खगेन्द्र ठाकुर से पुष्पराज की बातचीत
अंधेरा बढ़ता जा रहा था और हम जवान हो रहे थे. तमाम दीप बुझते जा रहे थे. अभी दो दीप जल रहे थे, जिनकी जलती-बुझती लौ से अपनी आँखें रौशन हो रही थी. एक दीप था इप्टा तो दूसरा दीप था जनशक्ति.
खगेंद्र ठाकुर
इप्टा और जनशक्ति के सांस्कृतिक- लोक-संसार में ही खगेन्द्र ठाकुर को पहली बार अपनी आँखों से देखा था. नागार्जुन के बाद बिहार के जिस लेखक ने बिहार के ग्राम्यांचलों, कस्बाई सभाओं में सबसे ज्यादा शिरकत की हो, वे मेरी जानकारी में खगेन्द्र ठाकुर ही हैं. चाहे सुदूर देहात में स्थित किसी हाई स्कूल का वार्षिकोत्सव हो या किसी कॉलेज का स्थापना समारोह या किसी पुस्तकालय में जयंती समारोह, शहादत दिवस या बौद्धिक सेमिनार आयोजित हो, खगेन्द्र ठाकुर हर जाने-अनजाने के आमंत्रण को स्वीकार कर अपने बीज-वक्तव्य से समारोह को गरिमा प्रदान करते रहे हैं. मैंने खगेन्द्र ठाकुर से अब तक कई मुलाकातें की हैं और मैंने हर बार यह जानने की कोशिश की कि इनके भीतर कौन सा ऐसा तत्वबोध मौजूद है कि कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रमों को पहली प्राथमिकता देेते हुए अपनी रचना प्रक्रिया के अनुशासन को साधने में इन्होंने महारत हासिल कर लिया है.
देह धरे को दण्ड, ईश्वर से भेंटवार्ता जैसी व्यंग्य पुस्तकों के साथ तीन कविता संग्रह सहित आलोचना और लेखों की कुल 20-21 पुस्तकें खगेन्द्र ठाकुर की प्रकाशित हो चुकी हैं. कुछ वर्ष पूर्व नागार्जुन का कवि कर्म पुस्तक प्रकाशित हुई थी. नागार्जुन पर केन्द्रित यह महत्वपूर्ण पुस्तक है. इस समय खगेन्द्र जी नवजागरण पर एक पुस्तक रच रहे हैं, इसे छः माह में पूरा कर लेंगे. अभी 9 पुस्तकों की सामग्री खगेन्द्र जी के पास मौजूद है. एक-एक कर सभी पुस्तकें प्रकाशित हो जायें तो अपने सामने से गुजरे हुए पल को इन्होंने उपन्यास की शक्ल में दर्ज करने की योजना बनायी है.
खगेन्द्र ठाकुर जिस कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं, उस संगठन का जनाधार बिहार में बहुत कमजोर पड़ चुका है. अगर खगेन्द्र जी की लोकप्रियता संगठन केन्द्रित होती तो जनाधार कमजोर होने से खगेन्द्र जी अप्रसांगिक हो गये होते. लेकिन इनकी लोकप्रियता समयकाल के साथ बढ़ती ही जा रही है. जाहिर है कि छः दशक की राजनीतिक सक्रियता के बावजूद कामरेड खगेन्द्र ठाकुर को लोगबाग राजनेता या नेताजी के रूप में तो नहीं जानते हैं. जाहिर है कि संगठन इनके लिए जनता के दुःख-दर्द से जुड़े रहने का माध्यम है. प्रोफेसर खगेन्द्र ठाकुर, डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर और कॉमरेड खगेन्द्र ठाकुर ने अपने दामन पर कोई दाग तो नहीं लगने दिया. बिहार में वामपंथ के अच्छे दिन भी देखे पर विधायक, सांसद होने का लालच तो नहीं प्रकट किया. बाबा नागार्जुन, रेणु, नामवर सिंह से लेकर हिन्दी के तमाम नामचीन रचनाकारों से निकटता का इस्तेमाल इन्होंने अपने लिए एक पुरस्कार हासिल करने में तो नहीं किया.
खगेन्द्र ठाकुर ने जब जीवन का 75 वर्ष पूरा किया तो बिहार के साहित्यकार बड़ी तादात में खगेन्द्र जी के सम्मान समारोह में पटना में इकट्ठे हुए थे. बरसों से मेरी बैचैनी रही कि उनके भीतर से वे बातें निकाल ली जायें, जो वे बहुत बोलकर भी नहीं बोल पाते हैं. अभी अपने लोकप्रिय लेखक के अर्न्तमुख से बहुत सारी बातें सुनने हैं. इस संवाद में सजग पाठक भी शामिल हो सकते हैं कि अगर कोई बात मुझसे छूट रही हो, तो आप अपनी तरफ से पूछ लीजिए.
अविभाजित बिहार के गोड्डा के एक गाँव में जन्म लेने से लेकर सुल्तानगंज के एक कॉलेज में प्रध्यापकी से होते हुए आलोचक की जीवन-यात्रा का चक्र आप किस तरह महसूस करते हैं?
मेरा गाँव मालिनी गोड्डा से 2 कि॰मी॰ उत्तर है. मेरे पिताजी गोड्डा कोर्ट में मोख्तार थे. प्रैक्ट्सि के लिए वे गोड्डा में रहते थे. पिता का नाम शिवशंकर ठाकुर और माता का नाम अकोला देची था. मैं पिता को काका और माँ को माई कहता था. मुझे आश्चर्य होता था कि मेरे मोख्तार पिता की इज्जत वकीलों से ज्यादा क्यों है? शायद इसकी वजह यह थी ंकि पिताजी शहर में खेल-कूद, सांस्कृतिक आयोजनों के सूत्रधार होते थे. उनके मुवक्लि ज्यादातर मुस्लिम समाज से आते थे. उनके एक मुवक्किल कारू मियां थे. कारू मियां अदब और शोहरत वाले इंसान थे. कारू मियां बरकेस्सा राजकुमारी और कई तरह की कथाऐं सुनाकर मेरे भीतर तड़प पैदा करते रहते थे. उनसे सुनी हुई सौदागरों की कहानियाँ और हिन्दू समाज की दन्तकथाऐं अभी भी याद आती है. माँ पढ़ी-लिखी नहंी थीं. पिताजी मैट्रिक से ज्यादा नहीं पढ़ पाये. 4 भाई, एक बहन वाला परिवार. मेरे दो भाई गुजर चुके हैं. बड़े भई गंगाधर ठाकुर सब-रजिस्ट्रार और अच्छे कवि भी थे. बुद्धिनाथ झा कैरव हमारे इलाके के नामी स्वतंत्रता सेनानी थे. तीन बार विधायक रहे. उन्होंने 1933 ई॰ में अछूतों के जीवन पर ‘‘अछूत कथा’’ काव्य ही लिख दिया. अछूत, उत्सर्ग और हीरा उनका प्रतिष्ठित खण्ड-काव्य है. बालपन में मैं कैरव जी से लगातार प्रभावित होता रहा. कैरव जी कांग्रेसी थे पर उनका सम्पूर्ण जीवन समाज के लिए समर्पित था. उस प्रभाव का ही असर था कि मैंने जीवन में पहली कविता गाँधी की हत्या पर लिखी. धीरे-धीरे स्कूल में निबंध लिखने की आदत लग गयी. मैट्रिक में अपने सहपाठियों के साथ ‘नवजागरण’ पत्रिका निकाली. 1953 ई॰ में 2 रूपये में ‘बलचनवा’ खरीद कर पढ़ा और संयोग से भगवान पुस्तकालय, भागलपुर में नागार्जुन से मुलाकात भी हो गयी. नागार्जुन ने पूछा, ‘‘क्या लिखते हो? भाषा को सड़क पर बिछा दो, आम आदमी की भाषा बना दो.’’ मेरे ऊपर संस्कृतनिष्ठ शिक्षकों का असर था. धीरे-धीरे बाबा और बलचनवा का असर हुआ और मैंने अपने लेखन में सुधार किया. ‘नवजागरण’ का अंक बाबा नागार्जुन को दिया था. बाबा ने चिट्ठी भेजी, जिसे हमलोगों ने ‘नवगजारण’ में छापा. बाबा की चिट्ठी हमारी पूरी जमात के लिए बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन ‘नवजागरण’ में बाबा की चिट्ठी छपने से दूसरे तरह की चर्चा भी शुरू हो गयी. लोग पूछने लगे, क्या तुम कम्युनिस्ट हो रहे हो और नन्दलाल परशुराम के हाथ खींच लेने से ‘नवजागरण’ बंद हो गया. थोड़ा बुरा लगा पर हम अपने रास्ते पर चलते रहे. हमारा रास्ता अभी बंद नहीं हुआ था.
नन्दलाल परशुराम जी कौन थे?
वे अभी पर जीवित ही हैं. भागलपुर के मारवाड़ी उद्यमी है. वे ‘नवजागरण’ के प्रकाशन के लिए हमारी सहायता करते थे.
‘नवजागरण’ का प्रकाशन बंद हुआ पर आपके जीवन का नवजागरण भी हुआ.
सही कह रहे हो. ‘नवजागरण’ का प्रकाशन रूकने से हम रूक तो नहीं गये. 1955 ई॰ में बेचन जी को सचिव बनाकर भागलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की नींव रखी गयी. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद भगवान पुस्तकालय में हर शनिवार को साहित्यिक गोष्ठी होने लगी. बिहार में तब प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय नहीं था. लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ‘नया पथ’ छप रही थीं. हमलोग ‘नया पथ’ मंगाते थे. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना होने के बाद शनिवार की हर बैठक में रचनाकार नयी रचना सुनाते थे. मैं उन्हीें दिनों मे अभ्यास से लिखना सीख गया. भागलपुर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से 1955 ई॰ में 10 कवियों का कविता संग्रह, नयी प्रतिमाऐं प्रकाशित हुई. अद्भुत यह है कि इस अंक के लिए बाबा नागार्जुन, प्रकाशचन्द्र गुप्त और रामविलास शर्मा ने अपनी भूमिका लिखी थी. मेरी चार कविताएँ छपी थी. नव प्रात, पावस गीत, वृक्षराज और भटक गयी आजादी. मेरी एक कविता थी - उजली चमड़ी छोड़ बेचारी/बनी सफेद खादी की दासी/मोटा खद्दर नोच रहा है/कोमल निर्मल उसकी छाती. रामविलास शर्मा ने अपनी भूमिका में लिखा था - ‘‘खगेन्द्र प्रसाद जी के नवप्रात में वह आशावाद है, जो इस संग्रह के कवियों को हिन्दी के पस्त और कुंठित प्रयोग-प्रेमियों से अलग करता है. पावस गीत में प्रकृति वर्णन की ताजगी देखते बनती है.’’
इस तरह बाबा नागार्जुन के बाद रामविलास शर्मा ने भी आपकी रचनाशीलता को प्रभावित किया?
इस प्रभाव को प्रकट करना मुश्किल है. रामविलास शर्मा की उस भूमिका को अक्सर स्मरण करता हूँ, तो अन्दर से ऊर्जा प्राप्त होती है. बालपन में कैरब जी से प्रभावित होकर रचनात्मकता का जो बीज अंकुरित हुआ था, वह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रेणु, त्रिलोचन से प्रेरित होकर अपना विस्तार लेता रहा. बहुत बड़ा स्वप्न तो कभी नहीं देखा था पर इतने का संकल्प तो था कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए कुछ करते रहना चाहिए. जिनकी प्रेरणा से लिखने की दृष्टि मिली, उन्होंने मुझे समाज और जनता के करीब लाया. समाज सिर्फ वोट बैंक नहीं होता है. अत्याचार, दमन से त्रस्त शोषित- वंचित बहुत बड़ा जन-समूह है, जो मेरी प्रेरणा भूमि है, मेरा समाज है. मेरी जमीन है, जहाँ खड़ा होकर मैं लिखता हूँ.
एम॰ए॰ की पढ़ाई करते हुए पटना में दो बार अज्ञेय जी से मुलाकात हुई. उनसे हिम्मत के साथ पूछा, ‘‘आप गाँव के बारे में नहीं लिखते हैं?’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं गाँव के बारे में नहीं जानता हूँ.’’ अज्ञेय को प्रगतिशील आन्दोलन के नायक की तरह देखता रहा. नागार्जुन के कहने पर अज्ञेय को स्टेशन छोड़ने भी गया था. शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी जी के सम्पर्क से भी रचना प्रक्रिया को बल मिला पर नलिनी विलोचन शर्मा जो मेरी अध्यापक थे, उनके सम्पर्क में साहित्य सम्मेलन में बैठने की आदत बनी. शायद सान्निध्य का ही असर था कि रचना प्रक्रिया जीवन प्रक्रिया में किस तरह प्रवेश कर गयी, यह पता नहीं चला.
इस बीच आप प्राध्यापक नियुक्त हुए, प्राध्यापकी छोड़ी भी और जीवन चक्र चलता रहा.
पढ़ाई पूरी हुई, तो ऐसा लगा कि नौकरी मेरा इंतजार कर रही थी. मुरारका कॉलेज, सुल्तानगंज में 1960 ई॰ में प्राध्यापक की नौकरी मिल गयी. 1968 ई॰ में पहली किताब ‘धार एक व्याकुल’ कविता पुस्तक परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद से छपी. इसकी चर्चा हुई और मैं उत्साहित हुआ. 1962 ई॰ में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी॰एच॰डी॰ का रजिस्ट्रेशन हो गया. विषय था - ‘‘छायावादी काव्य की भाषा’’. वीरेन्द्र श्रीवास्तव कोई नामी आदमी नहीं थे पर उन्हीं को मेरा गाईड नियुक्त किया गया. उन्होंने मेरा विषय सुनते ही मुझसे सवाल किया - इस विषय पर सामग्री कहाँ है, आप कैसे काम करियेगा? मैंने उन्हें द्रोणाचार्य की मूर्ति की तरह ही लिया. 1968 ई॰ में पी॰एच॰डी॰ का शोध प्रबंध जमा कर दिया. नामवर जी के सहयोग के बिना मेरा शोध प्रबंध पूरा नहीं होता. इस शोध प्रबंध के साथ एक रोचक प्रसंग है कि 1967 ई॰ में मैं भागलपुर शिखक संघ का महासचिव चुना गया था. पी॰एच॰डी॰ पूरा होने पर मुझे जितनी चिट्ठियाँ आयी, सबमें यह लिखा होता - ‘‘शिक्षक नेता होने के बावजूद आपने शोध-प्रबंध पूरा कर लिया.’’ शोध- प्रबंध पूरा होने के बाद आलोचनात्मक लीक की तरफ बढ़ता गया ओर लोग मुझसे आलोचनात्मक अपेक्षाऐं भी करने लगे. शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ पर मेरा लेख बहुत सराहा गया. प्रेमचन्द जन्मशती में तो ऐसा लगा कि मेरे बिना जन्मशती होगी ही नहीं.
आपके द्वारा लिखी गयी समीक्षओं की पुस्तक है - ‘‘उपन्यास की महान परम्परा’’. आपने ‘राग-दरबारी’ और ‘विश्रामपुर के संत’ को हिन्दी के श्रेष्ठतम उपन्यासों की श्रेणी में रखा है. हिन्दी-अहिन्दी क्षेत्र के करोड़ों जन तक गोदान, कर्मभूमि और मैला आंचल ने जो जगह बनायी वह दूसरे उपन्यासों ने नहीं, वजह क्या है? क्या पाठकों की प्राथमिकता बदल रही है.
प्रेमचन्द और रेणु का साहित्य विश्व की तमाम भाषाओं में चर्चित हुआ. ‘राग-दरबारी’ की हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं में काफी चर्चा है. मेरी समझ से ‘राग-दरबारी’ उच्च श्रेणी का साहित्य है, इसकी विश्व साहित्य में चर्चा होनी चाहिए. जहाँ तक पाठकों की प्राथमिकता का सवाल है, पाठकों की प्राथमिकता बदल रही है. टी॰वी॰ सीरियल पाठकों की पढ़ने की चाहत पर हमला कर रहे हैं. कंप्यूटर के स्क्रीन पर इन्टरनेट की सुविधा से पढ़ने का चलन पाठकांे को किताबों से दूर कर रहा है. पूँजीवाद आधुनिक तकनीकों के अविष्कार से बहुत तेजी से जानकारी उपलब्ध करा सकता है पर पाठकीय प्रकृति की स्वभाविकता पर हमला भी करता है. पुस्तकों का इ-एडिशन पूँजीवादी विकास का सकारात्मक पक्ष हो सकता है पर यह रचनाशीलता के लिए सकारात्मक नहीं है.
प्रगतिशील लेखक संघ के आप दो दशक तक बिहार प्रदेश महासचिव रहे. 5 वर्षों तक आपने प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेवारी संभाली. आपने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ-साथ जनशक्ति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में पूरावक्ती राजनीतिक सक्रियता और जनशक्ति की पत्रकारिता को आप अपनी रचनात्मकता के साथ किस तरह साधते रहे?
खगेंद्र ठाकुर
मैं 1965 ई॰ से कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य हूँ. 1973 ई॰ से 1994 ई॰ तक बिहार प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव रहा. 1994 ई॰ से 1999 ई॰ तक प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेवारी दी गयी. जनशक्ति के बारे में अद्भुत संस्करण है. हिन्दी पत्रकारिता को जनपत्रकारिता से जोड़ने की चिन्ता जब कभी शुरू होगी तो जनशक्ति के पुराने अतीत याद किये जायेंगे. जनशक्ति का एक संपादकीय बोर्ड था, जिसके अध्यक्ष सुनील मुखर्जी थे, मैं उस बोर्ड का एक सदस्य था. विश्वविद्यालयीय सेवा में 1980 ई॰ में रीडर से प्रोफेसर हो गया था पर सरकारी सेवा में लगातार छुट्टियाँ लेकर पार्टी की जिम्मेवारियों में लगा रहता था. अन्ततः 1991 ई॰ से स्वैच्छिक सेवा मुक्ति ले ली. विश्वविद्यालयीय सेवाकाल में डेढ़ दशक वेतन के बिना अवकाश में ही बीते. पार्टी के पूरावक्ती कार्यकर्त्ता (होल टाइमर) के रूप में 500 रू॰ गृहस्थी चलाने के लिए काफी था. जनशक्ति की बात कर रहा था. साप्ताहिक जनशक्ति 1946 ई॰ से ही छप रहा था. 1975 ई॰ में जनशक्ति दैनिक का प्रकाशन शुरू हुआ. जन-जन के एक-एक रूपये की ताकत से जनशक्ति कोष खड़ा किया गया था. दूसरे अखबरों से जनशक्ति की तुलना करते हुए एक बार एक पाठक कह रहा था कि जनशक्ति पढ़ते हुए अखबार के भीतर से उसके पसीने की बू आती है. इस तरह के भावनात्मक लगाव के साथ दैनिक जनशक्ति का दो दशक तक लगातार प्रकाशन होता रहा. परसाई जी का कॉलम शुरू किया गया था पर उनकी व्यस्तता की वजह से वह कॉलम निरन्तर नहीं चल पाया. ‘दृष्टिकोण’ में मेरी छोटी-छोटी राजनीतिक टिप्पणी रहती थी. परसाई जी का कॉलम रूकने के बाद ‘राह चलते’ व्यंग कॉलम मैंने लिखना शुरू किया. इसे मैं राहगीर नाम से लिखता था. यह कॉलम काफी चर्चित रहा. पाठक राहगीर को ढूंढ़ते हुए कई बार मेरे पास भी आ गये. नाम छुपाकर लिखने-छपने का भी अपना सुख है. जनशक्ति ने बिहार की परम्परागत पत्रकारिता के सामने नया रास्ता दिखाया था. जनशक्ति में वे खबरें छपती थीं, जो इंडियन नेशन, सर्चलाईट और आर्यावर्त में नहीं छपते थे. जनशक्ति में जन-जन की समस्याऐं और जन संघर्ष की खबरें ही छपती थी. बड़हिया गोलीकाण्ड में सरकार के ताकतवर मंत्री और समाजवादी नेता कपिलदेव सिंह की बहुत बदनामी हुई थी. इंडियन नेशन, सर्चलाईट और आर्यावर्त्त ने इस खबर को ब्लैक आउट कर दिया था तो लोगों ने इन अखबारों के बंडल कुएँ में फेंकना शुरू किया.
कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे. सदन में जनशक्ति की खबरों पर चर्चा होती थी. कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्ववाली सरकार ने सर्कुलर निकाला कि जनशक्ति में छपी खबरों के आधार पर हरिजनों के साथ हो रही ज्यादतियों के मामलों में संबद्ध अधिकारी तत्काल संज्ञान लें. मुझे सुकून है कि जनशक्ति की उस ऐतिहासिक भूमिका में मैं भी शामिल था. रविवार को छपने वाले रविवासरीय का मैं प्रभारी था. एव वर्ष तक जनशक्ति के संपादक का कार्यभार भी मुझे सौंपा गया था.
टी॰वी॰ चैनलों ने अखबारों को बेजान कर दिया है. आधुनिकता के हमले को एक लेखक किस तरह महसूस कर रहा है?
आज की पत्रकारिता पर व्यवसाय हावी है. साहित्य पर व्यवसायिक पूँजी हावी नहीं हो सकती है. मीडिया हाउस, चैनल मुनाफे के लिए काम करते हैं. इनका रचना से कोई लेना-देना नहीं है. इनका मानवता से भी कोई कोई लेना-देना नहीं है. इसका एक रोचक प्रसंग हैं. मैं राँची में था. मैंने इंडिया टी॰वी॰ पर खबर देखी - ‘‘एक लड़के के अन्दर नागिन की आत्मा प्रवेश कर गई है. मैंने राँची के रिपोर्टर को फोन किया.’’ उसने कहा - ‘‘आप मेरे चैनल हेड रजत शर्मा से बात कर लीजिए.’’ मैंने शर्मा को फोन किया . शर्मा ने कहा मेरे रिपोर्टर ने जो भेजा है, वह मैं चला रहा हूँ. मैंने कहा - आपके रिपोर्टर के पास क्या प्रमाण है कि एक युवक के भीतर नागिन की आत्मा प्रवेश कर गई है. उन्होंने फोन रख दिया. फिर मैंने हजारीबाग के एस॰पी॰ को फोन किया. एस॰पी॰ हँसने लगे. उन्होंने कहा -‘‘लड़का विक्षिप्त है, मैंने एस॰डी॰ओ॰ को फोन किया है कि उसे पकड़कर तत्काल किसी डॉक्टर से दिखाये.’’ मैंने फिर रजत शर्मा को फोन कर एस॰पी॰ से हुई बातचीत का जिक्र किया. शर्मा ने कहा - ‘‘मैं आपकी बात भी स्टोरी में जोड़ देता हूँ.’’ लेकिन उसने खबर को रोक ही दिया.
यह फाइनांस कैपिटल का युग है. पूँजी से पूँजी उत्पन्न होती है. प्रोफिट बिदाउट जॉब, ग्रोथ बिदाउट इनभेस्टमेंन्ट, हायर एण्ड फायर. पूँजीवाद का यह त्रिसूत्री फॉर्मूला मानवताविरोधी है. मुनाफा हो पर रोजगार पैदा न हो. पूँजी बढ़े पर कहीं निवेश नहीं करना पड़े. कामगार मिलते रहें, किसी को रोजगार नहीं देना पड़े. पूँजीवाद का यह फॉर्मूला नवउदारवाद के बाद इजात हुआ है, जो मनुष्यता का घोर शत्रु है. नव-उदारवाद के बाद चैनलों का विकास और अखबारों के द्वारा चैनलों के अनुसरण करने की होड़ ने नयी पीढ़ी को अर्द्धविक्षित कर दिया है.
हमारे दौर में युवा दुनिया बदलने का स्वप्न देखते थे. आज के दौर में युवा अमेरिका की तरफ देखकर पागल हो रहे हैं. जो बाजार इस पूँजीवाद ने बनाया है, यह बाजार चेतन भगत पैदा करेगा, नागार्जुन नहीं. हम साहित्य के जरिये मनुष्यता का प्रसार करना चाहते हैं. मनुष्य की रचनात्मकता सृजन से प्रकट होती है. साहित्य का बाजार पूँजी के बाजार से भिन्न होता है. हमें पाठक चाहिए, मुनाफा नहीं.
आपने सावियत संघ की यात्रा की थी. तब सोवियत संघ को आपने किस तरह से देखा था?
1981 ई॰ में सोवियत संघ गया था. छः माह एक शोध संस्थान से जुड़ कर मास्को में रहा था. लेनिनग्राद और यूक्रेन को भी अपने आँखों से देखा था. कहीं कोई गरीब आदमी नहीं दिखा था. रसोईघर में काम करने वाली स्त्री ओवरकोट और दो जोड़े जूते-चप्पल के साथ आती थी. एक कोपेक पौने दो डॉलर के बराबर होता था. विश्व बाजार में कोपेक की ताकत डॉलर से ज्यादा थी. आम लोग खूब फल-फूल, माँस-मछली, आइस्क्रीम खाते थे. मैं यह सब दृश्य देखकर बहुत प्रसन्न था. एक प्रोफेसर को 400 रूबल वेतन मिलता था. वह बताता था, बहुत ज्यादा बचत हो जाता था. मैंने अपनी आँखों से देखा था कि एक नया वर्ग पैदा हो रहा था, जिसके पास काफी धन संग्रहित हो गया था. गोर्वाचोव इस नव धनाढ्य वर्ग के नेता थे. गोर्वाचोव के समय में भी मैं एक बार मास्को गया था. पुराने नेतृत्व की गोर्वाचोव ने बहुत आलोचना की थी पर उनके पास कोई दूसरा नया विकल्प नहीं था. जिसकी वजह से सोवियत संघ बिखर गया. बिखरने के कुछ कारण तो मैंने पहले ही देख लिये थे. वे लोग 25 अक्टूबर के क्रांति दिवस का उत्सव 24 अक्टूबर की रात से ही मनाते थे. उत्सव और खुशी उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हो गया था. नया साल सिर्फ कैलेण्डर बदलने का दिवस नहीं था. हर आदमी के हिस्से बोनस मिलता था. नया साल भौतिक सुविधाओं का उपहार लेकर आता था. तमाम उत्सवों में नाचते-गाते लोग दुनियाँ को भूल जाते थे. जब सोवियत संघ विघटित हुआ तो ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ था कि मैंने विघटन की वजहों को पहले ही अपने आँखों से पहचान लिया था. उस जमाने में भी 24 करोड़ की आबादी में मात्र 3 करोड़ लोग कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे पर लेनिन के प्रति सब में अपार आस्था थी. इसलिए कि लेनिन की वजह से जारशाही खत्म हुई थी. लेनिन रूस में आज भी लोकप्रिय है और हर उत्सव के बाद लोग उनके शव पर फूल चढ़ाना जरूरी समझते हैं.
क्या आपको ऐसा भी लगा कि सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनियाँ से समाजवाद खत्म हो जाएगा?
समाजवाद खत्म कैसे हो जाएगा. क्यूबा, वियतनाम और बेनेजुएला में तो समाजवाद कायम है. जिन्हें शोषण से मुक्ति चाहिए, उन्हें समाजवाद चाहिए. ह्यूगो सावेज ने बेनेजुएला की सत्ता संभालते ही लोगों की जिन्दगी के तमाम दुःख दूर कर दिये. लैटिन अमेरिका में शोषण मुक्त व्यवस्था के प्रति ललक बढ़ी है. हमारे देश में ऋषियों-संतों ने भी समाजवाद की कल्पना की है. रैदास ने लिखा है - ‘‘ऐसा चाहौं राज मैं, मिलैं सबैं को अन्न. सब समरस हवैय बसैं, रहैं रैदास प्रसन्न.’’ कई संतों ने विषमता के खिलाफ ऐलान किया. मेरी समझ है कि दुनियाँ में महात्मा बुद्ध पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने वर्ग की बात की है. बुद्ध ने कहा - ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय.’’ (दारासिकोह के जरिए भारतीय साहित्य अरबी से यूरोप तक पहुँचा पर शायद बुद्ध को मार्क्स नहीं पढ़ पाये.) बुद्ध सर्वजन नहीं कहते हैं. जिन कुछ लोगों को वे छोड़ देते हैं, उनमें राजा, सूदखोर, महाजन शामिल होंगे. राहुल सांकृत्यायन खुद को ‘‘बौद्ध-कम्युनिस्ट’ कहते थे.
गोर्की ‘‘मैंने कैसे लिखना सीखा’’ में बार-बार अपनी चूक स्वीकार करते हैं और अपनी चूक में सुधार के लिए कभी कोरोलेको, कभी तोल्स्ताय, तो कभी चेखव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं. यह आत्मसमीक्षा क्या हिन्दी संसार के रचनाकारों में मोजूद है. क्या आपकी समीक्षा से किसी रचनाकार ने अपनी भूल महसूस की या आलोचक को निजी शत्रु मान लिया?
गोर्की की बात तुम कर रहे हो. वे महानतम लेखक थे. आम रचनाकारों को गोर्की से प्रेरणा लेनी चाहिए. लेकिन हिन्दी आलोचना संसार मे गोर्की को सामने रखकर समीक्षा करने से थोड़ी मुश्किल होगी. हमारे देश में प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद की परम्परा रही है. प्रेमचन्द ने जयशंकर प्रसाद के बारे में कहा - वे गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं. प्रेमचन्द ने उनकी रचनाशीलता की समीक्षा में ऐसा कहा था. प्रेमचन्द की आलोचना के जबाब में जयशंकर प्रसाद ने समसामायिक दुःख-दर्द पर केन्द्रित ‘‘कंकाल’’ लिखा. जयशंकर प्रसाद ने प्रेमचन्द की आलोचना को अन्यथा में नहीं लिया था. आलोचना सिर्फ लेखकों के लिए नहीं होती है, सम्पूर्ण समाज और समय काल के लिए होती है. नयी पीढ़ी के रचनाकार अगर आलोचना से प्रेरणा नहीं लेते हैं तो यह विडम्बना है. आलोचक और रचनाकार के संबंध पर नागार्जुन की एक कविता है. ‘‘कलाकार ने फिर-फिर सोचा, कीर्ति का फल चखना है तो आलोचक को खुश रखना है. आलोचक ने फिर-फिर सोचा - कीर्ति का का फल चखना है, तो कलाकार को नाथे रखना है.’’ मेरा अपना आलोचकीय अनुभव है कि मैंने जिनकी आलोचना लिखी, उन्होंने मुझे बताया कि आपकी आलोचना से मैंने प्रेरणा ली. मैं भी उन तमाम रचनाकारों के प्रति कृतज्ञ हूँ, जो नित्य नया रच रहे हैं.
क्या प्रगतिशील साहित्य लेखन में कहीं चूक हुई कि दलित साहित्य लेखन का नया दौर शुरू हुआ?
प्रगतिशील साहित्य से दलित साहित्य अलग नहीं है. मराठी में दलित लेखन की शुरूआत ‘‘दलित पैंथर’’ अभियान से हुई. मैं मानता हूँ कि हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य के प्रति देरी से विचार आया. मराठी के मशहूर कवि नारायण सूर्वे ने कहा कि जो काम महाराष्ट्र में दलित आन्दोलन कर रहा था, वही काम हिन्दी क्षेत्र में प्रगतिशील आन्दोलन कर रहा था. यह बहुत पते की बात है.
कहा जा रहा है कि दलित ही दलित साहित्य लिख सकते हैं.
यह एक किस्म की संकीर्णता है. प्रेमचन्द ने ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’ में दलित पात्रों को स्वाधीनता के संघर्ष के समक्ष प्रकट किया कि आजादी के बाद इनका क्या होगा? मेरी भी कंवल भारती और ओम प्रकाश वाल्मिकी से कभी भिड़ंत हुई थीं. मैंने उनसे कहा कि ‘‘आप युवावस्था तक दलित की पीड़ा लिखते हैं पर अपनी बदलती हुई जिन्दगी में आप दलित के दर्द पीछे छोड़ देते हैं. आप दलित पर अत्याचार के गवाह होते हैं, उत्पीड़क तो आप नहीं हैं.’’ सन् 50 में कहा गया था - भोगा हुआ यथार्थ लिखा जाये. भोगा हुआ यथार्थ की सीमा क्या होगी? भोगा हुआ यथार्थ हर हाल में सीमित होता है. दलित लेखन में भी प्रगतिशीलता आ रही है.
दलितों के बीच में दलित लेखक क्यों नहीं? मुसहरों के बीच में से एक भी मुसहर लेखक नहीं दिख रहा है. हीरा डोम और भिखारी ठाकुर बिहार में कितने सम्मानित हैं?
दलितों के भीतर से दलित लेखक उभर रहे हैं. सहरसा इलाके के लेखक देवनारायण पासवान मेरे सम्पर्क में हैं. हीरा डोम का नाम हम सम्मान के साथ लेते हैं पर उनके बारे में जानने की बैचेनी अब तक कायम है. मुसहरों में बीच से रचनाकार उभरना चाहिए. भिखारी ठाकुर तो भोजपुर और भारतीय नाटक के बड़े नायक हैं. उन्हें कौन दबा सकता है. समाज में दबी हुई आवाज को भिखारी ठाकुर ने मुखर स्वर दिया. भिखारी ठाकुर ने शोषण, विषमता पर भीतर घुसकर चोट किया. ‘‘तोहार बेटा, बेटा, हमार बेटा, नेटा.’’ इस तरह बंदूक की भाषा में बात करने की हिम्मत बिहार में भिखारी ठाकुर से पहले मेरी समझ से किसी और ने तो नहीं की थी.
ढ़ोराय चरितमानस और देशेर कथा बिहार की पृष्ठभूमि में गरीबों, शोषितेां के दुःख-दर्द को केन्द्र में रखकर रची गयी महानतम रचना है. इन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया था. अजादी के बाद बिहार और भारतीय हिन्दी साहित्य में इसकी उपेक्षा क्यों हुई?
ढ़ोराय चरितमानस के बारे में प्रचारित हुआ था कि रेणु ने उसी की नकल से ‘मैला आंचल’ लिखी. रेणु ने जबाव दिया था - ‘‘हम ढ़ोराय चरितमानस से प्रेरित और प्रभावित हैं पर नकल नहीं किया है.’’ हमारी समझ है कि जिसके प्रभाव से ‘मैला आंचल’ की रचना हुई तो वह जरूर महत्वपूर्ण रचना है. ढ़ोराय चरितमानस मूल बांग्ला में लिखा गया पर अनुदित हिन्दी तो खूब पढ़ा गया. सखाराम गणेशशंकर देउस्कर मूलतः मराठी थे. वे देवघर आकर बस गये थे. उन्होने भी देशेर कथा ‘बांग्ला’ में ही लिखी थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया था पर अनुदित हिन्दी संस्करण अब तक पढ़ा जा रहा है.
निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, नागार्जुन को हिन्दी साहित्य का साहित्य अकादमी सम्मान क्यों नहीं प्राप्त हुआ? क्या राहुल सांकृत्यायन को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कोप-दृष्टि की वजह से ‘भारत रत्न’ से वंचित रखा गया था.
निराला का कवि व्यक्तित्व साहित्य अकादमी सम्मान से ऊपर है. नागार्जुन को संभवतः मैथिली साहित्य अकादमी प्राप्त होने की वजह से हिन्दी साहित्य अकादमी सम्मान देने में वैधानिक समस्या आयी. धूमिल और मुक्तिबोध को साहित्य अकादमी सम्मान नहीं मिलना बहुत बड़ी चूक है. केदारनाथ अग्रवाल को साहित्य अकादमी सम्मान बहुत बाद में मिला. निराला को साहित्य अकादमी सम्मान से ऊपर का जो लोक-सम्मान प्राप्त हुआ, वह कितने रचनाकारों को नसीब होता है. ‘‘अमीरों की हवेली होगी, गरीबों की पाठशाला’’ ........ जब तक दुनियाँ में गरीबी रहेगी, गरीबों के दिलों में निराला जिन्दा रहेंगे.
राहुल सांकृत्यायन को भारत रत्न मिलना चाहिए था. वे भारत के रत्न नहीं थे, तो किसके रत्न थे. ऐसे सम्मान आनेवाली पीढ़ियों को प्रेरित करते हैं कि तुम राहुल की राह चलो. पूँजीवादी भारतीय राज्यसत्ता राहुल सांकृत्यायन को ‘‘भारत रत्न’’ से सम्मानित करने की चूक क्यों करे. मुझे इस प्रसंग में नेहरू की भूमिका की जानकारी नहीं है. राहुल जी पर लिखी गयी प्रिंसिपल मनोरंजन की कविता हमलोग खूब गाते थे.’’ ‘‘राहुल के सिर से खून बहे, फिर यह खून क्यों उबल ना पड़े. साधु के शोणित से क्यों, सोने की लंका जल ना उठे.’’
आपको अब तक साहित्य अकादमी सम्मान या बिहार सरकार का भी किसी तरह का सम्मान प्राप्त नहीं हुआ. क्या आप इन सम्मानों के योग्य नहीं थे या कोई और बात है?
मैं लिखता भी हूँ और 50 वर्षों से कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य भी हूँ. पार्टी की राज्य परिषद् और सचिव मंडल का भी सदस्य रहा हूँ. 1965 ई॰ में मेरे विरूद्ध डी॰आई॰आर॰ का वारंट जारी हुआ तो कुछ माह के लिए भूमिगत रहना पड़ा था. शिक्षक राजनीति करते हुए छात्रों के हित में जेल भी जाना पड़ा. ऐसे में किसी पूँजीवाद सरकार से सम्मान-पुरस्कार की अपेक्षा ही क्यों? पुरस्कारों को मैं रचनाकार की रचना प्रक्रिया को परखने का आलोचनात्मक मानदण्ड नहीं समझता हूँ. इनके पीछे लॉबी काम करती है. मैंने अपने किए लॉबिंग नहीं की.
कहा जाता है कि अरूण कमल ने साहित्य अकादमी सम्मान लॉबिंग से ली थी और उस लॉबिंग में आप भी शामिल थे?
मैं स्पष्ट कह रहा हूँ कि मैं कभी किसी लॉबिंग में शामिल नहीं रहा. अरूण कमल को मिले साहित्य अकादमी सम्मान की लॉबिंग में मैं नहीं था. चयन समिति में केदारनाथ सिंह, भीष्म साहनी और विश्वनाथ त्रिपाठी थे. अरूण कमल एक अच्छे कवि हैं और उन्हें जो साहित्य अकादमी सम्मान मिला, इस पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए.
अरूण कमल के लिए लॉबिंग में आप शामिल नहीं थे पर आप मानते हैं कि उन्हें यह सम्मान लॉबिंग से ही मिला था. उनकी ऐसी एक कविता जिसे आप नागार्जुन की कसौटी पर संघर्षरत जनता के पक्ष में खड़ा देखते हैं?
मैं कह रहा हूँ ‘‘लॉबिंग’’ शब्द को बदल दो. साहित्य अकादमी की उस समय बनावट-बुनावट ऐसी थीं, जो इनके पुरस्कार में सहायक हुआ. अगर उस ढ़ाँचे में एक अशोक वाजपेयी शामिल होते तो अरूण कमल पुरस्कार से वंचित रह जाते. नागार्जुन को कसौटी मानकर अरूण कमल को परखने का तरीका उचित नहीं है. फिर भी तुम पूछ रहे हो तो मैं कहता हूँ कि अरूण कमल की कोई कविता मुझे इस समय स्मरण में नहीं है, जो नागार्जुन की तरह जनता के पक्ष में सीेधे संघर्षरत हो. बावजूद अरूण कमल शोषितों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और कई जगह अन्याय के विरूद्ध अपने विचार प्रकट करते हैं. मुझे अरूण कमल की एक कविता इस समय स्मरण आ रही है, जो घर में काम करने वाली दाई के पक्ष में है.
आप आलोक धन्वा की रचनाधर्मिता के बारे में क्या राय रखते हैं? बिहार सरकार के संस्कृति विभाग के अन्तर्गत संगीत-नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद पर कायम होते हुए उन्हें बिहार सरकार का 2 लाख का साहित्य सम्मान क्या लेना चाहिए था? क्या यह नैतिक रूप से सही है?
आलोक धन्वा पूरी तौर पर विकसित कवि नहीं हैं. दो-चार कविताओं के आधार पर उन्हें इतनी अधिक ख्याति मिल गयी कि उनकी रचनात्मकता उसी ख्याति के मोह में दब गयी. ‘‘गोली दागो पोस्टर’’ और ‘‘जनता का आदमी‘’ इनकी सबसे चर्चित रचना है. इन कविताओं में भी घोषणाऐं ज्यादा हैं. वे एक वर्जित प्रदेश में जाना चाहते हैं पर गये नहीं. रचना की चेतना और जीवनशैली में ज्यादा फर्क होने से रचना पीछे छूट जाती है और अपनी जीवन शैली के साथ कवि बार-बार उपस्थित होता रहता है. मेहनत के बिना सुख-सुविधा प्राप्त करते रहने से रचना की मनोदशा बदलती- बिगड़ती है. रचनाकार सुख-सुविधा के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों और राज्यसत्ता के पीछे दौड़ने लगता है तो वह सबसे पहले रचना प्रक्रिया से बाहर हो जाता है. आलोक धन्वा ने ‘जनता का आदमी’ कविता से प्रेरित होकर संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद की कुर्सी नहीं संभाली थी. उन्होंने अपनी सुख-सुविधा के लिए सरकार का पद लिया, अच्छा किया पर बिहार सरकार के पद पर रहते हुए बिहार सरकार का नागार्जुन सम्मान लेना नैतिक रूप से अनुचित तो ही, नागार्जुन की परम्परा का असम्मान भी है.
क्या पुरस्कारों की राजनीति से हिन्दी साहित्य का नुकसान हो रहा है? इसकी मूल वजह क्या है?
पूँजीवाद की आक्रामकता हिन्दी के रचनाकारों को प्रभावित कर रहा है. पुरस्कारों के प्रति मोह, लालच, जीवन में सुविधाओं की इच्छाशक्ति पूँजीवाद का कमाल है. लेकिन मैं समझता हूँ कि सरकार आपको जितना सम्मानित करती है, उससे ही ज्यादा असम्मानित भी करती है. दो साल पहले नन्दकिशोर नवल को जिस तरह शिखर सम्मान की घोषणा हुई और किसी सम्मान समारोह के बिना उनके घर 2 लाख रूपये का चेक भेज दिया गया. यह सम्मान है या असम्मान. सम्मान समारोह ही आयोजित नहीं हुआ तो आप सम्मानित कहाँ किए गए. रचनाकार को सम्मान से ज्यादा सम्मान के साथ जुड़े लाख-लाख टके की लालच है.
मधुकर सिंह की उपेक्षा पर आप क्या कहेंगे?
मधुकर सिंह ने कुछ कहानियाँ बहुत अच्छी लिखीं. कमलेश्वर ने समानान्तर कहानी आन्दोलन चलाया था. बिहार में मधुकर सिंह उनके साथ थे. मैंने समानान्तर कहानी आन्दोलन के सिद्धांतों का विरोध किया था. उस आन्दोलन का कहना था - आम आदमी की बात लिखी जाये. मैंने कहा - आम आदमी वर्ग नहीं है. मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ बहुत ही महत्वपूर्ण है. मधुकर सिंह कालान्तर में खुद भी वर्ग संघर्ष की बजाय जातीय द्वन्द्व को केन्द्रित कर लिखने लगे थे, जिससे उनकी रचना प्रक्रिया प्रभावित हुई. बावजूद मधुकर सिंह को साहित्य अकादमी सम्मान मिलना चाहिए था.
प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य रचनाकार क्या प्रगतिशील साहित्य रच रहे हैं? क्या प्रगतिशील कहलाने वाले लेखक साहित्यकारों का आचरण भी प्रगतिशील होना चाहिए?
अपेक्षा तो जरूर की जाती है कि आप प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हैं तो आपका शील (आचरण) परंपरागत की बजाय प्रगतिशील हो. आप प्रगतिशील नहीं होंगे तो आपका आचरण या लेखन जनता (पाठकों) को प्रभावित नहीं कर पायेगा. एक प्रसंग है कि एक गोष्ठी में एक श्रोता ने पूछा - यह ‘प्र’ उपसर्ग क्यों जोड़े रखा जाये, क्या ‘गति’ काफी नहीं है. मैंने एक राजा और राज-प्रेत की कथा सुनाकर गतिशीलता को सहज तरीके से प्रकट किया. केवल गतिशील होना जरूरी नहीं है इसलिए जरूरी है कि गतिशील के साथ ‘प्र’ उपसर्ग जुड़ा हो. जयपुर में भौतिकी के एक प्रध्यापक ने गतिशील और प्रगतिशील को समझाने के दौरान राजा-प्रेत कथा से प्रभावित होकर कहा कि भौतिकी में गति की सीमा नहीं होती है. आज हमने गति की सीमा समझ ली.
पूँजीवाद के प्रभाव-प्रवाह में अगर हिन्दी का रचना संसार जनता से दूर हो रहा है तो आपके पास विकल्प क्या है?
लेकिन ने 1901 में लिखा था - हम क्या करें? आज एक-एक कम्युनिस्ट नेताओं को लिखना चाहिए - हम क्या करें? लेखक संगठनों को, रचनाकारों को सोचना चाहिए कि हमारा दायित्व क्या है? हमें ही तय करना होता है कि हम किसके लिए लिखते हैं? मुक्तिबोध कहते थे, पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है?
आप 50 वर्षों से कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं. बिहार में सी॰पी॰आई॰ कभी काफी मजबूत थी. आप क्या एम॰एल॰ए॰, एम॰एल॰सी॰ या राज्सभा सांसद के योग्य नहीं थे?
बिहार में सी॰पी॰आई॰ के 35 विधायक थे. मैं पार्टी की ओर से तय किये गये जिम्मेवारियों को वफादारी से निभाता रहा. एक बार पीरपैंती से विधायक अंबिका प्रसाद ने पार्टी के समक्ष मेरे लिए राज्यसभा सदस्य का प्रस्ताव दिया था. मैंने उस प्रस्ताव पर सहमति नहीं जतायी थी. इसलिए उस जगह पर जलाल राज्यसभा भेजे गये थे. आज जलाल पार्टी से निकाले गये हैं, यह अलग विषय है. मुझे इस बात का गम नहीं है कि हम विधानसभा या राज्यसभा क्यों नहीं पहुँचे. मुझे गम इस बात का है कि हमारी पार्टी ही आज कमजोर हो गयी है.
क्या बिहार में सी॰पी॰आई॰ पर एक खास जाति का वर्चस्व कायम है?
यह बहुत दिनों से कहा जा रहा है कि बिहार में सी॰पी॰आई॰ पर एक खास जाति का कब्जा है. इसकी वजह है कि बिहार में 1939 ई॰ में सी॰पी॰आई॰ की मुंगेर जिला में जब स्थापना हुई थी तो पहल करने वालों में भूमिहार ज्यादा थे. उन्होंने ही संघर्ष किया, जेल गये, शहादत दी और चुनावी राजनीति में भी अपना नेतृत्व देकर जीत हासिल की. ऐसे में स्वाभाविक है कि खास जाति संगठन पर हावी होता गया. जब पिछड़े-दलित नेतृत्व के उभार को पार्टी के भीतर दबाया गया तो यह आरोप मजबूत होता गया. मैं निजी तौर से मानता हूँ कि जाति का प्रभाव और प्रवाह कम्युनिस्ट संघर्ष को बहुत पीछे धकेल चुका है. वर्ग संघर्ष की बुनियाद से जन्म लेने वाली पार्टी वर्ण संघर्षों के झमले में उलझ कर कमजोर हो गयी हो तो किसी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए इससे ज्यादा बुरा वक्त क्या हो सकता है.
आपके नाम के साथ जुड़े ठाकुर के मायने क्या हैं?
यह ठाकुर तो पिता का दिया गया नामाकरण है. ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर अगर मैंने कभी ब्राह्मणवाद का पोषण नहीं किया तो ठाकुर से क्या ऐतराज. मुझे तो इस बात का गर्व है कि कम्युनिस्ट विचारधारा और संगठन से जुड़कर मैं जीवन भर ब्राह्मणवाद और ठाकुरवाद से ही युद्ध रचता रहा.
रविवार पत्रिका से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें