दलितों, गरीबों और मजदूरों को दुःख से निवृत होने के
लिए अनन्तः अपनाना ही पड़ेगा। बौद्ध धर्म भी एक धर्म है। एक समय अद्वितीय
प्रगतिशील होने के उपरांत आज वह भी अन्य धर्मों की ही तरह कर्मकांडों में
फंस गया है। जो लोग यह कहते हैं कि बौद्ध धर्म भारतीय परिवेश से निकला हुआ
हिन्दू धर्म का ही अंग है, वे सही कहते हैं। धर्मों में ईश्वर की विचारधारा
गरीबों का अवलम्बन होते हुए भी एक भ्रम है। धर्म झगड़े की जड़ है। पूजा
प्रार्थनाएं मनुष्य के मनोबल को संतुलित रखती है लेकिन उससे अधिक वह
साम्प्रदायिकता बढ़ाकर मनुष्य को दुःख पहुँचाती रहती है। मैं अपनी सारी बात
गलत मान लूँ तो क्या विकल्प है कि पूँजीवादी-व्यवस्था ख़त्म हो जाय? एक बात
तो आप को समझना ही चाहिए कि निजीकरण के बजाय राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। एक
व्यक्ति के हाथों में अरबों-खरबों की पूँजी निरर्थक पड़ी रहती है और दूसरी
तरफ लोग भूंखों मरते हैं। क्या आप को नहीं लगता है यदि पूँजी का
अकाधिकारीकरण न हो तो पूरी दुनिया अमन-चैन से रह सकती है। समता, स्वतंत्रता
और बंधुत्व के लिए क्या हमें कुछ करना चाहिए? क्या सब को शिक्षा और सब को
काम के लिए सामूहिक आंदोलन होना चाहिए? कोई विकल्प सोचिए।
मैं सिर्फ दलितों की गरीबी और अशिक्षा के सवाल को ही नहीं देखता हूँ। मैं दलितवादी या आम्बेडकरवादी भी नहीं हूँ। मुझे दलित खेमें का व्यक्ति न समझें। मैं हर जातियों-धर्मों के गरीबों-मजलूमों की धारा का व्यक्ति हूँ। सभी से तर्क प्रस्तुत करते हुए मार्क्सवाद की वकालत करता हूँ। सिर्फ दलितों के लिए शिक्षा की बात की जाय तो क्या संभव है शिक्षा पूरी हो जाएगी? बिना व्यवस्था परिवर्तित हुए, बिना समाजवादी संविधान लागू किए, किसी भी जाति, व्यक्ति व समूह को दुखों से छुटकारा नहीं मिलेगा। आप को चिंतित होना चाहिए कि परम्परावादी सवर्ण और इसके अनुसांगिक संगठन तथा दलितों के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संगठन दोनों मार्क्सवाद विरोधी हैं। मुझे नहीं पता कि कौन सा डीएनए का अंश इनके बीच में समरूप है। परम्परावादी सवर्ण ईश्वर को मानता है, हिन्दू धर्म को मानता है, वर्ण को मानता है, जाति को मानता है, जातिप्रथा को तोड़ना नहीं चाहता है। हाँ, भोज में छुआछूत नहीं करता है। उठने-बैठने में भिन्नता नहीं करता है। समता की बात नहीं समरसता की बात करता है। समरसता समता का विपरीतार्थी अर्थ है। उसके लोग शादी-ब्याह जाति, कुल, गोत्र, राशि और कुंडली विचार-देखकर ही करते हैं। कम्युनिस्ट व आंबेडकरवादी पूरी जाति-व्यवस्था को ही नष्ट करना चाहते हैं। यहां पर हम-आप दो राष्ट्र के रूप में हैं। हमारे विचार आप के विचार के हमेशा विपरितार्थी ही लगेंगे। ठीक इसका उल्टा भी। यहां हम दो विचारधाराओं के व्यक्ति हैं। फिर विचारों में संतुलन का होना नामुमकिन है।
मैं सवर्णों को साथ लेने की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि गरीब और प्रगतिशील सवर्णों को वर्गीय एकता के लिए साथ लेना चाहता हूँ और उन्हें बताता रहता हूँ कि तुम्हारे जाति के सम्भ्रांत लोग तुम्हारे लिए कभी नहीं लड़ेंगे, तुम्हारे शिक्षा और रोजगार के लिए कुछ उपाय नहीं करेंगे। सिर्फ जाति के नाम पर, मंदिर के नाम पर और हिंदुत्व के नाम पर तुम्हारा शोषण करेंगे। वर्ग की चेतना ही दलित और सवर्ण व अन्य धर्मों के गरीबों का कल्याण कर सकता है।
जाति ही तो अमीर सवर्णों के सम्मान से जीने का आधार है लेकिन वर्ग-संघर्ष के बाद जो व्यवस्था हासिल होगी, वहां सभी जातियां और धर्म के लोग खुशहाल और सम्मान पूर्वक जिएंगे, कोई किसी का शोषण नहीं कर पाएंगे। एक दिन क्रान्ति होगी ही। हो सकता है मेरी पीढ़ी न कर पाए लेकिन सत्य हमेशा विजई होता है। यह मानवता का सबसे सुन्दर सिद्धांत है। यह अलगाववादी नहीं है। इसमें ऊँच और नीच का फर्क मिट जाएगा। यह छुआछूत नहीं करेगा। यह कामचोरों से भी काम करवाएगा। यह हराम का किसी को नहीं खाने देगा। यह व्यवस्था निजी हाथों से सब कुछ छीनकर राष्ट्रीयकरण कर देगा। अब निजीकरण में आराम और मौजमस्ती से जीने वालों को तो कष्ट होगा ही क्योंकि उन्हें भी बराबर की मेहनत करना पड़ेगी।
कुछ लोग अच्छे हैं किन्तु वैचारिक रूप से भिन्न विचारधारा उनको गरीबों के पक्ष में क्रान्ति नहीं सहानुभूति का दृष्टिकोण देता है और आप जैसे विद्वान और ईमानदार साथियों को भी यही लगता है कि क्राँति एक स्वप्न है, ऐसा नहीं हो सकता है। वैज्ञानिक समाजवाद के लिए एंगेल्स की पुस्तक "From utopian to scientific communism" जरूर पढ़ डालें। मैं यह आग्रह नहीं पालता की आप कम्युनिस्ट हो जाएंगे लेकिन सत्य आप को कचोटेगा जरूर।
बिना दलित के क्रांतिकारी हुए,बिना दलितों के मार्क्सवादी हुए, बिना दलितों के नेता हुए इस देश में क्रान्ति नहीं हो सकती है। जब तक सही मायने में दलित क्रांतिकारी नहीं होंगे, न ब्रह्मणवाद ख़त्म होगा न पूँजीवाद। अगर मेरी बात से सहमत हों और बाबा साहब के बातों से इत्तिफ़ाक बने, तो भी और न बने तो भी, आप अपनी राय बनाएं कि ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद कैसे ख़त्म हो? हम लोग क्या करें? मैं लेख लिखता रहता हूँ। कोई सही कहता है कोई गलत। सभी अपने -अपने विचार रखते हैं। पिछले लेख पर लोगों ने बहुत विमर्श किया। कई लोग मेरी विचारधारा से सहमत नहीं हैं, फिर भी बहस तो हो रही है। लोग अपने विचार को लेकर चैतन्य तो हैं इसलिए ऊर्जा बेकार नहीं है। माना कुछ न लिखूं, कुछ न पढूं, तो खाकर सोने का क्या मतलब? ऐसे में आप लोगों का प्रेम, गुस्सा और विचारधारा का फायदा तो देखने को मिल रहा है। कई बार इससे भी ख़ुशी मिलती है कि मेरे भाइयों में तर्क-वितर्क और लड़ने का माद्दा तो पैदा हो रहा है। आप चूंकि मेरा लेख पढ़ रहे हैं इसलिए आप से निवेदन है कि इससे पूर्व मेरा लेख "डा.आम्बेडकर का अवतारीकरण" पढ़ डालें। उस पर बहुत लोगों ने अच्छा-बुरा दोनों कमेंट्स किया है। कुछ साथी आरएसएस के भी हैं और आरएसएस को अच्छा कहते हुए बाबा साहब को अनुचित खाते में डाल रहे हैं। जो मुझसे नहीं बन पा रहा है आप लिखकर मेरे अध्याय को पूरा करें। मेरी आलोचनाओं के साथ-साथ उन बिंदुओं को भी दिखाइए, जिससे दलित समाज का फायदा हो और अर्थशास्त्र का सत्य भी उद्घाटित हो। सिर्फ मुझ से चिढ़ने या चिढ़ाने से हमारा-आप का-दलित समाज का-गरीबों का मकसद तो पूरा नहीं होगा। उम्मीद है आप मेरी विनम्रता का मतलब समझ रहे होंगे। मैं समाज को दिशा देने के लिए लिखता हूँ, बड़े होने के लिए नहीं। कोई भी लेखक अपने नाम के लिए नहीं लिखता है। उसको यह समझ में आता है कि यह समाज की जरूरत है। एक निवेदन और कि आप जब भी आलोचना करिए तो बाबा साहब के शब्दों को रखिए जिससे मुझे भी तथा समाज को भी उसके सापेक्ष विचार प्राप्त हो।
मजदूर विभिन्न जातियों में विभक्त है। मजदूरों-गरीबों को उनके जातियों के मोहपाश से मुक्त कराना होगा। भारत का ऐतिहासिक भौतिकवाद जातियों के मध्य से होकर गुजरता है। हर जातियों के मध्य अंतर्द्वंद है और एक जाति का दूसरी जाति के साथ अंतर्द्वंद्व है। भारत का ब्राह्मणवाद असमानता, छुआछूत और ऊँच-नीच की भावना पर आधारित हैं। जब आप फेसबुक को देखते हैं, वहाँ "आम्बेडकर का अवतरीकरण" पर आए कमेंट्स को पढ़ते हैं और देखते हैं कि जातियों की भावना कैसी विषाक्त होती है। दलित गरीब है लेकिन मार्क्सवाद से क्यों नहीं जुड़ना चाहता है? मेरे लेखों का विरोध करने वाला अधिकतर दलित ही है या फिर विशुद्ध ब्राह्मणवादी सवर्ण, ऐसा क्यों है?
इस बार हिंदुत्व के नाम पर बीजेपी जीत गई। अब तो जातियों को भी धर्म के तरफ मोड़ा जा रहा है। हिंदुत्व को इस्लाम के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है तथा दलितों को हिंदुत्व के झंडे के नीचे लाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। हैं तो सभी गरीब, लेकिन गरीबों को भी जाति और धर्म का नशा है। ये गरीब भी इस्लाम के विरुद्ध क्रियाशील हैं और कहीं-कहीं तो दलितों के विरुद्ध मुसलमान भी हैं। सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिलकर भी वर्ग-संघर्ष के लिए वर्गीय एकता बनाने में क्यों फेल हो रही हैं? आप को पता होना चाहिए कि दलित और परम्परावादी सवर्ण दोनों मार्क्सवाद का घोर विरोध भी करते हैं। कहा तो जाता है कि ब्राह्मण और दलित जातियां एक दूसरे के विरुद्ध हैं किंन्तु कौन सा ऐसा कामन फैक्टर है जो दोनों को मार्क्सवाद विरोध के लिए एक कर देता है? मुझे जहाँ तक ज्ञात है कि दोनों नस्लवादी हैं।
दलित आम्बेडकर के जातिप्रथा उन्मूलन से इत्तिफ़ाक नहीं रखता है। वह जाति को मजबूत कर सत्ता प्राप्त करने में विश्वास रखने लगा है। ब्राह्मण अपने सुपेर्मेसी को त्यागना नहीं चाहता है। कम्युनिस्ट पार्टियों में ब्राह्मण सर्वहारा संस्कृति से आज भी महरूम है। खुद के बाद घर की दूसरी पीढ़ी कम्युनिस्ट नहीं हो पाई, क्या कारण है? जो हैं वो बहुत ही रेयर हैं, इसलिए आम्बेडकर और दलितों के मध्य जाति के सवाल से टकराते हुए मार्क्सवाद के वास्तविक समझ को इनके बीच ले जाना होगा।
बहुत साथियों की कोशिश तो यही रहती है किन्तु कुछ गैर विचारधारा के लोग प्रहार करके उलझाते रहते हैं। हम भी उनको जवाब देने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि इन पर हमें उतना ध्यान नहीं देना चाहिए जितना आवश्यक विचारों पर। इन्हें न आम्बेडकर साहब का ज्ञान है न मार्क्सवाद का और न ही ये साथी यह समझ पा रहे हैं कि दलितों के मध्य किन विषयों पर चर्चा की जानी चाहिए। वे आम्बेडकर के पक्ष में तर्क को भी गलत ठहराने की कोशिश करते हैं और मार्क्सवादी दृष्टिकोण को भी गलत साबित करते हैं। वे अपना दृष्टिकोण न आम्बेडकर साहब के विचारों पर स्पष्ट कर पाते हैं न मार्क्स पर। जो मैं लिख रहा हूँ वह तुरंत न दलितों को ग्राह्य है और न सवर्णों को ही। इस लिहाज से यह एक कठिन विषय पर व्यवहारिक लेख चल रहा है। जो साथी वर्तमान की आवश्यकता को नहीं समझेगा तथा डा.आम्बेडकर के सपनों, विचारों, दर्शन और सहयोगी की भूमिका को नहीं समझेगा तो वह गलती कर रहा होगा। आज दलितों का गलती करना कम से कम 100 साल पीछे चले जाना है।
जब हम "जय भीम" कहते हैं तो उसका मतलब होता है "जातिप्रथा उन्मूलन" और जब "लाल सलाम" कहते हैं तो उसका मतलब होता है "सम्पूर्ण क्रान्ति"। जब लाल सलाम का मतलब सम्पूर्ण क्रान्ति होता है तो प्रश्न उठता है कि जातिप्रथा उन्मूलन उसी में समाहित है फिर जय भीम की क्या आवश्यकता है? दरसल, जय भीम शब्द दलित से भावनात्मक रूप से जुड़ा शब्द है और जय भीम उसके लिए क्रान्ति का ही प्रयाय हैं। यदि दलित की भावनाओं को क्रान्ति के साथ नहीं जोड़ा गया तो वह भावनात्मक रूप से क्रान्ति से अलग रहेगा जबकि क्रान्ति दलितों के आर्थिक और मनोवैज्ञानिक शोषण के विरुद्ध अत्याधिक आवश्यक अवधारणा है। यदि दलित क्रान्ति को भावनात्मक जुड़ाव के कारण छोड़ दे तो मूल रूप से दलित वर्ग का ही नुकसान होता है इसलिए जय भीम के साथ लाल सलाम को जोड़ देने की आवश्यकता गंभीर रूप से महसूस किया गया है। इस शब्द से हमारे परम्परावादी-नस्लवादी दलित साथियों को भी परहेज है, और आरएसएस के लोगों को अत्यधिक क्रोध आ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि "जय भीम और लाल सलाम" करने से दलित और अन्य जातियों के सर्वहारा वर्ग के आपस में संगठित हो जाने का खतरा उनको दिखता है।
यदि ऐसा मुमकिन हो गया तो नस्लवादी कमजोर हो जाएंगे। इनके चालाक लोग यह नहीं चाहते हैं कि आम्बेडकर और मार्क्स एक स्थान पर खड़े हों। कुछ दलित साथी भी विरोध करते हैं किन्तु वे चालाकी वश नहीं करते हैं, बल्कि उनके अंदर यह भावना काम करती है कि कहीं मार्क्सवाद के आड़ में कोई हमारे साथ छल न कर ले, किन्तु यह साथियो का डर उन्हें नस्लवाद की तरफ ही ले जाता है जो देर-सबेर नस्लवाद की ही झोली में गिरता है। नस्लवाद की जीत दलितों,गरीबों, मजदूरों और किसानों के हित में कभी भी नहीं होगा।
-आर डी आनंदमैं सिर्फ दलितों की गरीबी और अशिक्षा के सवाल को ही नहीं देखता हूँ। मैं दलितवादी या आम्बेडकरवादी भी नहीं हूँ। मुझे दलित खेमें का व्यक्ति न समझें। मैं हर जातियों-धर्मों के गरीबों-मजलूमों की धारा का व्यक्ति हूँ। सभी से तर्क प्रस्तुत करते हुए मार्क्सवाद की वकालत करता हूँ। सिर्फ दलितों के लिए शिक्षा की बात की जाय तो क्या संभव है शिक्षा पूरी हो जाएगी? बिना व्यवस्था परिवर्तित हुए, बिना समाजवादी संविधान लागू किए, किसी भी जाति, व्यक्ति व समूह को दुखों से छुटकारा नहीं मिलेगा। आप को चिंतित होना चाहिए कि परम्परावादी सवर्ण और इसके अनुसांगिक संगठन तथा दलितों के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संगठन दोनों मार्क्सवाद विरोधी हैं। मुझे नहीं पता कि कौन सा डीएनए का अंश इनके बीच में समरूप है। परम्परावादी सवर्ण ईश्वर को मानता है, हिन्दू धर्म को मानता है, वर्ण को मानता है, जाति को मानता है, जातिप्रथा को तोड़ना नहीं चाहता है। हाँ, भोज में छुआछूत नहीं करता है। उठने-बैठने में भिन्नता नहीं करता है। समता की बात नहीं समरसता की बात करता है। समरसता समता का विपरीतार्थी अर्थ है। उसके लोग शादी-ब्याह जाति, कुल, गोत्र, राशि और कुंडली विचार-देखकर ही करते हैं। कम्युनिस्ट व आंबेडकरवादी पूरी जाति-व्यवस्था को ही नष्ट करना चाहते हैं। यहां पर हम-आप दो राष्ट्र के रूप में हैं। हमारे विचार आप के विचार के हमेशा विपरितार्थी ही लगेंगे। ठीक इसका उल्टा भी। यहां हम दो विचारधाराओं के व्यक्ति हैं। फिर विचारों में संतुलन का होना नामुमकिन है।
मैं सवर्णों को साथ लेने की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि गरीब और प्रगतिशील सवर्णों को वर्गीय एकता के लिए साथ लेना चाहता हूँ और उन्हें बताता रहता हूँ कि तुम्हारे जाति के सम्भ्रांत लोग तुम्हारे लिए कभी नहीं लड़ेंगे, तुम्हारे शिक्षा और रोजगार के लिए कुछ उपाय नहीं करेंगे। सिर्फ जाति के नाम पर, मंदिर के नाम पर और हिंदुत्व के नाम पर तुम्हारा शोषण करेंगे। वर्ग की चेतना ही दलित और सवर्ण व अन्य धर्मों के गरीबों का कल्याण कर सकता है।
जाति ही तो अमीर सवर्णों के सम्मान से जीने का आधार है लेकिन वर्ग-संघर्ष के बाद जो व्यवस्था हासिल होगी, वहां सभी जातियां और धर्म के लोग खुशहाल और सम्मान पूर्वक जिएंगे, कोई किसी का शोषण नहीं कर पाएंगे। एक दिन क्रान्ति होगी ही। हो सकता है मेरी पीढ़ी न कर पाए लेकिन सत्य हमेशा विजई होता है। यह मानवता का सबसे सुन्दर सिद्धांत है। यह अलगाववादी नहीं है। इसमें ऊँच और नीच का फर्क मिट जाएगा। यह छुआछूत नहीं करेगा। यह कामचोरों से भी काम करवाएगा। यह हराम का किसी को नहीं खाने देगा। यह व्यवस्था निजी हाथों से सब कुछ छीनकर राष्ट्रीयकरण कर देगा। अब निजीकरण में आराम और मौजमस्ती से जीने वालों को तो कष्ट होगा ही क्योंकि उन्हें भी बराबर की मेहनत करना पड़ेगी।
कुछ लोग अच्छे हैं किन्तु वैचारिक रूप से भिन्न विचारधारा उनको गरीबों के पक्ष में क्रान्ति नहीं सहानुभूति का दृष्टिकोण देता है और आप जैसे विद्वान और ईमानदार साथियों को भी यही लगता है कि क्राँति एक स्वप्न है, ऐसा नहीं हो सकता है। वैज्ञानिक समाजवाद के लिए एंगेल्स की पुस्तक "From utopian to scientific communism" जरूर पढ़ डालें। मैं यह आग्रह नहीं पालता की आप कम्युनिस्ट हो जाएंगे लेकिन सत्य आप को कचोटेगा जरूर।
बिना दलित के क्रांतिकारी हुए,बिना दलितों के मार्क्सवादी हुए, बिना दलितों के नेता हुए इस देश में क्रान्ति नहीं हो सकती है। जब तक सही मायने में दलित क्रांतिकारी नहीं होंगे, न ब्रह्मणवाद ख़त्म होगा न पूँजीवाद। अगर मेरी बात से सहमत हों और बाबा साहब के बातों से इत्तिफ़ाक बने, तो भी और न बने तो भी, आप अपनी राय बनाएं कि ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद कैसे ख़त्म हो? हम लोग क्या करें? मैं लेख लिखता रहता हूँ। कोई सही कहता है कोई गलत। सभी अपने -अपने विचार रखते हैं। पिछले लेख पर लोगों ने बहुत विमर्श किया। कई लोग मेरी विचारधारा से सहमत नहीं हैं, फिर भी बहस तो हो रही है। लोग अपने विचार को लेकर चैतन्य तो हैं इसलिए ऊर्जा बेकार नहीं है। माना कुछ न लिखूं, कुछ न पढूं, तो खाकर सोने का क्या मतलब? ऐसे में आप लोगों का प्रेम, गुस्सा और विचारधारा का फायदा तो देखने को मिल रहा है। कई बार इससे भी ख़ुशी मिलती है कि मेरे भाइयों में तर्क-वितर्क और लड़ने का माद्दा तो पैदा हो रहा है। आप चूंकि मेरा लेख पढ़ रहे हैं इसलिए आप से निवेदन है कि इससे पूर्व मेरा लेख "डा.आम्बेडकर का अवतारीकरण" पढ़ डालें। उस पर बहुत लोगों ने अच्छा-बुरा दोनों कमेंट्स किया है। कुछ साथी आरएसएस के भी हैं और आरएसएस को अच्छा कहते हुए बाबा साहब को अनुचित खाते में डाल रहे हैं। जो मुझसे नहीं बन पा रहा है आप लिखकर मेरे अध्याय को पूरा करें। मेरी आलोचनाओं के साथ-साथ उन बिंदुओं को भी दिखाइए, जिससे दलित समाज का फायदा हो और अर्थशास्त्र का सत्य भी उद्घाटित हो। सिर्फ मुझ से चिढ़ने या चिढ़ाने से हमारा-आप का-दलित समाज का-गरीबों का मकसद तो पूरा नहीं होगा। उम्मीद है आप मेरी विनम्रता का मतलब समझ रहे होंगे। मैं समाज को दिशा देने के लिए लिखता हूँ, बड़े होने के लिए नहीं। कोई भी लेखक अपने नाम के लिए नहीं लिखता है। उसको यह समझ में आता है कि यह समाज की जरूरत है। एक निवेदन और कि आप जब भी आलोचना करिए तो बाबा साहब के शब्दों को रखिए जिससे मुझे भी तथा समाज को भी उसके सापेक्ष विचार प्राप्त हो।
मजदूर विभिन्न जातियों में विभक्त है। मजदूरों-गरीबों को उनके जातियों के मोहपाश से मुक्त कराना होगा। भारत का ऐतिहासिक भौतिकवाद जातियों के मध्य से होकर गुजरता है। हर जातियों के मध्य अंतर्द्वंद है और एक जाति का दूसरी जाति के साथ अंतर्द्वंद्व है। भारत का ब्राह्मणवाद असमानता, छुआछूत और ऊँच-नीच की भावना पर आधारित हैं। जब आप फेसबुक को देखते हैं, वहाँ "आम्बेडकर का अवतरीकरण" पर आए कमेंट्स को पढ़ते हैं और देखते हैं कि जातियों की भावना कैसी विषाक्त होती है। दलित गरीब है लेकिन मार्क्सवाद से क्यों नहीं जुड़ना चाहता है? मेरे लेखों का विरोध करने वाला अधिकतर दलित ही है या फिर विशुद्ध ब्राह्मणवादी सवर्ण, ऐसा क्यों है?
इस बार हिंदुत्व के नाम पर बीजेपी जीत गई। अब तो जातियों को भी धर्म के तरफ मोड़ा जा रहा है। हिंदुत्व को इस्लाम के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है तथा दलितों को हिंदुत्व के झंडे के नीचे लाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। हैं तो सभी गरीब, लेकिन गरीबों को भी जाति और धर्म का नशा है। ये गरीब भी इस्लाम के विरुद्ध क्रियाशील हैं और कहीं-कहीं तो दलितों के विरुद्ध मुसलमान भी हैं। सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिलकर भी वर्ग-संघर्ष के लिए वर्गीय एकता बनाने में क्यों फेल हो रही हैं? आप को पता होना चाहिए कि दलित और परम्परावादी सवर्ण दोनों मार्क्सवाद का घोर विरोध भी करते हैं। कहा तो जाता है कि ब्राह्मण और दलित जातियां एक दूसरे के विरुद्ध हैं किंन्तु कौन सा ऐसा कामन फैक्टर है जो दोनों को मार्क्सवाद विरोध के लिए एक कर देता है? मुझे जहाँ तक ज्ञात है कि दोनों नस्लवादी हैं।
दलित आम्बेडकर के जातिप्रथा उन्मूलन से इत्तिफ़ाक नहीं रखता है। वह जाति को मजबूत कर सत्ता प्राप्त करने में विश्वास रखने लगा है। ब्राह्मण अपने सुपेर्मेसी को त्यागना नहीं चाहता है। कम्युनिस्ट पार्टियों में ब्राह्मण सर्वहारा संस्कृति से आज भी महरूम है। खुद के बाद घर की दूसरी पीढ़ी कम्युनिस्ट नहीं हो पाई, क्या कारण है? जो हैं वो बहुत ही रेयर हैं, इसलिए आम्बेडकर और दलितों के मध्य जाति के सवाल से टकराते हुए मार्क्सवाद के वास्तविक समझ को इनके बीच ले जाना होगा।
बहुत साथियों की कोशिश तो यही रहती है किन्तु कुछ गैर विचारधारा के लोग प्रहार करके उलझाते रहते हैं। हम भी उनको जवाब देने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि इन पर हमें उतना ध्यान नहीं देना चाहिए जितना आवश्यक विचारों पर। इन्हें न आम्बेडकर साहब का ज्ञान है न मार्क्सवाद का और न ही ये साथी यह समझ पा रहे हैं कि दलितों के मध्य किन विषयों पर चर्चा की जानी चाहिए। वे आम्बेडकर के पक्ष में तर्क को भी गलत ठहराने की कोशिश करते हैं और मार्क्सवादी दृष्टिकोण को भी गलत साबित करते हैं। वे अपना दृष्टिकोण न आम्बेडकर साहब के विचारों पर स्पष्ट कर पाते हैं न मार्क्स पर। जो मैं लिख रहा हूँ वह तुरंत न दलितों को ग्राह्य है और न सवर्णों को ही। इस लिहाज से यह एक कठिन विषय पर व्यवहारिक लेख चल रहा है। जो साथी वर्तमान की आवश्यकता को नहीं समझेगा तथा डा.आम्बेडकर के सपनों, विचारों, दर्शन और सहयोगी की भूमिका को नहीं समझेगा तो वह गलती कर रहा होगा। आज दलितों का गलती करना कम से कम 100 साल पीछे चले जाना है।
जब हम "जय भीम" कहते हैं तो उसका मतलब होता है "जातिप्रथा उन्मूलन" और जब "लाल सलाम" कहते हैं तो उसका मतलब होता है "सम्पूर्ण क्रान्ति"। जब लाल सलाम का मतलब सम्पूर्ण क्रान्ति होता है तो प्रश्न उठता है कि जातिप्रथा उन्मूलन उसी में समाहित है फिर जय भीम की क्या आवश्यकता है? दरसल, जय भीम शब्द दलित से भावनात्मक रूप से जुड़ा शब्द है और जय भीम उसके लिए क्रान्ति का ही प्रयाय हैं। यदि दलित की भावनाओं को क्रान्ति के साथ नहीं जोड़ा गया तो वह भावनात्मक रूप से क्रान्ति से अलग रहेगा जबकि क्रान्ति दलितों के आर्थिक और मनोवैज्ञानिक शोषण के विरुद्ध अत्याधिक आवश्यक अवधारणा है। यदि दलित क्रान्ति को भावनात्मक जुड़ाव के कारण छोड़ दे तो मूल रूप से दलित वर्ग का ही नुकसान होता है इसलिए जय भीम के साथ लाल सलाम को जोड़ देने की आवश्यकता गंभीर रूप से महसूस किया गया है। इस शब्द से हमारे परम्परावादी-नस्लवादी दलित साथियों को भी परहेज है, और आरएसएस के लोगों को अत्यधिक क्रोध आ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि "जय भीम और लाल सलाम" करने से दलित और अन्य जातियों के सर्वहारा वर्ग के आपस में संगठित हो जाने का खतरा उनको दिखता है।
यदि ऐसा मुमकिन हो गया तो नस्लवादी कमजोर हो जाएंगे। इनके चालाक लोग यह नहीं चाहते हैं कि आम्बेडकर और मार्क्स एक स्थान पर खड़े हों। कुछ दलित साथी भी विरोध करते हैं किन्तु वे चालाकी वश नहीं करते हैं, बल्कि उनके अंदर यह भावना काम करती है कि कहीं मार्क्सवाद के आड़ में कोई हमारे साथ छल न कर ले, किन्तु यह साथियो का डर उन्हें नस्लवाद की तरफ ही ले जाता है जो देर-सबेर नस्लवाद की ही झोली में गिरता है। नस्लवाद की जीत दलितों,गरीबों, मजदूरों और किसानों के हित में कभी भी नहीं होगा।
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