शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

कासगंज की साम्प्रदायिक हिंसा

               कासगंज की साम्प्रदायिक हिंसा इस मामले में अन्य दंगों से बिल्कुल अलग है क्योंकि इसकी शुरूआत एक राष्ट्रीय पर्व को लेकर दो अलग अलग आयोजनों के नाम पर हुई। एक समुदाय के लोगों ने परम्परागत ध्वाजारोहण समारोह आयोजित किया तो दूसरे ने नई परम्परा शुरू करते हुए तिरंगा यात्रा निकाला। यहाँ यह बात गौरतलब है कि अगर दोनों समुदायों के लोग गणतंत्र दिवस मना रहे थे और दोनों ही राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान में आयोजन कर रहे थे तो टकराव की स्थिति कैसे बनी? अचानक एक तकरार से शुरू हुआ विवाद पथराव, फायरिंग, आगजनी और लूटपाट में क्यों और कैसे तब्दील हो गया? संविधान को लागू किए जाने का राष्ट्रीय पर्व और राष्ट्रीय ध्वज की गरिमा कम से कम उस दिन दोनों समुदायों को किसी कलंकित कर देने वाली घटना से बचने के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर पाई? इन सवालों का जवाब ढूंढने के प्रयास में सबसे पहले आयोजकों की नीयत पर ही सवाल खड़ा होता है और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ किसी पूर्व साजिश की तरफ इशारा करती हैं। पक्षों के आरोप प्रत्यारोप, पुलिस प्रशासन की प्रतिक्रिया के अलावा नागरिक और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले तीन संगठनों रिहाई मंच, सिटिजन्स अगेंस्ट हेट और एआईपीएफ (टीम के सदस्यों के नाम नीचे दिए गए हैं) ने कासगंज साम्प्रदायिक हिंसा के तथ्यों को संकलित कर रिपोर्टें जारी की हैं, आयोजनों और हिंसा सम्बंधी कुछ वीडियो भी सामने आए हैं जिनसे परत दर परत बहुत कुछ खुल कर सामने आ जाता है। तीनों संगठनों की रिपोर्टों में कासगंज साम्प्रदायिक हिंसा को पूर्व नियोजित बताया गया है और यह भी कहा गया है कि पुलिस की भूमिका संदिग्ध और पक्षपातपूर्ण रही है। 26 जनवरी की सुबह मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हुल्का मुहल्ले में वीर अब्दुल हमीद चौक पर ध्वजारोहण कार्यक्रम की तैयारियाँ चल रही थीं। कुर्सियाँ लगाई जा चुकी थीं। ध्वजारोहण का समय बिल्कुल करीब था कि संकल्प फाउंडेशन और एबीवीपी के नवजवान (जिनमें से कुछ के पास तमंचे भी थे) 50-60 मोटर साइकिलों से तिरंगा यात्रा लेकर अब्दुल हमीद चौक पर पहुँच गए और यात्रा के लिए रास्ता देने की मांँग करने लगे। आयोजकों ने उन्हें ध्वजारोहण तक रुकने के लिए कहा और समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित भी किया लेकिन बाइक सवार युवक इसके लिए तैयार नहीं हुए और यात्रा जारी रखने पर अड़े रहे। कुछ समझदार लोगों ने यात्रा में तिरंगे से ज्यादा भगवा झंडों को देखते हुए भाँप लिया कि ये लोग टकराव की स्थिति उत्पन्न करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने एक पंक्ति कुर्सी हटा कर रास्ता देने का प्रस्ताव किया लेकिन बाइक सवार इतने से संतुष्ट नहीं हुए। इस बीच बाइक सवारों ने नारे लगाने शुरू कर दिए। नारे कुछ धार्मिक थे और कुछ में मुस्लिमों के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हुए उनके पाकिस्तान जाने की बात कही गई थी। उनमें से कुछ मुस्लिमों से तिरंगा के साथ भगवा झंडा फहराने की भी माँग करने लगे। अभी तकरार और नारेबाजी चल ही रही थी कि यात्रा में शामिल किसी ने एक बच्चे पर भगवा रंग फेक दिया। तकरार हाथा पाई में बदल गई। करीब पंद्रह मिनट तक यह टकराव चलता रहा उसके बाद बाइक सवार अपनी बाइकें छोड़कर भाग गए। इस घटना में किसी को गम्भीर चोट नहीं आई। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट की रिपोर्ट में सवाल किया गया है कि जब सुबह 8 बजे के करीब प्रभू पार्क से एबीवीपी और संकल्प फाउंडेशन की बाइक रैली बंदूक से फायर करने के साथ निकल रही थी उनसे इस बाबत कोई सवाल क्यों नहीं किया गया  या रैली के साथ पुलिस क्यों नहीं थी? वीर अब्दुल हमीद चौक से एक सँकरी गली मुस्लिम बाहुल्य मुहल्ले की तरफ जाती है। बाइक सवार उसी गली से तिरंगा यात्रा ले जाना चाहते थे जबकि प्रशासन ने उनको इसकी अनुमति नहीं दी थी। हालाँकि हमीद चौक से सौ मीटर की दूरी पर ही चौड़ी सड़क थी जहाँ से यह यात्रा निकाली जा सकती थी। बाइक सवारों की इस जिद को कुछ लोग यह कह कर तर्कसंगत साबित करने की कोशिश कर सकते हैं कि ‘तिरंगा यात्रा निकालने के लिए भी प्रशासन की अनुमति लेनी पड़ेगी?’ यह भावनात्मक तर्क सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी, जिस दिन देश में संविधान लागू हुआ था, अगर हम कानून का सम्मान नहीं कर सकते तो हम
संविधान और कानून के राज की बात कैसे कर सकते हैं? दूसरे यह कि तिरंगा यात्रा में भगवा या किसी और झंडे या भगवा रंग होने का क्या औचित्य हो सकता है? इससे तिरंगा यात्रा का मकसद ही संदेहजनक हो जाता है। घटना का एक सीसीटीवी फुटेज भी सामने आया है जिससे पता चलता है कि 8.56 बजे सुबह अब्दुल हमीद चौक पर गणतंत्र दिवस समारोह की तैयारियाँ चल रही थीं जबकि 9.40 बजे वहाँ अफरातफरी का माहौल था और गणतंत्र दिवस समारोह के लिए बिछाई गई कुर्सियाँ फेंकी जा रही थीं।
इस घटना के बाद तिरंगा यात्रा में शामिल युवक भागकर बिलराम चौक पर पहुँचे और उस घटना को ‘हिंदुओं का अपमान’ प्रचारित कर वहाँ मौजूद स्थानीय भाजपा नेताओं की मदद से लोगों को इकट्ठा किया और एक घंटे से भी कम समय में लगभग 500 की भीड़ जो ईंट पत्थर, तमंचे, पिस्टल और रायफल से लैस थी मुख्य बाजार से होती हुई मुस्लिम कालोनी की तरफ बढ़ने लगी। गणतंत्र दिवस होने की वजह से बाजार बंद था। भीड़ ने जन सम्पत्ति और मुस्लिमों की दुकानों पर हमले किए। उसके बाद पत्थरबाजी और फायरिंग शुरू हो गई। नौशाद के पैर में गोली लगी। उसने घायल अवस्था में भाग कर किसी तरह अपनी जान बचाई। नौशाद का कहना था कि जब वह बाजार में दुकाने बंद होने की वजह से लौट रहा था तो अचानक उसने भीड़ देखी जिनमें कुछ पुलिस वाले भी थे। भीड़ के साथ पुलिस वाले भी फायर कर रहे थे और उसे पुलिस फायरिंग में ही गोली लगी। दूसरी तरफ संकल्प फाउंडेशन के सक्रिय सदस्य और तिरंगा यात्रा निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अभिषेक उर्फ चंदन गुप्ता की गोली लगने से संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। चंदन पर गोली चलाने का आरोप सलीम जावेद नामक एक प्रमुख कपड़ा व्यापारी पर लगाया गया। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट ने कासगंज दौरे के बाद अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए जो तथ्य सामने लाए हैं उसके अनुसार चंदन गुप्ता का मृत्यु स्थल स्पष्ट नहीं है और न ही सलीम जावेद की उसकी मौत में कोई भूमिका लगती है। दर असल बाइक सवार संकल्प और एबीवीपी के लोग हाथों में असलहे लहराते और फायरिंग करते हुए बड्डू नगर की ओर बढ़े तो वहाँ सरकारी गर्ल्स कालेज के पास हिंदू मुसलमानों की भीड़, जो दंगे की खबर सुनकर अपनी बच्चियों को सुरक्षित घर वापस ले जाने के लिए इकट्ठा हो गई थी, उन्हीं अभिभावकों ने अपने बच्चों की सुरक्षा के मद्दे नजर हमलावरों को खदेड़ने के लिए उन पर पत्थर फेंके जिसके बाद बाइक सवार पीछे हट गए थे। इसलिए जीआईसी कालेज या उसके सामने सलीम के घर के पास चंदन गुप्ता को गोली लगने का सवाल ही नहीं पैदा होता। दूसरे यह कि सलीम जावेद के घर के पास कहीं खून के धब्बे या गोलियों के निशान नहीं मिले। खुद सलीम जावेद साढ़े नौ बजे गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए मुलका रोड स्थित मुहम्मद हसन कालेज में थे जिसके फोटो मौजूद हैं। जब अब्दुल हमीद चौक की घटना की उनको जानकारी हुई तो वे भी अपने बच्चों को स्कूल से वापस लाने वहाँ पहुँचे थे। ऐसे में वह घटना स्थल पर मौजूद नहीं रह सकते थे। कुछ स्थानीय लोगों ने यह आशंका भी जताई कि सलीम जावेद के परिवार को फँसाने में कोई अज्ञात हाथ भी हो सकता है क्योंकि वे कपड़े के कामयाब व्यापारी हैं और अगर यह परिवार बरबाद होता है तो इससे प्रतिस्पर्धा में शामिल अन्य व्यापारियों को लाभ हो सकता है। इसी तरह आरोपी बनाए गए सलीम के भाई वसीम के बारे में बताया गया कि वे तबलीगी जमात में गए हुए थे और दंगों के समय महाराष्ट्र में थे। स्थानीय लोगों में चंदन की मौत के लेकर यह भी चर्चा थी कि चंदन को गोली स्टेशन रोड पर लगी और सम्भवतः अंधाधुंध फायरिंग कर रहे चंदन के साथियों में से ही किसी की गोली उसे लगी हो या फिर पुलिस फायरिंग में। एआईपीएफ की रिपोर्ट में कहा गया है की ‘पत्रकारों की मौजूदगी में पुलिस ने दावा किया कि “सलीम के घर से पुलिस ने कोई चीज उठाई और उसे लहराते हुए यूएस की बनी हुई गन बताया और कहा कि चंदन को उसी से मारा गया। लेकिन वह खिलौना निकला। उसके घर से 12 बोर की दो लाइसेंसी बंदूकें बरामद की गईं ...। उसके बाद पुलिस ने कहा कि चंदन की मौत देसी कट्टे के फायर से हुई लेकिन उसकी मारक क्षमता उतनी दूर तक नहीं हो सकती”। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट ने यह सवाल भी उठाया कि चंदन गुप्ता की एफआईआर उसकी मृत्यु के चौदह घंटे बाद लिखी गई है और इस विलम्ब का कोई कारण नहीं बताया गया है जो संदेह उत्पन्न करता है। चंदन गुप्ता की मौत के साथ ही राहुल उपाध्याय नामक एक अन्य युवक की हत्या की अफवाह भी फैलाई गई। सोशल मीडिया पर यह खबर वायरल हुई जबकि राहुल उपाध्याय उस दिन कासगंज में था ही नहीं। इस घटना के बाद वह सामने आया और बताया कि “कासगंज हिंसा में मेरे मरने की अफवाह के बारे में मेरे एक दोस्त ने मुझे फोन पर बताया। मैंने उससे वह पोस्ट फारवर्ड करने को कहा और देखा तो बात सही थी”।
                 लखीमपुर खीरी निवासी मो. अकरम हबीब अस्पताल में भर्ती अपनी पत्नी को देखने के लिए कार से अलीगढ़ जा रहा था। कासगंज में एक जगह वह चाय पीने के लिए रूका। शाम हो चुकी थी। चाय बनने में समय था। इस बीच अकरम नमाज अदा करना चाहता था। हिंदू चाय वाले ने अपने घर में अकरम को नमाज पढ़ने की जगह दी। चाय पीने के बाद उसने अकरम को बताया कि शहर में हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया है। लेकिन 26 जनवरी को ही अपनी पत्नी के सम्भावित प्रसव से पहले वह अलीगढ़ पहुँच जाना चाहता था। अकरम ने कुछ गाड़ियाँ जाती देखी तो खुद भी चल पड़ा। दाढ़ी की वजह से उसके मुसलमान होने की पहचान  आसानी से की जा सकती थी। नदराई गेट के पास भीड़ उसकी गाड़ी की तरफ दौड़ी। पुलिस चौकी से मात्र 200 मीटर के फासले पर उसे रोक लिया गया और गाड़ी का शीशा तोड़ कर निर्ममता से उसकी पिटाई की गई। उसने बताया कि सब कुछ करीब 15 मिनट तक चलता रहा लेकिन पुलिस ने कोई मदद नहीं की। कुछ अन्य लोगों के हस्तक्षेप पर उसे छोड़ा गया लेकिन वह बुरी तरह घायल था और एक आँख में गहरी चोट आई थी। उसने बताया कि वह सीधे पुलिस चेक पोस्ट पर गया और सहायता मांगी। उसको तब बहुत आश्चर्य हुआ जब पुलिस के अधिकारी ने कहा ‘आज तुमको कोई मदद नहीं मिलेगी’। लेकिन इसी दरम्यान कोई बड़ा अधिकारी वहाँ पहुँच गया उसने अपने मातहतों को उसे मिशनरी अस्पताल पहुँचाने को आदेश दिया। अकरम की जान तो बच गई लेकिन उसकी एक आँख चली गई। इसी तरह कासगंज के पास गंज डुंडुवारा का एक मुस्लिम मजदूर छोटन 28 जनवरी को अपनी साइकिल से चूजे बेचने के लिए निकल पड़ा। पिछले दो दिनों से दंगों के कारण वह कुछ कमा नहीं पाया था। अपने परिवार (पत्नी और तीन बच्चों) को भूख से बचाने के लिए उसे पैसों की जरूरत थी। जब देर शाम तक वह वापस नहीं आया तो उसकी पत्नी ने पड़ोसियों की इसकी जानकारी दी। पड़ोसी एक जीप से उसे ढूंढने निकले तो चितेरा में उसे सड़क के किनारे झाड़ियों में पाया। जीप देखकर हमलावर फरार हो गए थे। उसको सिर में गम्भीर चोटें आई थीं। उसे अलीगढ़ मेडिकल कालेज में सिर की सर्जरी के बाद वेंटीलेटर पर रखा गया। डाक्टर इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि अगर छोटन बच भी गया तो वह कभी काम लायक हो पाएगा या नहीं? लेकिन जहाँ उत्तर प्रदेश सरकार ने चंदन गुप्ता के परिजन के लिए बीस लाख रूपये मुआवजा देने की घोषणा की और कई विधायक और सांसद उसके घर भी गए हालांकि चंदन का आपराधिक रिकार्ड भी है। वह अपनी भाभी की दहेज के लिए की जाने वाली हत्या का अभियुक्त था और कुछ दिनों पहले ही जेल से जमानत पर छूट कर आया था। वहीं नौशाद, अकरम और छोटन के लिए न तो किसी मुआवजे की घोषणा की गई और न ही उनसे अस्पताल में कोई मिलने ही गया। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि नौशाद को गोली लगी थी, अकरम पर जानलेवा हमला हुआ जिसमें उसकी एक आँख चली गई जबकि छोटन अस्पताल में मौत और जिन्दगी के बीच संघर्ष कर रहा है।
                          चंदन गुप्ता की लाश को तिरंगे में लपेट कर उसके घर लाया गया। भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के नेता चंदन गुप्ता के घर पहुँचने लगे। कासगंज के विधायक और सांसद भी पहुँच गए। भीड़ इकट्ठा होने दी गई और इन नेताओं ने सम्बोधित भी किया। सांसद राजवीर सिंह जो कल्याण सिंह के बेटे हैं, ने भड़काऊ भाषण दिया। सांसद महोदय ने केवल चंदन गुप्ता को ‘अपना आदमी’ कहते हुए मुसलमानों के खिलाफ उकसाया ही नहीं बल्कि प्रशासन के उच्च अधिकारियों को, जिनकी भूमिका अभी बहुत पक्षपातपूर्ण नहीं दिख रही थी, यह कह कर दबाव बनाने का प्रयास किया कि यह हिंदुओं पर पूर्वनियोजित हमला था और मामले की जाँच कासगंज से बाहर के अधिकारियों से करवाई जाएगी। चंदन गुप्ता के परिजन को 20 लाख रूपये का मुआवजा देकर योगी सरकार ने अपनी तरफ से उसके निर्दोष होने की सनद पहले ही दे दिया है। हालाँकि सरकार ने उसके शहीद घोषित करने की माँग पर या उसके भाई को नौकरी देने के सवाल पर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। 27 जनवरी को चंदन गुप्ता का अंतिम संस्कार कर के लौटते हुए भीड़ ने बिलराम बाजार में मुसलमानों की दुकानों में लूटपाट और आगजनी की। बिलराम में बाजार की किसी घटना की आशंका के बावजूद वहाँ बड़ी संख्या में पुलिस बल को तैनात नहीं किया गया, शवयात्रा के साथ मौजूद पुलिस कर्मियों ने इन घटनाओं को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।
               28 फरवरी को पीस मीटिंग बुलाई गई जिसमें जिलाधिकारी ने सुरक्षा का आश्वासन देते हुए मुसलमानों से अपनी दुकानें खोलने के लिए कहा। एसपी कासगंज सुनील सिंह ने हिंदू नवजवानों को चेतावनी देते हुए शान्ति बनाए रखने के लिए कड़े कदम की चेतावनी दी तो अगले ही दिन उनका ट्रांसफर कर दिया गया। प्रशासन के आश्वासन पर जब मुसलमानों ने अपनी दुकानें खोलीं तो उनको गिरफ्तार किया जाने लगा। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट ने क्षेत्र का दौरा करने के बाद पाया कि मुसलमानों की दुकानों को चिह्नित कर के लूटा और जलाया गया था। जिन मुस्लिम दुकानदारों के पड़ोसी हिंदू दुकानदार थे और दोनों दुकानों के बीच लकड़ी की दीवार थी उनको या तो बहुत सावधानी से यह ध्यान रखते हुए जलाया गया था कि आग दूसरी दुकान तक न पहुँचे या फिर उन्हें छोड़ दिया गया था। चंदन गुप्ता की हत्या के आरोप में गिरफ्तार सलीम जावेद की दुकान बर्की क्लाथ स्टोर को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया गया क्योंकि उसकी दीवार पुलिस स्टेशन से सटी हुई थी। कुल मिलाकर 2 फरवरी तक मुसलमानों की 27 दुकाने (करीब पाँच बड़ी दुकानें और बाकी छोटी दुकानें जिनको स्थानीय भाषा में खोखा कहा जाता है) और दो मस्जिदों (खेरिया और बरदेवारी) को क्षतिग्रस्त किया गया या जलाया गया था जबकि किसी हिंदू की एक भी दुकान या मंदिर को नुकसान नहीं पहुँचा था। इसके अलावा 5 फरवरी को गंज डुंडवारा में साम्प्रदायिक तत्वों ने एक मस्जिद को आग लगा दी। इसके विपरीत मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में स्थित चामुंडा मंदिर और मंदिर के पीछे एचपी गैस एजेंसी की हिफाजत खुद मुसलमानों ने की। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि झंडा चौक जहाँ सबसे अधिक आगजनी की घटनाएँ हुई थीं वहाँ पर योगेश बैट्री, तूफान सोप और योगेश कास्मेटिक्स की दुकानों में सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं जिनके जरिए से भीड़ में शामिल लोगों को आसानी पहचाना जा सकता है लेकिन पुलिस ने ऐसा करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। एक सप्ताह बाद भी पुलिस ने लूटी और जलाई गई दुकानों की कोई जाँच नहीं की और न ही पड़ोसियों से ही किसी तरह की पूछताछ की। स्थानीय लोगों का कहना था कि अगर 27 जनवरी को पर्याप्त पुलिस बल तैनात किया गया होता और पुलिस ईमानदारी से अपना काम करती तो इन घटनाओं को रोका जा सकता था। जाँच टीम ने यह आरोप भी लगाया कि मुस्लिम रिहाइशी इलाकों में बड़े पैमाने पर पुलिस बल को तैनात किया गया था जिससे मुसलमान कैद होकर रह गए। उनकी दुकानों, मकानों और धर्मस्थलों को कोई सुरक्षा नहीं दी गई थी। जबकि हिंदू इलाकों में पुलिस बल की तैनाती नगण्य थी और जुनूनी नवजवान आजादी से घूम रहे थे। लूटपाट और आगजनी में शामिल एबीवीपी और संकल्प फाउंडेशन से जुड़े युवकों की बड़ी संख्या पास के साहबवाला, श्वाले वाली और चित्रगुप्त कालोनी से आई थी जिसके वीडियो होने का भी दावा किया गया है लेकिन उन स्थानों पर पुलिस बल तैनात नहीं किया गया था। इसी तरह जब मुसलमानों ने आगजनी, लूटपाट और हमलों की प्राथमिकी दर्ज करवाने का प्रयास किया तो पहले उन्हें टाल दिया गया और बाद में स्पष्ट कह दिया गया कि जब तक सभी गिरफ्तारियाँ नहीं हो जातीं कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी। कुछ दुकानदारों से नुकसान के आँकड़े निकाल देने की शर्त पर तहरीर तो ली गई लेकिन उन्हें दर्ज नहीं किया गया। मुसलमानों के घरों के दरवाजे तोड़कर एकतरफा मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारियाँ की जाने लगीं। पुलिस की इस अंधाधुंध कार्रवाई से भयभीत कई घरों में ताला लगाकर रहवासी पलायन कर गए। पुलिस ने सलीम जावेद के घर पर छापा मार कर दरवाजा तोड़ दिया, घर का सामान तहस नहस कर दिया और उसे खुला ही छोड़ कर चली गई। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट की जाँच टीम ने थानाध्यक्ष से सलीम के घर में ताला लगाने का अनुरोध किया लेकिन आश्वासन के बावजूद जब ताला लगा कर घर को सुरक्षित नहीं किया गया तो जाँच टीम ने मौके पर मौजूद पुलिस वाले से अनुमति लेकर स्थानीय लोगों की मौजूदगी में घर में ताला लगाया।
    पुलिस के इसी भेदभाव पूर्ण रवैये के कारण मुस्लिमों में पुलिस के प्रति अविश्वास और भय का माहौल बन गया। कई घरों खासकर जिनमें नवयुवक थे पुलिस द्वारा उत्पीड़ित किए जाने के डर से या तो उनको हटा दिया गया या फिर घरों में ताला बंद कर के पूरा परिवार ही पलायन कर गया। कई स्थानों पर हिंदू पड़ोसियों ने इन ज्यादतियों पर अफसोस जाहिर किया लेकिन वह सामने आने या गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। रिहाई मंच ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि “कासगंज के मुस्लिमों ने यह भी बताया कि जो कोई भी मीडिया में अपने बयान दे रहा है या मीडिया को घटना के बारे में अवगत करा रहा है पुलिस उन्हें चिह्नित कर उत्पीड़ित कर रही है। इस तरह पुलिसिया कार्यवाही जाँच को प्रभावित कर रही है और निष्पक्ष जाँच सम्भव नहीं हैं”। जिलाधिकारी के आश्वासन पर दुकानें खोलने वाले मुसलमानों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने की घटना ने उन्हें भयभीत और आशंकित कर दिया।          
 
      एआईपीएफ की टीम जो 5 फरवरी को तथ्य संकलन के लिए कासगंज पहुँची थी उसके सदस्यों को 6 फरवरी को धारा 144 के उल्लंघन के आरोप में जिला कारागार के पास महिला कारागार में एक घंटे तक बंद रखा गया। टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वे जिला कारागार में दंगों के आरोप में कैद लोगों से मिलना चाहते थे लेकिन पुलिस ने अनुमति नहीं दी और अधिकारियों ने खुद भी कोई बात करने से मना कर दिया। टीम ने बंदियों के कई हिंदू मुस्लिम परिजनों से बात की और इस निष्कर्ष पर पहुँची कि गिरफ्तार हिंदू-मुस्लिमों में से बहुतेरे बेकसूर हैं। सवर्ण और लोधी जातियों के हिंदुओं की गिरफ्तारी बहुत कम हुई और जिन्हें गिरफ्तार किया भी गया उन पर 151 जैसी मामूली धारा लगाई गई जिससे उनको फौरन जमानत मिल गई जबकि ओबीसी और दलितों पर आगजनी और लूट मार की गम्भीर धाराएँ लगाई गई हैं और कुछ मामलों में यूएपीए भी लगाया गया है जब कि मुस्लिम बंदियों पर धारा 302 और 307 भी जोड़ी गई है। गिरफ्तार अनुज तोमर के भाई और लवकुश नगर, कासगंज के निवासी आलोक तोमर ने बताया कि अनुज 27 जनवरी को बीमार पिता के लिए दवा लेने निकला था लेकिन पुलिस वालों ने बताया कि दुकानें बंद हैं इतने में एक पुलिस कार आई और उसे उठा लिया गया। थानाध्यक्ष रिपुदमन सिंह ने अनुज के खिलाफ जो केस दर्ज किया है उसके मुताबिक अनुज 27 जनवरी को अमापुर अड्डा पर आगजनी और तोड़फोड़ में शामिल था और उसे चिह्नित कर गिरफ्तार किया गया। राजवीर सिंह यादव ने बताया कि उनका बेटा राज डॉ० नवीन गौड़ के क्लीनिक पर कम्पाउंडर है। वह और उसका एक साथी कम्पाउंडर क्लीनिक बंद कर के जा रहे थे कि पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया। राज का साथी लोदा राजपूत जाति का है जिस जाति से सांसद राजवीर सिंह और वीएचपी अध्यक्ष प्रमोद जाजू आते हैं। उसकी धारा 151 में चालान कर दी गई और जमानत पाकर घर वापस आ गया। लेकिन राज पर गम्भीर धाराओं में मुकदमा कायम किया गया जिसमें यूएपीए की धारा 7 भी शामिल हैं।
थानाध्यक्ष रिपुदमन सिंह के अनुसार राज को घंटाघर के पास गिरफ्तार किया गया जहाँ वह आगजनी और तोड़फोड़ कर रहा था। जब राजवीर यादव से जाँच कर्ताओं ने पूछा कि वास्तविक अपराधी कौन लोग हैं तो उसका जवाब था “एबीवीपी और संकल्प के लोगों ने तिरंगा यात्रा निकाला और अब्दुल हमीद चौक पर ध्वजारोहण कर रहे मुसलमानों से भगवा झंडा भी फहराने की माँग की जिससे मुसलमानों ने इनकार कर दिया .... वही लोग भाजपा नेताओं से मिले, फिर से समूह बनाकर हथियारों से लैस बाइक से तहसील गए जहाँ चंदन का शव पाया गया था। पुलिस ने अब तक बाइक छोड़ कर भागने वालों में से किसी को गिरफ्तार क्यों नहीं किया? निश्चित रूप से वह लोग उस हिंसक भीड़ का हिस्सा थे जिन्होंने हमारे कासगंज की शान्ति को तबाह कर दिया, यदि वे लोग पकड़े जाते हैं तो उनके अन्य साथियों का भी पता चल जाएगा, पुलिस केवल बेगुनाह लोगों को गिरफ्तार कर रही है”। रिक्शा चालक जमशेद को भी गिरफ्तार किया गया जबकि वह 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने के लिए स्कूल जाने वाले बच्चों को सेन्ट जोजेफ स्कूल छोड़ने गया था जिसे सीसीटीवी फुटेज में देखा जा सकता है। एआईपीएफ, एपवा और वरिष्ठ पत्रकारों की टीम के सामने दो बेमिसाल दोस्तों का मामला भी सामने आया है जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया है। शहजाद और प्रदीप बदायूँ के रहने वाले दो दोस्त स्कूटर से बिलराम कस्बे में शहजाद की दादी से मिलने जा रहे थे। रास्ते में पुलिस ने रोक लिया। खालिद पर हत्या के प्रयास और यूएपीए की धारा 7 समेत अन्य गम्भीर
धाराएँ लगाई गइंर् जबकि प्रदीप का चालान धारा 151 के तहत की गइंर् और उसके लिए जमानत का भी प्रस्ताव किया गया लेकिन प्रदीप ने रिहाई से इनकार कर दिया और अपने दोस्त के साथ जेल में रहने का निर्णय किया।
                   कासगंज साम्प्रदायिक हिंसा पर सबसे पहले रिहाई मंच ने 30 जनवरी को अपनी रिपोर्ट जारी की थी। रिहाई मंच नेता राजीव यादव और मो. आरिफ ने 28-29 जनवरी को कासगंज का दौरा करने के बाद वहाँ होने वाली साम्प्रदायिक हिंसा, आगजनी और लूटपाट की घटनाओं को सुनियोजित, मुस्लिम विरोधी और साजिश के तहत अंजाम दी गई बताया। रिहाई मंच ने अपनी रिपोर्ट में कहा “जाँच में प्रथम दृष्टया पाया गया कि कासगंज हिंसा पूर्वनियोजित है और पुलिस के पूर्व ज्ञान में अंजाम दी गई है”। रिहाई मंच की जाँच रिपोर्ट में कहा गया है “सोशल साइट फेसबुक पर संकल्प फाउंडेशन के सदस्यों और मुसलमान लड़कों के बीच तकरार हुई थी और यह तकरार लम्बे समय तक चलती रही जिस पर 1000 से अधिक कमेंट किए गए थे। इस तकरार के बाद संकल्प फाउंडेशन के सदस्यों की गुप्त बैठकें भी हुई थीं। इन्हीं आशंकाओं के चलते संकल्प फाउंडेशन के उपाध्यक्ष आयुष शर्मा उर्फ पंडित जी ने 20 जनवरी को गृह मंत्री, मुख्यमंत्री और यूपी पुलिस को ट्वीटर के माध्यम से सचेत करने का प्रयास भी किया था। यह बात खुद आयुष शर्मा उर्फ पंडित जी ने स्वंय अपने फेसबुक पोस्ट पर कही है। 25 जनवरी की रात भी (एक बार फिर से) आयुष शर्मा ने एसएसपी को फेसबुक पर मेसेज कर इसके बारे में चेतावनी दी थी फिर भी जानबूझकर इसे नजरअंदाज किया गया और साम्प्रदायिक तत्वों को हथियार इकट्ठा करने और हिंसा करने की ढील दी गई”। रिहाई मंच ने अपनी रिपोर्ट में कासगंज रेलवे स्टेशन के पास स्थित नाग परम्परा से जुड़े हुए शेरनाथ मंदिर, जिसके (नागपंथ के अन्य मंदिरों के) मुख्य संरक्षक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, के सम्बंधों पर भी सवाल खड़े किए। योगी के ही आदेश पर कासगंज शेरनाथ मंदिर का प्रभार वर्तमान महंत सोमनाथ को दिया गया। रिहाई मंच की रिपोर्ट कहती है कि “जाँच के दौरान यह तथ्य सामने आया है कि इस मंदिर के नए महंत के आने के बाद से हर सोमवार को संकल्प फाउंडेशन की तरफ से महा आरती का आयोजन किया जाता था जिसमें संकल्प फाउंडेशन के संस्थापक सदस्य मृतक चंदन गुप्ता की मुख्य भूमिका होती थी और वह महंत के करीबी सम्पर्क में था। रिहाई मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि “इसके (शेरनाथ मंदिर के) पूर्व महंत रतननाथ की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई। पूरे शहर में जुलूस भी 24 जनवरी को निकाला गया था। इस पूरे कार्यक्रम के कर्ताधर्ता संकल्प संगठन और उसके सदस्य थे”। रिहाई मंच की रिपोर्ट में अपने उक्त दावों के पक्ष में लिंक भी दिए गए हैं। संकल्प फाउंडेशन के दंगे में लिप्त होने को इस बात से भी समझा जा सकता है कि कथित तिरंगा यात्रा की अगुवाई चंदन गुप्ता कर रहा था और उसकी मृत्यु के बाद संगठन के अध्यक्ष ने मुसलमानों को नतीजा भुगतने की धमकी भी दी थी जिसका उल्लेख रिहाई मंच की रिपोर्ट में इस तरह किया गया है “ संकल्प फाउंडेशन के अध्यक्ष अनुकल्प विजय चंद्र चौहान द्वारा चंदन की मौत के बाद सोशल मीडिया और फेसबुक पर एक लम्बा वीडियो पोस्ट किया गया जिसमें चंदन की मौत के गंभीर परिणाम मुस्लिम समाज को भुगतने की चेतावनी दी गई थी। इसके बाद अगले दो दिनों तक लगातार मुसलमानों के घरों और दुकानों पर हमले और आगजनी की घटनाएँ हुईं।
                         इसके अतिरिक्त कई अन्य घटनाएँ हैं जिनसे कासगंज साम्प्रदायिक हिंसा गुजरात 2002 की तर्ज पर सुनियोजित लगती है। कासगंज में भले ही जानी नुकसान कम हुआ हो लेकिन दंगाइयों ने मुसलमानों के व्यापार को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके कारोबार और दुकानों को तबाह किया। दूसरी तरफ पुलिस ने दंगा भड़काने के नाम पर जिन मुसलमानों को आरोपी बनाया है उनमें ज्यादातर व्यापारी हैं। पहले से लुट चुके व्यापारियों पर मुकदमे उन्हें आर्थिक तौर पर इस कदर कमजोर कर सकते हैं कि उसकी भरपाई के लिए उन्हें अपनी दुकानों और कारोबार से ही समझौता करना पड़े। जाँच रिपोर्टों में यह बात सामने आई है कि संघ भाजपा से जुड़े हिंदू मुसलमानों को खुराफाती और शान्ति का दुश्मन कहते हैं और चाहते हैं कि वह कहीं और चले जाएँ। यह अफवाह भी फैलाई गई कि मुस्लिम व्यापारी अपनी दुकानें बेचना चाहते हैं। इसके बाद जब सम्पन्न हिंदू व्यापारियों की तरफ से बहुत कम कीमत पर मुसलमानों की दुकानों को खरीदने का प्रस्ताव आता है तो कड़ियाँ अपने आप जुड़ने लगती हैं। पुलिस का रवैया बेहद पक्षपातपूर्ण रहा है। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट की रिपोर्ट में एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से कहा गया है कि अब्दुल हमीद चौक से एबीवीपी, संकल्प फाउंडेशन के लोगों की पुलिस ने सत्तर मोटर साइकलें उठाई थीं लेकिन जाँच टीम को थाने में पुलिस शुक्ला ने बताया कि वहाँ केवल 30-35 मोटर साइकिलें हैं। जबकि एआईपीएफ की टीम ने दावा किया है कि थाने में खड़ी करीब 50 मोटर साइकिलों के नम्बरों का फोटोग्राफ उनके पास है। इसका मतलब यह हुआ कि पुलिस ने किसी कानूनी कारवाई से बचाने के लिए कुछ लोगों की मोटर साइकिलें पहले ही उनके हवाले कर दी हैं और कुछ अन्य के लिए यह गुंजाइश बाकी रखी गई है। आशंका है कि ये तथ्य रिकार्ड पर नहीं लाए जाएँगे ताकि उनको किसी कानूनी पचड़े में पड़ने से बचाया जा सके और इस सिलसिले में दर्ज एफआईआर में भी किसी को नामजद नहीं किया गया, गिरफ्तारी की बात तो दूर किसी से पूछताछ तक नहीं की गई है। इसी तरह बिलराम गेट और तहसील पर दोनों समुदायों में टकराव के मामले में थानाध्यक्ष रिपुदमन सिंह द्वारा एफआईआर दर्ज कराई गई है जिसमें चार मुस्लिमों को नामजद किया गया है लेकिन किसी हिंदू का नाम नहीं है जबकि शरारती तत्वों के कानून हाथ में लेने के वीडियों भी सामने आ चुके हैं। सबसे बड़ी बात यह कि गुजरात के ही तर्ज पर मुस्लिमों द्वारा एफआईआर के लिए दी गई तहरीरों के आधार पर अलग अलग मुकदमे कायम न कर के पुलिस ने सामूहिक रूप से दर्ज करवाई हैं और आशंका है कि दंगों के साजिशकर्ता और रसूख वाले लोगों तक कानून के हाथ नहीं पहुँचने दिए जाएँगे जैसा कि अब तक की गिरफ्तारियों से स्पष्ट होता है।
                       कुछ विशेषज्ञ इस दंगे के राजनैतिक पहलुओं पर बहस करते हुए संदेह जता रहे हैं कि मध्य यूपी में इस तरह के दंगों के जरिए से भाजपा हिंदुओं को एक जुट कर क्षेत्र को यादव राजनीति के दबदबे से बाहर लाना चाहती है। मुजफ्फरनगर दंगों के सहारे जाटों को अपने साथ रहने पर लगभग विवश कर चुकी भाजपा यादव राजनीति को भी उखाड़ फेंकना चाहती है और कृषि आधारित इन समुदायों के किसान आन्दोलन को दफन कर रोजी रोटी के सवाल को भगवा परचम में लपेट कर आलू और प्याज के संकट से भी छुटकारा पाना चाहती है जो पिछले दिनों उसके लिए शर्म का कारण बने थे। दूसरी तरफ मुस्लिम व्यापारियों के कारोबार तबाही के हवाले से नोटबंदी, एफडीआई और जीएसटी से बुरी तरह प्रभावित छोटे (हिंदू) व्यापारियों को लाभ पहुँचाने का झुनझुना देकर एक बार फिर अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास भी हो सकता है। जाहिर सी बात है इसे 2019 के लोक सभा चुनाव की तैयारी के तौर पर भी देखा जा रहा है। अगर विशेषज्ञों का आँकलन सही साबित होता है तो आने वाले समय में इस तरह के और दंगों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रदेश की इस पूरी घटना में विपक्ष कहीं नजर नहीं आया और आगे भी इसके लक्षण नहीं दिखाई देते इसलिए प्रतिरोध की जिम्मेदारी जागरूक नागरिकों को ही निभानी होगी जिसके लिए उन्हें तैयार रहने की जरूरत है।
    (रिहाई मंच की तरफ से राजीव यादव और मो. आरिफ ने तथ्य संकलन किया। सिटिजन्स अगेंस्ट हेट की टीम में शामिल हैं पूर्व आईजी एसआर दारापुरी, पत्रकार अमितसेन गुप्ता, हसनुलबन्ना, अलीमुल्लाह खान, एक्टिविस्ट राखी सेहगल, एडवोकेट असद हयात, मोहित पांडे जेएनयूएसयू, बनोज्योत्सना लाहिरी अध्यापिका, एक्टिविस्ट नदीम खान, खालिद सैफी, शारिक हुसैन अंतिम पाँच सिटिजन्स अगेंस्ट हेट से भी जुड़े हैं। एआईपीएफ की टीम में वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट जॉन दयाल, किरन शाहीन, एक्टिविस्ट लीना दबेरू, AIPWA की कविता कृष्णन, किसान महासभा के उपाध्यक्ष प्रेम सिंह गहलोत, जेएनयू-आइसा से विजय कुमार और परवेज अहमद)


मसीहुद्दीन संजरी
मो0 09455571488
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 में प्रकाशित

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