बुधवार, 7 दिसंबर 2016

गोमांसः समाज को बांटने वाला एक और मुद्दा


गोरक्षा के मुद्दे पर पहला बड़ा आंदोलन आज से ठीक 50 वर्ष पूर्व (नवंबर 1966) हुआ था और तब से यह मुद्दा जिंदा है। इसी मुद्दे को लेकर हाल में मोहम्मद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इस मुद्दे को लेकर हिंसा होती रही है। मवेशियों के कई व्यापारियों को जान से मार दिया गया। इसके पहले, हरियाणा में कुछ दलितों को तब मार दिया गया था जब वे एक मरी हुई गाय की खाल उतार रहे थे। कुछ समय पूर्व ऊना (गुजरात) में मरी हुई गाय की खाल उतार रहे चार दलितों की सार्वजनिक रूप से बेरहमी से पिटाई की गई। यह घटना एक पुलिस स्टेशन के नज़दीक हुई। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से इस तरह की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है।
तथ्य यह है कि वैदिक काल में भारत में गोमांस भक्षण आम था। जानेमाने इतिहासविद डी.एन. झा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘द मिथ ऑफ होली कॉऊ’’ (पवित्र गाय का मिथक) में इसकी पुष्टि की है। इस पुस्तक के प्रकाशन का हिन्दू राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया था। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित होने जा रही थी, प्रो. झा को कई धमकी भरे टेलीफोन कॉल मिले। यह पुस्तक अत्यंत विद्वतापूर्ण और तथ्यात्मक है। प्राचीन भारतीय इतिहास के हवाले से यह पुस्तक बताती है कि आर्य भी गोमांस खाते थे। भगवान गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणवादी यज्ञों में गाय की बलि देना बंद करने पर ज़ोर दिया था। उस समय भारत एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था बनने की ओर था और बैल इस अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण थे। बुद्ध ने समता का संदेश भी दिया, जो तत्कालीन ब्राह्मणवादी मूल्यों के विरूद्ध था। इसके बाद लंबे समय तक बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच संघर्ष चलता रहा। बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया और ब्राह्मणवाद का सूरज का कुछ समय के लिए अस्त हो गया। जब ब्राह्मणवाद का पुनउर्दय हुआ तो उसने गाय को माता के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया।
‘गोमाता’ हिन्दू सम्प्रदायवादियों की राजनीति का भी एक प्रमुख हथियार रहा है। इस राजनीति के पैरोकार थे ऊँची जातियों के हिन्दू, जिन्हें राजाओं और ज़मींदारों का संरक्षण प्राप्त था। ब्राह्मणवाद ने हिन्दू धर्म का चोला पहन लिया और गाय को अपना प्रतीक घोषित कर दिया। परंतु आज भी हिन्दुओं सहित कई वर्गों के लोग गोमांस खाते हैं। मानवशास्त्रीय अध्ययनों से यह पता चलता है कि भारत में गोमांस भक्षण करने वाले कई समुदाय हैं। आदिवासियों व दलितों के कुछ तबकों और कुछ अन्य हिन्दू समुदाय इनमें शामिल हैं। गोवा, केरल और असम जैसे कई राज्यों में गोमांस खानपान का हिस्सा है।
जहां एक सांप्रदायिक धारा ने गाय को अपना प्रतीक बनाया वहीं दूसरी सांप्रदायिक धारा ने सूअर के मुद्दे पर भावनाएं भड़कानी शुरू कर दीं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान दोनों धाराओं के सांप्रदायिकतावादियों ने समर्थन जुटाने के लिए इन मुद्दां का इस्तेमाल किया। जहां राष्ट्रीय आंदोलन धर्मनिरपेक्ष मुद्दों पर केन्द्रित था वहीं सांप्रदायिकतावादी, गाय और सुअर के मुद्दों को उछाल रहे थे।
स्वाधीनता के बाद, गोरक्षा के मुद्दे पर संविधानसभा में लंबी चर्चा हुई और अंततः यह निर्णय लिया गया कि इसे मूलाधिकारों का हिस्सा न बनाते हुए नीति निदेषक तत्वों में शामिल किया जाए। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने गांधीजी से यह अनुरोध किया कि वे गोहत्या और गोमांस को प्रतिबंधित करने के लिए काम करें। गांधी, जो कि 20वीं सदी के महानतम हिन्दू थे, ने इस अनुरोध को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और जब तक यहां ऐसे समुदाय हैं जो गोमांस भक्षण करते हैं, तब तक गोमांस को प्रतिबंधित करना अनुचित होगा।
हिन्दू संप्रदायवादियों ने राजनीति की बिसात पर गाय को लाने का पहला प्रयोग आज से ठीक 50 वर्ष पहले किया। सन 1966 के नवंबर में बडी संख्या में लोग इकट्ठे होकर संसद का घेराव करने पहुंचे। इसके बाद सरकार ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए इस पर विचार के लिए एक समिति नियुक्त की। समिति के समक्ष कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने अपने प्रतिवेदन दिए जिनमें आरएसएस के गोलवलकर शामिल थे। समिति किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी और लगभग एक दशक बाद उसे भंग कर दिया गया। यहां यह महत्वपूर्ण है कि 1966 के इस आंदोलन ने भाजपा के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ को मिलने वाले मतों को दुगना कर दिया। इससे संप्रदायवादियों को यह समझ में आ गया कि गाय के मुद्दे का इस्तेमाल वोट कबाड़ने के लिए किया जा सकता है और तब से ही यह मुद्दा सांप्रदायिक शक्तियों की रणनीति का हिस्सा बन गया। आज 50 साल बाद भी वे लोग इस मुद्दे का इस्तेमाल अपना जनाधार बढ़ाने के लिए कर रहे हैं।
आज के भारत में गोमांस और गोरक्षा के मुद्दे पर मचे बवाल के दो प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे हैंः पहला, गोवध पर प्रतिबंध के कारण मवेशी व्यापारियों पर हमले हो रहे हैं और दूसरा, किसानों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है क्योंकि उनके अनुपयोगी पशुओं को खरीदने वाला अब कोई नहीं है। मवेशी व्यापारियों और कसाईखानों में काम करने वाले लोग अपने रोज़गार से वंचित हो रहे हैं। चमड़ा उद्योग, जो गाय की खाल पर निर्भर था, गर्त में जा रहा है और चमड़े का सामान उत्पादित करने वाली कई इकाईयां बंद हो गई हैं।
यह दिलचस्प है कि मांस का निर्यात करने वाली कई बड़े कंपनियों के मालिक वे लोग हैं जो भाजपा और उसकी राजनीति के समर्थक हैं। भारत, मांस का एक बड़ा निर्यातक है। नरेन्द्र मोदी ने सन 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान गोमांस के मुद्दे को उठाया था। उन्होंने यूपीए सरकार पर ‘पिंक रेव्यूलेशन’ को प्रोत्साहन देने का आरोप लगाकर उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी। संप्रदायवादियों का पाखंड स्पष्ट है। वे इस मुद्दे का उपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए करना चाहते हैं। राजस्थान की भाजपा सरकार ने एक ‘गोरक्षा विभाग’ का गठन किया और जयपुर के नज़दीक हिंगोलिया में एक विशाल गोशाला स्थापित की। वहां रखी गई गायों में से सैंकड़ों की मौत हो गई क्योंकि वहां न उन्हें खाना मिला और ना ही पानी। इससे यह जाहिर है कि गोरक्षकों का गोप्रेम केवल वोट पाने तक सीमित है।
ऊना की घटना के बाद दलितों का एक बड़ा तबका हिन्दुत्ववादी राजनीति के एजेंडे के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। संघ परिवार की गाय पर केंद्रित राजनीति से कृषि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऊना की घटना हमारी राजनीति का चरित्र बदल सकती है। एक ओर जहां इस मुद्दे का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है वहीं दलितों पर हमले हो रहे हैं। ऊना ने दलितों को आरएसएस की राजनीति के असली चेहरे से परिचित करवाया है। इससे विघटनकारी हिन्दुत्ववादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए नए सामाजिक गठबंधन बनने की राह प्रशस्त हुई है। हमारे मन में सभी पशुओं के प्रति सम्मान और दया का भाव होना चाहिए परंतु किसी पशुका उपयोग राजनीति के लिए करना शर्मनाक और घृणास्पद है।

 -राम पुनियानी

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