पर एक कानून पारित किया जिसमें “बहुजनों” के लिए भी 27 प्रतिशत सीटें प्रवेश में आरक्षित कर दी गईं और इसके साथ ही “मानव संसाधन विकास मंत्रालय” ने एक दिशा निर्देश जारी किया कि ओ.बी.सी. वर्ग को भी उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाय लेकिन इस दिशा निर्देश में एक शब्द जोड़ दिया गया कि-"The reservation will implement at level of Assistant Professor" इसमें कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ओ.बी.सी. को “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” के स्तर पर आरक्षण नहीं देना है। "Assistant Professor" शब्द होने के कारण, उच्च शिक्षा संस्थानों के कर्ता-धर्ता, यथास्थितिवादी मनीषियों ने मान लिया कि ओ.बी.सी. को “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” स्तर पर आरक्षण नहीं देना है।
इसके साथ ही अगर हम सरकारी आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि बहुजनों को 27 प्रतिशत में से केवल 12 प्रतिशत नौकरियाँ ही मिली हैं। इसका सीधा सा मतलब यह है कि “बहुजनों” को सरकारी तंत्र में आने से रोका गया है। अगर SC और ST को मिला दिया जाय तो कुल मिलाकर 30 प्रतिशत नौकरियाँ इस देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या को मिली हैं। बाकी 70 प्रतिशत नौकरियाँ इस देश के 15 प्रतिशत सवर्णों को मिली हैं जिसमें सबसे अधिक अनुपात ब्राह्मणों का है। आरक्षण के बिना ही, ये लोग इस देश के शासन तंत्र पर कब्जा किए हुए हैं। आज देश में जिस तरह का राजनैतिक समीकरण बना हुआ है उसमें कुछ लोग आरक्षण के पक्ष में है और कुछ इसके विरोध में। आर.एस.एस. के अगुवा मोहन भागवत जी कहते हैं कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। मैं भी कहता हूँ कि समीक्षा इस बात की जरूर होनी चाहिए कि आरक्षित सीटों पर किन लोगों को नौकरियाँ दी गई हैं या किन लोगों ने जानबूझ कर आरक्षित लोगों को आने नहीं दिया। आज उन लोगों की पहचान करनी चाहिए जो आरक्षित सीटों पर नौकरियाँ कर रहे हैं और उनकी पहचान करने के बाद उन्हें जेल में डाला जाना चाहिए। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा है कि आखिर क्यों ओ.बी.सी. का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है? इसकी समस्या कहाँ पर है? मैं इस लेख के माध्यम से कहना चाहता हूँ कि इस सारे खेल में एक कानूनी दाँवपेंच है जिसके तहत यह सबकुछ हो रहा है और इस कानूनी दावपेंच के अनुसार ओ.बी.सी. की सीटों को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर दिया जाता है। “Department of Personnel and Training” के नियमानुसार किसी ओ.बी.सी. सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन आप उसी पोस्ट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर सकते हैं जिसका सम्बन्ध " Scientific” पोस्ट से हो और इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अगर आप किसी भी आरक्षित सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित करते हैं तो इसके पहले सम्बंधित विभाग को “Department of Personnel and Training” को सूचित करना जरूरी होता है। किन्तु इसका ठीक उल्टा हो रहा है। विभागों में बैठे बड़े-बड़े मनीषियों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वह ओ.बी.सी. सीट पर विज्ञापन तो निकालते हैं लेकिन दो साल तक इस सीट को नहीं भरते हैं। फिर इसके बाद इसी सीट को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर देते हैं। अगर हम सरकारी तन्त्र के विभागों पर नजर डालें तो हमें पता चलेगा कि इस देश में कई सारे विभागों में ओ.बी.सी. सीटों को सामान्य में बदल दिया गया है। इसी का परिणाम यह हुआ है, कि आज कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ ओ.बी.सी. प्रतिनिधित्व न के बराबर है।
अगर हम इस देश की उच्च शिक्षा पर नजर डालें तो पता चलता है कि ओ.बी.सी. की हालत बहुत ही खराब और सोचनीय है। देश के कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जहाँ आज भी ओ.बी.सी. वर्ग से कोई “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” नहीं है। अगर हम इस देश के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों को देखें जिनमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय हैं। इन तीनों विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी. वर्ग स्थिति बहुत ही बुरी है। आर.टी.आई. के द्वारा प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुल प्रोफेसरों की संख्या 600 के ऊपर है, लेकिन उसमें मात्र 26 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मात्र 2 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं जबकि कुल प्रोफेसरों की संख्या 600 के ऊपर है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में लगभग 30 असिस्टेंट प्रोफेसर ओ.बी.सी. वर्ग से हैं। ये तीनों विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के मामले में ख्याति हासिल किए हुए हैं लेकिन इन तीनों विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी. वर्ग से एक भी “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर” नहीं है।इसका अर्थ यह है कि सविंधान में जो नियम या प्रावधान हैं उनकी सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। इसी कारण देश के कई विश्वविद्यालयों में आज भी ओ.बी.सी. सीटें खाली हैं। जैसे कि विशाखा भारती विश्वविद्यालय में 50, हरिसिंह गौर विश्विद्यालय में 45, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय में 44, पुडुचेरी विश्वविद्यालय में 34, तेजपुर विश्वविद्यालय में 33, असम विश्वविद्यालय में 32, दिल्ली विश्वविद्यालय में 32, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 32 ओबीसी प्रोफेसरों के पद खाली हैं। इन सीटों के खाली रखने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि ओ.बी.सी. के अभ्यर्थी इसके लायक नहीं हैं। इस देश में हजारों बुद्धिजीवी हैं जिनमें से कुछ ने इस मामले को बहुत गंभीरता से लिया है जबकि दूसरे लोगों ने इसे सिरे से नकार दिया है। प्रो. योगेन्द्र यादव ने हमेशा इस मुद्दे को लोगों के सामने रखा है। उन्होंने ओ.बी.सी. को उच्च शिक्षा में कैसे लाया जाय इसके लिए, अथक प्रयास किए हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी जब ओ.बी.सी. वर्ग का
प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षा में नहीं हो पाया, तब सन् 2008 में, मिनिस्ट्री ऑफ ह्यूमन रिसोर्सेज डेवलपमेंट ने एक लेटर सभी आई.आई.टी. के लिए लिखा। जिसमें यह साफ किया गया है कि- “reservation of 15% [7% and 27% for SCs] STs and OBCs shall apply in full] including for the post of associate professors and professors-.” इसका मतलब यह कि सभी आई.आई.टी. में ओ.बी.सी. वर्ग को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर स्तर पर भी आरक्षण दिया जाएगा। इसके बावजूद अभी तक ओ.बी.सी. वर्ग का पूर्ण प्रतिनिधित्व इन संस्थानों में नहीं हो पाया है। ओ.बी.सी. आरक्षण पर “OBC Parliament Committee" ने अपनी रिपोर्ट संसद को मार्च 2015 में सौंपी जिसमें यह पाया गया कि ओ.बी.सी. की हालत उच्च शिक्षा में बहुत ही सोचनीय है। इस देश के जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में 16.30 प्रतिशत, कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में 4.40 प्रतिशत, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय में 20.13 प्रतिशत, तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय में 19.19 प्रतिशत, हेमवतीनंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में 5.24 प्रतिशत, दिल्ली केंद्रीय विश्वविद्यालय में 22.70 प्रतिशत, राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में 7.00 प्रतिशत, विश्व भारती विश्वविद्यालय में 22.45 प्रतिशत ओ.बी.सी. छात्र-छात्राओं का प्रतिनिधित्व है। इसमें सबसे दयनीय हालत कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में 4.40 प्रतिशत, और हेमवतीनंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में 5.24 प्रतिशत, की है। ये आंकड़े एक इशारा करते हैं कि व्यवस्था में बैठे हुए लोगों ने ओ.बी.सी. वर्ग को उच्च शिक्षा में जाने से रोकने के लिए षड्यंत्रपूर्ण प्रयास किया है और आज भी कर रहे हैं। अगर हम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की बात करें, तो पता चलता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में 21.52 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में 18.90 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में 24.70 प्रतिशत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खरगपुर में 25.49 प्रतिशत, एन.ई.टी. कुरुक्षेत्र में 24.26 प्रतिशत, एन.ई.टी. श्रीनगर में 17 प्रतिशत, आई.आई.एस.इ.आर. कोलकता में 14.87 प्रतिशत और आई.आई.एस.इ.आर. पुणे में 23.69 प्रतिशत ओ.बी.सी. छात्रों का प्रतिनिधित्व है। अगर हम केंद्रीय विश्वविद्यालयों और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों को तुलनात्मक रूप से देखते हैं तो पाते हैं कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में ओ.बी.सी. वर्ग का प्रतिनिधित्व थोड़ा ठीक है। लेकिन दोनों में समानता यह है कि ओ.बी.सी. का 27 प्रतिशत आरक्षित कोटा अभी तक नहीं भरा गया है। ओ.बी.सी. सामाजिक न्याय को लेकर कई सांसद समय-समय पर संसद में यह मुद्दा उठाते रहते हैं, लेकिन इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं करना चाहता है। सब लोग दो मिनट की बात सुनकर टाल देते हैं।
ओ.बी.सी. का प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षा में नहीं होने के कारण, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने “United Forum Of OBC” बनाया है। इस संगठन को रूप-रेखा देने में दिलीप, मुलायम सिंह, राजेश कुमार, विशम्भर, अनूप, आलोक कुमार और कई छात्रों की अहम् भूमिका रही है। इस संगठन का उद्देश्य यह है कि ओ.बी.सी. को कैसे संगठित किया जाए और एक वर्ग के रूप में उसे कैसे स्थापित किया जाए? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जाति का जो जहर ओ.बी.सी. वर्ग में आ चुका है उस जहर को कैसे खत्म किया जाय? क्योंकि जातीय अलगाव के कारण यह वर्ग संगठित नहीं है। इस देश के ब्राह्मणवाद ने हिन्दू समाज को संभवतः इसीलिए इतनी जातियों में बाँट दिया कि ये कभी संगठित होना चाहें भी तो न हो सकें और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का किला इनके शोषण की नींव पर सलामत खड़ा रहे।
इसी वजह से जो लोग इस देश की कार्यकारी व्यवस्था में बैठे हुए हैं, ओ.बी.सी. की सीटों को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर देते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि केंद्रीय सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. का प्रतिनिधित्व सिर्फ 12 प्रतिशत है। जबकि 1990 में जब ओ.बी.सी. आरक्षण लागू नहीं हुआ था, तब इस समुदाय का प्रतिनिधित्व लगभग 10 प्रतिशत था जो आरक्षण मिलने के बाद मात्र 2 प्रतिशत बढ़ा है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि बड़े पैमाने पर, एक सोची समझी चाल के तहत ओ.बी.सी. को सरकारी तंत्र और उच्च शिक्षा में आने से रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं। आज ओ.बी.सी. की यह हालत, ओ.बी.सी. छात्रों के मन में एक सवाल खड़ा करती है कि यह व्यवस्था “आखिर क्यों ओ.बी.सी. को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती है?” दरअसल बात यह कि इस देश में ओ.बी.सी. बहुसंख्यक है जिसका प्रतिशत 55 प्रतिशत से 60 प्रतिशत है। यथास्थितिवादी, वर्चस्ववादी शक्तियों को इस बात का डर है कि कहीं ओ.बी.सी. इस व्यवस्था में आ गया तो सिस्टम में बैठे मठाधीशों का परंपरागत वर्चस्व टूट जाएगा और उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था का अंत हो जाएगा। बहुसंख्यक वर्ग को देश की व्यवस्था से बाहर रखना एक लंबे समय तक सुलगकर होने वाली क्रांति का संकेत है क्योंकि पिछड़ा वर्ग अब जाग रहा है और राजनैतिक रूप से वह सक्षम हो चुका है।
इसी वजह से जो लोग इस देश की कार्यकारी व्यवस्था में बैठे हुए हैं, ओ.बी.सी. की सीटों को सामान्य वर्ग में परिवर्तित कर देते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि केंद्रीय सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. का प्रतिनिधित्व सिर्फ 12 प्रतिशत है। जबकि 1990 में जब ओ.बी.सी. आरक्षण लागू नहीं हुआ था, तब इस समुदाय का प्रतिनिधित्व लगभग 10 प्रतिशत था जो आरक्षण मिलने के बाद मात्र 2 प्रतिशत बढ़ा है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि बड़े पैमाने पर, एक सोची समझी चाल के तहत ओ.बी.सी. को सरकारी तंत्र और उच्च शिक्षा में आने से रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं। आज ओ.बी.सी. की यह हालत, ओ.बी.सी. छात्रों के मन में एक सवाल खड़ा करती है कि यह व्यवस्था “आखिर क्यों ओ.बी.सी. को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती है?” दरअसल बात यह कि इस देश में ओ.बी.सी. बहुसंख्यक है जिसका प्रतिशत 55 प्रतिशत से 60 प्रतिशत है। यथास्थितिवादी, वर्चस्ववादी शक्तियों को इस बात का डर है कि कहीं ओ.बी.सी. इस व्यवस्था में आ गया तो सिस्टम में बैठे मठाधीशों का परंपरागत वर्चस्व टूट जाएगा और उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था का अंत हो जाएगा। बहुसंख्यक वर्ग को देश की व्यवस्था से बाहर रखना एक लंबे समय तक सुलगकर होने वाली क्रांति का संकेत है क्योंकि पिछड़ा वर्ग अब जाग रहा है और राजनैतिक रूप से वह सक्षम हो चुका है।
-आलोक कुमार
मोबाइल: 08460931297
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून 2016 में प्रकाशित
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