रविवार, 1 अप्रैल 2018

नवंबर क्रांति और वर्तमान

दो साल पहले जब हमारी पुस्तकें ‘समाजवाद की समस्याएँ’ और धर्म, संस्कृति और राजनीति प्रकाशित हुई थीं, हम दिल्ली में नामवर सिंह जी के घर पर उनसे मिलने गए थे और उसी समय उन्हें दोनों किताबें भेंट कीं। किताबों को पाकर नामवर जी उन्हें उलटने-पुलटने लगे, और ‘समाजवाद की समस्याएँ’ को देख कर मुस्कुराते हुए कहा- 

                                  रकीबों ने रपट लिखवाई है जा-जा के थाने में
                                  कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में

        और इसके साथ ही हम तीनों एक बार ठहाका मार कर हँस दिए थे। बाद में काफी देर तक यही सोचते रह गए कि यह कैसा समय चल रहा है जब जिसे सब समाजवाद समझते-कहते रहे हैं, कुछ भी उसके पक्ष में जाता दिखाई नहीं देता है। एक अजीब सी आँरवेलियन परिस्थिति है जिसमें ऑरवेल के शब्दों में हम सभी समाज में वर्ग-विभाजन के खिलाफ तो हैं लेकिन बहुत कम लोग ही इसे खत्म करने के बारे में गंभीर हैं। ऐसा लगता है मानो हर क्रांतिकारी मत अंदर ही अंदर कुछ इस प्रकार के विश्वास से अपनी ताकत ग्रहण कर रहा है कि कहीं कुछ बदलने वाला नहीं है। क्रांतिकारी परिवर्तन की बातें उनके लिए महज एक रूढ़ि है, कोरा मंत्र-जाप। इस हद तक जाप कि मंत्र के फलीभूत हो जाने पर इस बात का डर लगने लगे कि तब आगे करने को क्या रह जाएगा। क्योंकि दिमाग ने आगे का कोई नक्शा बनाने की शक्ति को ही खो दिया है। सिर्फ राम-राम करते रहे या हनुमान चालीसा का पाठ करते रहें कि सर पर जो बला आ गई है वह किसी प्रकार टल जाए, उधर जन-असंतोष सड़कों पर भी दिखाई देने लगे लेकिन समाजवाद के प्रभाव के बाद भी कोई नई समाजवादी परिकल्पना और उसकी रणनीति का अभाव हमें कोई सकारात्मक सोच का उत्साह नहीं दे पाए।
    इस प्रकार की एक चरम नाउम्मीदी का ही परिणाम है कि नामवर सिंह की तरह शिक्षाजगत की एक घोषित वामपंथी हस्ती और हिंदी के एक श्रेष्ठतम माने गए मार्क्सवादी बुद्धिजीवी को अपने जन्मदिन के अवसर पर ऐन उसी वक्त मोदी सरकार के मंत्री से अभिनंदित होने में जरा भी शर्म नहीं महसूस हुई जब भारी संख्या में लेखकों के द्वारा पुरस्कार वापसी के आंदोलन की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी। जैसे हाइडेगर को नाजी सत्ता से अपना मेल बैठाने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई थी क्योंकि अगर पूँजीवादी क्षितिज के बाहर कुछ है ही नहीं तो फिर उसका उदार चेहरा हो या कोई विकट राक्षसी चेहरा, क्या फर्क पड़ता है! नामवर सिंह ने भी सोच लिया कि भोंकने वाले यूं ही भोंकते रहेंगे! सरकार से प्रस्ताव आया है, उसे ठुकरा कर क्या हासिल हो जाएगा। परिवर्तन की बातें खुद में भी एक रूढ़ि ही है!
     जीवन में निराशा की सच्चाई से कोई इंकार नहीं कर सकता। भविष्य को लेकर दुश्चिंताएँ भी बनी रहती हैं। नवंबर क्रांति के पहले जब लेनिन के सामने यह साफ हो गया था कि यह एक कोई वैश्विक क्रांति नहीं होगी, न ही यूरोपीय क्रांति, एक देश में समाजवाद का विचार उन्हें चिंताग्रस्त किए हुए था, तभी उन्होंने ट्राटस्की से एक बार पूछा था कि अगर हमारी क्रांति विफल होती है तो क्या होगा, तो ट्राटस्की ने उनके सामने प्रति-प्रश्न रखा कि अगर वह सफल ही होती है तो क्या हो जाएगा? यह पूरा विमर्श वही है कि क्रांति तो हो गई, आगे क्या? जन-असंतोष पैदा हुआ, उसे एक संगठित दिशा में मोड़ा गया और फिर एक नए राज्य के निर्माण में लग गए, तो फिर राज्यविहीन समाज के निर्माण के लक्ष्य का क्या हुआ? मूल और अंतिम लक्ष्य एक अपेक्षाकृत कल्याणकारी राज्य की स्थापना ही तो नहीं था।
    अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञादर्शन में भेद-भेदाभेद-अभेद की जो मानव स्वातन्त्रय की ओर यात्रा का जिक्र आता है उसमें विकल्पों से भरे जीवन में अर्थात भेदों में क्रांति के जरिए निर्विकल्प दिशा, अभेद का प्रवेश होता है लेकिन आगे की दिशा अभेद में अर्थात परम स्वातंस्य में लयीभूत होने की है। समाजवाद को भेदाभेद की एक स्थिति मान लिया जाए तो साम्यवाद उसका निर्विकल्प अभेद है और लेनिन-ट्राटस्की के जेहन में यही चिंता बनी हुई थी कि जब तक क्रांति का स्वरूप वैश्विक नहीं होगा, क्या राज्य-विहीन राजनीति की दिशा में बढ़ना मुमकिन होगा! स्टालिन परवर्ती समय में ‘एक देश में समाजवाद’ को ही मनुष्य की यात्रा का अभेद क्षितिज मान कर पूरी ताकत से उसे ही साकार करने में लग गये थे, और हमने देखा कि द्वितीय विश्वयुद्ध ने कैसे पूरी सोवियत व्यवस्था को एक कठोर नौकरशाही की व्यवस्था के रूप में विकृत कर दिया। राज्य-विहीनता का लक्ष्य और भी दमनकारी राज्य में पर्यवसित हुआ।
    आज के प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रांसीसी दार्शनिक ऐलेन बदउ का एक नाटक है  एंटियोक की घटना। इसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं ईसाई मिशन में लगे सेंट पॉल्स और पीटर के बीच एंटियोक में बाइबल की सार्वलौकिकता को लेकर हुआ संघर्ष भी है। नाटक का विषय यह है कि क्या किसी भी क्रांतिकारी को परंपरागत रूढ़ियों का पालन करते रहना चाहिए? मसलन, देवदूत पीटर को क्या पुराने यहूदी रीति-रिवाजों का पालन जारी रखना चाहिए या मसलन, आज क्रांति-विमुख लोगों को बाजार अर्थ-व्यवस्था और संसदीय जनतंत्र की निर्विकल्पता से ही चिपके रहना चाहिए? अथवा ईसाइयों ने यहूदी-विद्वेष का जो रास्ता अपनाया, या पौल पौट के खमेर रूज ने पुराने काल के समर्थकों के सफाये की जो नीति अपनाई, उस लाइन को अपनाया जाना चाहिए ? इस नाटक के एक अंश में क्रांति का नेता कमिउ क्रांति हो जाने के बाद कहता है कि मेरा काम पूरा हो गया, अब चलता हूँ।
    उसका साथी डेविड कहता है कि आज जब काम करने का समय आया है, तभी तुम मुँह फेर रहे हो। तो कमिउ कहता है “विजय के बाद जो बचता है वह है पराजय। फौरन पराजय नहीं, जो भी वर्तमान के साथ निबाह करके चलेगा उसकी धीरे-धीरे निश्चित पराजय। उस प्रकार की पराजय की शान को मैं तुम्हारे लिए छोड़ता हूँ, किसी अहंकारवश या धीरज की कमी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं उसके लिए उपयुक्त नहीं हूँ।“
    बदउ इसकी व्याख्या करते हुए एक जगह लिखते हैं कि उसने इसलिए नई सत्ता का त्याग किया क्योंकि कुछ लोग सिर्फ विध्वंस से प्यार करते हैं और चूँकि वह देख रहा है कि अब एक नए राज्य के पुनर्निर्माण का काम होगा, उस पुनर्निर्माण में उसे एक प्रकार के दोहराव की ऊब दिखाई देने लगती है, इसीलिए उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती है। (Alain Badiou) The Communist Hypothesis Verso 2015 page –15-17)
    यह कुछ वैसा ही है जैसे महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं। पांडु जो गुरुओं के लिए हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गए थे, उनके वंशधर पाँचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिए अनुपयुक्त थे। इसीलिए जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठकर एक नए राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि अपने इन नायकों को फिर से उसी हमेशा के ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए। पांडवों के इस संन्यास के जरिए व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नए दमनकारी राज्य के निर्माण के लिए या तो उपयुक्त नहीं पाते जैसे ऊपर बदउ के चरित्र कमउ ने अपने को नहीं पाया था, या वे पांडवों के इस वैराग्य के जरिए किसी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ओर बढ़ने का संदेश देना चाहते हैं जो राज्य-विहीन मानव की स्वातन्स्य सत्ता पर टिकी समाज-व्यवस्था हो। व्यास ने महाभारत के आदि पर्व में ही एक जगह शैवमत के भैरव-भाव के प्रतीक, पाशुपत की चर्चा की हैं, लेकिन उसके साथ वे उसे राजसत्ता के किसी भी रूप को जोड़ने के बजाए न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के आत्म-सत्ता के पक्षों से जोड़ कर पेश करते हैं। “न्याय शिक्षा चिकित्सा च दानं पाशुपतं“। इसे मनुष्य के किसी भी राजसत्ता से, हर बंधन से मुक्ति के भाव को राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की परिकल्पना का संकेत भी कहा जा सकता है।
    बदउ के उपरोक्त नाटक में क्रांति के बाद की आगे की कहानी भी है। क्रांति का नेता कमिउ तैयार नहीं था पुनर्निर्माण की एक धीमी और निरंतर जारी उबाऊ प्रक्रिया के बीच से आने वाली अनिवार्य विफलता को अपनाने के लिए, लेकिन क्रांति की इस आंतरिक कमजोरी के साथ ही, इस नाटक में उसकी विफलता का आगे एक और, दूसरा आख्यान भी आता है, जब क्रांति के बाद के नए शासक डेविड की माँ पौला उससे कहती है तुम सत्ता छोड़ दो। डेविड माँ से कहता है कि तुम मेरी माँ होकर प्रति-क्रांतिकारी काम क्यों कर रही हो।
    तो पौला उससे कहती है  “प्रति-क्रांति तुम हो। तुमने न्याय के सारे
बोध को गंवा दिया है। तुम्हारी राजनीति कुत्सित है। सुनो! हमारी परिकल्पना सिद्धांततः यह नहीं थी कि हम एक अच्छी सरकार की समस्याओं का समाधान करेंगे। हमने कहा था कि दुनिया एक ऐसी नीति के रास्ते पर चल सकती है जिसे बदला जा सकता है, राजनीति को ही खत्म कर देने वाली नीति। उस परिकल्पना के ऐतिहासिक स्वरूप को राजसत्ता ने निगल लिया है। एक मुक्तिदायी संगठन का राजसत्ता में विलय हो गया है। कोई भी सही नीति यह दावा नहीं कर सकती है कि वह अब तक किए जा चुके कामों की ही निरंतरता है। हमारा उद्देश्य एक बार और हमेशा के लिए उस चेतना को मुक्त कर देने का है जो न्याय, समानता को कायम करती है और राजसत्ता और दरबारों की साजिशों का हमेशा के लिए अंत करती है, और उस बची हुई जमीन का भी सफाया करती है जिससे पैदा होने वाली सत्ता की लिप्सा आदमी ऊर्जा के प्रत्येक रूप को लील लेती है।“
    डेविड माँ से कहता है “दुनिया हमेशा के लिए बदल गई है। विश्वास करो। मेरी प्यारी माँ तुम चीजों को नीचे से देख रही हो। तुम निर्णय लेने वालों में नहीं हो।“ “पौला-यही पुरानी आजमाई हुई चाल है। जरूर तुम कुछ नया करोगे। तुम सूरज को भूरे रंग से रंग दोगे।“
    इसी सिलसिले में बौखला कर डेविड माँ से पूछता है कहो तो, तुम कौन हो? तुम निश्चय ही हमें और शक्तिशाली बनने के लिए नहीं कह रही हो। बल्कि हमें सत्ता को त्याग देने, आने वाले लंबे काल के लिए उसे छोड़ देने के लिए कह रही हो। तो पौला कहती है, “मानव जाति की महानता सत्ता में नहीं है। बिना परों वाले दोपाये का खुद पर नियंत्रण हो, और वह, जो उतना संभव भी नहीं लगता, प्रकृति के सभी नियमों, इतिहास के सभी नियमों के खिलाफ जाए और उस राह पर चले जिसमें हर व्यक्ति प्रत्येक के प्रति समान होगा। सिर्फ कानून में नहीं, भौतिक यथार्थ में भी।“ (जोर हमारा)
    इसपर डेविड कहता है, “ तुम इतनी पागल हो!“
    पौला कहती है “नहीं, मैं नहीं। मैं तुमसे कहूँगी सारे उन्माद को छोड़ो। तुम्हें बहुत धीर-स्थिर हो कर निर्णय करना है। जो भी व्यक्ति मरीचिका के पीछे भागता है, वह यह नहीं समझ सकता है। विजय और समग्रता के प्रति अपने आग्रह को भूल जाओ। वैविध्य के सूत्र को पकड़ कर चलो।“
    “राजनीति का अर्थ एक राजनैतिक भविष्य दृष्टि के आधार पर इकट्ठा होना है ताकि आदमी राजसत्ता की मानसिक जकड़बंदी से मुक्त रह सके।“ (वही, पृष्ठ 15-22) (जोर हमारा)
   Our hypothesis was not in theory that we were going to resolve the problem of good government…We said that the world could stand the trajectory of a policy that could be reversed…Historical realization of that hypothesis was swallowed up by the state- A liberating organisation merged completely into the state…No correct policy can now argue that it is a continuation of the work that has already been done- Our mission is to unseal once and for all the consciousness that organises justice equality the end of states and imperial rackets and the residual platform where the concern for power sucks in every form of energy…Ofcourse you i do something new- You paint the surface of the sun grey…Power is not the mark of the human races greatness- The featherless biped must get a grip on himself and  unlikely as it seems go against all the laws of nature and all the laws of history and follow the path that means that anyone will be equal of everyone…For anyone who gives in to the passion for images it is incomprehensible- Forget about the obsession with conquest and totality- Follow the thread of multiplicity…Politics means uniting around a political vision that escapes the mental hold of the state-
    अभिनव गुप्त का भैरव भाव क्या है? अंतहीन लालसाओं से भरे स्वातन्स्य का वह भाव जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता है। यह नाउम्मीदी का साहस है। सुविधा के लिए इसे एक सच्ची सर्वहारा चेतना भी कह सकते हैं। अभिनव अपने तंत्रालोक को परम भोग और परम त्याग का दर्शन कहते हैं। बदउ की कम्युनिस्ट परियोजना में प्रत्येक निर्लोभी और स्वतंत्र मनुष्य की समानता की कामना और विजय और समग्रता के आग्रह को छोड़कर वैविध्य के सूत्र को पकड़ने का जो मंत्र दिया गया है, उसी विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति, वैविध्य के भाव से संगति की बात अभिनव कहते हैं। तंत्रालोक इसी वैविध्य को अपनी चेतना शक्ति में समाहित करने की प्रक्रिया का, तर्क की एक विधि से विकल्पों के संस्कार अर्थात द्वंद्वों का निवारण करते हुए ज्ञान के सोपानों पर चढ़ने और फिर चेतना-शक्ति के स्फुरण की, कहा जा सकता है। मनुष्य की रचना-प्रक्रिया पर समग्र विमर्श की एक महान कृति है। संस्कार की इस प्रक्रिया में द्वंद्व द्वंद्व नहीं रहते, विमर्श बन जाते हैं। यह अपने आपसे एक प्रकार का प्रत्यविमर्श भी होता है। दुविधा एक बंधन, बद्धता है। द्वंद्वों, दुविधाओं से सत्तर्क मुक्त अभेद चेतना शक्ति के प्रहार से भेद की जमीन तोड़कर ही स्फुटता, रचनात्मकता का उदय होता है। जड़ता टूटती है और रचनात्मकता का विस्फोट होता है।
    बदउ के नाटक के उपरोक्त पूरे प्रसंग को हम अपने यहाँ आजादी की लड़ाई के महानायक गांधी पर पूरी तरह से घटित होते देख सकते हैं। लड़ाई के दौर में हमेशा नेतृत्व की कमान थामे रहने वाला, खुद को डिक्टेटर तक कहने वाला वह नायक आजादी के ठीक बाद अपने को नई राजसत्ता के खेल में पूरी तरह से अनुपयुक्त पाता है और उससे विरत हो जाता है। वह गुलामी की जंजीर को तोड़ने आया था, उसे तोड़ दिया। अब आजाद भारत का नया राज्य बनेगा, नई जंजीरें तैयार होंगी, बापू उसमें क्यों शामिल होंगे! वे देख रहे थे जीत के बाद आगे सिर्फ हार खड़ी प्रतीक्षा कर रही है, फौरन नहीं, धीरे-धीरे। इस पराजय को सबको मानना होगा क्योंकि यह निरर्थक पराजय नहीं होगी, एक प्रकार के स्वातंर्त्य से स्फूरित पराजय, जीवन में किंचित शांति लाने और राज्य को मजबूत करने वाली पराजय। गांधी इस पराजय के गौरव को दूसरों के लिए छोड़ने को तैयार थे क्योंकि नाफरमानी के उनके विचार क्यों किसी के भी फरमान को मानने के लिए मजबूर हों! वे आजादी की लड़ाई के उत्साह की समाप्ति के बाद की लोगों की तिरछी नजरों की कल्पना कर पा रहे थे और अपने को उन बुरी नजरों के वृत्त के बाहर रखना ही श्रेयस्कर समझते थे। उन्होंने अपने जीवन को ही अपना संदेश कह कर राजनीति मात्र को उस भविष्य दृष्टि का रूप देने की बात कही जो नैतिक स्वातंर्त्य के बल पर आदमी को राजसत्ता के मानसिक दबावों से मुक्त रहने की ताकत देती है, नाफरमानी की ताकत देती है, जैसा कि बदउ के नाटक में डेविड की माँ पौला उससे कहती है। इसी पूरे प्रसंग, क्रांति और उसके बाद फिर एक नए राज्य के निर्माण के दोहराव की त्रासदी के अतिरिक्त एक तीसरा पहलू भी हो सकता है, जिससे इस पूरे विमर्श का एक और त्रिक बनता है, वह यह कि शुरू में ही जनरोष किसी संगठित शक्ति के अभाव में बदलाव की कोई शक्ल न ले और सिर्फ अराजकता पैदा करके बिखर जाए, जैसा हमने खास तौर पर अफ्रीका और मध्य एशिया के अरब वसंत (2010-2014) के तूफानी घटना क्रम में देखा। यह राजसत्ता-केंद्रित परिवर्तन की पूरी त्रासदी का वह पहलू है जो आदमी के सामयिक क्रोध की तरह भड़कता है लेकिन कोई विवेकपूर्ण रूप नहीं ले पाता है बल्कि और भी पतन की दिशा में बढ़ जाता है कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष से मोदी की तरह के सांप्रदायिक फासीवादी तुगलक के शासन का उदय भी एक ऐसा ही उदाहरण है। इस पूरे संदर्भ में हमें अपने देश के वास्तविक संदर्भों को और भी गहराई से समझते हुए, ऊपर जिस भेदाभेद की चर्चा है, विकल्पों के साथ ही निर्विकल्प दिशा को समझने की, उसे बहुत ठोस रूप में देखने समझने की जरूरत है। रूस अथवा चीन, कहीं भी समाजवादी क्रांति के समय ही वे परिस्थितियाँ नहीं रही हैं जो आज के भारत की हैं।
    अभी चंद रोज पहले ही 8 नवंबर को हमारे यहाँ नोटबंदी को एक साल पूरा हुआ है। नोटबंदी के दौर में हम अपने देश में एक ऐसे दृश्य के साक्षी हुए थे, जो हम सब, आजादी के बाद की पीढ़ी के लोगों की स्मृतियों में, एक अजीब प्रकार की डर और आश्चर्य मिश्रित अनुभूति पैदा करने वाले दृश्य की तरह शायद हमेशा रह जाएगी। अजीब इसलिए कि ऊपरी तौर पर तो इसमें एक भारी राष्ट्र-व्यापी उथल-पुथल की तरह की आपात स्थिति जैसी भागम भाग की परिस्थिति दिखाई दे रही थी, लेकिन आश्चर्य इसलिए कि जो ऊपर से इतना तनावपूर्ण, मूलगामी और बड़ी चीज दिखाई दे रहा था, अंदर से वह उतना ही अधिक खोखला, निरर्थक और परिहास मूलक पाया गया और अन्ततः अब एक अबूझ सी पहेली बनकर रह गया।
    राज्य सभा में मनमोहन सिंह ने इस पर एक संक्षिप्त टिप्पणी में कहा था कि यह भारत की जनता की आमदनी की एक खुली लूट है और इसके चलते भारत के जीडीपी में कम से कम दो प्रतिशत की गिरावट आएगी। जिस रिजर्व बैंक की अतिरिक्त आमदनी के सपने दिखाए गये थे, उसे उल्टे 30 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा है। कुल मिलाकर, दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित हो रही भारत की अर्थ-व्यवस्था को मोदी ने अपनी सनक में एक बार के लिए पूरी तरह से पटरी से उतार दिया। हाल में ईपीडब्लू में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि सत्तर साल के आजाद भारत में पहली बार भारत में रोजगारों में वृद्धि के बजाए कमी आई है। नोटबंदी के समय असंगठित क्षेत्र के जो मजदूर काम बंद हो जाने के कारण गाँव लौट गए थे, उनमें से एक अच्छा-खासा हिस्सा इतना हताश हो गया है कि वापस काम की तलाश में वह शहर में लौटा ही नहीं है। पहले हम जहाँ भारत की युवा आबादी पर गर्व करते हुए कहते थे कि यह श्रम शक्ति सारी दुनिया में भारत को एक पहली पंक्ति के देश में बदल देगी, वहीं भारत आज दुनिया में काम न चाहने वाले समर्थ लोगों की सबसे बड़ी आबादी का देश बन गया है। यहाँ की श्रम शक्ति का लगभग 54 प्रतिशत हिस्सा हताशावश अपने को श्रम के बाजार से ही अलग कर चुका है!
    जब आदमी में आमदनी के प्रति ही विरक्ति का भाव बढ़ता है तो स्वाभाविक रूप से उसका पूरी अर्थ-व्यवस्था पर मंदी के रूप में कितना नकारात्मक असर पड़ता है, आज भारतीय अर्थ-व्यवस्था उसी मंदी में फँस चुकी है। अर्थशास्त्री हमेशा कहते हैं कि मंदी का एक प्रमुख कारण आम उपभोक्ता के मनोविज्ञान से जुड़ा होता है। खुश और निश्चिंत आदमी अपनी क्षमता से भी ज्यादा खर्च करने से नहीं घबड़ाता, जबकि परेशान और आमदनी के बारे में अनिश्चयता का शिकार आदमी अपनी न्यूनतम जरूरतों में भी कटौती करके विपत्ति के समय के लिए धन जुटाने में लगा रहता है। आज आम लोगों की यही मनोदशा है। सब थोड़े में गुजर करने की पूर्वजों की शिक्षा पर अमल कर रहे हैं और हम देख रहे हैं कि भारत का आंतरिक बाजार सिकुड़ता जा रहा है।
    बहरहाल, ये तमाम ऐसी बातें हैं, जिन्हें हम सभी अपने निजी अनुभवों से और देश-दुनिया की जानकारी के आधार पर भी जानते-समझते हैं। इसके खिलाफ आज देश के हर कोने से आवाजें उठ रही हैं और मीडिया आदि के जरिए वर्तमान सरकार अपने सीने को कितना भी अधिक चौड़ा दिखाने की कोशिश क्यों न करे, क्रमशः आज स्थिति यह है कि अपने सबसे मजबूत गढ़ में भी मोदी के लिए अपनी जीत को कायम रखना एक भारी चुनौती का रूप ले चुका है, अन्य जगहों की बात तो जाने ही दीजिए।
    इसी बीच हड़बड़ी और राजनैतिक संकीर्ण स्वार्थों के लिए ही पुनः जीएसटी के कदम ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। यह एक और प्रसंग है, जिस पर फिर अलग से चर्चा हो सकती है। 30 जून की रात बारह बजे संसद के संयुक्त सदन के जरिए जिस नाटकीय अंदाज में इसे लागू किया गया, उसकी यह कितनी बड़ी ट्रैजेडी है कि आज वही प्रधानमंत्री गुजरात के लोगों से यह कहते हुए क्षमा माँग रहा है कि जीएसटी के लिए अकेले उन्हें अपराधी के कठघरे में खड़ा न किया जाए! इसके पीछे मूलतः कांग्रेस का हाथ रहा है!
    जो भी हो, इस भयानक अनुभव के साल भर बाद, बुद्धजीवी कहलाने के नाते हमारे सामने कुछ और सवाल भी हैं। आम जीवन के इन अपने प्रकार के बेहद डरावने अनुभवों से गुजरने के बाद भी क्या हम बुद्धिजीवी के नाते, इस भयानक सचाई के अन्तरनिहित तात्विक सच को पकड़ पा रहे हैं? क्या हम अपने आज के समय के पूरे संदर्भ में इसकी सही व्याख्या कर पा रहे हैं ताकि हम इस प्रकार के स्वेच्छाचारी कदमों के अंदर की उन दरारों पर रोशनी डाल सकें जिनसे हम न सिर्फ अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था के नैतिक, न्यायिक और राजनैतिक
आधार की तात्विक कमजोरी को पहचान पाएँ, बल्कि हमारे यहाँ फासीवाद के विरोध के विमर्ष की जो अब तक अपनी कमजोरियाँ सामने आती रही हैं, उन्हें भी एक हद तक देख पाएँ। फासीवाद क्या है, मोदी और आरएसएस फासीवादी हैं, या नहीं इस प्रकार के सवाल आज भी खास तौर पर वामपंथ के दायरे में गाहे-बगाहे उठते रहते हैं। आम तौर पर वामपंथियों के बीच फासीवाद के बारे में, चालीस के जमाने से ही यह एक शास्त्रीय परिभाषा प्रचलित है कि यह वित्तीय पूँजी के सबसे निकृष्ट रूप की एक अभिव्यक्ति है। अर्थात, पूँजीवाद तो हमारे यहाँ एक मान्य सत्य है ही, जब हम फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की बात करते हैं तब हम सिर्फ उस क्षण को टालने के लिए लड़ रहे होते हैं जब यह पूँजीवाद अपने सबसे निकृष्ट रूप में सामने आता है और यही वह समझ है जो खास तौर पर बुद्धिजीवियों के एक अच्छे-खासे हिस्से के सोच में एक ऐसा गतिरोध पैदा कर देती है कि उसे इस पूरी लड़ाई के महत्व के सार पर ही संदेह होने लगता है और उल्टे वह फासीवादी सत्ता के साथ ही सुलह करके रहने में कोई बुराई महसूस नहीं करता है। हिटलर के जमाने में जर्मनी के सबसे बड़े दार्शनिक हाइडेगर ने नाजीवाद के बारे में अपनी तात्विक समझ की इसी बिना पर हिटलर के साथ निबाह करके चलने के अपने रास्ते की पैरवी की थी। जब कोई इस प्रकार की उलझन में फंस जाता है तब उसके सामने आगे चलने का कोई निर्विकल्प रास्ता शेष नहीं रह जाता है, सब कुछ गड्ड-मड्ड दिखाई देने लगता है। खास तौर पर वामपंथियों के एक अच्छे खासे तबके में इससे ऐसी भारी उलझने पैदा होने लगती हैं जिसके कारण फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम एकता के साथ समझौताहीन संघर्ष के लिए जरूरी रणनीति से वह इन नाना तात्विक उलझनों के चलते कई प्रकार से समझौते करने लगता है। वह जनतांत्रिक ताकतों की वर्गीय पहचान के नाम पर उन सबकी एकजुट लड़ाई के प्रति संशयग्रस्त हो जाता है।
    कहना न होगा, वामपंथी खेमे की इन उलझनों के मूल में पूँजीवादी जनतंत्र, जिसमें मानव अधिकारों की कद्र की जाती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मान किया जाता है, कानून का शासन होता है जिसके सामने सब समान होते हैं, और फासीवाद, जिसमें मानव अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोट दिया जाता है, कानून के शासन के बजाए एक तानाशाह के हुक्म चला करते हैं इन दोनों को एक पूँजीवाद के ही दो रूप मान लेने की मूलभूत रूप से एक गलत विचारधारात्मक समझ काम कर रही होती है।
    यहाँ हमारे विचार की प्रस्तावना का मूल विषय यही है कि जब तक हम पूँजीवाद, फासीवाद और समाजवाद इन तीनों को एक दूसरे से पूरी तरह से भिन्न, अलग-अलग स्वायत्त समाज-व्यवस्थाओं के रूप में नहीं देखेंगे, हम कभी भी फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की सही दिशा में सोच-विचार नहीं कर पाएँगे।
    मार्क्स ने कहा था कि उत्पादन का स्वरूप ही किसी भी समाज में आदमी के जीवन का स्वरूप होता है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उत्पादन के साधनों की मिल्कियत अर्थात उत्पादन-संबंध किसी भी समाज के सामाजिक संबंधों, सामाजिक-व्यवस्था को व्यक्त करते हैं। जब हम उत्पादन के स्वरूप के आधार पर ही समाज व्यवस्थाओं पर राय देने लगते हैं तब हम वही भूल करने के लिए मजबूर हो जाएँगे जो भूल हर्बर्ट मारक्यूस से लेकर फ्रैंकफर्ट स्कूल कहे जाने वाले दार्शनिकों ने साठ के दशक में पूँजीवाद और समाजवाद, दोनों को एक ही आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग की समाज-व्यवस्था मान कर, दोनों को समान बता देने की भूल की थी। उन्होंने उत्पादन के साधनों के सामाजीकरण के उस सच की अवहेलना की थी जो समाजवाद को पूँजीवाद से मूलभूत रूप में अलग करता है।
    यही बात फासीवाद के बारे में भी समान रूप से लागू होती है। थोड़ी सी गहराई में जाने से ही हम देख पाएँगे कि फासीवाद उत्पादन संबंधों के उस रूप पर टिका हुआ है जिसमें उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत के बावजूद उनका तानाशाही शासन की कमांड व्यवस्था से संचालन किया जाता है । हिटलर ने ट्रेडयूनियन आंदोलन को कुचल कर पूँजीपतियों को मजदूरों की सौदेबाजी के दबाव से मुक्त कर दिया, लेकिन इसके साथ ही खुद पूँजीपतियों के लिए भी यह तय कर दिया कि जर्मनी के कारखानों में किस चीज का कितना उत्पादन किया जाएगा, किस प्रकार वे विश्व विजय की हिटलर की योजना की सेवा में लगे रहेंगे। अर्थात, उद्योग चलेंगे पूरी तरह से हिटलर के फरमानों के अनुसार। जैसे भारत में मोदी ने पूरी अर्थ-व्यवस्था को अपनी निजी मुट्ठी में कस लेने के लिए नोटबंदी की तरह का सामान्य रूप से निंदित कदम उठाने में जरा सी भी हिचक का परिचय नहीं दिया। अर्थ-व्यवस्था के सामान्य मान्य नियमों को ताक पर रख कर उसे एक तानाशाह की सनक के अधीन कर देने की यही लाक्षणिकता मोदी और आरएसएस के फासीवादी चरित्र का एक सबसे बड़ा सबूत पेश करती है। हिटलर ने अपने काल में उन सभी उद्योगपतियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिया था जिन्होंने हिटलर के उदय में उसकी सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता की थी। इसकी तुलना में सामान्य पूँजीवादी जनतंत्र मूलतः उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत पर टिका होने पर भी वह किसी कमांड व्यवस्था के जरिए नहीं, बल्कि मूलतः बाजार के नियमों से संचालित होता है, जिसमें पूँजी के मूलभूत अधिकार को स्वीकृति के साथ ही सामान्य उपभोक्ता समाज की एक सक्रिय भागीदारी भी हुआ करती है। उपभोक्ता के हितों की रक्षा भी राज्य का एक प्रमुख दायित्व होता है। नागरिक के अधिकार, मानव अधिकार, कानून का शासन की संगति में ही पूँजीपति और उपभोक्ता के अधिकार भी अपनी न्यायोचितता को प्रमाणित करते हैं।
    इस प्रकार, आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग के एक ही क्षितिज में उभर कर आने वाली इन तीन अलग-अलग समाज-व्यवस्थाओं, पूँजीवादी जनतंत्र, फासीवाद और समाजवाद को हम तात्विक रूप में बिल्कुल तीन अलग-अलग जगहों पर रखकर स्वतंत्र रूप में समझ सकते हैं और इन तीनों व्यवस्थाओं के तहत सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक मान-मूल्यों को भी अलग-अलग करके देखा जा सकता है। यही वह संदर्भ है जिससे पता चलता है कि जहाँ से पूँजीवादी जनतंत्र का संकट यदि फासीवाद के आगमन का कारण बन सकता है, वहीं से समाजवाद के द्वार भी खोल सकता है। मूल प्रश्न मनुष्य द्वारा पहले से उपार्जित शक्तियों और अधिकारों की रक्षा से जुड़ा होता है। यह समय और स्थान के एक वृत्त से मुक्त होकर बिल्कुल दूसरे वृत्त में प्रवेश की तरह है।     जहाँ तक नवंबर क्रांति का सवाल है, दुनिया के इतिहास में यह अपने प्रकार का मार्क्सवाद का प्रथम प्रयोग था। पेरिस कम्यून तो सिर्फ ऐसी किसी संभावना की एक झलक भर थी। आगे ऐसे न जाने कितने और प्रयोग, कितने स्तरों पर कितने रूपों में जारी रहेंगे, इसकी कोई पूरी कल्पना नहीं कर सकता है। लेकिन यह सच है कि इस क्रांति के परिणाम आज की पीढ़ी के जीवंत अनुभवों के अंग हैं। इन अनुभवों की महत्ता और इनकी भूमिका से भी कोई इंकार नहीं कर सकता है।
    वैश्विक संदर्भों में देखें तो मानव समाज आज कृत्रिम बुद्धि द्वारा उत्पादन के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है। सन् 91 के बाद एकधु्रवीय विश्व के पहले चरण में ही रोजगार-विहीन (Jobless) विकास के सारे लक्षणों की पहचान कर ली गई थी। इसके राजनैतिक और सामाजिक प्रतिफल के रूप में एक श्रीहीन (Growthless), वाणी-हीन, (Voiceless) और निर्दयी (Ruthless) परिस्थितियों की बातें भी स्पष्ट थीं। लेकिन अभी रोजगार-विहीनता का नहीं, बल्कि रोजगार-संकुचन का समय आ रहा है। बिल्कुल सही अनुमान किया जा रहा है कि आगामी एक दशक से भी कम समय में भारत में 69 प्रतिशत रोजगार कम हो जाएँगे। कमोबेस कुछ ऐसा ही हाल बाकी दुनिया का भी होगा। भारत में तो इसके प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गए हैं जिस पर नोटबंदी के संदर्भ में हम आगे चर्चा कर आए हैं।
    इस समग्र सच्चाई को भाँप कर ही विकसित देशों में आने वाले मानवीय अस्तित्व के संकट की परिस्थितियों से बचने के लिए राज्य की ओर से सभी नागरिकों के लिए एक न्यूनतम आमदनी को हर हाल में सुनिश्चित करने के नाना रूपों पर विचार शुरू हो गया है। हाल में स्विट्जरलैंड में ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ (UBI) की ऐसी स्कीम पर एक जनमत संग्रह हो चुका है और फिनलैंड ने ऐसी एक योजना पर अमल की घोषणा भी कर दी है। इसके समानांतर ही, विचारों के स्तर पर, इस पूर्ण आटोमेशन के काल में पूर्ण आटोमेटेड आनंदमय कम्युनिस्ट समाज (Fully automated luxury communism) की कुछ हवाई किस्म की बातें भी की जा रही हैं। मूल बात यह है कि हवाई हों या ठोस, मनुष्यों द्वारा अर्जित नई उत्पादन शक्तियों के अनुरूप मानव समाज के नए स्वरूपों के निरूपण को कोई रोक नहीं सकता है। इसका प्रभाव मनुष्यों के सामाजिक जीवन पर जितना पड़ेगा, उससे कम चिंतन के स्तर पर तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा के स्तर तक नहीं पड़ेगा।
    मार्क्स की शब्दावली में इन्हीं बातों को कहें तो, ‘‘समाज-उसका रूप चाहे जो हो-क्या है? वह मानवों की अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है? कदापि नहीं। उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था ले लीजिए, तो आपको उसके अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास राजनैतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’
    मार्क्स इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि ‘‘मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का-जो उसके पूरे इतिहास का आधार है-स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति होती है, भूतपूर्व कार्यकलाप की उपज होती है।’’
    मार्क्स ने आन्नेनकोव के नाम अपने इसी पत्र में, यह भी लिखा था कि ‘‘मानव का सामाजिक इतिहास उसके व्यक्तिगत विकास के इतिहास के अलावा और कुछ भी नहीं है-भले ही उसको इसकी चेतना हो या न हो।’’ और, ‘‘मनुष्य जो उपार्जित करता है उसे फिर कभी छोड़ता नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह उस सामाजिक रूप का भी परित्याग नहीं करता जिसमें उसने किन्हीं उत्पादक शक्तियों को प्राप्त किया है। इसके विपरीत, प्राप्त परिणाम से वंचित न होने, और सभ्यता के फलों को न गँवाने के लिए, मनुष्य उस क्षण से ही अपने सारे परंपरागत सामाजिक रूपों को बदलने को बाध्य होता है जब से उसके वाणिज्य के रूप का अर्जित उत्पादक शक्तियों के साथ सामंजस्य नहीं रह जाता।’’
    नवंबर क्रांति के शताब्दी वर्ष पर दुनिया को हिला देने वाली इस दूरगामी प्रभाव की क्रांति का गहराई से अवलोकन स्वयं विषय के इस हद तक संस्कार, शोधन और परिमार्जन की भूमिका अदा करता है कि वह बिल्कुल नए अर्थों में स्फुट होने लगता है। यह कोई भाववाद नहीं, यही भावों का भौतिकवाद है। हम नहीं मानते कि रूस में लेनिन के नेतृत्व में मार्क्सवाद के प्रयोग से जिस सामाजिक क्रांति का निरूपण हुआ उसके अब और नए-नए रूपों और अर्थों के विस्तार की संभावनाएँ तेज हो गई हैं। अर्थात, नवंबर क्रांति के अब कोई अवशेष नहीं बचे हैं। रात गई बात गई या दुनिया बदल गई है, वह समय नहीं रहा और इसीलिए नवंबर क्रांति भी नहीं रही। किसी भी परिकल्पना की विफलता से वह परिकल्पना बुरी साबित नहीं होती है। यदि विफलताओं के बाद भी मुक्ति की, समानता की मनुष्य की परिकल्पना कायम है, उसे त्याग नहीं दिया गया है तो विफलताओं को उस परिकल्पना की सत्यता की प्रामाणिकता के इतिहास के रूप में देखा जाना चाहिए। जो लोग नवंबर क्रांति को किसी उल्का पिंड की तरह स्वर्ग से अवतरित और फिर एक चमक दिखा कर अंतरिक्ष में ही गुम हो जाने के रूपक की तरह देखते हैं, वे ही उसे मनुष्य के सामाजिक विकास के इतिहास से पृथक मान कर उसके पूर्ण विलोप की तरह का विचार व्यक्त कर सकते हैं।
    मूल बात यह है कि हवाई हो या ठोस, मनुष्यों द्वारा अर्जित नई उत्पादन शक्तियों के अनुरूप मानव समाज के नये स्वरूपों के निरूपण को कोई रोक नहीं सकता है। रोजमर्रे की व्यावहारिक राजनीति के लिए यथार्थ हमेशा टुकड़ों में काम आता है लेकिन समाजवाद की तरह की परिकल्पना इस तथ्य का प्रमाण है कि सत्य का अपना काम जारी है, वह रुका नहीं है। फिर भी इन जटिल हालात में समाजवादी व्यवस्थाओं की विफलता से अच्छे और बुरे के बीच चयन की कोई साफ स्थिति नहीं रहती है। हमें अच्छा लगे या बुरा लगे, हमारे सामने जैसे कोई चारा नहीं है और सरकार बड़े आराम से अरबों रूपये की क्षतिपूर्ति देश के सबसे अमीर लोगों को देने के लिए तत्पर रहती है, उनके बैंक के कर्ज माफ करने के लिए रातो-रात नए कानून बन जाते हैं, लेकिन आम आदमी को राहत पहुँचाने वाली क्षति-पूर्तियों के बारे में सोचने में ही कई साल गुजर जाते हैं, और कोई कुछ कर नहीं पाता है ।
    शोषण की ताकतें इस नई परिस्थिति का इस्तेमाल राज्य को अधिक से अधिक दमन-मूलक बनाने के लिए करेंगी। हमारे जैसे देश में बेरोजगारों की बढ़ती हुई फौज को गुंडों-बदमाशों (गोगुंडों) की फौज में बदलने की कोशिश आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगी। इससे दंगाइयों की, अन्ध-राष्ट्रवाद के नशे में चूर आत्म-घाती युद्धबाजों की फौज बनाई जाएगी, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि यह हिटलर का, औद्योगिक पूँजीवाद के प्रथम चरण का जमाना नहीं है। यह मनुष्यों के आत्म-विखंडन से लेकर समान स्तर पर विखंडित, अकेले मनुष्यों की नई सामाजिकता का जमाना भी है।
    पूँजीवाद के प्रवक्ताओं का काम है कोई वितंडा खड़ा करना, वह नहीं चला तो फिर एक वितंडा खड़ा करना फिर वितंडा खड़ा करना। इसके प्रत्युत्तर में जनता का तर्क है लड़ो, विफल हो, फिर लड़ो, फिर विफल हो जब तक विजय प्राप्त न हो।
            यहीं पर हमारे सामने एक नए और खुले विमर्श का प्रश्न, विचारधारात्मक संघर्ष का प्रश्न  सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। विवादों के बीच से ही अपने मत के निरूपण की परंपरा सिर्फ मार्क्सवादी विचारकों की परंपरा नहीं रही हैं। भारतीय चिंतन में तो शास्त्रार्थों का बहुत ही गौरवशाली इतिहास रहा है। अभिनवगुप्त ने शैवमत में उत्पलदेव के प्रत्यभिज्ञादर्शन की स्थापना के उपक्रम में बौद्ध दर्शन, ब्राह्मणवादी कुलीनता, शंकर के वेदांत और उनसे स्वतंत्र रूप में विकसित हुई वेदांत की तमाम धाराओं, पंचरात्र के वैष्णवपंथ और लगभग 92 शैवागमों की सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थापनाओं के खंडन-मंडन के जरिए ही ‘तंत्रालोक’ ‘ध्वन्यालोक’ और ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी के स्तर की अपनी सर्वकालिक महान कृतियों की रचना की थी। इसके बावजूद, आधुनिक काल में दुनिया के धरातल पर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन सहित तमाम मार्क्सवादी क्रांतिकारियों और विचारकों ने वाद-विवाद-संवाद की चिंतन की इस शैली को एक ऐसे जीवंत और द्वंद्वात्मक स्वरूप में साधा और विकसित किया जो विचारों के खंडन-मंडन के प्रचलित रूपों से बहुत आगे जाकर, अन्तर-बाह्य दोनों स्तरों पर विचारों के रचनात्मक विकास का, और साथ ही विचारों को एक भौतिक शक्ति में बदलने का बहुत ही कारगर औजार साबित हुआ है। मार्क्सवाद के सामाजिक प्रयोगों की सफलता-विफलता के आरोह-अवरोहों के बीच भी मार्क्सवादी चिंतन की धारा पर कभी भी कोई जड़ता या गतिरोध व्याप गया दिखाई नहीं देता है। कार्ल मार्क्स के बाद के इन दो सौ सालों में कोई भी नया विचारोत्तेजक बौद्धिक विमर्श मार्क्सवाद के दायरे को लांघ कर संभव नहीं हुआ है। इसे ही जॉक दरीदा ने अपनी उत्तर-आधुनिकतावादी विचार-यात्रा में मार्क्स के भूत की सदा-सर्वदा मौजूदगी के रूप में याद किया है।
    यद्यपि विचार और व्यवहार के इस द्वंद्वात्मक उपक्रम में निश्चित तौर पर चीन की जनता के जीवन में एक सांस्कृतिक विरेचन का कारण बनने वाली माओ की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ अथवा पूँजीवादी रुझानों से संघर्ष के नाम पर बौद्धिकों मात्र के सफाए की पौल पोट की तरह की कुछ वैसी ही अतियाँ भी सामने आई हैं, जैसी भारत में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच, वैष्णवों और शैवों के बीच खूनी संघर्षों के इतिहास में मिलती हैं। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण दूसरा पहलू समाजवाद के पराभव का भी है, जब विश्व क्रांति की निर्विकल्प दिशा के प्रति नाउम्मीदी ने ‘एक देश में समाजवाद’ की तरह के विकल्पों को ही निर्विकल्प मान कर, शैवागमों की भाषा में मल को ही विमल मानकर, अपना लिया गया और बाद में उसके अपरिहार्य पराभव ने एक ऐसे शून्य की सृष्टि कर दी जिसमें झूठी उम्मीदों के सहारे चलने के अलावा जैसे कम्युनिस्ट आंदोलन के पास कोई चारा नहीं दिखाई देता है।  
    बहरहाल, इस प्रकार के किसी भी विचलन या परिणाम के हवाले से वैचारिक टकराहटों की अपनी रचनात्मकता को, उसकी भौतिक भूमिका की चरितार्थता को कभी खारिज नहीं किया जा सकता है। हमारे यहाँ अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक में पुष्प, धूप, नैवेद्य, या मंत्र जाप को नहीं, विमर्श की दृढ़ता, विभिन्न भावों के साथ भैरवी संविद (चेतना शक्ति) की संहति की स्थापना को पूजा कहा है।


“पूजा नाम विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गतिः
स्वतंत्रविमलानन्तभैरवीयचिदात्मना । (तंत्रालोक, चतुर्थ आह्निकम, 121)
पूजा नाम न पुष्पाद्यैर्या मतिः क्रियते दृढा
निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल्लयः

    भिन्न-भिन्न रूप रस आदि भाव समूह का देशकाल आदि से अविभाज्य शुद्ध और अनंत भैरवीय संविद् ( स्वतंत्र चेतना शक्ति) रूप से जो संगति, एकाकारता होती है, वही पूजा मानी जाती है। पुष्प आदि से पूजा नहीं होती, बल्कि निर्विकल्प महाव्योम में जो दृढ़ विश्वास किया जाता है, जो आदर के साथ लय है, वह पूजा है।
    सिर्फ इतना ही नहीं, अभिनव आगे यह भी लिखते हैं कि यह परामर्शरूपिणी चेतना शक्ति ही अपने स्वातंर्त्य के कारण अन्तः और बाह्य (वैचारिक और भौतिक) दोनों स्तरों पर मौजूद रह कर स्फुरण करती है-

“तथाहि संविदेवेयमन्तर्बाह्योभयात्मना
स्वतर्न्त्याद्वर्तमानैव परामर्षस्वरूपिणी । (वही, 122)
    यहाँ जो विमर्श परामर्शरूपिणी है, परामर्शमूलक है, उसे ही हम वैचारिक द्वंद्वात्मकता के रूप में समझ सकते हैं। तभी जो बाहर प्रकाशित होता है, वही अंतर में भी व्यक्त होता है। बाह्य और अन्तर, दोनों स्तरों पर इसके रचनात्मक परिणामों से इसमें कोई बिखराव नहीं आता है। यही इसकी विशिष्टता है। अन्य की अन्य के साथ एकता को यहाँ पूजा बताया गया है। यह परामर्शरूपिणी द्वंद्वमूलक चेतना शक्ति अपने स्वातंर्त्य की वजह से ही अन्तः बाह्य एवं दोनों रूपों में मौजूद रह कर अपनी रचनात्मक भूमिका अदा करती है। भिन्न-भिन्न भाव समूह का चिदात्म्य के साथ, एक सार्वलौकिक सत्य के साथ एकात्म्य। इस प्रकार विमर्श मात्र की अपनी सार्वलौकिक स्वातंर्त्य की विश्वदृष्टि भी है। इसी स्वातंर्त्य से जुड़कर नाउम्मीदी के भी एक अनोखे साहस की सृष्टि होती है, जो वर्तमान की सभी रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ कर नई सामाजिक संरचना का हेतु बन सकता है।
    कहना न होगा, नवंबर क्रांति और उससे निर्मित समाजवादी समाज इन लड़ाइयों के निरूपण की विफलताओं से गूंथी गई इसी शृंखला के लिए  हमेशा एक प्रकाश स्तंभ का काम करेगा, इसमें कोई शक नहीं है।
    मूल बात यह है कि मुक्ति की राजनीति के सामने राजसत्ता का दमन जितना बड़ा शत्रु नहीं है, उससे कहीं बड़ा शत्रु उसमें लालसाओं का अंत हो जाना, कुछ भी नहीं होगा के नकारवाद और उस खोखलेपन से पैदा होने वाली अमानुषिक निष्ठुरता का पैदा होना है, जैसी हमने नामवर सिंह में देखी। ऐसे में, अंत में यही कहेंगे कि विमर्श ही आदमी के अंतर के शून्य को भरने का और मानव-कल्याण के समताकारी व्योम से उसके लय का, संगति बनाए रखने का अकेला साधन है।
    जो रोजमर्रा की व्यावहारिक राजनीति की विफलताएँ हैं, उन्हें हम रणनीति के साथ कार्यनीति की सही संगति न बैठा पाने की ठोस राजनैतिक घटनाओं के विश्लेषण से समझ सकते हैं और राजनैतिक पार्टियाँ इस काम में अपने तई लगी रहती हैं। सीपीआई (एम) के ऐसे कई फैसलों पर हम लगातार लिखते ही रहे हैं। ज्योतिबसु तक ने 1996 के फैसले को एक ऐतिहासिक भूल कहा था। पिछले दिनों ऐसी भूलों की एक पूरी शृंखला को देखते हुए ही हमने यहाँ रणनैतिक लक्ष्य की, एक जनतांत्रिक व्यवस्था में जनता की जनवादी क्रांति की भी नये रूप में समीक्षा करते हुए फासीवादी खतरे के बरक्श उसे फिर से परिभाषित करने की जरूरत की ओर संकेत किया है। व्यावहारिक राजनीति की विफलताओं की कोई सर्वकालिकता नहीं होती है, फिर भी उसका साम्यवाद के साथ शाम्भवयोग से कोई संबंध नहीं है, यह कहना इसलिए गलत है क्योंकि अन्यथा यह चरम नाउम्मीदी और नकारवाद के विस्तार का काम होगा। यह हमें एक जागृत और समानताकामी नागरिक के समसामयिक राजनैतिक दायित्वों से विरत करेगा, और इसके लिए यह जरूरी है कि हमारे लिए उतनी जगह जरूर बची रहे जिसमें हम अपनी यात्रा की विफलताओं के हर पहलू पर खुल कर चर्चा कर सकें और करते रहें। संभवतः ग्राम्शी ने इसे ही समाज में प्रभुत्व की लड़ाई (struggle for hegemony) के रूप में देखा था। विमर्श का स्थान कभी संकुचित न हो या वही अभिनवगुप्त की शब्दावली में चिदात्म्य से, समाजवाद के महाव्योम साम्यवादी यूटोपिया से लय का हेतु हो सकता है।

-अरुण माहेश्वरी 
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित  

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