रविवार, 1 अप्रैल 2018

भविष्य के लिए खतरा संघ की विचारधारा

मई 2014, भारतीय राजनैतिक इतिहास का अहम वक्त। नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और दक्षिणपंथी-हिन्दुत्व की राजनीति पर आधारित भारतीय जनता पार्टी का संपूर्ण बहुमत से केंद्र की सरकार में आना। ऐसा राजनैतिक उलटफेर जिसकी उम्मीद तमाम राजनैतिक विश्लेषकों को भी नहीं थी। 2004 में भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार की अप्रत्याशित हार के बाद के वक्त से नितांत विपरीत 2014 में एक नया राजनैतिक माहौल हमारे सामने है। 2004 अगर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली भाजपा और उसके पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हार और देश के अंदर वामपंथी पार्टियों के नए उभार का पल था वहीं ठीक एक दशक बाद 2014, दक्षिणपंथी राजनीति के नए उभार और उस राजनीति के मूल वैचारिक विरोधी साम्यवादी वामपंथी धर्मनिरपेक्ष दलों की जबरदस्त हार का गवाह बना। 2004 में 138 सीटों पर सिमट गई भारतीय जनता पार्टी आज 31 प्रतिशत मत के सहारे लोकसभा की 282 सीटों पर काबिज है, वहीं लेफ्ट फ्रंट (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित अन्य छोटे वामपंथी दलों का
गठबंधन) 2004 के 61 सीटों पर जीत के अपने रिकार्ड से गिरकर महज 12 सीटों पर सिमट गई। 2004 में मिले 8.02 प्रतिशत मतों की तुलना में मत प्रतिशत भी घटकर लगभग आधा हो गया है।
    2014 में अपने संसदीय प्रदर्शन के सबसे निचले स्तर पर पहुँचना, दरअसल 2011 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में मिली हार और उसके पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में शुरू हुई पराजय की कड़ी में था। 2009 में वामपंथी दलों का लोकसभा में संयुक्त प्रतिनिधित्व घटकर महज 24 सीटों पर रह गया था। पिछले आम चुनाव से इस वक्त तक वामपंथी पार्टियों को एक बड़ा झटका और लग चुका है। 2016 में कांग्रेस से गठबंधन के बावजूद वामपंथी पार्टियाँ पश्चिम बंगाल की सत्ता पर वापिस काबिज नहीं हो सकीं।
    बीते एक दशक के इसी संसदीय परिदृश्य की बुनियाद पर आज वामपंथ के अस्तित्व पर, उसकी उपयोगिता और भविष्य को लेकर बहस तेज हो गई है। भाजपा और संघ परिवार बात भले कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की करते हों, उनका सर्वाधिक जोर वामपंथ को बदनाम करने और वामपंथी पार्टियों के बचे हुए मजबूत राज्यों केरल और त्रिपुरा में सेंध लगाने पर है। केरल की कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ किस तरह का अभियान चल रहा है यह छुपा नहीं है। त्रिपुरा में इसी फरवरी में विधानसभा के चुनाव हैं और कोई शक नहीं कि उत्तर पूर्व के इस छोटे से राज्य से वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए भाजपा-आरएसएस अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे। बंगाल में जहाँ कम्युनिस्ट पार्टियाँ मुख्य विपक्षी दल हैं, वहाँ भी भारतीय जनता पार्टी लगातार अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में है।
    ऐसे में सवाल यह है कि भारत में वामपंथ की हकीकत क्या है। कोई संदेह नहीं कि वामपंथी दलों की ताकत कम हुई है और उनका जनाधार सिकुड़ा है। तो क्या इससे यह मान लिया जाए कि यह गिरावट अब रुकने वाली नहीं, या फिर बदलाव संभव है। या फिर यह मान लिया जाए कि भारत के आर्थिक-सामाजिक पटल पर वे क्रांतिकारी बदलाव हो गए हैं कि प्रगतिशील, मेहनतकश अवाम की रोजी रोटी, दलित-पिछड़ां, धार्मिक अल्पसंख्यकों और महिलाओं के उत्पीड़न और उनके अधिकारों की बात बेमानी हो गई है और इसलिए इन तमाम वर्गों के लिए संघर्ष करने और यथा संभव उनके जीवन में बदलाव लाने वाली वामपंथी पार्टियों की राजनीति का अब कोई औचित्य नहीं बचा है।
    इन तमाम सवालों का जवाब यह है कि मुक्त बाजार व्यवस्था, बेलगाम पूँजीवाद और अब संकीर्ण हिंदुत्व के बढ़ते खतरे के दौर में वामपंथी विचारों-संघर्षों की और भी ज्यादा जरूरत है। भूमंडलीकरण और वैश्विक पूँजीवाद के 25 साल के बाद हिंदुस्तान के समाज में अमीर-गरीब की खाई और ज्यादा गहरी हो गई है। शाइनिंग इंडिया का सपना बिखर चुका है। देश के महज 1 फीसदी लोग देश की 73 फीसदी सम्पत्ति के मालिक बन बैठे हैं। 2016 में संसाधनों पर कब्जे का यह औसत महज 58 फीसदी था। इक्कीसवीं सदी के मौजूदा भारत में अमीरों की संपत्ति 13 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ी है। एक सामान्य वर्कर की वेतन वृद्धि की तुलना में यह 6 गुना ज्यादा है। आक्सफेम इंडिया की ताजा रपट के मुताबिक भारतीय अरबपतियों की दौलत पिछले एक साल में 4.89 लाख करोड़ रुपए बढ़ गई। यही नहीं प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुध लूट ने देश के तमाम राज्यों में लाखों-लाख लोगों को विस्थापित किया है। इनमें सबसे बड़ी संख्या दलितों, आदिवासियों और दूसरे आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय के लोगों की है। कृषि अर्थव्यवस्था चौपट है। किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है, चाहे वह गुजरात हो या तमिलनाडु या फिर उत्तर प्रदेश। विशेष आर्थिक क्षेत्र की नीति की आड़ में लाखों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन कारपोरेट और निजी हाथों में दे दी गई है। अपने वादे के विपरीत केंद्र सरकार युवाओं को रोजगार
उपलब्ध नहीं करा पा रही है। यही नहीं राजनैतिक और सामजिक स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों-पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों, स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों पर हमले बढ़े हैं। चाहे हैदराबाद की उसमानिया यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या गुजरात के ऊना में मरी हुई गायों का चमड़ा उतार रहे दलितों की पिटाई की घटना हो या फिर हाल ही में महाराष्ट्र की भीमा कोरेगाँव में जुटे दलितों पर हमले की घटना हो हिंदुओं के नाम पर राजनीति करने वालों की सरकार में ही दलितों-पिछड़ों का उत्पीड़न बढ़ा है। उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद स्थित दादरी में गाय का मीट खाने के तथाकथित आरोप में मो. अखलाक की हत्या, राजस्थान में मुस्लिम व्यक्ति की गौ तस्करी के आरोप में हत्या सहित उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी वाले राज्य में बूचड़खानों पर प्रतिबंध, गौ रक्षा के नाम पर अभियान के चलते जो आर्थिक मार पड़ी है उसका सबसे बड़ा शिकार मुस्लिम समाज ही हुआ है। देश के अंदर अल्पसंख्यक समुदायों में भय और आशंका का माहौल है।
    आर्थिक स्तर पर मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले और अब खुदरा रिटेल में 100 फीसदी विदेशी निवेश को हरी झंडी दे देने, एअर इंडिया सहित कई अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश का रास्ता साफ कर देने और बड़े पैमाने पर चुनिंदा निजी उद्योग समूहों को बढ़ावा देने, उन पर सार्वजनिक पब्लिक सेक्टर का बकाया लाखों लाख करोड़ रुपए माफ कर देना भी ऐसे निर्णय हैं जो वर्किग क्लास-नौकरीपेशा वर्ग के हितों के सरासर खिलाफ हैं। आसमान छूती महँगाई, पेट्रोल और डीजल के बेतहाशा बढ़ते दामों ने आम हिंदुस्तानी का जीना मुहाल कर दिया है। जीएसटी और गलत आर्थिक नीतियों के खिलाफ पनप रहे गुस्से की झलक हाल ही में संपन्न हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में देखने को मिली। भाजपा चुनाव जीत भले ही गई हो लेकिन उसे जनता के भारी असंतोष का सामना करना पड़ा। जाहिर है इन मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक हालातों से लड़ना है और कोई बेहतर रास्ते का निर्माण करना है तो वह वाम जनवादी राजनीति और विचारों से होकर ही निकलेगा। यानी देश की मौजूदा परिस्थितियाँ एक वैकल्पिक राजनीति को मजबूत करने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं। तो फिर सवाल यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाली देश की कम्युनिस्ट पार्टियाँ आखिर अपनी राजनीति का विस्तार क्यों नहीं कर पा रही हैं। वे बढ़ते जन असंतोष को क्यों एकजुट कर एक व्यापक राजनैतिक विस्तार को अंजाम नहीं दे पा रही हैं।
    परिस्थितियों को अपने पक्ष में तब्दील न कर पाने की इस नाकामी के कारणों के बारे में बहुत लिखा जा चुका है। कम्युनिस्ट पार्टियों से बाहर वाम राजनीति के हमदर्द, उसे चाहने वाले कई बातों का जिक्र करते हैं। मसलन हिंदी पट्टी के राज्यों में पार्टी का विस्तार न हो पाना, आर्थिक आधार पर सर्वहारा की राजनैतिक लामबंदी की कोशिशें लेकिन सर्वहारा के जातिगत समीकरणों का विश्लेषण न कर पाने और उस जातिगत चेतना को आंदोलन में समाहित न कर पाने की विफलता। दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआईएम और सीपीआई का क्रांतिकारी राजनैतिक एजेंडे से विमुख होकर सिर्फ लोकतांत्रिक सत्ता प्राप्ति खासकर व्यापक जनाधार वाले राज्यों मसलन पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा में सत्ता प्राप्ति के एजेंडे तक सीमित हो जाना। आर्थिक सवालों पर एक व्यापक जनांदोलन न खड़ा कर पाना और ट्रेड यूनियनों से लेकर किसान सभाओं तक पकड़ का
धीरे-धीरे कमजोर होना। सिकुड़े जनाधार की एक बड़ी वजह उन तमाम राजनैतिक गठजोड़ों को भी बताया जाता है जो बीते 2 दशकों के दौरान वामपंथी दलों ने बनाए, तैयार किए, कभी भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ आर्थिक नीतियों के सवाल पर एक व्यापक तीसरे मोर्चे के रूप में तो कभी भाजपा-आरएसएस के खिलाफ एक विकल्प के तौर पर। नतीजतन ऐसे तमाम राजनैतिक गठबंधन बने जिन्हें एक बड़े वर्ग ने मौका परस्ती माना या फिर वामपंथी दलों के वैचारिक पैनापन और सिद्धांतों की कमजोरी के रूप में देखा। उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे हिंदी पट्टी और मंडल-कमंडल की राजनीति के गढ़ बने राज्यों में जो कम्युनिस्ट पार्टियाँ 80 के दशक तक एक व्यापक सामाजिक और संसदीय आधार रखती थीं वे जातिगत राजनैतिक उभार को शायद सही ढंग से समझ नहीं पाईं और नव उभार वाले जाति आधारित राजनैतिक दलों मसलन जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी की तरफ तेजी से खिसके अपने ग्रास रूट काडर को रोक नहीं पाईं। ऐसे तमाम राजनैतिक दलों से समय-समय पर हुए चुनावी गठजोड़ों की वजह से काडर का पलायन और तेज हुआ और लेफ्ट इन राज्यों पर पूरी तरह हाशिए पर सिमट गया। पश्चिम बंगाल में 35 वर्षों के रिकार्ड शासन के बाद 2011 में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस से मिली हार ने वामपंथी पार्टियों को एक बड़ा झटका पहुँचाया। लेकिन बंगाल की जनता के बीच सिकुड़ते जनाधार की शुरुआत तो लगभग एक दशक पहले ही हो चुकी थी। यह बात अलग है कि बंगाल की चुनावी गणित को मैनेज करने में महारत हासिल कर चुके वामपंथी दल विधानसभा के चुनाव जीतते रहे। 21वीं सदी के शुरुआती दशक में पहले ज्योति बसु और फिर
बुधदेब भट्टाचार्य के नेतृत्व में वाम मोर्चे की सरकारों पर दो तरफा दबाव था। एक तरफ वाम की मूल विचारधारा से खुद को मजबूती से संबद्ध रखने की चुनौती थी तो दूसरी तरफ वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य पर बदलते समीकरणों के तहत नए उद्योगों को राज्य में लाने, रोजगार के नए अवसर सृजित करने और राज्य के विकास में निजी पूँजी को आकर्षित करने की। राजनैतिक रूप से लेफ्ट इन दो विपरीत धुरों के बीच एक सटीक सामांजस्य विकसित नहीं कर पाया। इस विफलता की परिणति सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाओं के रूप में हुई। यह देश के वामपंथी इतिहास के वे पल थे जिन्होंने पूरे लेफ्ट पर सवालिया निशान खड़े कर दिए और बंगाल के अंदर उसकी लोकप्रियता को जबर्दस्त धक्का पहुँचाया।

    राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर बात करें और उस बातचीत को अगर बीते चौथाई सदी यानी 1990 के बाद के दायरे में सीमित रखें तो वामपंथी पार्टियों के दो निर्णयों को लेकर सबसे ज्यादा बहस हुई है। पार्टियों के अंदर भी और बाहर भी। दोनों ही निर्णयों को बाद में ऐतिहासिक भूल भी बताया गया और कहा गया कि उन फैसलों के चलते वामपंथी दलों ने अपने समक्ष मौजूद स्वर्णिम मौकों को गवां दिया। 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार में शामिल न होने और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने का सीपीएम का फैसला और दूसरा अमरीका के साथ परमाणु करार के मसले पर संयुक्त प्रगतिशील
गठबंधन( यूपीए) सरकार से लेफ्ट फ्रंट का अलग हो जाना। 1996 के उस दौर के तथा अब खुद सीपीएम के कई बड़े नेता यह मान चुके हैं कि पार्टी की केंद्रीय कमेटी के अंदर तत्कालीन पार्टी महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत और खुद ज्योति बसु पार्टी के सरकार में शामिल होने और प्रधानमंत्री का पद लेने के पक्ष में थे, लेकिन बहुमत सदस्य इसके खिलाफ थे। सुरजीत और बसु का मत था कि कुल 53 सांसदों वाला लेफ्ट फ्रन्ट (जिसमें सीपीएम के 32 सांसद थे) अपने कम संख्या बल के बावजूद, सरकार की तमाम अस्थिरता के बाद भी कम समय में ही सही अपने कार्यक्रमों, नीतियों के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक संदेश देने की स्थिति में होगा। वामपंथी पार्टियाँ  आर्थिक-सामाजिक स्तर पर एक व्यापक विकल्प देने की स्थिति में होंगी और इसका लेफ्ट के काडर और जनता के बीच एक दूरगामी सकारात्मक परिणाम होगा। हालाँकि दूसरे पक्ष का मत था कि इस निर्णय से लेफ्ट की विश्वसनीयता क्रेडिबिलिटी पर नकारात्मक असर पड़ेगा। पार्टी के अंदर उस वक्त बहुमत से लिए गए निर्णय के विपरीत लेफ्ट से सहानुभूति रखने वाले लोगों और पार्टी काडर का बड़ा हिस्सा आज भी इसे एक स्वर्णिम अवसर गवां देने के रूप में ही देखता है।
    इस ऐतिहासिक भूल के लगभग एक दशक बाद वर्ष 2004 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अप्रत्याशित हार ने वामपंथी पार्टियों को एक बार फिर केंद्रीय सत्ता के केंद्र में ला दिया। 61 सांसदों के साथ लेफ्ट फ्रंट ने न खुद अब तक के अपने संसदीय इतिहास का
सर्वाधिक आँकड़ा हासिल किया वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली ही सही गैर भाजपा सरकार के निर्माण की धुरी बनने की स्थिति में थी। एक बार फिर वह अवसर था कि वामपंथी पार्टियाँ सरकार में शामिल हों या फिर उसे बाहर से ही समर्थन दें। लेफ्ट फ्रंट के छोटे घटक दल जिनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी, सरकार में सीधे हिस्सेदारी की पक्षधर थी लेकिन सबसे बड़े घटक दल यानी सीपीआईएम इसके विरोध में था। अंततः न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी और लेफ्ट फ्रंट ने उसे बाहर से समर्थन दिया। 2004 से लेकर 2007 तक का वह दौर था जब लेफ्ट के दबाव में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार चाहते हुए भी तमाम जनविरोधी आर्थिक नीतियों को लागू करने से बचती रही। सूचना के अधिकार, न्यूनतम मजदूरी दिलाने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून (मनरेगा) सहित कई ऐसी योजनाएँ लागू की गईं जिन्होंने गरीबों, पिछड़ों को राहत दी। सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश पर लगाम लगी और राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर संकीर्ण-सांप्रदायिक राजनैतिक दलों की ताकत कमजोर हुई, लेकिन 2007 में अमरीका के साथ परमाणु संधि के सवाल पर कांग्रेस और लेफ्ट के बीच मतभेद बढ़ते गए और आखिरकार 2008 में लेफ्ट फ्रंट ने सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया। समर्थन वापसी के बाद किस तरह मनमोहन सिंह की सरकार ने संसद में विश्वासमत हासिल किया इसका जिक्र यहाँ करने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का क्या लाभ और हानि लेफ्ट के संदर्भ में हुई, उस पर विचार करना जरूरी है। लेफ्ट का स्पष्ट मत था कि अमरीका के साथ यह करार देश के राष्ट्रीय हितों, उसकी संप्रभुता और उसकी तकनीकी क्षमताओं के विस्तार की संभावनाओं में बाधक है, पर लेफ्ट अपनी इस पोजीशन को जनमानस में ले जाने में सफल नहीं रहा। दूसरी तरफ कांग्रेस और यूपीए के अन्य घटक दल इस करार को बहुत ही चालाकी से विकास की नई अपार संभावनाओं और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत के सशक्त होने के प्रमाण के तौर पर प्रोजेक्ट करने में कामयाब रहे। राजनैतिक रूप से एक नुकसान यह भी हुआ कि तथाकथित सेक्युलर दल यानी कांग्रेस व यूपीए के अन्य घटक दलों के खिलाफ लेफ्ट संसद में भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ा दिखाई दिया। बड़े पैमाने पर समाज के अंदर अल्पसंख्यकों और भाजपा के खिलाफ रहने वाले दलित-पिछड़े समाज में इसका नकारात्मक संदेश गया।    इसके तत्काल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट को हुए नुकसान की एक बड़ी वजह 2007-08 के यह घटनाक्रम रहे। हालाँकि इसी दौरान पश्चिम बंगाल के अंदर गलत नीतियों के चलते लेफ्ट के खिलाफ बढ़ता गुस्सा भी इस नुकसान का एक बड़ा कारण रहा।
    2004 में लेफ्ट फ्रंट ने बंगाल की 42 में से 35 सीटों पर जीत हासिल की थी वहीं 2009 में यह आँकड़ा घट कर महज 15 सीटों का रह गया। यूपीए 1 से बाहर होने के बाद 2009 में लेफ्ट को अपने दुर्ग बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठबंधन का सामना करना पड़ा था। अगर लेफ्ट ने यूपीए 1 की सरकार से समर्थन वापस न लिया होता तो बहुत संभावना थी कि उसे अपने खिलाफ अधिकतम संभावनाओं वाले राज्य में इस गठबंधन का सामना न करना पड़ता। राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर लिए गए एक फैसले ने न सिर्फ लेफ्ट को संसद में कमजोर किया बल्कि पश्चिम बंगाल के अंदर उसके आधार को बुरी तरह सिकोड़ दिया। लेफ्ट पार्टियाँ अब तक बंगाल के अंदर हुए उस उलटफेर से उबर नहीं पाई हैं।
    लेफ्ट के दबाव से विमुख मनमोहन सिंह के ही नेतृत्व वाली दूसरी सरकार जिसे यूपीए 2 के नाम से जाना जाता है, ने बड़े पैमाने पर जन विरोधी आर्थिक नीतियों को अपनाया और लागू किया। घटक दलों को भ्रष्टाचार की खुली छूट मिली, नतीजतन 2009 से लेकर 2014 तक का अगला पाँच साल देश के अंदर बड़े पैमाने पर जनअसंतोष के उभार का गवाह बना। अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले इंडिया अगेंस्ट करप्शन के रूप में इस असंतोष को सबसे बड़ी पहचान मिली। लेकिन लेफ्ट एक बार फिर से इस उभार को सही ढंग से समझ पाने में असफल रहा। भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस के खिलाफ उपजे गुस्से को भुनाने में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी बेहद कामयाब रही। इस सफलता का खैर एक पक्ष यह भी था कि देश का पूँजीपति तबका पूरी तरह भाजपा और मोदी के पक्ष में लामबंद हो गया। इसकी वजह यह थी कि वह आर्थिक सुधारों के नाम पर नए स्तर के फैसलों, विनिवेश के नए अवसरों और पूँजीवाद के विस्तार की नई संभावनाओं के लिए ब्रांड मोदी और उनके विकास के मॉडल को तवज्जो देने लगा था।
    यानी संभावनाओं का एक और खास मौका लेफ्ट के हाथ से निकल चुका था। सवाल है कि जनता के एक वर्ग का गुस्सा, जिसे लेफ्ट आम तौर पर मध्यम वर्ग के गुस्से में परिभाषित कर देता है वह क्यों आप जैसे राजनैतिक दल के साथ केंद्रित हो गया, जिसके पास न तो दूरगामी राजनीति और न देश के संदर्भ में कोई ठोस आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक एजेंडा था। लेफ्ट पार्टियों के लिए यह जरूरी है कि वह आम आदमी पार्टी के राजनैतिक चढ़ाव के कारणों, उसकी सफलता के कारणों का बारीकी से अध्ययन करें।
    बहरहाल 2014 के पहले जनता के व्यापक असंतोष को अपनी राजनीति से न जोड़ पाने के परिणाम अब सामने हैं। जैसा इस लेख में ऊपर जिक्र किया गया कि लेफ्ट अपने संसदीय प्रदर्शन के अब तक के सबसे निचले आंकड़े पर सिमट गया है। राष्ट्रीय राजनीति पर काबिज होने के बाद पिछले तीन सालों में भाजपा देश के कई राज्यों में विस्तार कर चुकी है और उत्तर प्रदेश जैसे राजनैतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी है। जाहिर है ऐसे में आरएसएस व अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों को व्यापक बल मिला है। केंद्रीय मंत्री खुद देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर सवाल उठाने लगे हैं, भारत को हिंदू राज्य बनाए जाने की बात होने लगी है और हिंदुत्व के एजेण्डे पर आधारित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सीधे-सीधे सरकार के कामकाज को मानीटर कर रहा है, उसे निर्धारित कर रहा है।
    देश में तेजी से बदली आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र इस लेख की शुरुआत में ही कर चुका हूँ। जाहिर है कि देश के पैमाने पर जन असंतोष तेजी से बढ़ रहा है लेकिन भाजपा-आरएसएस इस माहौल को हिंदुत्व और संकीर्ण राष्ट्रवाद के घातक तालमेल के सहारे मजबूत न होने देने की लगातार कोशिश में है। लेफ्ट पर जबर्दस्त वैचारिक हमले के पीछे बड़ी वजह यही है कि भाजपा, आरएसएस यह जानता है कि उनकी वैचारिक-आर्थिक राजनीति का सबसे तार्किक और वैचारिक विरोध कोई कर सकता है तो वह वामपंथी पार्टियाँ ही हैं। अब सवाल यह है कि क्या लेफ्ट अपनी पुरानी कार्यशैली, तथाकथित गलतियों, जन असंतोष को अपनी राजनीति से न जोड़ पाने की कमजोरी से बाहर निकल पाएगा। क्या वह समाज में खड़े होते तमाम दूसरे प्रगतिशील आंदोलनों, दलित चेतना के उभार, देश के अंदर युवाओं के नए बहुमत और उनके समक्ष चुनौतियों से निपटने के लिए किसी बेहतर क्रांतिकारी-आकर्षक एजेंडे के साथ आगे आ सकता है। जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के नेता कन्हैया कुमार के शब्दों में कहें तो क्या लेफ्ट नीली सदरी पर लाल गुलाब की कल्पना को साकार कर सकता है, यानी लेफ्ट अपने प्रगतिशील जनवादी एजेंडे को सामाजिक न्याय की लड़ाई से जोड़ सकता है। लोकसभा चुनाव के बाद 2015 में जब सीपीआई और सीपीएम अपनी-अपनी पार्टी कांग्रेस में गईं तो उम्मीद थी कि वह अपनी पराजय, नई राजनैतिक परिस्थितियों के परिपेक्ष में एक बेहतर निष्कर्ष के साथ सामने आएँगी और लेफ्ट को विस्तार की एक नई गति मिलेगी। हालाँकि ऐसा ज्यादा कुछ होता दिखा नहीं। राष्ट्रीय स्तर पर वाम एकता को मजबूत करने के लिए, भाजपा-संघ के खिलाफ संघर्ष को तेज करने के लिए किसी तीसरे मोर्चे या गठबंधन से हटकर वाम मोर्चे की ताकत को बढ़ाने की लाइन जरूर अपनाई गई।  जबकि अगले आम चुनाव में महज डेढ़ साल का वक्त बाकी है वामपंथी पार्टी एक बार फिर भाजपा-आरएसएस को रोकने के लिए कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों से गठबंधन के सवाल पर मंथन कर रही है। सीपीआईएम की हाल ही में हुई केंद्रीय कमेटी की बैठक में पार्टी के अंदर गठबंधन के सवाल पर स्पष्ट फाड़ दिखी। बहरहाल अब एक बार फिर से दोनों ही पार्टियाँ बहुत जल्द अप्रैल के महीने में अपनी राष्ट्रीय कांग्रेस में जाने वाली हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केरल के कोलम में तो माकपा हैदराबाद में पार्टी कांग्रेस करेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों प्रमुख दल अपने इन सर्वोच्च आयोजनों में देश की मौजूदा परिस्थितियों के सटीक आकलन के साथ ही साथ लेफ्ट को और प्रासंगिक बनाने, उसका जनाधार और साथ ही साथ संसदीय विस्तार बढ़ाने के बारे में कोई ठोस, व्यावहारिक और आकर्षक रणनीति का निर्धारण कर सकेंगे। और हाँ यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि यह बहुत ही नाजुक दौर है देश के लिए भी और देश में वामपंथ के लिए भी। परिस्थितियाँ चाहे जितनी भी माकूल क्यों न हों उनका लाभ सही नीतियों, एक क्रांतिकारी एजेंडे और दूरगामी राजनैतिक विजन के जरिए ही हासिल किया जा सकता है, और यह करने की जिम्मेदारी खुद कम्युनिस्ट पार्टियों पर है।

-पी. मिश्रा 
वरिष्ठ पत्रकार
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |