इस देश के अधिवक्ता
लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया द्वारा प्रस्तावित बिल के प्रावधानों को लेकर बहुत उत्तेजित
हैं, जो कि भाजपा के कानून मंत्री को अधिवक्ता अधिनियम 1961 में संसोधन के लिए
प्रेषित की गयी है.
आश्चर्य नहीं कि यह
विधेयक भारत सरकार के विचारों को दर्शाता है जो कि हाल में कुछ जी 7 देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कॉरपोरेट निकायों और वित्तीय संस्थाओं
को “भारतीय कानूनी सेवाओं के बाजार" में प्रवेश करवाने के लिए हुए विधायी उपायों से प्रेरित है. जिसकी खिलाफत ढाई दशक से बार कौंसिल
ऑफ़ इंडिया और राज्य बार कौंसिलों और लॉयर्स एसोसिएशनों द्वारा की जा रही थी,
क्योंकि इनका आगमन न्यायिक व्यवस्था पर बुरा असर डालेगा. विशेष रूप से संवैधानिक ढांचे और वैधानिक कनूनो जैसे महत्वपूर्ण
क्षेत्रों सहित आर्थिक नीति को आर्थिक रूप से नष्ट करेगी और परिणामस्वरूप भारतीय
राज्य की राजनीतिक संप्रभुता को।
इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भारत के कानून आयोग की रिपोर्ट के अध्याय XIV को पढ़ने और GATS जो कि ‘General
Agreement on Trade and Services’ है, इस रिपोर्ट के
इरादे में लेस मात्र भी संदेह नही छोड़ता है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विचार
"पुनः-उपनिवेश" के हैं जो हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों को प्रवेश के
लिए खोलने और इस के साथ न्याय वितरण प्रणाली को तोड़ने और कानूनी पेशे की अब तक की
स्वायत्तता और लोकतांत्रिक कार्यवाही को नष्ट करना चाहती है जिसने गंभीर हस्तक्षेप
के बावजूद भी पक्षपातपूर्ण कॉरपोरेट और राजनीतिक नियंत्रण से अपनी आजादी को बनाए
रखा हुआ है.
इस बिल का निष्ठुर प्रस्ताव अधिवक्ताओं को अधिवक्ताओं से जुड़े किसी महत्वपूर्ण
मुद्दे या फिर सत्ता के गंभीर दुरपयोग के खिलाफ सामूहिक हड़ताल या कार्य बहिष्कार
से रोकता है. यह अधिवक्ताओं को, राज्य द्वारा अधिवक्ताओं पर हिंसा, गंभीर अन्याय या
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार, जिसमें शिकायतों के बावजूद कोई उपाय नहीं किया गया है, सामूहिक, लोकतान्त्रिक और अहिंसक कार्यवाई करने
से रोकता है. प्रस्तावित बिल में लोकतान्त्रिक अधिकार को दुर्व्यवहार मानते हुए
अधिवक्ताओं पर अनुशासनात्मक, दंडात्मक कार्यवाई और नुकसान की भरपाई असंवैधनिक है
और अन्याय व राज्य द्वारा हिंसा के खिलाफ अधिवक्ताओं द्वारा आवाज़ उठाने के
अधिकारों का उल्लंघन है. यह आश्चर्य की बात है कि लॉ कमीशन ने इसे प्राथमिकता दी
है, 'स्वतंत्रता आंदोलन' की अवधि के अलावा भारत में कानूनी पेशे के
इतिहास में, बहुत कम सामूहिक हड़ताल या
अदालतों का बहिष्कार किया गया है और आम तौर पर एक दिन से अधिक नहीं किया गया है.
सबसे गंभीर मुद्दे जो मुकदमे और न्याय व्यवस्था झेल रही है वह अदालतों का
बहिष्कार नहीं है और न ही एकल न्यायाधीश या अधिवक्ताओं का ‘दुर्व्यवहार’ है, अस्पष्ट
शब्द ‘शिष्टाचार’ और ‘निषिद्ध कार्य’ या ‘ गैरकानूनी काम’ या अप्रिय व्यवहार सहित हर
चीज़ या सब कुछ सम्मिलित कर जिस प्रकार की परिभाषा को प्रस्तावित बिल में बढाया गया है. हालांकि ‘दुर्व्यवहार’,
‘शिष्टाचार’ और ‘निषिद्ध कार्य’ या ‘ गैरकानूनी काम’ या ‘अप्रिय व्यवहार’ क्या है
इसकी कोई विस्तारपूर्वक परिभाषा नही दी गयी है. इसी तरह, "परिश्रम से काम न करने" के लिए अस्पष्ट संदर्भ हैं जो
पेशेवर "कदाचार" की सभी व्यापक परिभाषाओं में शामिल है. इसकी परिभाषा
इतनी बड़ी है कि सरकार के कामों का विरोध करने को भी ‘निषिद्ध कार्य’ माना जा सकता
है, राजनीतिक संघर्षों के लिए जेल होने पर इसी तरह "गैरकानूनी" माना जा
सकता है, जिसके लिए एक वकील के रूप में नामांकन करने के अधिकार से वंचित
किया जा सकता है और नया संशोधन का एक और कठोर प्रावधान बार कौंसिल से इस तरह के
निष्कासन के लिए कोई सीमित समय निश्चित नहीं करता है; पहली बार यह निलंबन लंबित अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए करता है जो शिकायत
साबित होने से पहले भी हो सकता है,
ऐसे व्यवसाय में जहां
सामाजिक सुरक्षा या स्वास्थ्य देखभाल और पेंशन का पूर्ण अभाव है।
हमारे देश के नागरिक जिन गंभीर और पीड़ादायी समस्याओं का सामना कर रहे हैं वह
अदालतों का बहिष्कार नहीं हैं या कुछ अधिवक्ताओं द्बारा किया गया दुर्व्यवहार नही है.
बल्कि गंभीर देरी और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक व्यवस्था का
लकवाग्रस्त होना, पर्याप्त संख्या में न्यायधीशों और फाइलों के विशाल ढेर को संचित
करने के लिए बुनियादी सुविधाओं का न होना और कुल लंबित मुकदमेबाजी के 50% से अधिक
मामूली सरकारी मुकदमे, जहां सख्त अभियोग के बिना सरकार के सचिवों द्वारा अंतहीन अपील दायर की जाती है और
कुछ मामलों में तत्काल जवाबदेही या वित्तीय खर्च से बचने में रुचि रखने वाले सरकार
के मंत्रियों के आग्रह पर या कुछ मामलों में अन्य कारणों के लिए न्यायालय के निर्णय
के कार्यान्वयन को टालना गंभीर समस्या है।
भारतीय राज्यों और भारतीय संघ द्वारा दायर तुच्छ प्रकार के मुकदमें, पर्याप्त न्यायधीशों
की कमी, उच्चतम और उच्च न्यायालयों के विभागों की शामिल कानूनी प्रक्रिया और
अक्षमता जिसे सरलीकृत और सुव्यवस्थित होना चाहिए और विभागों के कर्मचारयों को
उत्तरदायी तथा न्यायधीशों को बोर्डों के प्रबंधन और मामलों के निपटान में प्रशिक्षण
देना चाहिए, लॉ कमीशन इन सभी मुद्दों को महत्व देकर निपटाने से बचता है. वादी और
वकीलों के द्वारा ऐसी गंभीर शिकायतें हैं जिस तरह केंद्र व राज्य सरकारों के लॉ
अफसर सरकारी अधिकारीयों और अधिवक्ताओं के निर्देशों पर सुप्रीम कोर्ट और उच्च
न्यायालयों के सामने तुच्छ मामलों के लिए आवेदन करते हैं और हमेशा इन स्थगन को
मंजूरी देते हैं। गौरतलब है कि
सरकार के कानून अधिकारी, उनका 'कदाचार', उनका 'परिश्रम से काम नहीं करना ', उनका '' अप्रिय '' और भ्रष्टाचारी व्यवहार सहित
राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करना , जिसमें रजिस्ट्री विभाग
में मामलों में देरी कराना या मामलों को रोक कर रखना, अपील की सिफारिश करना जहाँ कोई भी अपील दायर नहीं किया जाना चाहिए, इस बिल के किसी भी प्रावधान से कहीं भी कवर नहीं किया गया है।
बार कौंसिल ऑफ इंडिया पर एक सीधा हमला है जो एक लोकतांत्रिक रूप से गठित निकाय
है, जिसके लिए प्रत्येक राज्य बार कौंसिल को एक सदस्य का चुनाव
करने का अधिकार है, यह प्रस्तावित है कि पूरी बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया
में सिर्फ नामित सदस्य होंगे, हर राज्य बार कौंसिल उच्चतम न्यायलय में
प्रतिनिधित्व करने का अपना संवैधानिक और कानूनी अधिकार खो देगी. राज्य बार कौंसिल के सिर्फ 5 जोन नामांकन में
प्रतिनिधित्व करेंगे, मतलब सिर्फ राज्य बार कौंसिल के सिर्फ एक सदस्य को 5 क्षेत्रों
में समूहीकृत किया जायेगा, राज्य बार काउंसिल के केवल पांच सदस्य ही बार काउंसिल
ऑफ इंडिया में प्रतिनिधित्व करेंगे,
हर राज्य बार काउंसिल
नहीं।
इसके अलावा प्रस्तावित विधेयक में कानून के अलावा अन्य विषयों के छह प्रख्यात
व्यक्तियों को बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया में भारत के चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के अपीलीय
निकाय के अध्यक्ष और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सुप्रीम कोर्ट के जज सदस्यीय एक
समिति द्वारा नामित किया जाएगा। यह प्रखाय्त व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों जैसे
वाणिज्य, चिकित्सा विज्ञान, प्रबंधन, सार्वजनिक मामलों और राज्य के अधिकारियों, जैसे व्यक्तियों, जो अपनी श्रेष्ठता के बावजूद कानूनी पेशे के कार्य और संगठन के बारे में कुछ
नही जानते , या वादी और न्यायालयों को जरूरी सहायता की
प्रकृति के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। नामांकित सदस्य अन्य लोगों के साथ अनुशासनात्मक
समितियों और कानूनी शिक्षा और कार्य की देखरेख करेंगे।
इसी तरह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित किए जाने वाले राज्य
सरकारों के अधिकारियों सहित विभिन्न क्षेत्रों के ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों को
राज्य बार कौंसिलों में भी नामांकित कर पुनर्गठन की भी मांग की गई है। जबकि
न्यायपालिका के सेवानिवृत्त सदस्यों के बार काउंसिल ऑफ इंडिया या स्टेट बार
काउंसिल में नामांकन पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है, वे वरिष्ठ अधिवक्ताओं के साथ और सभी समितियों के
साथ काम करने के लिए सह-चयन कर सकते हैं, क्योंकि इससे बार काउंसिल
ऑफ इंडिया के कामकाज में सुधार होगा। लेकिन राज्य सरकार के अधिकारियों और
व्यक्तियों को इन निकायों पर काम करने के लिए अनुमति देना भले ही वे अन्य क्षेत्रों
में कितने ही प्रतिष्ठित क्यों न हो, अधिवक्ता अधिनियम 1961 के
अनुरूप नहीं है और अधिनियम के उद्देश्यों और प्रयोजनों से पूरी तरह असंगत हैं।
अधिवक्ता अधिनियम 1961 में संशोधन करने के लिए लॉ कमीशन द्वारा सरकार को भेजे
गए बीमार विधेयक के अन्य विचारों में से इनके मुख्य विचार से, ऐसा लगता है कि संशोधनों का वास्तविक उद्देश्य कुछ जी 7 देशों की बहुदेशीय
कंपनियों के निर्देशों के अनुसार,
जो पहले औपनिवेशिक
शक्तियां थीं जिनके साथ हमारी वर्तमान सरकार चाटुकारिता से पूर्ण भक्तिभाव दिखा
रही है, विदेशी कानून फर्मों की दखलंदाजी को भारत में प्रवेश करने की अनुमति देना
है।, जो अब कानूनी सेवाओं के भारतीय ‘बाजार’ सहित अपने पूर्व उपनिवेशों
के बाजारों को खोलने का हुक्म दे रही हैं। इन प्रस्तावित संशोधनों का उद्देश्य
व्यवसाय या न्याय प्रणाली या कानूनी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना नहीं है। इन
संशोधनों के द्वारा कानूनी शिक्षा पहले की तुलना में अधिक विशिष्ट हो जाएगी। इन
प्रस्तावों का वास्तविक उद्देश्य भारत की बार कौंसिल और राज्य बार कौंसिल की
स्वायत्तता को ख़त्म कर इन निकायों को गुलाम बनाना है, लोकतांत्रिक ढंग से सदस्य
के रूप में निर्वाचित अधिवक्ताओं के प्रतिनिधित्व को कमजोर करना है, कानूनी पेशे के सदस्यों को गुलामी के लिए मजबूर करना और कानूनी पेशे की
स्वतंत्रता को नष्ट करना है । इस विधेयक का विरोध होना चाहिए.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें