
अंततः छीन ली गईं धनंजय की साँसें।
अगस्त 15, 2004।
कोलकाता। चैदह साल पहले एक किशोरी से दुष्कर्म और हत्या के दोषी धनंजय चटर्जी को शनिवार सुबह यहाँ अलीपुर सेन्ट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। धनंजय के बूढ़े माता-पिता और उसकी पत्नी ने खुद को अपने घर में कैद रखा और उसका शव लेने नहीं आए। बेटे की मौत की खबर पाकर उसके पिता बंशीधर चटर्जी और माँ बेला रानी देवी की तबियत बिगड़ गई।
दो शब्द
फाँसी के तख्ते से उसने कहा- ‘‘मैं निर्दोष हूँ।’’ उसकी चीत्कार की प्रतिध्वनि हजारों मील दूर मैंने भी सुनी। कोर्ट-कचहरी और थाने-चैकियों में कानून के मकड़जाल में फँसे अनगिनत साधारण लोगों की वह चीत्कार थी। इस पुस्तक में काश्मीरा सिंह, शमसुद्दीन, अमित और मुस्तकीम से आप मिलेंगे। वे सब उसकी आह में आह मिला रहे थे।
वह धनंजय चटर्जी था।
धनंजय चटर्जी से मेरा कोई परिचय, सम्बन्ध या सरोकार उसके जीते जी नहीं रहा। परन्तु 15 अगस्त 2004 की प्रातः मरणोपरान्त वह मेरे घर और मित्रों की चर्चा में मुख्य अतिथि था। वह चर्चा ही इस पुस्तक की प्रस्तुति है जहाँ धनंजय के हवाले से आपको हमारे न्यायनिकेतनों के हाल चाल की झलक भी मिलेगी।
मेरा विनम्र प्रयास है कि तंत्र के क्रूर हाथों प्रजा को प्राप्त हो रही पीड़ा हमारे उन प्रभुओं तक पहुँचे और उसके जीवन के प्रति सम्मान का भाव न्याय के केन्द्र में प्रतिष्ठित हो, यही इस कृति का अभीष्ट है।
हाँ, साहित्य के शिल्प की दृष्टि से इस पुस्तक में दोष हो सकते हैं। मानवीय सम्वेदनाओं, सामाजिक सरोकारों और यथार्थ की जो सशक्त अभिव्यक्ति कवि और लेखक कर सकते हैं, वह मुझ जैसे साधारण अधिवक्ता के लिए कहाँ संभव है! इसलिए शास्त्रीय साहित्यिक मापदण्डों पर जहाँ जो भी त्रुटि हो उसे किसी बालक की तोतली बोली के दोष मानकर क्षमा कर दें।
क्रमशः..........
-मधुवन दत्त चतुर्वेदी
लोकसंघर्ष पत्रिका जून 2016 अंक में प्रकाशित
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