देश में हर साल 7 अगस्त ‘सामाजिक न्याय दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। 7 अगस्त सन् 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दिया था। मंडल आयोग की रिपोर्ट में प्रमुख रूप से 13 अनुसंशाओं का वर्णन है जिसमें अभी तक दो अनुसंशाएँ ही लागू हो पाई हैं। भारतीय संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकार के अनु. 16(4) के तहत OBC को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण तथा अनु. 15(4) के अनुसार शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है। अतः मंडल कमीशन की अनुसंशाएँ आकाश से टपक कर खजूर में लटक गई हैं। बीते 22 सालों में देश की परिस्थितियों में कई राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक बदलाव हुए हैं। दलित-पिछड़ों का राजनैतिक उभार अब ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक परिलक्षित होता है, बावजूद इसके मंडल कमीशन की सभी संस्तुतियों का लागू न होना एक संदेह को जन्म देता है। आखिर कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन्होंने आबादी के सबसे बड़े हिस्से को उसके वाजिब राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक अधिकारों से वंचित कर रखा हैं? आरक्षण और सामाजिक न्याय कैसे एक-दूसरे के पूरक है? मंडल कमीशन ने कैसे जाति-आधारित शोषित समाज को एक बड़े वर्ग के रूप में परिवर्तित कर दिया? इन सबकी पड़ताल करना जरूरी हो जाता है।
भारत को आजादी मिलने के बाद पिछड़े तबकों (ST/SC/BC/Minoritis) ने अपने हक-हकूक के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऊपर काफी दबाव था कि वे देश के शोषित तबके को उसका वाजिब हक प्रदान करें। डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने अथक प्रयासों से देश के दलितों और आदिवासियों के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर गए, लेकिन ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के लिए संविधान में एक आयोग के गठन की संभावना के अलावा और कुछ नहीं था। संविधान का अनु. 340 पिछड़े वर्गों की दशाओं के विश्लेषण के लिए एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
अनु. 340(1)- राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक तथा शिक्षित दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं, वे जिन कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने तथा उनकी दशा सुधारने हेतु संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिए, उनके बारे में सिफारिश करने के लिए, आदेश द्वारा एक आयोग नियुक्त कर सकेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जिसे वह ठीक समझे और ऐसे आयोग की नियुक्ति वाले आदेश में आदेश द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।
अनु. 340(2)- इस प्रकार नियुक्त आयोग स्वयं को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किए जाएँगे और जिसमें ऐसी सिफारिशें की जाएँगी जिन्हें आयोग उचित समझे। अनु. 340(3) राष्ट्रपति द्वारा इस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गई कार्रवाई को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन में रखा जाएगा। अतः प्रतिशत अनु. 340 के अनुदेश के तहत 1953 में काका कालेलकर के नेतृत्व में एक ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ का गठन हुआ जो ‘पिछड़े’ वर्गों व जातियों की पहचान करेगा, भारत के समस्त समुदायों की सूची बनाएगा और उनकी समस्याओं का निरीक्षण करेगा तथा उनकी बेहतरी के लिए कुछ ठोस प्रस्ताव लाएगा, ऐसे प्रावधान उसमें किए गए। काका कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1955 में केंद्र सरकार को सौंप दी लेकिन स्वनामधन्य समाजवादी प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे लागू करना आवश्यक नहीं समझा। काका कालेलकर के ऊपर भी यह आरोप लगता है कि उन्होंने जान-बूझ कर ऐसी सिफारिशें प्रस्तुत कीं जो केंद्र सरकार को रास नहीं आईं। हालाँकि राज्य सरकारों को ये अथारिटी मिल गई कि वे स्वयं पिछड़े वर्गों की सूची तैयार करें और इन्हें ‘विशेष अवसर की सुविधा’ प्रदान करें। (स्रोत- भारतीय संविधान, डी.डी. बसु)
काका कालेलकर कमीशन की नाकामियों के चलते दूसरे ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ के गठन की जरूरत पड़ी। 1 जनवरी 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय राष्ट्रपति के आदेशानुसार बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में दूसरा ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ का गठन हुआ जिसके अन्य सदस्य आर.आर. भोले, दीवान मोहनलाल, एल.आर. नाईक तथा के. सुब्रमण्यम थे। पूरे देश में यह आयोग ‘मंडल आयोग’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मंडल कमीशन ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी।
मंडल कमीशन के प्रमुख उद्देश्य थे- सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए मानकों को निश्चित करना, उनकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण अनुसंशाओं को प्रस्तावित करना, उनकी दशा सुधारने हेतु पदों और नियुक्तियों में आरक्षण क्यों जरूरी है, इसका निरीक्षण करना और कमीशन द्वारा प्राप्त तथ्यों को रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करना। सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए मंडल कमीशन ने कुल 11 मानकों को अपनाया जिन्हें प्रमुखतया 3 समूहों में वर्गीकृत जा सकता है- सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक। इस प्रकार मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना के अनुसार 52 प्रतिशत पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की अनुसंशा की। (नोट- इस 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की आबादी में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी 16.6 प्रतिशत का 52 प्रतिशत अल्पसंख्यक पिछड़े वर्ग को भी कुल आरक्षण 27 प्रतिशत में समाहित किया गया)। यहाँ मंडल कमीशन की प्रमुख अनुसंशाओं का उल्लेख किया जा सकता है-
अनु. 15(4) और 16(4) के तहत 50 प्रतिशत आरक्षण की सीलिंग है औरSC/ST को उनकी आबादी के अनुपात में 22 प्रतिशत मिला हुआ है। अत प्रतिशत कमीशन OBC के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित करता है। अनु. 15(4) और अनु. 29(2) (अल्पसंख्यकों को सरंक्षण) राज्य के ऊपर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं करता यदि वह सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाए। इसी तरह अनु. 16(4) राज्य को नहीं रोकेगा यदि राज्य राजकीय नौकरियों तथा नियुक्तियों में सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न होने से पदों तथा नियुक्तियों में उनके लिए आरक्षण की अनुसंशा करे।
- सरकारी नौकरियों में शामिल OBC उम्मीदवारों को प्रोन्नति में भी 27 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय।
- OBC की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़े वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाएँ। OBC छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा दी जाय।
- OBC की विशाल आबादी जीविका के लिए पारंपरिक तथा जातिपरक पेशों में लगी हुई है। इनकी दयनीय आर्थिक हालत को देखते हुए इन्हें संस्थागत वित्तीय, तकनीकी सहायता देने तथा इनमें उद्यमी दृष्टिकोण विकसित करने के लिए वित्तीय, तकनीकी संस्थाओं का समूह तैयार किया जाय।
- प्रत्येक जातिपरक पेशे के लिए सहकारी समितियाँ गठित की जाएँ जिनके तमाम कार्यकर्ता, कर्मचारी और अधिकारीगण उसी जातिगत पेशे से जुड़े होने चाहिए।
- जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाय क्योंकि पिछड़े वर्गों की बड़ी जमात जमींदारी प्रथा से सताई हुई है।
- सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल ST/SC को दिया जाये बल्कि OBC को भी इसमें शामिल किया जाय। OBC के कल्याण के लिए राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई तथा चलाई जा रही तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाय। केंद्र और राज्य सरकारों में OBC के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय-विभाग स्थापित किए जाएँ। आयोग की अनुसंशाओं का क्या परिणाम निकला, उन्हें कहाँ तक लागू किया गया, इसकी समीक्षा 20 वर्ष के बाद की जाय। 1990 में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन को लागू किया तो उच्चवर्णीय बुर्जुआ ताकतों को अपने राजनैतिक-आर्थिक वर्चस्व में एक जोर का झटका लगा नतीजन इन प्रतिक्रियावादी ताकतों ने वी.पी. सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इन ताकतों ने आरक्षण विरोधी आन्दोलन पूरे देश में चलाया जिसका नेतृत्व देश के कथित एलीट, उच्चकुलक, सामंत, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षकों ने किया। इसी समय देश में दो महत्वपूर्ण राजनैतिक तथा आर्थिक बदलाव हुए। धार्मिक उन्माद को पूरे देश में इतना प्रचारित-प्रसारित किया गया कि कमंडल के आगे मंडल कमजोर पड़ गया। राजनीति का धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण कर दिया गया अर्थात हिन्दू बनाम मुसलमान। लेकिन असलियत कुछ और थी, धर्म आधारित राजनीति का नेतृत्व हमेशा प्रभु वर्ग ने किया है जो हर धर्म का सबसे ऊपरी तबका होता है, अर्थात धर्म के निचले पायदान में पाए जाने वाले लोगों का राजनैतिक व्यवस्था के निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं रहता। उनका इस्तेमाल धार्मिक उन्माद फैलाने में, भिन्न-भिन्न धार्मिक पहचान के आधार पर एक दूसरे को लड़ाने में किया जाता है। यदि मंदिर-मस्जिद विवाद से दुष्प्रभावित समूहों के आँकड़े ईमानदारी से इकट्ठे किए जाएँ तो सबसे ज्यादा निम्नवर्णीय-सर्वहारा लोग ही होंगे। इस प्रकार सामंती ताकतों तथा प्रभु वर्ग ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पूरे प्रयास किए। दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव आर्थिक था- देश में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को खुशी-खुशी लाया जाता है। पब्लिक सेक्टर का डि-रेगुलराइजेशन आरम्भ हो जाता है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आम बजट में कोई खास जगह नहीं दी जाती है। इन दोनों का तेजी से निजीकरण शुरू हो जाता है। देश की निजी कंपनियों को अपार प्रोत्साहन दिया जाता है और उन्हें किसानों से कई गुना अधिक सब्सिडी दी जाती है। पब्लिक सेक्टर तथा सरकारी संस्थानों के निजी हाथों में चले जाने से वहाँ आरक्षण का कोई स्कोप ही नहीं बचता है, अतः देश की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने अपने निजी हितों के सरंक्षण में देश की प्रगति पर कुठाराघात कर दिया। जबकि इन प्रतिक्रियावादी ताकतों को आरक्षण को दक्षिण अफ्रीका में लागू “।AFFIRMATIVE ACTIONß के रूप में देखना चाहिए। जब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों ने अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन शुरू किया और राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक यानी हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की माँग की तो वहाँ के बुर्जुआ वर्ग ने स्वयं बढ़कर उन्हें आर्थिक, राजनैतिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दे दिया। दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत बहुसंख्यक हैं अतः उनके हक-हकूक को किनारे करना देश को पतन के रास्ते पर ले जाना है। देश की प्रगति के लिए सभी देशवासियों की प्रगति आवश्यक है, आज वहाँ श्वेत तथा अश्वेत दोनों मिलकर देश की उन्नति में लगे हुए हैं। दक्षिण अफ्रीका को सन् 1992 में आजादी मिली और आज वह अफ्रीका महादेश के एक विकसित देश के रूप में उभर रहा है। लेकिन भारत ने वो मौका खो दिया। यहाँ का अल्पसंख्यक, बुर्जुआ वर्ग अपने टूटते वर्चस्व को बचाने के लिए अपना अंतिम प्रयास कर रहा है और देश को पूँजीवादी शक्तियों के हाथ बेचने के लिए तैयार बैठा है।
इन्हीं प्रतिक्रियावादी ताकतों ने नब्बे के दशक में देश को धार्मिक उन्माद की भट्टी में झोंक दिया, और चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था की ‘शाक थेरेपी’ कर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बदल दिया। इन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी कि यह रिपोर्ट पूरी तरह ‘असंवैधानिक’ है। 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में नौ जजों की खंड-पीठ ने मंडल कमीशन रिपोर्ट की असंवैधानिकता को पूरी तरह से खारिज कर दिया और सरकार को निर्देश दिया कि ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ को क्रियान्वित करे। 1 फरवरी 1993 को 5 सदस्यों वाले आयोग का गठन हुआ, जिसके प्रथम चेयरमैन जस्टिस आर.एन. प्रसाद बने। इंदिरा साहनी केस ने दो आवश्यक मुद्दों की तरफ ध्यान खींचा- 1- पिछड़े वर्ग को, हिन्दू धर्म के अन्दर की अनेक जातियों को उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में निवास करना और अशिक्षा के कारण चिह्नित किया जा सकता है। 2- पिछड़ा वर्ग में आने के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान कर दिया। यदि पहले मुद्दे की तरफ देखा जाय तो कोर्ट इस बात को मानता है कि पिछड़े वर्गों को हिन्दू धर्म के अन्दर देखा जा सकता है, यानी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियाँ हिन्दू धर्म को मानने वाली हैं। ऐसा इसलिए कि इस वर्ग को आरक्षण उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में निवास करना और अशिक्षा के कारण दिया गया है, न कि उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर। इस मुद्दे पर और भी बहस की जरूरत है। दूसरा मुद्दा ‘मलाई की परत’ का है जो बुर्जुआ वर्ग की पिछड़े वर्गों के खिलाफ एक साजिश थी। क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट में कहीं भी ‘मलाई की परत’ का उल्लेख नहीं है। अतः क्रीमी लेयर का बंधन लगाकर बुर्जुआ वर्ग ने देश के बहुसंख्यक सर्वहारा वर्ग के बीच बन रही एकता को तोड़ दिया। मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश ‘केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए व्ठब् वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय’ को, केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया। लेकिन विश्वविद्यालयों तथा अन्य एलीट शिक्षा संस्थानों में जातिवादी प्रशासन के वर्चस्व के चलते इसे पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका। एक आंकडे के मुताबिक पूरे देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में OBC कोटे से मात्र 2 प्रोफेसर हैं। देश के विभिन्न मंत्रालयों, अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं तथा पब्लिक सेक्टर में OBC क्लास-1 नौकरियों में 4.69 प्रतिशत, क्लास-2 में 10.63 प्रतिशत, क्लास-3 में 18.98 प्रतिशत तथा क्लास-4 में 12.55 प्रतिशत हंै। इन दो अनुसंशाओं के अतिरिक्त अन्य अनुसंशाओं मसलन भूमि सुधार तथा OBC को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए केंद्र-राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित अनुदान आदि को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया। मंडल कमीशन की अनुसंशाओं को लेकर देश के प्रमुख राजनैतिक दलों का क्या रवैया रहा, इसे जानना भी जरूरी है। प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग को राजनैतिक चारे के रूप में इस्तेमाल किया है। 1992 में जब कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया तो कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने इसका श्रेय लेने की कोशिश की। क्रीमी लेयर के बंधन के खिलाफ कुछ नहीं किया गया। OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए विश्वविद्यालयों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय’ को केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया तो सामान्य वर्ग के लिए 27 प्रतिशत अतिरिक्त सीटों को बढ़ा दिया गया तथा OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए अवधि निश्चित की गई। कहीं-कहीं तो इसे 2012 तक नहीं लागू किया जा सका। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में यह 2011 में लागू हुआ। 2012 के पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 4.5 प्रतिशत का अल्पसंख्यकOBC कार्ड खेला लेकिन असफल रही। दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी भाजपा धर्म आधारित सांप्रदायिक राजनीति करती है। उसने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रमुख वामपंथी दल माकपा तो अभी तक OBC को ‘सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़ा मानती है और क्रीमी-लेयर के बंधन का समर्थन करती है (माकपा का प्रेस वक्तव्य, 17 मई, 2006)। पश्चिम बंगाल में माकपा की 34 साल तक सरकार रही लेकिन OBC को एक वर्ग के रूप स्वीकार नहीं कर पाई जिससे माकपा के चाल, चरित्र और चेहरे में उच्चवर्णीय-उच्च वर्गीय ठसक देखी जा सकती है। माकपा ने 2011 में OBC के लिए 17 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जिसमें सभी मुसलमानों को ‘पिछड़े वर्ग’ के रूप में देखा गया है। अन्य राजनैतिक दल जिनका नेतृत्व दलित-पिछड़ा वर्ग के लोगों के हाथों में है, उन्होंने मंडल कमीशन को राजनैतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। हालाँकि पिछले साल बिहार के चुनाव में इन दलों के महागठबंधन ने कमंडल ताकतों को परास्त किया है। देश का सर्वहारा वर्ग निरादर तथा गरीबी से ग्रसित है। वर्तमान समय की जरूरत है कि ST/SC के आरक्षण के साथ OBC की राजनैतिक-आर्थिक उन्नति के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्णतया प्रतिशत लागू किया जाय। OBC आरक्षण का विस्तार सभी सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों तक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार OBC के रिजर्वेशन के लिए क्रीमी लेयर के रूप में जो आर्थिक रेखा खींच दी गई है वह संविधान के महत्व को कम कर रही है तथा ये पूरी तरह से अ-संवैधानिक है।
‘क्रीमी-लेयर’ शब्द न तो संविधान और न ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट में अंकित है इसलिए क्रीमी-लेयर की कटेगरी को पूरी तरह से खत्म कर देनी चाहिए।ST औरSC कमीशन की भाँति OBC आरक्षण के कार्यान्वयन की देख-रेख हेतु संसदीय सब-कमेटी बने। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग कोST और SC कमीशन की तरह पूर्ण संवैधानिक शक्तियाँ प्रदान की जाएँ जिससे OBC हेतु आरक्षण के साथ खिलवाड़ करने वाले को कड़ी से कड़ी सजा मिल सके और चेयरमैन के पद पर अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की जगह राजनीति, शिक्षा या मीडिया क्षेत्र के महत्वपूर्ण लोगों की नियुक्ति हो। आरक्षण के दायरे का विस्तार निजी क्षेत्रों में किया जाए, जिसमें प्रमुख रूप से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया में और NGOs में दलित-पिछड़ों की भागीदारी को सुनिश्चित किया जाय। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन हो तथा उसमें आरक्षण के सिद्धांत को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। देश के सभी धार्मिक संस्थानों का सरकारीकरण कर दिया जाय, पुजारी पद के लिए ओपन कम्पटीशन हो। जाति-आधारित जनगणना जल्द से जल्द करवाई जाए। जिससे सभी शोषित तबकों के बीच मजबूत गठजोड़ हो। यही गठजोड़ बुर्जुआ, पूँजीवाद, सामंतवाद तथा जातिवाद से लड़कर सामाजिक क्षेत्र में मानववाद तथा आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद को पुनः प्रतिस्थापित करेगा।
को उनकी आबादी के अनुपात में 22 प्रतिशत मिला हुआ है। अत प्रतिशत कमीशन OBC के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित करता है। अनु. 15(4) और अनु. 29(2) (अल्पसंख्यकों को सरंक्षण) राज्य के ऊपर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं करता यदि वह सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाए। इसी तरह अनु. 16(4) राज्य को नहीं रोकेगा यदि राज्य राजकीय नौकरियों तथा नियुक्तियों में सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न होने से पदों तथा नियुक्तियों में उनके लिए आरक्षण की अनुसंशा करे।
-अनूप पटेल
मोबाइल: 09999277878
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक 2016 में प्रकाशित
भारत को आजादी मिलने के बाद पिछड़े तबकों (ST/SC/BC/Minoritis) ने अपने हक-हकूक के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऊपर काफी दबाव था कि वे देश के शोषित तबके को उसका वाजिब हक प्रदान करें। डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने अथक प्रयासों से देश के दलितों और आदिवासियों के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर गए, लेकिन ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के लिए संविधान में एक आयोग के गठन की संभावना के अलावा और कुछ नहीं था। संविधान का अनु. 340 पिछड़े वर्गों की दशाओं के विश्लेषण के लिए एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
अनु. 340(1)- राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक तथा शिक्षित दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं, वे जिन कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने तथा उनकी दशा सुधारने हेतु संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिए, उनके बारे में सिफारिश करने के लिए, आदेश द्वारा एक आयोग नियुक्त कर सकेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जिसे वह ठीक समझे और ऐसे आयोग की नियुक्ति वाले आदेश में आदेश द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।
अनु. 340(2)- इस प्रकार नियुक्त आयोग स्वयं को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किए जाएँगे और जिसमें ऐसी सिफारिशें की जाएँगी जिन्हें आयोग उचित समझे। अनु. 340(3) राष्ट्रपति द्वारा इस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गई कार्रवाई को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन में रखा जाएगा। अतः प्रतिशत अनु. 340 के अनुदेश के तहत 1953 में काका कालेलकर के नेतृत्व में एक ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ का गठन हुआ जो ‘पिछड़े’ वर्गों व जातियों की पहचान करेगा, भारत के समस्त समुदायों की सूची बनाएगा और उनकी समस्याओं का निरीक्षण करेगा तथा उनकी बेहतरी के लिए कुछ ठोस प्रस्ताव लाएगा, ऐसे प्रावधान उसमें किए गए। काका कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1955 में केंद्र सरकार को सौंप दी लेकिन स्वनामधन्य समाजवादी प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे लागू करना आवश्यक नहीं समझा। काका कालेलकर के ऊपर भी यह आरोप लगता है कि उन्होंने जान-बूझ कर ऐसी सिफारिशें प्रस्तुत कीं जो केंद्र सरकार को रास नहीं आईं। हालाँकि राज्य सरकारों को ये अथारिटी मिल गई कि वे स्वयं पिछड़े वर्गों की सूची तैयार करें और इन्हें ‘विशेष अवसर की सुविधा’ प्रदान करें। (स्रोत- भारतीय संविधान, डी.डी. बसु)
काका कालेलकर कमीशन की नाकामियों के चलते दूसरे ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ के गठन की जरूरत पड़ी। 1 जनवरी 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय राष्ट्रपति के आदेशानुसार बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में दूसरा ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ का गठन हुआ जिसके अन्य सदस्य आर.आर. भोले, दीवान मोहनलाल, एल.आर. नाईक तथा के. सुब्रमण्यम थे। पूरे देश में यह आयोग ‘मंडल आयोग’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मंडल कमीशन ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी।
मंडल कमीशन के प्रमुख उद्देश्य थे- सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए मानकों को निश्चित करना, उनकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण अनुसंशाओं को प्रस्तावित करना, उनकी दशा सुधारने हेतु पदों और नियुक्तियों में आरक्षण क्यों जरूरी है, इसका निरीक्षण करना और कमीशन द्वारा प्राप्त तथ्यों को रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करना। सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए मंडल कमीशन ने कुल 11 मानकों को अपनाया जिन्हें प्रमुखतया 3 समूहों में वर्गीकृत जा सकता है- सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक। इस प्रकार मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना के अनुसार 52 प्रतिशत पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की अनुसंशा की। (नोट- इस 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की आबादी में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी 16.6 प्रतिशत का 52 प्रतिशत अल्पसंख्यक पिछड़े वर्ग को भी कुल आरक्षण 27 प्रतिशत में समाहित किया गया)। यहाँ मंडल कमीशन की प्रमुख अनुसंशाओं का उल्लेख किया जा सकता है-
अनु. 15(4) और 16(4) के तहत 50 प्रतिशत आरक्षण की सीलिंग है औरSC/ST को उनकी आबादी के अनुपात में 22 प्रतिशत मिला हुआ है। अत प्रतिशत कमीशन OBC के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित करता है। अनु. 15(4) और अनु. 29(2) (अल्पसंख्यकों को सरंक्षण) राज्य के ऊपर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं करता यदि वह सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाए। इसी तरह अनु. 16(4) राज्य को नहीं रोकेगा यदि राज्य राजकीय नौकरियों तथा नियुक्तियों में सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न होने से पदों तथा नियुक्तियों में उनके लिए आरक्षण की अनुसंशा करे।
- सरकारी नौकरियों में शामिल OBC उम्मीदवारों को प्रोन्नति में भी 27 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय।
- OBC की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़े वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाएँ। OBC छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा दी जाय।
- OBC की विशाल आबादी जीविका के लिए पारंपरिक तथा जातिपरक पेशों में लगी हुई है। इनकी दयनीय आर्थिक हालत को देखते हुए इन्हें संस्थागत वित्तीय, तकनीकी सहायता देने तथा इनमें उद्यमी दृष्टिकोण विकसित करने के लिए वित्तीय, तकनीकी संस्थाओं का समूह तैयार किया जाय।
- प्रत्येक जातिपरक पेशे के लिए सहकारी समितियाँ गठित की जाएँ जिनके तमाम कार्यकर्ता, कर्मचारी और अधिकारीगण उसी जातिगत पेशे से जुड़े होने चाहिए।
- जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाय क्योंकि पिछड़े वर्गों की बड़ी जमात जमींदारी प्रथा से सताई हुई है।
- सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल ST/SC को दिया जाये बल्कि OBC को भी इसमें शामिल किया जाय। OBC के कल्याण के लिए राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई तथा चलाई जा रही तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाय। केंद्र और राज्य सरकारों में OBC के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय-विभाग स्थापित किए जाएँ। आयोग की अनुसंशाओं का क्या परिणाम निकला, उन्हें कहाँ तक लागू किया गया, इसकी समीक्षा 20 वर्ष के बाद की जाय। 1990 में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन को लागू किया तो उच्चवर्णीय बुर्जुआ ताकतों को अपने राजनैतिक-आर्थिक वर्चस्व में एक जोर का झटका लगा नतीजन इन प्रतिक्रियावादी ताकतों ने वी.पी. सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इन ताकतों ने आरक्षण विरोधी आन्दोलन पूरे देश में चलाया जिसका नेतृत्व देश के कथित एलीट, उच्चकुलक, सामंत, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षकों ने किया। इसी समय देश में दो महत्वपूर्ण राजनैतिक तथा आर्थिक बदलाव हुए। धार्मिक उन्माद को पूरे देश में इतना प्रचारित-प्रसारित किया गया कि कमंडल के आगे मंडल कमजोर पड़ गया। राजनीति का धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण कर दिया गया अर्थात हिन्दू बनाम मुसलमान। लेकिन असलियत कुछ और थी, धर्म आधारित राजनीति का नेतृत्व हमेशा प्रभु वर्ग ने किया है जो हर धर्म का सबसे ऊपरी तबका होता है, अर्थात धर्म के निचले पायदान में पाए जाने वाले लोगों का राजनैतिक व्यवस्था के निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं रहता। उनका इस्तेमाल धार्मिक उन्माद फैलाने में, भिन्न-भिन्न धार्मिक पहचान के आधार पर एक दूसरे को लड़ाने में किया जाता है। यदि मंदिर-मस्जिद विवाद से दुष्प्रभावित समूहों के आँकड़े ईमानदारी से इकट्ठे किए जाएँ तो सबसे ज्यादा निम्नवर्णीय-सर्वहारा लोग ही होंगे। इस प्रकार सामंती ताकतों तथा प्रभु वर्ग ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पूरे प्रयास किए। दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव आर्थिक था- देश में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को खुशी-खुशी लाया जाता है। पब्लिक सेक्टर का डि-रेगुलराइजेशन आरम्भ हो जाता है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आम बजट में कोई खास जगह नहीं दी जाती है। इन दोनों का तेजी से निजीकरण शुरू हो जाता है। देश की निजी कंपनियों को अपार प्रोत्साहन दिया जाता है और उन्हें किसानों से कई गुना अधिक सब्सिडी दी जाती है। पब्लिक सेक्टर तथा सरकारी संस्थानों के निजी हाथों में चले जाने से वहाँ आरक्षण का कोई स्कोप ही नहीं बचता है, अतः देश की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने अपने निजी हितों के सरंक्षण में देश की प्रगति पर कुठाराघात कर दिया। जबकि इन प्रतिक्रियावादी ताकतों को आरक्षण को दक्षिण अफ्रीका में लागू “।AFFIRMATIVE ACTIONß के रूप में देखना चाहिए। जब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों ने अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन शुरू किया और राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक यानी हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की माँग की तो वहाँ के बुर्जुआ वर्ग ने स्वयं बढ़कर उन्हें आर्थिक, राजनैतिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दे दिया। दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत बहुसंख्यक हैं अतः उनके हक-हकूक को किनारे करना देश को पतन के रास्ते पर ले जाना है। देश की प्रगति के लिए सभी देशवासियों की प्रगति आवश्यक है, आज वहाँ श्वेत तथा अश्वेत दोनों मिलकर देश की उन्नति में लगे हुए हैं। दक्षिण अफ्रीका को सन् 1992 में आजादी मिली और आज वह अफ्रीका महादेश के एक विकसित देश के रूप में उभर रहा है। लेकिन भारत ने वो मौका खो दिया। यहाँ का अल्पसंख्यक, बुर्जुआ वर्ग अपने टूटते वर्चस्व को बचाने के लिए अपना अंतिम प्रयास कर रहा है और देश को पूँजीवादी शक्तियों के हाथ बेचने के लिए तैयार बैठा है।
इन्हीं प्रतिक्रियावादी ताकतों ने नब्बे के दशक में देश को धार्मिक उन्माद की भट्टी में झोंक दिया, और चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था की ‘शाक थेरेपी’ कर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बदल दिया। इन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी कि यह रिपोर्ट पूरी तरह ‘असंवैधानिक’ है। 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में नौ जजों की खंड-पीठ ने मंडल कमीशन रिपोर्ट की असंवैधानिकता को पूरी तरह से खारिज कर दिया और सरकार को निर्देश दिया कि ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ को क्रियान्वित करे। 1 फरवरी 1993 को 5 सदस्यों वाले आयोग का गठन हुआ, जिसके प्रथम चेयरमैन जस्टिस आर.एन. प्रसाद बने। इंदिरा साहनी केस ने दो आवश्यक मुद्दों की तरफ ध्यान खींचा- 1- पिछड़े वर्ग को, हिन्दू धर्म के अन्दर की अनेक जातियों को उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में निवास करना और अशिक्षा के कारण चिह्नित किया जा सकता है। 2- पिछड़ा वर्ग में आने के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान कर दिया। यदि पहले मुद्दे की तरफ देखा जाय तो कोर्ट इस बात को मानता है कि पिछड़े वर्गों को हिन्दू धर्म के अन्दर देखा जा सकता है, यानी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियाँ हिन्दू धर्म को मानने वाली हैं। ऐसा इसलिए कि इस वर्ग को आरक्षण उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में निवास करना और अशिक्षा के कारण दिया गया है, न कि उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर। इस मुद्दे पर और भी बहस की जरूरत है। दूसरा मुद्दा ‘मलाई की परत’ का है जो बुर्जुआ वर्ग की पिछड़े वर्गों के खिलाफ एक साजिश थी। क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट में कहीं भी ‘मलाई की परत’ का उल्लेख नहीं है। अतः क्रीमी लेयर का बंधन लगाकर बुर्जुआ वर्ग ने देश के बहुसंख्यक सर्वहारा वर्ग के बीच बन रही एकता को तोड़ दिया। मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश ‘केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए व्ठब् वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय’ को, केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया। लेकिन विश्वविद्यालयों तथा अन्य एलीट शिक्षा संस्थानों में जातिवादी प्रशासन के वर्चस्व के चलते इसे पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका। एक आंकडे के मुताबिक पूरे देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में OBC कोटे से मात्र 2 प्रोफेसर हैं। देश के विभिन्न मंत्रालयों, अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं तथा पब्लिक सेक्टर में OBC क्लास-1 नौकरियों में 4.69 प्रतिशत, क्लास-2 में 10.63 प्रतिशत, क्लास-3 में 18.98 प्रतिशत तथा क्लास-4 में 12.55 प्रतिशत हंै। इन दो अनुसंशाओं के अतिरिक्त अन्य अनुसंशाओं मसलन भूमि सुधार तथा OBC को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए केंद्र-राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित अनुदान आदि को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया। मंडल कमीशन की अनुसंशाओं को लेकर देश के प्रमुख राजनैतिक दलों का क्या रवैया रहा, इसे जानना भी जरूरी है। प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग को राजनैतिक चारे के रूप में इस्तेमाल किया है। 1992 में जब कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया तो कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने इसका श्रेय लेने की कोशिश की। क्रीमी लेयर के बंधन के खिलाफ कुछ नहीं किया गया। OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए विश्वविद्यालयों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय’ को केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया तो सामान्य वर्ग के लिए 27 प्रतिशत अतिरिक्त सीटों को बढ़ा दिया गया तथा OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए अवधि निश्चित की गई। कहीं-कहीं तो इसे 2012 तक नहीं लागू किया जा सका। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में यह 2011 में लागू हुआ। 2012 के पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 4.5 प्रतिशत का अल्पसंख्यकOBC कार्ड खेला लेकिन असफल रही। दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी भाजपा धर्म आधारित सांप्रदायिक राजनीति करती है। उसने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रमुख वामपंथी दल माकपा तो अभी तक OBC को ‘सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़ा मानती है और क्रीमी-लेयर के बंधन का समर्थन करती है (माकपा का प्रेस वक्तव्य, 17 मई, 2006)। पश्चिम बंगाल में माकपा की 34 साल तक सरकार रही लेकिन OBC को एक वर्ग के रूप स्वीकार नहीं कर पाई जिससे माकपा के चाल, चरित्र और चेहरे में उच्चवर्णीय-उच्च वर्गीय ठसक देखी जा सकती है। माकपा ने 2011 में OBC के लिए 17 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जिसमें सभी मुसलमानों को ‘पिछड़े वर्ग’ के रूप में देखा गया है। अन्य राजनैतिक दल जिनका नेतृत्व दलित-पिछड़ा वर्ग के लोगों के हाथों में है, उन्होंने मंडल कमीशन को राजनैतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। हालाँकि पिछले साल बिहार के चुनाव में इन दलों के महागठबंधन ने कमंडल ताकतों को परास्त किया है। देश का सर्वहारा वर्ग निरादर तथा गरीबी से ग्रसित है। वर्तमान समय की जरूरत है कि ST/SC के आरक्षण के साथ OBC की राजनैतिक-आर्थिक उन्नति के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्णतया प्रतिशत लागू किया जाय। OBC आरक्षण का विस्तार सभी सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों तक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार OBC के रिजर्वेशन के लिए क्रीमी लेयर के रूप में जो आर्थिक रेखा खींच दी गई है वह संविधान के महत्व को कम कर रही है तथा ये पूरी तरह से अ-संवैधानिक है।
‘क्रीमी-लेयर’ शब्द न तो संविधान और न ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट में अंकित है इसलिए क्रीमी-लेयर की कटेगरी को पूरी तरह से खत्म कर देनी चाहिए।ST औरSC कमीशन की भाँति OBC आरक्षण के कार्यान्वयन की देख-रेख हेतु संसदीय सब-कमेटी बने। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग कोST और SC कमीशन की तरह पूर्ण संवैधानिक शक्तियाँ प्रदान की जाएँ जिससे OBC हेतु आरक्षण के साथ खिलवाड़ करने वाले को कड़ी से कड़ी सजा मिल सके और चेयरमैन के पद पर अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की जगह राजनीति, शिक्षा या मीडिया क्षेत्र के महत्वपूर्ण लोगों की नियुक्ति हो। आरक्षण के दायरे का विस्तार निजी क्षेत्रों में किया जाए, जिसमें प्रमुख रूप से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया में और NGOs में दलित-पिछड़ों की भागीदारी को सुनिश्चित किया जाय। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन हो तथा उसमें आरक्षण के सिद्धांत को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। देश के सभी धार्मिक संस्थानों का सरकारीकरण कर दिया जाय, पुजारी पद के लिए ओपन कम्पटीशन हो। जाति-आधारित जनगणना जल्द से जल्द करवाई जाए। जिससे सभी शोषित तबकों के बीच मजबूत गठजोड़ हो। यही गठजोड़ बुर्जुआ, पूँजीवाद, सामंतवाद तथा जातिवाद से लड़कर सामाजिक क्षेत्र में मानववाद तथा आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद को पुनः प्रतिस्थापित करेगा।
को उनकी आबादी के अनुपात में 22 प्रतिशत मिला हुआ है। अत प्रतिशत कमीशन OBC के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित करता है। अनु. 15(4) और अनु. 29(2) (अल्पसंख्यकों को सरंक्षण) राज्य के ऊपर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं करता यदि वह सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाए। इसी तरह अनु. 16(4) राज्य को नहीं रोकेगा यदि राज्य राजकीय नौकरियों तथा नियुक्तियों में सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न होने से पदों तथा नियुक्तियों में उनके लिए आरक्षण की अनुसंशा करे।
-अनूप पटेल
मोबाइल: 09999277878
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक 2016 में प्रकाशित
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