रविवार, 1 अप्रैल 2018

उपराष्ट्रवाद की दस्तकें

 गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के  छठी  दफे सत्ता में आने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के परोक्ष  ‘उपराष्टवाद’ को  भी जाता है। पाँच बार मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने इसे जमकर भुनाया या सूबाई स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक ‘गुजरात अस्मिता’, ‘विकास का गुजरात मॉडल‘ जैसे नारों को प्रचंड आवाज में गुंजित कर वृहद्स्तरीय राष्ट्रवाद या अखिल भारतीय राष्ट्रवाद (Pan Indian Nationalism) पर स्थापित कर दिया। भारतीय राष्ट्र राज्य की सत्ता कमान को अपनी मुट्ठियों में भींच लिया। गुजरात विधानसभा चुनावों के अंतिम चरण में उन्होंने बड़ी सफाई के साथ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर के शब्द “नीच आदमी” को ‘गुजरात का अपमान‘ या ‘गुजरात के बेटे‘ का अपमान के साथ जोड़ दिया। यहीं से हवा बदल गई और  मतदाताओं की उपचेतना में उपराष्ट्रवाद जाग उठा। इसका परिणाम यह निकला कि उपराष्ट्रवाद की बदौलत प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी को फिर से सत्ता दिलाने में सफल रहे। बेशक, दूसरे भी कारण रहे हैं, लेकिन, उपराष्ट्रवाद का अलख न जगाया होता तो भाजपा आज सत्तासीन नहीं होती।
    प्रधानमंत्री मोदी इसके सूत्रधार रहे हैं, यह निष्कर्ष गलत होगा। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के. या ए.डी.एम.के.), तेलगु देसम (टी.डी.पी.), शिव सेना, असम गण संग्राम परिषद्, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), अकाली दल, गोमान्तक जैसी कई क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं जोकि विभिन्न रूपों में उप राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती आ रही है। मोदीजी ने इस उप राष्ट्रवाद को कॉर्पोरेट पूँजी और हाई टेक के पंख जरूर लगाए हैं।
    वास्तव में, कांग्रेस युग से ही उपराष्ट्रवाद की धारा बहती चली आ रही है। कभी यह सुप्त रहती है, कभी उग्र व आक्रमक हो जाती है लेकिन राष्ट्रवाद की मुख्यधारा में इसकी अन्तर्धारा  निहित जरूर रहती है। आजादी के बाद से इसने भाषा के चोले में नव उभरते भारतीय राष्ट्रवाद पर अपने हमले शुरू कर दिए, भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ, नए राज्य (दक्षिण के राज्य, पश्चिम के राज्य, उत्तर-पूर्व राज्य, हरियाणा, हिमाचल, पंजाब) अस्तित्व में आए। भाषा का ही एक मात्र सवाल नहीं था, सम्बंधित सूबों के आर्थिक पिछड़ेपन, सांस्कृतिक भिन्नताएँ और अस्मिताएँ भी इन हमलों में शामिल थे। इसके अलावा, इन क्षेत्रों के अपने-अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक गौरव भी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में इनकी विशेष भूमिकाएँ भी रही हैं। चूँकि अंग्रेजों की ओपनिवेशिक दासता देश का प्रमुख अंतर्विरोध थी इसलिए उप राष्ट्रवाद के आक्रमण दबे रहे। जब स्वतंत्र भारत में प्रमुख अन्तर्विरोध पृष्ठभूमि में चला गया, तब विभिन्न सूरतों में उप राष्ट्रवाद के हमले उभरने लगे। वैसे भारत में कई राष्ट्रीयताएँ मानी जाती हैं। लेकिन, हिन्दुत्ववादी विचारधारा के समर्थक इसे स्वीकार नहीं करते हैं। वे भारत को एक ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की माला में पिरोने के प्रबल पक्षधर रहे हैं। ऐसे लोगों के मत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ है जो अनादि काल से चला आ रहा है। वह अक्षय है। धर्म-संस्कृति इसके आधारभूत वाहक हैं। जाहिर है, धर्म-संस्कृति के जितने भी प्रतीक, लक्षण, साहित्य, जीवन शैलियाँ, मिथक, पूजा-अर्चना पद्धतियाँ, देवी-देवता, चिंतनधाराएँ आदि हैं भौगोलिक फासलों के बावजूद, उनमें अन्तर्निहित साम्यताएँ एक विराट सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जनक हैं। आस्था और भावना, इसकी  प्राणवायु हैं।
    1947 के बाद नए अंतर्विरोधों की दस्तकें सुनाई देने लगीं, और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर  यथार्थवादी उप राष्ट्रवाद के हमले होने लगे। क्षेत्रीय विषमताएँ, आर्थिक असंतुलन, निर्धनता-बेरोजगारी, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ, राष्ट्रीय पूँजी में उभरती क्षेत्रीय पूँजी की स्थिति जैसे सवाल अंतर्विरोध के रूप में उभरने लगे। नेहरू-काल में ही द्रविड़ आन्दोलन तेजी से उभर रहा था। क्षेत्रीय भाषा तमिल ने हिंदी, जोकि अखिल भारतीय राष्ट्रवाद का आरोपित प्रतिनिधि मानी जा रही थी, को  जबर्दस्त सांस्कृतिक-राजनैतिक चुनौती दी। नतीजतन, अन्नादुराई के नेतृत्व में 1967 में पहली  डीएमके सरकार अस्तित्व में आई। तब से लेकर आज तक कांग्रेस सहित कोई भी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ डीएमके व एडीएमके को अपदस्थ नहीं कर सकी हैं। दूसरे शब्दों में, वृहद्स्तरीय राष्ट्रवाद पर उप राष्ट्रवाद भारी पड़ रहा है। पिछले कुछ समय से हिन्दुत्त्व राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एकलौती प्रतिनिधि काफी हाथ-पैर जरूर मार रही है। दोनों दलों के नेताओं को घेरने की कोशिश कर रही है लेकिन हाथ मलना पड़ रहा है। तमिलनाडु में उप राष्ट्रवाद की धारा व्यापक व सुदृढ़ है। इसकी अपनी एक अलग पहचान-अस्मिता है। कभी हाशिए पर रही जातियों ने इसे अपनी नव अर्जित क्षेत्रीय पूँजी-सत्ता से लैस कर दिया है। इसमें नई ‘मिलीटेंसी पैदा कर दी है। आठवें दशक के आरम्भ में तेलगु देसम के झंडे तले आंध्रा का उप राष्ट्रवाद उभरा दूसरी बार। राजनैतिक दृष्टि से यह दूसरी बार काफी आक्रमक था। इससे पहले भाषा को लेकर था। लेकिन तेलुगू फिल्मों के महानायक से राजनीति में आए एन.टी.रामाराव ने नए ढंग से तेलुगू देसम के उप राष्ट्रवाद को जाग्रत किया और 1983 में कांग्रेस को सत्ता से अपदस्थ किया। उनकी चुनाव प्रचार शैली को इस लेखक ने कवर किया था। वे प्रायः प्रत्येक सभा में तेलुगू आंध्रा के अतीत गौरव को जमकर उछाला करते थे। सिनेमा हाल में उनके द्वारा अभिनीत पौराणिक फिल्में दिखाई जाती थीं। इसका जबरदस्त फायदा उनके दल को हुआ और आज तक हो रहा है। जिस प्रकार आज प्रधानमंत्री मोदी स्वयं को गुजरात पुत्र या गुजरात का पर्याय चित्रित करते हैं, उसी तर्ज में एन.टी.आर. पहले ही कर चुके हैं। उन्हें तेलुगू बिट्टा पुकारा जाने लगा था। बाद में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरसिंह राव को भी इसी उपाधि से नवाजा गया।
    ब्राहमणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ द्रविड़ नेताओं का सामाजिक सुधार का आन्दोलन सबसे दीर्घकालीन रहा है। द्रविड़ राजनैतिक दृष्टि से इसने मुख्यधारा की राजनीति को अपनी तमिल सरहद पर रोके रखा है। तमिल उपराष्ट्रवाद के आधार पर ही करुणानिधि, एम.जी. आर., जयललिता जैसे नेता सत्ता की राजनीति कर सके। आज के सन्दर्भों में करुणानिधि की संतान और जयललिता के उत्तराधिकारी भी उसी विरासत को थामे हुए हैं, लेकिन दक्षिण राज्यों में केरल जरूर आज तक अपवाद बना हुआ है। कोई एक दल, नेता या धर्म मलयाली उप राष्ट्रवाद की भावना को राजनैतिक स्तर पर भुना नहीं सका। याद रहे, इसी प्रदेश में देश की पहली साम्यवादी सरकार सत्ता में आई थी। ई.एम.एस.नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में चुनावों के माध्यम से साम्यवादियों ने सरकार बनाई थी, जिसे दो वर्ष बाद केंद्र की नेहरू-सरकार ने गिरा दिया था। बावजूद इसके, केरल का उप राष्ट्रवाद नहीं जगा। आज भी नहीं। मुख्यधारा के राष्ट्रवाद की राजनीति का वर्चस्व प्रदेश की स्थानीयता पर हावी है। हालाँकि, भाजपा और संघ परिवार धर्म के माध्यम से इस पर हावी होने के प्रयास जरूर कर रहे हैं, लेकिन, सफलता काफी दूर है उनसे। हरियाणा में भी जाटवाद की आक्रमक उपस्थिति इस अन्तर्विरोध का प्रतिनिधित्व करती है। सर छोटूराम, चौधरी बंसीलाल, देवीलाल, ओम प्रकाश चौटाला, चरण सिंह (पश्चिमी उ त्तर प्रदेश) जैसे नेताओं ने जाटवाद की भावना को जाग्रत करने की कोशिश की। सफल भी हुए, हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ‘जाटलैंड‘ से परिभाषित किया गया। एक प्रकार से जाटवाद के आवरण में यह भी एक प्रकार से उप राष्ट्रवाद है। यदि यह नहीं हुआ होता तो पंजाब से अलग नहीं होता। पंजाब की बात करें, आजादी के पहले से ही अकाली एक स्वतन्त्र राष्ट्र की माँग करते रहे हैं, मास्टर तारासिंह से लेकर संत जरनैल सिंह (जून 1984) तक खालिस्तान की माँग की जाती रही है। भिंडरावाले के नेतृत्व में वर्षों तक मिलिटेंट खालिस्तान आन्दोलन चला भी है। आज भी विभिन्न नामों से यह आन्दोलन चल रहा है। कनाडा में इसके अच्छे-खासे समर्थक भी हैं। भिंडरावाले सिखों को हिन्दुओं से अलग एक  ‘स्वतंत्र कौम’ कहा करते थे। सारांश में, सिख अस्मिता आज भी अस्तित्वमान है। उत्तर-पूर्व के क्षेत्र में उपराष्ट्रवाद का एक इन्द्रधनुषी परिदृश्य मिलेगा। मेघालय, मणिपुर, मिजोराम, नागालैंड, सिक्किम, अरुणाचल जैसे प्रदेश के लोग स्वयं को मुख्यधारा के राष्ट्रवाद से अलग-थलग मानते हैं उत्तर भारत और उत्तर पूर्व भारत की जीवन शैलियाँ नितांत भिन्न हैं। यदि इन क्षेत्रों में भारतीय सेना की उपस्थिति नहीं रहे तो स्थितियाँ कोई भी रूप ले सकती हैं। आज भी इन क्षेत्रों में भूमिगत आन्दोलन मौजूद हैं। भारतीय सेना के साथ अलगाववादियों की झड़पें होती रहती हैं। असम भी इन घटनाओं से कम प्रभावित नहीं है। उल्फा जैसे भूमिगत संगठन काफी सक्रिय हैं। इसके आलावा बोडो लैंड सहित आदिवासियों के भी कई संगठन हैं जिनमें उप राष्ट्रवाद की जड़ें गहरे तक हैं। नागालैंड और मणिपुर के आदिवासियों के बीच आए दिन हिंसक झड़पें होती रहती हैं। इन घटनाओं की व्याख्या करने की कौन सी कसौटियाँ होनी चाहिए, इस पर चिंतन जरूरी है। नव राष्ट्र व्यापक दायरे के बावजूद इन अंतर्विरोधों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। देखना यह चाहिए, इनका चरित्र ‘मित्रतापूर्ण‘ है या शत्रुतापूर्ण? मुख्यभूमि द्वारा सर्व स्वीकृत राष्ट्रवाद से अलग हट कर इनका भी कोई अस्तित्व है या नहीं, इस सवाल पर विचार किया जाना चाहिए। यद्यपि, सैन्य बल के आधार पर इन क्षेत्रीय अंतर्विरोधों का शमन समय समय पर किया जाता है, लेकिन इससे इनका अस्तित्व व अस्मिता विलुप्त नहीं हो जाते हैं।
    वास्तव में, एक अखिल राष्ट्रीय स्तर के राष्ट्रवाद में विभिन्न उप राष्ट्रीयताओं की धाराएँ समाहित रहती हैं। कभी कौन सी धारा केंद्र में होती है, कभी कौन सी आ जाती है। किसी भी धारा की स्थिति परिस्थितियों और उसकी राजनैतिक-आर्थिक हैसियत से निर्धारित होती है। आदिवासी समाज की धारा आज तक केंद्र में नहीं आ सकी है। हाशिए पर ही अटकी हुई है। राष्ट्रीय राष्ट्रवाद ने इन धाराओं को अपेक्षित तवज्जोह नहीं दी है। रणनीति के तहत आदिवासी क्षेत्रों को कच्चे माल (खनिज-वन) के अकूत दोहन का खजाना बना रखा है। विधायिका व नौकरियों में आरक्षण के जरिए राष्ट्रीय राष्ट्रवाद उप राष्ट्रवाद के उभरते अंतर्विरोधों को ‘डीफ्यूज‘ करता है, लेकिन उनके नायकों व जीनियस को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं करता है। इसे  आंतरिक उपनिवेशवाद भी कहा जा सकता है।    अखिल राष्ट्रीय राष्ट्रवाद यह भूल जाता है कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद की प्राम्भिक कसौटियाँ बदलती जा रही हैं। यह सोच कि धर्म, संस्कृति, भाषा जैसे
मध्ययुगीन कारक आधुनिक हाई टेक.राष्ट्र के आधार स्तभ हैं, अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। समान इस्लामी मजहब होने के बावजूद, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक में विभिन्न उप राष्ट्रीयताएँ (कुर्दिश, बलूच आदि) अपनी आजाद अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही हैं। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र बांग्लादेश के रूप में एक नया राष्ट्र बना। हालाँकि, दोनों का धर्म इस्लाम था, भाषा जरूर अलग थी। ईरान व इराक, दोनों ही देश शिया बाहुल्य राष्ट्र हैं। फिर भी दोनों राष्ट्रों के बीच मुठभेड़ें होती रही हैं। ऐसा क्यों है?     
  ईसाई देशों में भी उप राष्ट्रवाद की समस्याएँ हैं। कनाडा में फ्रेंच भाषी और अंग्रेजी भाषी क्षेत्रों के बीच आज भी तनाव हैं। दो-तीन वर्ष पहले फ्रेंच भाषी लोअर कनाडा (कूबेक, मोंट्रेल आदि) अंग्रेजी भाषी अप्पर कनाडा (ओंटोरियो, टोरेन्टो, ओट्टावा) से अलग होना चाहता था। इसके साथ-साथ कनाडा के मूल निवासियों की राष्ट्रीयताओं का सवाल अलग से है। पहले उन्हें ‘रेड इंडियन‘ कहा जाता था। अब ‘फर्स्ट नेशन‘ के रूप में इन नेटिवों या सामान्य भाषा में आदिवासियों को मान्यता मिली है, लेकिन इनकी उप राष्ट्रीयताओं की समस्या यथावत है। हाल ही में स्पेन भी इसी समस्या का सामना कर चुका है, केटलोनिआ की अलगाववादी पार्टी मुख्य स्पेन से अलग होना चाहती है। इसी मुद्दे पर मत संग्रह तक हो चुका है। श्रीलंका में सिंहलियों और तमिलों के बीच दशकों तक हिंसक टकराव हुए हैं। एक राष्ट्र के बावजूद जाफना के तमिल भाषी लोग खुद को एक अलग ‘राष्ट्र‘ मानते हैं। सारांश में एक राष्ट्र के निर्माण के लिए अब नए आधारों पर विचार जरूरी है। उप राष्ट्रीयताओं के अपने-अपने ‘आइकॉन‘ होते हैं। जहाँ  तथाकथित मुख्यधारा के नायक-नायिका या आइकॉन को मान्यता दी जाती है, उतनी ही मान्यता के हकदार हाशिए की उप राष्ट्रीयताओं के नायक-नायिका भी हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व को इस सच्चाई को समझना होगा वरना दोनों के बीच टकराव बने रहेंगे।
    भारत में सीमान्त जन (दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक) आज भी स्वयं को अखिल भारतीय राष्ट्रवाद (Pan Indian Nationalism) के साथ एकाकार नहीं कर सके हैं। इन वर्गों और राष्ट्रवाद के बीच अलगाव बना हुआ है। इस वर्ष महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में 1 जनवरी, 2018 को  पेशवा बाजीराव (ब्राह्मण शासक) पर महार सैनिकों (दलित) की विजय के दो सौ वर्ष पूरे होने पर उत्सव मनाया जा रहा है। गुजरात के बड़गाम से हाल ही में निर्वाचित विधायक व दलितों के उभरते युवा आइकॉन जिग्नेश मेवाड़ी को भी इस उत्सव को संबोधित करने के लिया बुलाया गया। साथ ही बस्तर की आदिवासी आइकॉन सोनी सोरी और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र नेता उमर खालिद को भी निमंत्रित किया गया। उप राष्ट्रीयता का एक नया समीकरण दिखाई दे रहा है। इस उत्सव के संयोजकों के विचार में यह समीकरण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा, शिव सेना, अभिनव भारत, सनातन संस्था और श्री राम सेना जैसे संगठनों के रूप में उभरते  ‘नव पेशवाओं‘ को एक दफे फिर से पराजित करेगा। यह समीकरण अपने प्रोजेक्ट में कितना सफल रहता है, यह तो भविष्य ही तय करेगा, लेकिन फिलहाल इतना साफ  है कि भारतीय समाज के इन वर्गों के लिए अखिल भारतीय राष्ट्रवाद  आज भी ‘पराया‘ है। दोनों के बीच एकरसता अनुपस्थित है। यह आज भी सामाजिक-सास्कृतिक आजादी के लिए संघर्षरत हैं। डॉ. अम्बेडकर राजनैतिक आजादी के साथ साथ सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक आजादी भी चाहते थे। दरअसल, देश के निचले व उपेक्षित वर्गों तक राष्ट्रीय राष्ट्रवाद की धारा सही ढंग से नहीं पहुँच सकी है। विचार व प्रभाव के स्तरों पर इसे सवर्णों का राष्ट्रवाद माना जाता है। क्योंकि जितने भी राष्ट्रीय आइकॉन हैं उनमें लगभग शतप्रतिशत ऊँची जातियों (राजा राममोहन राव, मंगल पांडे, बाल गंगाधर तिलक, गोखले, विवेकानंद, गांधी, नेहरु, सुभाष, टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपाला चारी, सुब्रमण्यम भारती, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आजाद, महर्षि अरविन्द आदि) के व्यक्ति शामिल   हैं। यहाँ पौराणिक साहित्य भी वर्चस्ववादी वर्गों की संस्कृति का ही प्रतिनिधित्व करता है। संघ परवार इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार के रूप में देखता है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों को कैसा राष्ट्रवाद चाहिए, इसका विशद विश्लेषण गुरूजी के रूप में विख्यात एम.एस. गोलवलकर की विवादस्पद पुस्तक “बंच ऑफ थॉट्स“ में दिया गया है। प्रतिरोध की धारा प्रबल होने के कारण आज बाबा साहब को राष्ट्रीय आइकॉन के रूप में जरूर स्वीकार किया जाने लगा है।
    एक यथार्थ यह भी है कि राष्ट्रीय या क्षेत्रीय नेतृत्व अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए दोनों प्रकार की राष्ट्रीयताओं के निरंकुश दोहन में संकोच नहीं करते हैं। जब भी नेताओं का राजनैतिक अस्तित्व संकटग्रस्त होता है राष्ट्रीय या उप राष्ट्रीयता के साथ खुद को जोड़ देते हैं और घोषणा करने लगते हैं कि उनका अपमान नहीं है वरन उनके क्षेत्र की जनता का अपमान है। मिसाल के लिए, 2015 के बिहार चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश कुमार व लालू यादव पर व्यंग्य कसा था। उन्होंने तुरंत ही बिहार की जनता के  ‘डीएनए‘ से प्रधानमंत्री के शब्दों को जोड़ दिया। आनन-फानन में बिहार के लोग अपना ब्लड प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजने लगे। 1983 में रामाराव ने भी यही किया। अपने राजनैतिक अस्तित्व को तेलगू गौरव के साथ जोड़ दिया। मराठा अस्मिता के साथ शरद पवार का राजनैतिक अस्तित्व जुड़ा हुआ है। शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना भी यही कर रही है। मुम्बई में उत्तर भारतियों के विरुद्ध आन्दोलन मराठा अस्मिता के
आधार पर चलाया जाता है। 1972-73 में जब ‘दलित पैंथर‘ का आन्दोलन जोऱ पकड़ रहा था तब उसको निस्तेज करने के लिए कांग्रेस ने शिव सेना को खड़ा किया। मराठावाद को हवा दी। आज यह भस्मासुर बन गया है।
    ओड़िसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की कहानी भी इससे भिन्न नहीं है। उनके पिता बीजू पटनायक का भी यही स्थान प्रदेश की राजनीति में रहा है। 1975 की इमरजेंसी में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने भी राष्ट्रीय राष्ट्रवाद के स्तर पर यही कार्य किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा जी को  “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया“ घोषित कर दिया। इमरजेंसी के कारण इंदिरा जी काफी विवादास्पद बन चुकी थीं। उनकी छवि तेजी से धूमिल होने लगी थी। उनका राजनैतिक अस्तित्व संकटों से घिरने लगा था। इसलिए उनकी अस्तित्व रक्षा के लिए ऐसे नारे उछालने पड़े। जनता की उपचेतना में यह बात बैठानी पड़ी कि इंदिरा जी का कोई विकल्प नहीं है। उनसे ही भारत है। यदि वे नहीं रहेंगी तो भारत मिट जाएगा। इसलिए मोदी जी ने ऐसा करके कोई अपवाद नहीं किया, बल्कि विगत में आजमाए फार्मूलों को अपनी पूरी आक्रमकता के साथ  नए ढंग से आजमाया है। वे सफल भी रहे। उन्होंने हाइटेक का भरपूर प्रयोग किया है। यह सुविधा उनके पूर्ववर्तियों को उपलब्ध नहीं थी। कॉर्पोरेट पूँजी भी इसे पंख लगा देती है। अम्बानी-अडानी जैसों की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। राजस्थान में वसुंधरा के लोग फिल्म रानी पद्मावती के
विरोध के माध्यम से ‘राजपूताना वाद’ को खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। किसी जमाने में कुम्भाराम  आर्य जाटवाद को जगा चुके थे।
    कर्नाटक में 2018 में चुनाव होने वाले हैं। इस राज्य में ‘लिंगायत‘ और कन्नड़ भाषा प्रमुख मुद्दे के रूप में उभर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा इन मुद्दों को अपने-अपने ढंग से भुना रही हैं। इस राज्य का लिंगायत समुदाय  लिंगयात को हिन्दू धर्म से एक अलग धर्म का दर्जा देने की माँग करता आ कर रहा है। राज्य की जनसंख्या में इस मत के मानने वाले 17 प्रतिशत हैं। दोनों राष्ट्रीय दलों को इस समुदाय के वोट चाहिए। यह समुदाय आर्थिक दृष्टि से भी समृद्ध है। राजनीति व सांस्कृतिक क्षेत्रों में इस समुदाय की खासी पैठ है। इसीलिए लिंगायतों की माँग पर विचार के लिए एक सात सदस्यों का पैनल भी गठित किया गया है। राज्य में एक समुदाय वीरा शैवास का भी यही महत्त्व है। यह समुदाय भी लिंगायत के समान ही आर्थिक-राजनैतिक दृष्टि से शक्तिशाली है। दोनों में वर्चस्व को लेकर तीव्र मतभेद हैं। लेकिन, सार यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद के व्यापक दायरे में इनका माकूल समाधान होना शेष है। एक सच यह भी है कि पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यह ‘परिघटना‘ अधिक सफल रहती है क्योंकि सामंती संस्कार और अर्द्ध विकसित लोकतांत्रिक चेतना व व्यवहार उग्र रहते हैं। सामान्यतः अंधविश्वास, भक्ति, आस्था और भावुकता जनता को घेरे रहते हैं। मध्य युगीन मिथकों के जरिए नेता स्वयं को जनता की चेतना के सारथी बन बैठते हैं और धर्म़राष्ट्रवाद उप राष्ट्रवाद का घोल उसे पिलाते रहते हैं। निश्चित ही, भारत में जाति व्यवस्था भी इसमें घुली रहती है। सुविधानुसार नेता वर्ग इसका इस्तेमाल करता रहता है। इसी के बल पर ही वह आइकॉन बन बैठता है।
    राष्ट्रवाद के बड़े दायरे में उप राष्ट्रवाद की धाराओं से जहाँ लाभ होता है वहीं इसके प्रतिकूल परिणाम भी सामने आते हैं। उप राष्ट्रवाद के आइकॉन  ‘लाजर देन लाइफ‘ बन बैठते हैं। मुख्यधारा का राष्ट्रवाद लघु-बेबस दिखाई देने लगता है। उस पर अंकुश नहीं लगा पाता। ‘गुजरात मॉडल‘ इसकी ताजा मिसाल है। इस मॉडल को देश की  विविधता-विषमता से बड़ा प्रोजेक्ट किया जा रहा है। इसके सूत्रधार को देशवासियों का ‘मसीहा’ के रूप में पेश किया जा रहा है जबकि विकास का यह मॉडल लगभग पिट चुका है। इसके विपरीत पंचवर्षीय योजनाओं को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रखा गया था। मोदी जी का यह मॉडल, राज्य स्तरीय नेता की प्रचंड राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की चरम अभिव्यक्ति है।

-रामशरण जोशी 
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

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