बुधवार, 11 अप्रैल 2018

देश के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ और वामपंथ


   देश आजादी के बाद के सबसे जटिल संकट से गुजर रहा है। देश और अधिकतर राज्यों की सत्ता ऐसे समूह के हाथों में केन्द्रित है जो संपूर्णतः देश के मेहनतकशों के हितों पर डाका डाल कर पूँजीपतियों की तिजौरियाँ भरने को प्रतिबद्ध हैं, पर चोरी और सीनाजोरी साथ साथ नहीं चल सकते, अतएव सत्तारूढ़ गिरोह ने धर्म का लबादा ओढ़ लिया है। भेड़ों के शिकार के लिए भेड़िए ने भेड़ों की ही खाल ओढ़ ली है। देश की आबादी का लगभग 70 प्रतिशत भाग आज भी ग्रामों में रहता है। यह ग्रामीण भारत खेती और खेती से जुड़े लघु उद्यमों पर आश्रित है। वहीं ग्रामीण आबादी का एक भाग मजदूरी दस्तकारी करने को शहरों को जाता है और फसलों की कटाई-बोआई के समय गाँव लौट आता है। आज यह ग्रामीण समुदाय आर्थिक रूप से सबसे अधिक असुरक्षित और विपन्न है। कारण-खेती बेहद घाटे का सौदा बन चुकी है। पूँजीवादी अर्थतंत्र खेती के बल पर टिका हुआ है पर खेती किसान की लागत और मेहनत को निगल रही है। खेती बदहाल है तो उससे जुड़े लघु और कुटीर उद्योग भी बरबाद हैं। खेती और उसकी बदहाली के कई प्रमुख कारण हैं। कृषि उत्पादों की कीमतें तय करने का अधिकार किसान के पास नहीं है। कुछेक खाद्यान्नों की कीमतें सरकार तय करती है तो फल सब्जी और कई अन्य की कीमतें मंडी में माँग-आपूर्ति के आधार पर तय होती हैं। यह लागत, जमीन के किराए और किसान के परिश्रम की तुलना में काफी कम होती हैं। इसके अलावा खेती में काम आने वाली हर वस्तु की कीमत मुनाफे पर आधारित बाजार निर्धारित करता है। इससे खेत्ती का लागत मूल्य बढ़ जाता है। प्राकृतिक आपदाओं की मार भी किसानों के ऊपर ही पड़ती है।
    ऐसी ही अन्य कई वजहों से किसान निरंतर घाटे के चलते कर्जदार होता जा रहा है। बैंक ऋण हासिल करने में आने वाली कठिनाइयाँ उसे सूदखोरों से कर्ज लेने को बाध्य करती हैं। यही वजह है कि कर्ज में डूबे पीड़ित किसानों द्वारा आत्महत्याएँ करने का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। भाजपा और मोदी ने गत लोकसभा चुनावों के दौरान किसानों की आमदनी दोगुना करने का वादा किया था। पर अन्य वादों की तरह यह भी जुमला ही साबित हुआ। वस्तुतः किसान तथा अन्य ग्रामीण श्रमिक ठगा महसूस कर रहे हैं। ग्रामीण श्रमिकों की जीवनरेखा- मनरेगा को भी सीमित कर दिया गया है।
    यद्यपि गत शताब्दी के सातवें दशक से ही मन्दी और उद्योग बन्दी शुरू होगयी थी लेकिन 1991 में शुरू हुए आर्थिक नवउदारवाद के दौर में मंदी और बंदी की यह रफ्तार और तेज हो गयी। मोदी सरकार के कतिपय कदमों जिनमें नोटबन्दी और जीएसटी का लागू किया जाना प्रमुख हैं, ने हालात को और संगीन बना दिया है। फलतः हमारी अर्थव्यवस्था में चहुँतरफा गिरावट स्पष्ट दिखाई दे रही है। डालर के मुकाबले रूपये की कीमत निरंतर गिर रही है। आयात बढ़ा है और निर्यात घटा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीएसटी) की दर हो या औद्योगिक उत्पादन की दर, लगातार क्षरण की ओर है। इसके परिणाम स्वरूप बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। मोदीजी ने दो करोड़ नौजवानों को हर वर्ष रोजगार देने का वादा किया था पर उन्हें रोजगार देने के बजाए सिर्फ मुद्रा, स्टार्टअप, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया आदि नारों से बहलाने की कोशिश की जा रही है। देश की युवा पीढ़ी भाजपा की गलत नीतियों का खामियाजा भुगत रही है। पूँजीपतियों, जिनके कतिपय हिस्से आज कारपोरेट घराने बन चुके हैं, को लाभ पहुँचाने को जनता की गाढ़े पसीने की कमाई से स्थापित हुए व स्वदेशी बुद्धिमत्ता और परिश्रम से विकसित हुए सार्वजनिक उद्यमों को उनके हाथों बेचा जा रहा है। बैंकों में आम जनता के जमा धन को जबरिया धनिक वर्ग को दिलाया जा रहा है जिसे वे वापस करने के बजाय बट्टे खाते में डलवा रहे हैं या फिर बैंकों से भारी रकमें लेकर विदेशों को भाग रहे हैं। बैंकों से लगातार हो रही इन अवैध निकासियों का भार सामान्य निवेशकों पर डाला जा रहा है। जितने घपले घोटाले संप्रग सरकार के दो कार्यकालों में हुए थे उससे कहीं ज्यादा राजग/भाजपा के चार सालों में हो चुके हैं। सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बरबाद करने की प्रक्रिया दशकों से जारी थी लेकिन मोदी राज में वह और तेज हुई है। शिक्षा का बजट निम्नतम् स्तर पर ला दिया गया है। अब चुनिंदा और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को निजीकरण की दिशा में धकेला जा रहा है। नीति यह है कि इसे इतना महँगा बना दिया जाए कि समाज के सामान्य हिस्से इससे वंचित हो जाएँ और वे लुटेरी और शोषक पूँजीवादी व्यवस्था की भट्टी में जलने वाले सस्ते ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होते रहें। इस उद्देश्य से श्रम कानूनों को भी नख-दन्त विहीन बनाया जा रहा है। शिक्षा को धर्मान्धता, पाखण्ड, पोंगापंथ और सांप्रदायिकता फैलाने का औजार बनाने के लिए इसके पाठ्यक्रमों में प्रतिगामी बदलाव किये जा रहे हैं। इतिहास, कला और संस्कृति की व्याख्या नागपुरी दृष्टिकोण से की जा रही है।
   शिक्षा की तरह स्वास्थ्य सेवाएँ भी सरकार के निशाने पर हैं और वे भी बेहद महँगी, छलपूर्ण और आम आदमी की पहुँच से बाहर होती चली जा रही हैं। महँगाई ने निरंतर पाँव पसारे हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना कर गरीबों के मुहँ का निवाला छीना जा रहा है। हर तरह की सब्सिडी पर कुल्हाड़ी चलाई जा रही है। आतंकवाद को समाप्त करने और सीमा पार के दुश्मनों का खात्मा करने के मोदी और भाजपा के दावों का खोखलापन इसी से जाहिर हो जाता है कि गत चार सालों में पूर्व के भारत-पाक युद्धों से भी अधिक संख्या में हमारे सैनिक और अन्य सुरक्षा बलों के जवान शहीद हो चुके हैं। मोदी, भाजपा और आरएसएस की काकटेल और कारपोरेट हितों की पोषक इस सरकार के प्रति जनता का मोहभंग तेजी से बढ़ रहा है। हाल में कई राज्यों में हुए उपचुनावों, निकाय और अन्य चुनावों के परिणामों ने भाजपा के पैरों तले से जमीन के खिसकने का संकेत दे दिया है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटें, जिन पर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री  जीते थे, पर भाजपा की करारी हार ने साबित कर दिया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की पराजय का रास्ता तैयार हो रहा है। उनका दावा कि “मोदी का कोई विकल्प नहीं”, उत्तर प्रदेश में ही जमींदोज होने जा रहा है।
    जाहिर है संपूर्ण सत्ता का स्वाद चख चुकी भाजपा और उसका रिंग मास्टर आरएसएस इसे इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं। बेनकाबी जितनी तेजी से बढ़ रही है उसको नकाब पहनाने के प्रयास भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं। अतएव हर वह हथकंडा जो जनता को गुमराह और विभाजित कर सके अपनाया जा रहा है। सभी जानते हैं कि मंदिर-मस्जिद विवाद सर्वोच्च न्यायालय के
विचाराधीन है और उसका फैसला आने पर ही हल की ओर बढ़ सकता है। फिर भी मंदिर निर्माण के लिए अलग-अलग मुखों से तीखे बोल बोले जा रहे हैं। कथित लव जिहाद, गोरक्षा और तीन तलाक जैसे मुद्दों की आड़ में अल्पसंख्यकों और दलितों को निशाना बनाया जा रहा है। दंगे कराये जा रहे हैं और दंगों तथा हत्याओं में संलिप्त संघी अपराधियों को आरोपों से मुक्त किया जा रहा है। विभाजनकारी यह एजेंडा दिन ब दिन धारदार बनाया जाना है। संविधान और न्यायिक प्रणाली तक को बदलने का प्रयास जारी है।
    कारपोरेट हितों की पोषक और फासिस्टी रुझानों से सराबोर इस सरकार को सत्ताच्युत करना आज हर लोकतंत्रवादी ताकत का सबसे प्रमुख लक्ष्य बन गया है। वामपंथ ने तो इस सरकार के पदारूढ़ होते ही संकल्प व्यक्त किया था कि वह इस जन विरोधी और लोकतंत्र विरोधी सरकार को उखाड़ फैंकने को कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगी। तदनुसार वामदलों और उनके सहयोगी संगठनों ने इन चार सालों में अनेक जन प्रश्नों पर आन्दोलन खड़े किए हैं। परन्तु परिस्थितियों की जटिलता को देखते हुए ये नाकाफी हैं। अतएव समय की माँग है कि
जनविरोधी, लोकतंत्र और संविधान विरोधी इस सरकार को अपदस्थ करने को एक व्यापक और व्यावहारिक रणनीति बनाई जाए। सभी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी ताकतों का एक प्लेटफार्म तैयार कर संघर्षों को नई ऊँचाइयों तक ले जाया जाए। बरबादी की जड़ आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का एक आर्थिक-सामजिक विकल्प पेश किया जाए। सांप्रदायिकता, धर्मान्धता और रूढ़िवादिता के खिलाफ वैचारिक मुहिम छेड़ी जाए। इसके लिए संकीर्णताओं से मुक्त और कार्यक्रम
आधारित वामपंथी एकता बेहद जरूरी है। वामपंथी दलों को इस दिशा में तत्काल ठोस पहल करनी चाहिए। पूर्व की भाँति ढील-ढाल और हीला-हवाली नकारात्मक परिणाम दे सकती है। अच्छी बात है कि देश की दो प्रमुख पार्टियों-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राष्ट्रीय
महाधिवेशन इसी अप्रैल माह में होने जारहे हैं। एक अन्य कम्युनिस्ट पार्टी माले का महाधिवेशन भी हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इन महाधिवेशनों से अभूतपूर्व वाम एकता और उसके इर्द-गिर्द व्यापक जनवादी ताकतों की एकता का मार्ग अवश्य ही प्रशस्त होगा।             
    

-डॉ. गिरीश
मोबाइल : 09412173664
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

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