मैं आप को दो जीवन और उनके क्रांतिकारी सिद्धांत और
क्रांतिकारी कार्यवाइयों को प्रस्तुत कर रहा हूँ। देखना यह है कि इनके
सिद्धांत और कार्यवाइयों से आप कितने संतुष्ट हैं। जहाँ चारू मजूमदार को
जेल में डाल कर उनकी हत्या कर दी गई थी और उनके मृत शरीर को न तो उनके घर
वालों को दिया गया और न ही उनके संगठन के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को
ही दिया गया। वहीं कानू सान्याल कई बार क्रांतिकारी कार्यवाइयों की वजह से
जेल की यातनाएं काटे। अन्त में 2010 में उन्होंने आत्म हत्या कर लिया। आप
को पड़ताल यह करना हैं कि कौन सी ऐसी परिस्थियाँ थीं जिसकी वजह से चारू
मजूमदार को जेल में मार डाला गया तथा कौन सी ऐसी परिस्थिति ने जन्म लिया
जिससे वृद्धावस्था में कामरेड कानू सान्याल को आत्महत्या करना पड़ा। दोनों
सामाजिक ज्याजातियों के विरुद्ध एक सुन्दर समाज की रचना के लिए संघर्षरत
थे। हाँ,अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों से सिर्फ इतनी ही भिन्नता थी कि जहाँ
अन्य पार्टियाँ सशस्त्र क्राँति के समय से इंकार कर रही थीं,वहाँ ये दोनों
क्रांतिकारी सशस्त्र विद्रोह में ही समाजवादी क्राँति को सफल मान रहे थे।
चारू मुजुमदार:
चारू का जन्म 1918 में सिलीगुड़ी में हुआ। उसके पिता एक स्वतन्त्रता सेनानी थे। 1937-38 में कॉलेज की पढ़ाई को छोड़कर चारू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए और बीड़ी कर्मचारियों को संगठित करने के प्रयास में जुट गए। इसके पश्चात वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए ताकि इसकी किसान शाखा के लिए काम कर सकें। जल्द ही उनके नाम एक गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी हुआ जिसके कारण उन्हें बाएँ कार्यकर्ता के रूप में पहली बार भूमिगत होना पड़ा। हालांकि सीपीआई को प्रथम विश्व युद्ध के समय प्रतिबंधित किया गया था, वह सीपीआई की गतिविधियों को किसानों के बीच जारी रखे और जलपुरीगंज जिला कमिटि के 1942 में सदस्य बन गए थे। इस प्रगति से प्रेरित होकर चारू ने फ़सल को क़ब्ज़े लेने का अभियान जलपुरीगंज में 1943 के बड़े अकाल के दौरान सफलतापूर्वक चलाया। 1946 में वह तेभागा आन्दोलन से जुड़े और उत्तर बंगाल के कामगारों के लिए हथियारबंद आन्दोलन शुरू किया। इसके पश्चात वह कुछ समय के लिए दार्जीलिंग के चाय के बागानों के कर्मचारियों के बीच काम करते रहे।
चारू का जन्म 1918 में सिलीगुड़ी में हुआ। उसके पिता एक स्वतन्त्रता सेनानी थे। 1937-38 में कॉलेज की पढ़ाई को छोड़कर चारू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए और बीड़ी कर्मचारियों को संगठित करने के प्रयास में जुट गए। इसके पश्चात वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए ताकि इसकी किसान शाखा के लिए काम कर सकें। जल्द ही उनके नाम एक गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी हुआ जिसके कारण उन्हें बाएँ कार्यकर्ता के रूप में पहली बार भूमिगत होना पड़ा। हालांकि सीपीआई को प्रथम विश्व युद्ध के समय प्रतिबंधित किया गया था, वह सीपीआई की गतिविधियों को किसानों के बीच जारी रखे और जलपुरीगंज जिला कमिटि के 1942 में सदस्य बन गए थे। इस प्रगति से प्रेरित होकर चारू ने फ़सल को क़ब्ज़े लेने का अभियान जलपुरीगंज में 1943 के बड़े अकाल के दौरान सफलतापूर्वक चलाया। 1946 में वह तेभागा आन्दोलन से जुड़े और उत्तर बंगाल के कामगारों के लिए हथियारबंद आन्दोलन शुरू किया। इसके पश्चात वह कुछ समय के लिए दार्जीलिंग के चाय के बागानों के कर्मचारियों के बीच काम करते रहे।
सीपीआई को 1948 में प्रतिबंधित किया गया था। चारू ने अगले तीन
वर्ष जेल में बिताए। जनवरी 1954 में चारू ने लीला मुजुमदार सेनगुप्ता शादी
की जो जलपुरीगंज से सी पी आई की सदस्या रही थी। इस जोड़े ने सिलीगुड़ी की
ओर प्रस्थान किया जो अगले कुछ सालों तक मुजुमदार की गतिविधियों का केन्द्र
बना रहा। यहीं पर उसके बीमार पिता और अवैवाहित बहन गम्भीर दरिद्रता का जीवन
जी रहे थे।
1960 की दशक से मध्य में मजुमदार ने उत्तर बंगाल में सी पी एम
में एक बाईं टुकड़ी बनाई। 1967 में नक्सलबाड़ी में एक हथियारों से लैस
किसान विद्रोह छिड़ गया जिसकी अगुवाई कॉमरेड कानू सान्याल कर रहे थे। इस दल
को आगे चलकर नक्सली कहा जाने लगा। ऐसे समय पर चारू ने आठ लेख लिखे थे
जिनका उद्देश्य यह था कि सफल क्रांति चीनी क्रांति के मार्ग पर हिंसात्मक
संघर्ष का रूप ले सकती है। 1969 में चारू ने "ऑल इंडिया कोऑरडिनेशन कमिटी
ऑफ़ कम्यूनिस्ट रेवोलूशनरीज़" बनाई जिसके वह जेनेरल सेकरेटरी बने। जुलाई
16, 1972 को चारू को अपने खुफ़िया ठिकाने से पकड़ा गया और 28 जुलाई, 1972
की रात 4 बजे वह लॉक-अप में ही गुप्त रूप से मार डाले गए। मृत शरीर भी
परिवार को नहीं सौंपा गया। पुलिस, निकटतम परिवारजनों के साथ शरीर को
शवदाहगृह ले गई। पूरा इलाका घेरे में लिया गया था और किसी भी दूसरे
रिश्तेदार को जिस्म को जलाते समय अन्दर आने की अनुमति नहीं दी।
कानू सान्याल:
कानू सान्याल (जन्म १९३२) भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाने हैं। दार्जीलिंग जिले के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे। कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से १९४६ में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की। बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली। कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई। जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली। १९६४ में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। १९६७ में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। अपने जीवन के लगभग १४ साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे। कुछ दिनों वे भाकपा माले के महासचिव के बतौर सक्रिय थे और नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रहते थे। और अंत में, 2010 में आत्महत्या कर लिया।
कानू सान्याल (जन्म १९३२) भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाने हैं। दार्जीलिंग जिले के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे। कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से १९४६ में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की। बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली। कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई। जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली। १९६४ में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। १९६७ में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। अपने जीवन के लगभग १४ साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे। कुछ दिनों वे भाकपा माले के महासचिव के बतौर सक्रिय थे और नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रहते थे। और अंत में, 2010 में आत्महत्या कर लिया।
नक्सलवाद:
नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया।
आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी
बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। लेकिन बहुत से संगठन अब
भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे
बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार को झेलनी पड़
रही है।
माओवाद:
माओवाद (1960-70 के दशक के दौरान) चरमपंथी अतिवादी माने जा रहे बुद्धिजीवी वर्ग का या उत्तेजित जनसमूह की सहज प्रतिक्रियावादी सिद्धांत है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते है। उनका तथा मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहाँ मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते है वही माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़ के अपनी विचारधारा के अनुरूप नयी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पे काम करते हैं :
माओवाद (1960-70 के दशक के दौरान) चरमपंथी अतिवादी माने जा रहे बुद्धिजीवी वर्ग का या उत्तेजित जनसमूह की सहज प्रतिक्रियावादी सिद्धांत है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते है। उनका तथा मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहाँ मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते है वही माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़ के अपनी विचारधारा के अनुरूप नयी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पे काम करते हैं :
1. राजनैतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है।
2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति।
2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति।
भारतीय राजनीति के पटल पर माओवादियों का एक दल के रूप में उदय
होने से पहले यह आन्दोलन एक विचारधारा की शक्ल में सामने आया था पहले पहल
हैदराबाद रियासत के विलय के समय फिर 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन
के रूप में वे सामने आए।
भारत में माओवाद के कारण:
भारत में माओवाद के निम्नलिखित कारण हैं।
भारत में माओवाद के निम्नलिखित कारण हैं।
राजनैतिक:
भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुये तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में. इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुये पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के बेटे अभिजित मजूमदार के अनुसार चारू मजूमदार जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाय तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा। जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। 1922 में चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था।
भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुये तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में. इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुये पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के बेटे अभिजित मजूमदार के अनुसार चारू मजूमदार जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाय तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा। जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। 1922 में चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था।
आर्थिक:
विकास की बड़ी योजनाएँ भी अनेक लोगों को विस्थापित कर रही है अतीत में ये बड़े बाँध थे और आज सेज बन गए है, पुनर्वास की कोई भी योजना आज तक सफल नही मानी गयी है इससे जनता में रोष बढ़ता ही जाता है इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी ने अपने पिछले सम्मेलन में साफ़ रूप से कहा था कि वो इस प्रकार की विकास परियोजनओं का विरूद्ध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ भी देंगे यदि वे ऐसा करते है तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो बैठैगा और उनके प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि अपने आप ही हो जायेगी। अगर आर्थिक कारणों को देखा जाए तो वे भी माओवाद के प्रसार के लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है यधपि पिछले 30 सालों में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है लेकिन यह भी माना ही जाता रहा कि ये योजनाएँ भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही है तथा निर्धनता उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जा सकते है आबादी का बड़ा हिस्सा निर्धनता की रेखा से जरा सा ही ऊपर है, तकनीकी रूप से भले ही वो निर्धन नहीं हो लेकिन व्यवहार में है और अर्थव्यवस्था में आया थोडा सा बदलाव भी उन्हें वापिस रेखा से नीचे धकेल देने के लिए काफी होता है। फ़िर जिस अनुपात में कीमतें बढ़ जाती है उसी अनुपात में निर्धनता के मापदंड नहीं बदले जाते है इस से बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते है; फ़िर क्या लोग इस चीज से संतोष कर लिए कि अब वो गरीब रेखा से ऊपर आ गए है ?जबकि अमीर उनकी आँखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है फ़िर वो लोग ही क्यो उसी हाल में बने रहे ?
विकास की बड़ी योजनाएँ भी अनेक लोगों को विस्थापित कर रही है अतीत में ये बड़े बाँध थे और आज सेज बन गए है, पुनर्वास की कोई भी योजना आज तक सफल नही मानी गयी है इससे जनता में रोष बढ़ता ही जाता है इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी ने अपने पिछले सम्मेलन में साफ़ रूप से कहा था कि वो इस प्रकार की विकास परियोजनओं का विरूद्ध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ भी देंगे यदि वे ऐसा करते है तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो बैठैगा और उनके प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि अपने आप ही हो जायेगी। अगर आर्थिक कारणों को देखा जाए तो वे भी माओवाद के प्रसार के लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है यधपि पिछले 30 सालों में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है लेकिन यह भी माना ही जाता रहा कि ये योजनाएँ भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही है तथा निर्धनता उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जा सकते है आबादी का बड़ा हिस्सा निर्धनता की रेखा से जरा सा ही ऊपर है, तकनीकी रूप से भले ही वो निर्धन नहीं हो लेकिन व्यवहार में है और अर्थव्यवस्था में आया थोडा सा बदलाव भी उन्हें वापिस रेखा से नीचे धकेल देने के लिए काफी होता है। फ़िर जिस अनुपात में कीमतें बढ़ जाती है उसी अनुपात में निर्धनता के मापदंड नहीं बदले जाते है इस से बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते है; फ़िर क्या लोग इस चीज से संतोष कर लिए कि अब वो गरीब रेखा से ऊपर आ गए है ?जबकि अमीर उनकी आँखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है फ़िर वो लोग ही क्यो उसी हाल में बने रहे ?
भारत के आंतरिक क्षेत्र जो विकास से दूर है तथा इलाके जो आज
माओवाद से ग्रस्त है वे इसी निर्धनता से ग्रस्त है। बेरोजगारी भी अनेक
समस्याओं को जन्म देती है इसके चलते विकास रूका रहता है, निर्धनता बनी रहती
है तथा लोग असंतुष्ट बने रहते है, यह लोगों को रोजगार की तलाश में प्रवासी
बना देती है, पंजाब के खेतों में काम करते बिहारी मजदूर इसका सबसे अच्छा
उदाहरण माने जा सकते हैं।
सामाजिक:
भूमि सुधार कानून जो 1949 - 1974 तक एक श्रृंखला के रूप में निकले थे, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी हुआ लेकिन आज भी देश में भूमि का न्यायपूर्ण वितरण भूमिहीनों तथा छोटे किसानों के बीच न्यायपूर्ण तरीक से नही हुआ है। पुराने जमींदारों ने कई चालों के जरिये अपनी जमीन बचा ली और वक्त के साथ साथ जमींदारों की नई नस्ल सामने आ गयी जो बेनामी जमीन रखती है और गरीब उतना ही लाचार है जितना पहले था
भूमि सुधार कानून जो 1949 - 1974 तक एक श्रृंखला के रूप में निकले थे, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी हुआ लेकिन आज भी देश में भूमि का न्यायपूर्ण वितरण भूमिहीनों तथा छोटे किसानों के बीच न्यायपूर्ण तरीक से नही हुआ है। पुराने जमींदारों ने कई चालों के जरिये अपनी जमीन बचा ली और वक्त के साथ साथ जमींदारों की नई नस्ल सामने आ गयी जो बेनामी जमीन रखती है और गरीब उतना ही लाचार है जितना पहले था
अनुसूचित जनजाति और जाति के लोग भारत में लंबे समय तक हाशिये
पे धकेले हुए रहे हैं वैसे मानव भले ही स्वभाव से सामाजिक प्राणी रहा हो जो
हिंसा नही करता लेकिन जब एक बड़े वर्ग को समाज किसी कारण से हाशिये पे
धकेल देता हैं और पीढी दर पीढी उनका दमन चलता रहता हैं।
भारत में एक बड़ी आबादी जनजातीय समुदाय की हैं लेकिन इसे
मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर आज तक नही मिला हैं आज भी सबसे धनी
संसाधनों वाली धरती झारखंड तथा उडीसा के जनजातीय समुदाय के लोग निर्धनता और
एकाकीपन के पाश में बंधे हुए हैं। नक्सलवाद अपने शुरू के दिनों से ही बहुत
ही बदनाम रहा है। आज इसे आतंकवाद की श्रेणी में गिना जाता है।
आतंकवाद एक प्रकार के माहौल को कहा जाता है। इसे एक प्रकार के
हिंसात्मक गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो कि अपने आर्थिक,
धार्मिक, राजनीतिक एवं विचारात्मक लक्ष्यों की प्रतिपूर्ति के लिए
गैर-सैनिक अर्थात नागरिकों की सुरक्षा को भी निशाना बनाते हैं। गैर-राज्य
कारकों द्वारा किये गए राजनीतिक, वैचारिक या धार्मिक हिंसा को भी आतंकवाद
की श्रेणी का ही समझा जाता है। अब इसके तहत गैर-क़ानूनी हिंसा और युद्ध को
भी शामिल कर लिया गया है। अगर इसी तरह की गतिविधि आपराधिक संगठन द्वारा
चलाने या को बढ़ावा देने के लिए करता है तो सामान्यतः उसे आतंकवाद नही माना
जाता है, यद्यपि इन सभी कार्यों को आतंकवाद का नाम दिया जा सकता है।
गैर-इस्लामी संगठनों या व्यक्तित्वों को नजरअंदाज करते हुए प्रायः इस्लामी
या जिहादी के साथ आतंकवाद की अनुचित तुलना के लिए इसकी आलोचना भी की जाती
है।
विश्व के प्रमुख आतंकवादी संगठन आईएसआईएस, अल कायदा, कौमी
एकता मूवमेंट, बास्कस, आयरिश नेशनल लिबरेशन आर्मी, आयरिश रिपब्लिक
आर्मी,रेड ब्रिगेड्स, शाइनिंग पाथ, रेड आर्मी गुट, हिज्बुल्लाह्, पापुलर
फ्रंट फार लिबरेशन आफ पैलेस्टाइन, अबु निदाल गुट, उल्स्टर डिफेंस एसोसिएशन,
जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, डेमोक्रेटिक फ्रंट फार लिबरेशन आफ
पैलेस्टाइन, पीपुल्स मूवमेंट फार लिबरेशन आफ अंगोला,सराजो, अल्फोरा विवा,
फाराबंदो मार्ती लिबरेशन फ्रंट, कुक्लुल्स क्लान, नेशनल यूनियन फार द टोटल,
इंडीपेंडें आफ अंगोला, तमिल इलाम मुक्ति शेर, ख्मेर रूज, नेशनल लिबरेशन
आर्मी, नेशनल डिग्रीटी कमांड, विकटर पोले, कारेन नेशन लिबरेशन आर्मी,
जैश-ए-मोहम्म्द, हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी, रणवीर सेना, उल्फा, बब्बर खालसा
इंटरनेशनल, खालिस्तान कमांडो फोर्स, इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन,
लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल
जेहाद-ए-इस्लामी, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर
इस्लामिक फ्रंट, स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), दीनदार
अंजुमन, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, अल कायदा, दुख्तरान-ए-मिल्लत और इंडियन
मुजाहिदीन, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा), नेशनल डेमोकेट्रिक
फंट्र ऑप बोडोलैंड (एनडीएफबी), पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), यूनाइटेड
नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपक,
कांगलीपक कम्युनिस्ट पार्टी, मणिपुर पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट, आल त्रिपुरा
टाइगर फोर्स, नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा,लिट्टे, कम्युनिस्ट पार्टी
ऑफ इंडिया (एमएल), पीपुल्स वार, एमसीसी, तमिलनाडु लिबरेशन आर्मी, तमिल
नेशनल रिट्रीवल ट्रुप्स, अखिल भारत नेपाली एकता समाज, भाकपा-माओवादी,
नक्सलवादी,माओवादी आदि हैं।
इनमें से बहुत सारे संगठन आतंकवादी हैं किन्तु बहुत से संगठन
जल, जमीन,जंगल के लिए संघर्षरत हैं। बहुत से संगठन अमीरी-गरीबी को लेकर
सक्रीय हैं। बहुत से संगठन जातीय दंश की वजह से क्रिया-प्रतिक्रिया की लड़ाई
लड़ रहे हैं। कोई धर्म के आतंक से बचने के लिए लड़ रहा है। भारत बहु
भाषा-भाषी देश है। यहाँ अनेक धर्म और जातियाँ हैं। मुख्यतः भारत में
वर्ण-व्यवस्था है। वर्ण-व्यवस्था का पहला और दूसरा वर्ण क्रमशः ब्राह्मण और
क्षत्रीय हैं। क्षत्रीय राजा रहा है और ब्राह्मण उसका संचालक व चिंतक वर्ग
है। इसमें भी दो वर्ग हो गए हैं जैसा कि अमूमन भारत की सभी जातियों और
धर्मों में पाए जाते हैं-प्रगतिशील वर्ग। यह प्रगतिशील वर्ग वर्गीय एकता की
बात तो करता है किन्तु सांस्कृतिक रूप से अभी भी अपने को डी-कास्ट नहीं कर
पाया है। इसके लिए भारत की प्रगतिशील वाम वर्ग जिम्मेदार है परन्तु कोई भी
वर्ग अन्ततः व्यक्तियों पर ही निर्भर करता है और व्यक्ति सिद्धांत और
चरित्र पर। इससे यही लगता है कि वाम वर्ग अभी भी सिद्धांत और चरित्र के
मामले में विकसित नहीं हो पाया है। यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति
ईमानदार नहीं बन पाया है। कोई भी सिद्धांत मनुष्य ही तय करता है और वही
लागू भी करता है। यदि मनुष्य ईमानदारी से क्रांतिकारी सिद्धांतों को समझता,
तय करता और लागू करता, तो अब तक भारत से जाति और वर्ग-संघर्ष का चरण पूर्ण
हो गया होता।
आज हम जिस चरण में जी रहे हैं वह चरण इतना घटिया है कि जाति
और धर्म प्यारा है लेकिन मनुष्य नहीं प्यारा है। एक तरफ हम मंगल ग्रह पर
हैं दूसरी तरफ हम छुआ-छूत, ऊँच-नीच,छोटी जाति-बड़ी जाति के चक्कर में रहते
हैं। अनेक गाँवों-बस्तियों में दलितों का नरसंहार इसलिए कर दिया जाता है कि
वे शूद्र-चमार है,भला इनकी क्या मजाल कि ये ठाकुरों-ब्राह्मणों की बराबरी
करें, उनके जैसा खाएं-पीएं,पहने-ओढ़ें, शादी-ब्याह करें, घोड़ी
चढ़ें,बैंड-बाजा-बारात सजाएं या फिर इनका नाम लें।
अब इसका क्या इलाज है? क्या ठाकुरों-ब्राह्मणों की मार सहें
और प्रतिकार भी न करें? प्रतिकार करें तो अन्य दलित जिनकी कोई गलती नहीं है
वे भी मौत के घाट उतारे जाँय? और यदि नक्सलवाड़ी में भूमिहारों-जमींदारों
का विरोध करें, तो रणवीर सेना अवतार लेकर दलितों का गला काटने लगते है।
क्या संभव नहीं कि नक्सलवाद का जन्म हो? ऊना में दलितों की पिटाई के बाद
क्या आश्चय का विषय है कि जिग्नेश के नेतृत्व में पचासों हजार की भीड़ सडकों
पर जन प्रदर्शन करने लगे? सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में महाराणा प्रताप
के जुलुस के दौरान जब दलितों के 50-60 घर पेट्रोल डाल कर फूंक दिए जाय और
स्त्रियों के स्तन काट लिए जाँय,तो क्या भीम आर्मी अपने सवाल उठाने के लिए
प्रदर्शन न करे? और यदि प्रदर्शन करे तो पुलिस उनकी पिटाई करने लगे, फिर
क्या खून का खौलना कानून का उलंघन है? लेकिन दलित आर्मी की हर हरकतें गैर
कानूनी हैं क्योंकि वे पूँजीपति और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज उठाने के
लिए उसकी सबसे ताकतवर शक्ति ( पुलिस और सेना) से ही उलझ गए। इसलिए, उन पर
टाडा और रासुका लगाया जा सकता है, इसलिए उनको आतंकवादी संगठन घोषित किया जा
सकता है, इसलिए, इन साथियों को जेल में डाल कर मारा भी जा सकता है। विकल्प
है कि सभी प्रगतिशील लोग शब्बीरपुर और मेरठ जैसे घृणित जघन्य अपराधों की
निंदा करें और अपराधियों के साहस को कमजोर करने का सार्थक प्रयास करें।
-आर डी आनंद
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