गुरुवार, 18 मई 2017

वामपंथ ही दलितों का स्वाभाविक सहयोगी : दारापुरी


    यह साक्षात्कार लोक संघर्ष पत्रिका के प्रबंध सम्पादक-रणधीर सिंह ‘सुमन’ ने वर्तमान सन्दर्भों में दलितों की भूमिका पर एस0आर0 दारापुरी पूर्व पुलिस महानिरीक्षक उ0प्र0 की जुबानी
प्रश्न-    बहुजन समाज पार्टी का क्या भविष्य है?
उत्तर-    मेरे विचार में बहुजन समाज पार्टी का बिखराव और तेज होगा क्योंकि दलितों के एक बड़े हिस्से का भी बसपा से मोहभंग हो गया है और उन्होंने दलित नेतृत्व पर उंगली उठानी शुरू कर दी है। मायावती ने चुनाव में हारने के बाद किसी भी प्रकार की अपने ऊपर जिम्मेदारी नहीं ली है जबकि दलित उन कारणों को बड़े स्पष्ट रूप से जान रहे हैं। इसके अलावा मायावती ने न तो आज तक कभी दलित एजेण्डा बनाया है और न ही दलित उत्पीड़न के मामलों में कोई प्रभावशाली प्रतिक्रिया ही दिखाई है इससे दलित मायावती को केवल वोट और नोट लेने तक ही सीमित होना देख रहे हैं।
प्रश्न-    मायावती और उनके भाई आनन्द कुमार के खिलाफ जो जांचे चल रही है उससे मायावती का अगला कदम क्या हो सकता है?
उत्तर-    अब तक की  जांचो में मायावती और उसका भाई काफी हद तक फंसते दिखाई दे रहे है। जिस कारण मायावती सत्तारूढ़ दल का विरोध नहीं कर सकती है, इस कारण मायावती को सत्तारूढ़ पार्टी जैसे पहले कांग्रेस  , वर्तमान में भाजपा के सहयोग में रहना एक बाध्यता है।
प्रश्न-    अधिकांश दलित चिन्तक और साहित्यकार, राजनेता वामपंथ के विरोध करते है, इसका क्या कारण हो सकता है?
उत्तर-    मेरे विचार में इसका मुख्य कारण दलितों और वामपंथियों के बीच में जान बूझकर भ्रान्तियां पैदा की गयी हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि शुरू के दौर में डा अम्बेडकर के अधिकतर जन आन्दोलन वामपंथियों के साथ मिलकर चलाए गये थे। उदाहरण के लिए सन् 1940 में भारत की सबसे बड़ी और सबसे सफल काटन मिल मजदूरों की हड़ताल डा0 अम्बेडकर और वामपंथियों ने मिलकर करवायी थी। इसके बाद भी डा अम्बेडकर के कुछ उच्च स्तरीय वामपंथ की विचारधारा से कुछ मुद्दों पर मतभेद था जैसे राज्य का लोप हो जाना अधिनायक वाद तथा क्रान्ति में हिंसा की अनिवार्यता इसके अतिरिक्त डा अम्बेडकर ने कहीं भी मार्क्सवाद का विरोध नहीं किया है। इसके विपरीत उन्होंने तो बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद में बहुत समानता होने की भी बात स्वीकार की थी।
        डा अम्बेडकर के बाद डा अम्बेडकर द्वारा स्थापित पार्टी आर0पी0आई0 पार्टी का सबसे बड़ा सहयोग वापमंथी पार्टियों के साथ ही रहा है और उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां पर ‘नीली टोपी लाल टोपी’ के साथ का नारा था।
        मेरे विचार में यह सही है कि शुरू में वामपंथ अधिकतर वर्ग संघर्ष की बात ही करता रहा और उसने जाति संधर्ष और जातीय उत्पीड़न को उतना महत्व नहीं दिया परन्तु अब वामपंथ ने वर्ग संघर्ष के साथ-साथ जातीय संघर्ष को भी अपने एजेण्डे पर लिया है और उसके अनुसार कार्यवाहियां भी की है। यह भी सही है कि वामपंथ का रास्ता संघर्ष का रास्ता है परन्तु कुछ दलित नेताओं को इस कठिन रास्ते में परहेज रहा है।
        वर्तमान परिस्थितियों में राजनैतिक तौर पर तथा सामाजिक संघर्ष के स्तर पर वामपंथी ही दलितों के सबसे नजदीक है और एक तरीके से उनके स्वाभाविक सहयोगी है
प्रश्न-    हिन्दू धर्म के दलितों के उत्पीड़न से क्षुब्ध होकर डा अम्बेडकर ने बौध धर्म अपने समर्थकों के साथ धारण कर लिया था। वर्तमान परिस्थितियों में क्या दलित समुदाय हिन्दू कट्टरपंथियों के सामने नतमस्तक हो रहा है?
उत्तर-    डा0 अम्बेडकर ने बौध धर्म को दलितों की सामाजिक, आर्थिक मानसिक मुक्ति के लिए अपनाया था। उनको प्रेरणा से दलितों के एक हिस्से ने बौध धर्म को अपनाया भी है और उन्होंने हिन्दू दलितों की अपेक्षा प्रगति भी की है।
        दुर्भाग्य से दलित कोई एक होमोजेनियस वर्ग नहीं है तथा विभिन्न जातीयों में विभाजित है अभी तक बौध धर्म का फैलाव दलितों की कुछ विशेष जातियों तक ही हुआ है। अधिकतर दलित अभी भी हिन्दू बने हुए है। पिछले कुछ समय से आर0एस0एस0 ने बहुत सचेतन प्रयास करके इन हिन्दू दलितों में हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार किया है उनकी बस्तियों में विभिन्न महापुरूषों के मन्दिर बनवाया है सहभोज करवाया है तथा प्रवचनों का आयोजन किया है।
        इसके अतिरिक्त भाजपा तथा आर0एस0एस0 ने हिन्दू दलितों की उपजातियों को राजनैतिक तौर पर बरगलाकर अपने हिन्दुत्व की छतरी के नीचे ले आये हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि आर0एस0एस0 और भाजपा कुछ हद तक दलितों को कट्टर हिन्दू की ओर आकर्षित करने में सफल हुए है परन्तु फिर भी दलितों की बड़ी जातिया अभी भी हिन्दुत्व के प्रभाव से बड़ी जातिया बची हुई है।

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |