शनिवार, 6 मई 2017

हम क्या करें



     बहुत जरूरत है कि आलोचना के तुरंत बाद सही क्या है बताना और उसके प्रैक्टिकल रूप को सुझाना जिससे लोग निराश न हों और आशापूर्ण क्रांतिकारी कार्यक्रम के मसौदे पर सामूहिक कार्यवाही हो सके तथा इससे पूर्व वैचारिक एक रूपता और वर्गीय एकरूपता पर कार्य किया जाना अति अनिवार्य है। आलोचनाएं तो होती ही रहेंगी। यह तो सतत प्रक्रिया में होना चाहिए। आलोचना की प्रकिया से दूर रहने की वजह से कई पार्टियाँ बिखर जाती हैं।
     एक दिन फेसबुक पर मेरे एक आलोचक ने मेरे एक लेख पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि यदि डा.आम्बेडकर किसी ब्राह्मण के घर पैदा हुए होते तो आज उनकी पूजा होती। प्रत्योत्तर में मैंने कहा कि यही तो डर है कि आज डा.आम्बेडकर को विष्णु का 28वां अवतार घोषित कर 126 लीटर दूध से अभिषेख किया जा रहा है। यह उनको देवता बनाने की साजिश है। जिस दिन आम्बेडकर पूजा की वस्तु हो जाएंगे, उनके विचार अँधेरी कोठारी के हवाले कर दिया जाएगा। दलित बाबा साहब बाबा साहब रटता हुआ कौआ हो जाएगा। इसलिए बाबा सहन को पूज्य मत बनाइए। उनके पुस्तकों का अध्ययन कीजिए और विमर्श कीजिए। जो जरूरी हो उस पर आंदोलन तेज कीजिए और जो समय सापेक्ष निरर्थक हो चुका है, बिना मोह त्याग देना चाहिए। यह नहीं कि यह तो मेरे बाबा साहब ने लिखा है इसलिए हम इसे भी सत्य मानते हैं। टीबी की दवा के स्थान पर उसी कम्पनी के कैंसर की दवा खाएंगे तो मृत्यु निश्चित है। लेकिन, दलित है कि ब्राह्मणों सदृश्य झूठी बातों पर भी अड़ा रहता है। दलित साथियों की सोच बहुत ही मकैनिकल होटी जा रही है। सर, मेरे वाल पर मैंने कई लेख-विमर्श पोस्ट कर रखा है। हो सके तो जरूर पढ़ लीजिएगा। कार्टून वाली बात का अंदेशा दलितों का यही है कि जवाहर लाल जी का हण्टर डा.आम्बेडकर पर तना है जबकि ऐसा नहीं है। जब यह बात चर्चा में आई थी मैं लोगों से यही बता रहा था कि हण्टर समयावधि पर है न कि बाबा साहब पर। पर दलित है उसका दृष्टिकोण है। क्या किया जाय।
     जाति और धर्म को आधार बनाकर संगठन खड़ा करने वाले और आंदोलन के लिए इनका आह्वान करने वाले जनता को धोखा दे रहे हैं। वे किसी भी जाति-धर्म के संगठन और लोग क्यों न हों।
     जाति और धर्म का नाम लेकर संघर्ष की शुरुआत करने वाले सर्वप्रथम अपने लोगों को गुमराह करते हैं और उन्हीं का शोषण भी करते हैं। उन्हें टूल्स के रूप में प्रयोग करते हैं।
     ऐसे लोग गैर जाति और धर्म के अनुयायियों को दुश्मन करार देते हैं जिससे हर जाति और धर्म के गरीब लोग अपनी गरीबी की लड़ाई के लिए कभी एकमत व एक नहीं हो पाते हैं।
     हर जाति और धर्म के ईमानदार लोगों का कर्तव्य है कि वे अपने जाति व धर्म के ऐसे लोगों से आम-अवाम को जागरूक करें और उनकी आवश्यक आवश्यकताओं की लड़ाई की अगुवाई भी करे।
      इसके लिए आप को यह भी जानना होगा कि किसी भी देश की मिलिट्री और पुलिस पूँजीपतियों की सुरक्षा की सशस्त्र गुंडावाहिनी होती है। देश की सुरक्षा के नाम पर अमीरों की सुरक्षा करते हैं। गरीबों की सुरक्षा के अगुआ दस्ते को सर्वप्रथम पुलिस और मिलिट्री से ही मुठभेंड होता है। पुलिस, मिलिट्री और गरीब एक ही वर्ग के हैं किन्तु इनको गरीबों के पक्ष में लड़ने वालों के विरुद्ध लड़ाया जाता है। उम्मीद है आप बेहतर समझ गए होंगे।
     पूँजीवाद और पुरुष प्रधानता के कारण यह लिंग भेद है और पुरुष प्रधानता स्त्रियों पर हर उत्तराधिकार थोपते रहते हैं किन्तु अनेक स्त्रियों ने पुरुष द्वारा थोपी किसी नियम-नियमावली को नहीं माना। उन्होंने चूड़ी, कंगन, बिंदिया, किसी प्रकार के गहने, काजल, एब्रो, पलक, झुमका, कील, नथनी, मंगल सूत्र, साड़ी-ब्लाउज पहनना बंद कर दिया। लम्बे-लम्बे बाल रखना बंद कर दिया। पुरुषों के द्वारा वर्जित अंग-प्रत्यंगों को अपने अनुसार सजाना-सवारना शुरू कर दिया है।
     संस्कृति शब्द बहुत ही भ्रामक और पुरातन हो चुका है। सती प्रथा, बाल-विवाह, घूँघट-प्रथा, स्त्रियों को पुरुषों के बाद भोजन ग्रहण करना, बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापा में बेटों पे आश्रित रहना, पुरुषों के सम्मुख कोई भी निर्णय न लेना, साड़ी-ब्लाउज में ही रहना, बड़े बाल रखना, सिंगूर खूब गहरा लगाना, पति के लिए भरपूर सजना और सिंगार करना,घहनों को धारण करना, घर के भीतर रहना इत्यादि भारतीय स्त्रियों की संस्कृति है। यही स्त्री का शोषण भी है। यही पुरुष प्रधानता भी है। अब संस्कृति के नाम पर स्त्री शोषण स्वीकार है तो सवाल बेकार है। स्त्री मुक्ति का आंदोलन बेकार है। संस्कृति मनुष्य के विकास के लिए होना चाहिए, मनुष्य को गुलाम बनाने के लिए नहीं। हालांकि हमारी स्त्रियों ने संस्कृति और सनातन धर्म के नाम पर खुद ही पुरुष प्रधानता के विष को अपने अंदर धारण किए हुए हैं। ऐसी स्थिति में वास्तविक स्त्री मुक्ति नामुमकिन है।
     यह मेरे निजी विचार हैं। जरूरी नहीं कि आप मुझसे सहमत हों। पर मैं स्त्री मुक्ति आंदोलन में हमेशा आप के साथ हूँ।
(१) लोग इस बात का सर्वे कर रहे हैं कि भाजपा क्यों जीती? या इस विषय पर कि सपा और बसपा क्यों हारी? पर इस बात का सर्वे क्यों नहीं किया जा रहा कि कम्युनिस्ट राजनीति क्यों फेल हो गयी? क्यों वह इस देश को राजनीतिक विकल्प नहीं दे पा रही है?
(२) हम बार बार उन्हीं लोगों के बीच में बोलते हैं, जो पहले से वाम विचारों के हैं. हम उनसे जो भी बोलते हैं, उसे वे पहले से ही जानते ही हैं. फिर क्या जानकारों के बीच बोलकर हम अपना समय और ऊर्जा बर्बाद नहीं कर रहे हैं?
(३) यहाँ मौजूद जितने भी कामरेड और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं, वे अपने घर में अकेले ही हैं दूसरा कोई भी उनके घर में न कामरेड है और न सामाजिक कार्यकर्त्ता है जब आप अपने बच्चो को कामरेड और सामाजिक कार्यकर्त्ता बना ही रहे हैं, तो कैसे आप आरएसएस और भाजपा को भगा देंगे?
(४) आप अपनी विचारधारा को उन दलितों के बीच क्यों नहीं लेकर जा रहे हैं, जो हिन्दूकरण के शिकार हो रहे हैं, और डा. आंबेडकर को पूजा की वस्तु बनाये हुए हैं?
1)जुझारूपन का मतलब है कि लोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों में शहीद होने की महत्वाकांक्षा रखते हों।
2)हमारे अंदर Uniformity of thinking   नहीं है।
3)हमारे अंदर Singleness of propose नहीं है।
4)हमारे अंदर Oneness in approach नहीं है।
4)32 लाख अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग नौकरी कर रहे हैं, किन्तु बाबा साहब की 21 खण्ड पुस्तकें मात्र रु.750/- में है-को खरीदकर नहीं रखते हैं।
5)जिनके पास बाबा साहब की पुस्तकें हैं उनमें से कुछ लोग ही उसको पढ़ाते हैं।
6)कोई बसपा का है।
7)कोई बीएमपी का है।
8)कोई बौद्धिस्ट है।
9)सब के अलग-अलग विचार हैं।
10)बाबा साहब जातिप्रथा उन्मूलन की बात करते थे। एक व्यक्ति का एक मूल्य स्थापित करना चाहते थे।
11)अब लोग अपनी-अपनी जाति को मजबूत कर रहे हैं।
12)न सामूहिक उद्देश्य है और न सामूहिक प्रयास।
13)बाबा साहब राष्ट्रीयकरण की बात कर रहे थे। हम निजीकरण में आरक्षण मांग रहे हैं।
14)बाबा साहब राजकीय समाजवाद को संविधान में लागू करवाने का सन्देश दे गए हैं। हम व्यक्तिगत संपत्ति के लिए खड़े हैं।
15)बाबा साहब "Who were Shudras?" में लिखा है कि आर्य एक प्रजाति नहीं है। आर्य एक भाषा है। इस भाषा को बोलने वाले लोग आर्य कहलाए।
16)बाबा साहब ने ब्राह्मणों को भी इसी देश का मूलनिवासी लिखा है। आज हम उन्हें आर्य कह रहे हैं। उन्हें युरेशियन ब्राह्मण कह रहे हैं।
17)हम उनका DNA प्रमाणित कर कह रहे हैं कि उनके खून की शुद्धता बनी है।
18)तथाकथित मूलनिवासियों में कोई भी अपना खून परीक्षण करवाकर यह नहीं सिद्ध कर रहा है कि मैं शुद्ध मूलनिवासी हूँ।
19)हम विभिन्न दृष्टिकोण में विभक्त हैं।
20)हमें दलितों (मूलनिवासी, अनु.जाति-जनजाति, ओबीसी एवं कनवर्टेड अल्पसंख्यक) में उद्देश्य की एकरूपता बनानी होगी फिर युद्ध करना होगा।
21)गांधीवादी अहिंसा व आंबेडकरवादी अहिंसा से काम नहीं चलेगा।
22)क्रान्ति में हम खून नहीं चाहते किन्तु अनिवार्य रूप से खून बहेगा।
     आप के मांगने से कुछ भी मिलने वाला नहीं है क्योंकि निजी कम्पनियाँ कभी नहीं चाहेंगी कि उनके यहां कोई लफड़ा हो। वे जहां सस्ता श्रम मिलेगा, क्रय  कर लेंगी। भारत में श्रम की कमी है नहीं। आप मांगते रहों चाहे जायज या नाजायज। बिना लड़े कुछ नहीं मिलेगा। क्या हममें दम नहीं है कि व्यवस्था को बदल दें? क्रान्ति कर दें। अगर क्रान्ति का दम नहीं है तो आप की सब जायज मांगे भी नाजायज हैं।
     जरुरत है जमीन पर सिद्धांत को  उतारा जाय , लेकिन कौन उतारेगा इसे जमीन पर ? हम इस क्रान्तिकारी मसौदे को जमीन पर नहीं उतार पाएंगे तो हमारे चिन्तन का कोई अस्तित्व नही है। अभी तक हमारे समाज के चिन्तकों को यह ही नहीं पता है कि दुश्मन कौन है ? किससे लड़ा जाय कैसे लड़ा जाय ? हमारे मुफलिसी के लिए व्यक्ति दोषी है या व्यवस्था? कुछ को कहने मे देर नहीं लगती है कि कि दोषी व्यवस्था है। जब उनसे पूछते है कि फिर किसी जाति को क्यों गाली दे रहे हो? उन्हें नहीं मालूम है कि दूनियां की सारी चीजे केवल दो भागो मे बंटी है ,उसी प्रकार केवल दो व्यवस्था है:-1) पूँजीबाद और 2) समाजबाद । हमारे समाज का चिन्तक एक ऐसे बाद के खिलाफ लड़ रहा है,जिसको वह ब्राह्मणवाद कहता है । इस "वाद" के खिलाब लड़कर हमारा समाज 100 साल से जादा समय गुजार दिया है, लेकिन उसका रोंवां भी टेढ़ा नहीं कर सका है । दरअसल,  हम परछाईं  काट रहे है। किसी भी व्यवस्था का मूलाधार उस समाज की अर्थव्यवस्था है , धर्म और संस्कृतियां उस की अधिरचना है। बिना मूलाधार पर प्रहार किये अधिरचना नहीं बदला जा सकता है। इसलिए, लड़ाई का केन्द्र बिन्दु रोटी होना चाहिए। रोटी मजबूत रें,सम्मान मिल जाएगा
याद रहे, जो समाज रोटी मांगकर खायेगा, सम्मान नहीं पायेगा। इसलिए, रोटी के उत्पादन के संसाधनों का मालिकाना हक समाज को सौंपना होगा। दूसरी बात, लोगों को लम्बा रास्ता पसन्द नही है। हर आदमी सोचता है कि भगत सिंह पैदा हों लेकिन पड़ोसी के घर। आदमी के दिमाग पर पूँजीवाद हावी है। इस पल पूँजी अगले पल मुंनाफा चाहिए। यही कारण है कि चुनाव में करोड़ो खर्च करने वाले दलित भी मिल जायगे , लेकिन क्रान्तिकारी आन्दोलनों के लिए दस रुपये देने में बगले झांकते है। हम अवतारवाद के शिकार हैं। हम यही सोच रहे है कि कोई अवतार लेगा। तीसरा हमारे मन मे यह विचार घर कर गया है कि हमारा भला केवल हमारी जाति करेगी। उनको नीति से नहीं मतलब है। वे जानकर भी अन्जान बनते है कि आरक्षण नीति में था, जाति का प्रधान मंत्री न होने बाद भी लाभ मिला। यही कारण है वे अपनी जाति का नेता ढूढते है और दुश्मन वर्ग की मदद करते हैं।व्यक्तिवाद का अन्त ही इसका समाधान है,इसका समाधान संघवाद से आजादी है, जिसका हमें कडाई से पालन करना होगा। अध्यक्ष की जगह अध्यक्ष मण्डल ही इसका समाधान है।
-आर डी आनंद

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