रविवार, 1 अप्रैल 2018

समाजवादी व्यवस्था के प्रयोग

1917 में रूस में हुई अक्टूबर क्रान्ति पूरी दुनिया में एक नए युग के आगमन का ऐलान और पूरी दुनिया के ज्ञात इतिहास में युगांतरकारी घटनाओं में से एक थी। इस क्रान्ति में रूस की मेहनतकश आबादी-मजदूरों व किसानों  ने लेनिन और बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में पूँजीपतियों और सम्पत्तिशाली लोगों की सत्ता को जड़ से उखाड़ कर वहाँ सर्वहारा सत्ता अर्थात समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की। इस क्रान्ति ने दुनिया को पूरी तरह बदल डाला, अब दुनिया वैसी नहीं रह गई, जैसी वह पहले थी। कहा जा सकता है कि अक्टूबर क्रान्ति के तोपों के गोलों के धमाके पूरी दुनिया में गूँज उठे थे। पूरी दुनिया के जनमानस को इस क्रान्ति ने कितनी गहराई से प्रभावित किया था, इसका प्रमाण उस समय की पत्र-पत्रिकाओं को देखकर लग जाता है। भारत में भी उस दौर में प्रकाशित पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में रूसी क्रान्ति और सोवियत सत्ता द्वारा किए जा रहे तमाम प्रयोगों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है। समाजवादी व्यवस्था द्वारा सोवियत संघ को उद्योग और कृषि के अभूतपूर्व विकास द्वारा एक अत्यंत पिछड़े, गरीबी से भरे मुल्क को दुनिया के सर्वाधिक विकसित एवं नेतृत्वकारी देश में बदल दिया। सबसे बड़ी बात यह कि जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था से विकसित हुए देशों में विकास का लाभ सिर्फ समाज के एक छोटे हिस्से तक सीमित रहा, वहीं सोवियत संघ में इसका फायदा पूरे समाज को पहुँचा और इससे पूरा सामाजिक जीवन उन्नति के नए शिखर पर पहुँचा। इस क्रान्ति का उद्देश्य सिर्फ आर्थिक गुलामी की बेड़ियों को ही तोड़ना नहीं था बल्कि इसने लूट पर आधारित पुरानी व्यवस्था द्वारा पैदा की गई तमाम सामाजिक बीमारियों (शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, औरतों की गुलामी आदि) पर भी चोट की। इसलिए इसका असर सिर्फ आर्थिक सुविधाओं तक सीमित न रहा बल्कि इसने भारी सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन और उन्नति पैदा की जिसने समाज की उन बुराइयों को भी मिटा दिया जिसे इसके पहले नामुमकिन माना जाता था। इस लेख में हम समाजवादी व्यवस्था की ऐसी ही कुछ उपलब्धियों की चर्चा रेंगे।
    सबसे पहले स्त्रियों की स्थिति को लेते हैं जो सभी शोषण मूलक समाजों में भयंकर शोषण और गैरबराबरी का शिकार रही हैं। रूसी क्रान्ति के बाद इतिहास में सोवियत सत्ता ने पहली बार स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया, इसे न केवल कानूनी धरातल पर बल्कि आर्थिक-राजनैतिक व सामाजिक
धरातल पर भी सम्भव बनाया गया। इतिहास में पहली बार स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से मुक्त किया गया। विवाह, तलाक व सहजीवन जैसे मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया गया। भारी पैमाने पर स्त्रियों की उत्पादन और समस्त आर्थिक-राजनैतिक कार्यवाहियों में बराबरी की भागीदारी सम्भव हुई। स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से आजादी दिलाने के लिए घरेलू कामों का समाजीकरण किया गया। बड़े-बड़े शिशुघर, भोजनालय, लॉण्ड्रियाँ खोली गईं, ताकि स्त्रियाँ घरेलू कामों की गुलामी से मुक्त हो सकें।
    महिलाओं को सोवियत सरकार में महत्वपूर्ण पद भी दिए गए, में भी महिलाओं की पूरी भागीदारी रहती थी। कृषि उद्योग में तो महिलाएँ अग्रणी भूमिका में रहती थीं, बड़े-बड़े हार्वेस्टर और ट्रैक्टर तक महिलाएँ चलाती थीं। एक तरह से कृषि उद्योग महिलाओं पर ही निर्भर था। आँकड़ों की रोशनी में इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि स्त्री मुक्ति की दिशा में कितने कार्य किए गए। 1929 में स्त्री कामगारों की संख्या 30 लाख से बढ़कर 1934 तक 70 लाख हो गई। 1929 में स्त्री कामगारों की संख्या 25 प्रतिशत से बढ़कर 1934 तक 45 प्रतिशत हो गई। शिक्षा के क्षेत्र में इनकी भागीदारी 1930 के दशक तक 35 प्रतिशत से बढ़कर 72 प्रतिशत हो गई।
    नतीजा यह हुआ कि स्त्रियों के जीवन स्तर और उनकी सामाजिक स्थिति के मामले में सिर्फ कुछ वर्षों के भीतर सोवियत रूस ने यूरोप-अमरीका के विकसित पूँजीवादी राष्ट्रों को भी पीछे छोड़ दिया। 1930 के दशक तक रूस में स्त्रियों के सामाजिक हालात बाकी अन्य पूँजीवादी राष्ट्रों से कहीं बहुत
अधिक बेहतर हो चुके थे। इस तरह रूसी क्रान्ति के प्रयोग ने सिद्ध करके दिखाया कि अगर स्त्रियों को घर की चारदीवारी से निकलने का मौका दिया जाए, उन्हें बंधनहीन किया जाए तो वे अत्यंत अविश्वसनीय कारनामे कर सकती हैं।
    रूस में समाजवादी काल के दौरान नशाखोरी और वेश्यावृत्ति जैसी समस्याओं के खिलाफ भी संघर्ष छेड़ा गया और इनको खत्म करने में सफलता भी मिली। इन समस्याओं को खत्म करने में सफलता मिलने का असली कारण यह था कि इन बुराइयों की जड़ निजी मालिकाने पर आधारित ढाँचा क्रान्ति के बाद खत्म कर दिया गया था। पैदावार के साधनों का साझा मालिकाना होने के कारण पैदावार भी पूरे समाज की जरूरत को सामने रखकर की जाती थी न कि कुछ लोगों के मुनाफे के लिए। इसलिए नई बनी सोवियत सरकार द्वारा बनाई गई नीतियाँ भी बहुसंख्यक मेहनतकश जनता को ध्यान में रखकर बनाई जाती थीं न कि मुट्ठीभर लोगों के मुनाफे के लिए।
    इसी क्रम में स्त्रियों के जीवन के बहुत बड़े अभिशाप वेश्यावृत्ति के खिलाफ भारी अभियान छेड़ा गया। अभियान के पहले दौर के पाँच साल के बाद ही, 1928 में, गैर-पेशेवर वेश्यावृत्ति पूरी तरह खत्म हो गई। 25,000 से ज्यादा पेशेवर स्त्रियाँ अस्पतालों से निकल कर सम्मानित नागरिक बन गई थीं। लगभग 3 हजार पेशेवर वेश्याएं अब भी मौजूद थीं। पहले वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेली गईं 80 प्रतिशत से कुछ कम स्त्रियाँ इलाज के बाद अस्पताल से निकलकर उद्योग और खेतों में काम करने के लिए पहुँच चुकी थीं। 40 प्रतिशत से अधिक ‘शॉक ब्रिगेडों’ में काम करने वालों में चली गई या देश के लिए इज्जत वाला काम करके उन्होंने नाम कमाया।
    डायसनकार्टर ने उस वक्त के सोवियत संघ की यात्रा के बाद अपनी किताब ‘पाप और विज्ञान’ में इसका वर्णन इन शब्दों में किया है- “इस तरह व्यभिचार के खिलाफ संघर्ष जो अब ‘गुलामों और पीड़ितों’ का संघर्ष बन गया था। सोवियत जीवन से युगों पुराने व्यभिचार के व्यापार को सदा के लिए मिटा देने में सफल रहा। इस संघर्ष ने यौन-रोगों का भी खात्मा कर दिया। रूस की नई पीढ़ी ने वेश्या को देखा तक नहीं है।”

    नशाखोरी भी समाज में एक बीमारी के रूप में लम्बे समय से मौजूद रही है और बहुत से सरकारी, गैरसरकारी नैतिक व पुलिसिया अभियानों के बावजूद भी मिटाई नहीं जा सकी है। लेकिन रूसी क्रांति के बाद इतिहास में ऐसा सुनहरा दौर भी आया है जब नशाखोरी जैसी सामाजिक बीमारी को लगभग पूरी तरह जड़ से मिटा दिया गया था। यह दौर था रूस का समाजवादी दौर, मानवीय इतिहास का वह समय जब सदियों से लूटे जा रहे सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित हुई। इसने न सिर्फ आर्थिक तरक्की के नए से नए शिखरों को छुआ, बल्कि लूट और मुनाफे पर टिकी व्यवस्था के द्वारा पैदा की गई सामाजिक बीमारियों को भी जड़ से उखाड़ फेंका।
    रूस में अक्तूबर 1917 की क्रान्ति से पहले और बाद में शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, औरतों की खरीद-फरोख्त, भ्रूण हत्या आदि विरोधी लहर की चर्चा अमरीकी पत्रकार डायसनकार्टर की किताब ‘पाप और विज्ञान’ में मिलती है। डायसनकार्टर ने खुद क्रान्ति के बाद रूस में जाकर बदली हुई हालत का
अध्ययन किया था। अक्तूबर क्रान्ति से पहले रूस में शराब आम जीवन का हिस्सा थी। लगभग सारा रूस ही शराब पीता था। सड़कों पर शराब से लड़खड़ाते हुए लोगों को आमतौर से देखा जा सकता था। अक्तूबर 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में मजदूरों की सत्ता कायम हुई। निजी मालिकाने पर आधारित व्यवस्था को खत्म करके समाजवादी व्यवस्था को खड़ा किया गया। लेकिन उस समय रूस में अकाल की हालत थी। लोग अनाज को मण्डी में पहुँचाने की जगह शराब बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे। दूसरा इस तरह बनाई जा रही शराब बहुत जहरीली थी। सोवियत सरकार के लिए सबसे पहले यह जरूरी था कि जहरीली शराब की बिक्री को रोका जाए और अनाज की समस्या को हल किया जाए। सोवियत अधिकारियों ने सबसे पहले यह किया कि आलू से शराब बनाना कानूनी घोषित कर दिया। सोवियत सरकार ने अब तक शराबखोरी के ख्लिफ चली लहरों की मौजूदा रिपोर्टों और जानकारियों का अध्ययन किया। इस जाँच-पड़ताल के दौरान यह सामने आया कि रूस में शराबखोरी की समस्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के साथ जुड़ी हुई है। लोग शराब की तरफ उस समय दौड़ते हैं जब वे अपने आपको गरीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी समस्याओं से घिरा हुआ देखते हैं। उनको अपने दुख-तकलीफों को भूलने का एक ही हल नजर आता था शराब। दूसरा इसको प्रोत्साहन इसलिए दिया जाता था कि सरकार इससे टैक्सों के द्वारा भारी लाभ कमा सके। सरकार की कुल आमदनी का चौथा हिस्सा शराब से ही आता था। इस पूरी समस्या से निपटने के लिए सोवियत सरकार ने जो ठोस कदम उठाये वे थे :-
घरेलू और जहरीली शराब बनाने वालों का सफाया-
    सोवियत अधिकारियों ने घरेलू शराब बनाने वालों को मण्डी से बाहर करने के लिए शराब पर से टैक्स हटा दिया और परचून शराब की कीमत घटा दी। इसके साथ ही ऐसे तथ्य भी प्रकाशित किए गए, जिनसे पता चलता था कि जार सरकार की शराब के व्यापार में कितनी हिस्सेदारी थी। इससे लोग यह समझ गए कि नई बनी सोवियत सरकार शराब से लाभ नहीं कमाना चाहती। शराब की कीमतों में कमी के कारण लोगों में खुशी की लहर थी। डायसनकार्टर के शब्दों में “वह दिन खुद-ब-खुद राष्ट्रीय त्योहार का दिन बन गया था। उस दिन लोगों ने जी भर कर नई, सस्ती, बढ़िया किस्म की वोदका पी। लेकिन इसके साथ ही हुआ यह कि घरेलू और गैरकानूनी शराब बनाने वालों का मुकम्मल सफाया हो गया।”
शराब की बिक्री से सम्बन्धित नियम-
    शराब को सस्ती करने के बाद सोवियत अधिकारियों ने इसकी बिक्री सम्बन्धित कुछ नियम बनाए। ये नियम थे-फैक्टरियों के नजदीक शराब नहीं बेची जाएगी, छुट्टियों और तनख्वाह वाले दिन भी वहाँ शराब नहीं बिकेगी, कोई भी नौजवानों या नशा किए लोगों को शराब बेचेगा तो उसे कड़ी सजा दी जाएगी।
शराबखोरी के खिलाफ प्रचार मुहिम-
    रूस के एक कोने से दूसरे कोने तक नशाखोरी के खिलाफ प्रचार मुहिम चलायी गई। शराबखोरी के खिलाफ इस नई वैज्ञानिक लहर के दौरान लोगों को अल्कोहल से सम्बन्धित बड़े स्पष्ट तरीके से वैज्ञानिक तथ्य बताए गए। उनको बताया गया कि ज्यादा शराब पीने से दिमाग की नसों को गहरा नुकसान पहुँचता है। लोगों को बताया गया कि शराब पीना कोई जरूरी नहीं। यह तथ्य लोगों के लिए सिर्फ भाषण मात्र ही नहीं थे। क्योंकि रूस में अब हालात बदल चुके थे। अब रूस के लोगों को पता था कि उनकी अपनी सत्ता कायम हो चुकी है और उनके द्वारा की गयी पैदावार जागीरदारों और फैक्टरी मालिकों के मुनाफे के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के साझे हितों के लिए हो रही है। इसलिए शरीर पर अल्कोहल के प्रभाव के साथ-साथ लोगों को यह भी बताया गया कि उनके शराब पीने से देश के निर्माण पर क्या प्रभाव पड़ता है। लोगों को शराब छोड़ने के लिए न तो कोई नैतिक उपदेश दिए गए और न ही शराब पीने वालों को पापी के रूप में देखा गया। हाँ, उनको समाज को नुकसान पहुँचाने वालों के रूप में जरूर पेश किया जाता था।
सामाजिक दबाव-
    रूस में ऐसे पियक्कड़ भी थे जिन्होंने सस्ती वोदका की बोतल के लिए शराबखोरी के खिलाफ प्रचार से कान बन्द किए हुए थे। इन पियक्कड़ों के लिए सोवियत अधिकारियों ने सामाजिक दबाव की विधि को अपनाया। जिन जगहों पर शराबखोरी की समस्या गम्भीर थी, उन्हीं जगहों पर शराब-विरोधी केन्द्र कायम किए गए। जब भी कोई ऐसा पियक्कड़ मिलता तो उसे इस केन्द्र में पहुँचाया जाता। अच्छी तरह नहलाकर कुछ दिन तक उसकी देखभाल की जाती और फिर उसका नाम, पता और काम की जगह के बारे जानकारी लेने के बाद छोड़ दिया जाता। फिर जहाँ वह काम करता था, वहाँ की मजदूर सभा को उसकी पूरी रिपोर्ट भेज दी जाती। ऐसे लोगों के साथ निपटने के लिए खास समितियाँ बनाई गई थीं। जब वह शराबी दोबारा काम पर पहुँचता तो उसे स्वागत कर रहे समिति के लोग मिलते जिनके पास शराब की बोतल के साथ उस शराबी का व्यंग्य चित्र होता। शराबी अगर दोबारा अपनी हरकत दोहराता तो उसकी और भी बेइज्जती की जाती। कुछ ज्यादा ही ढीठ शराबियों के खिलाफ सख्त अनुशासन भी लागू किया जाता। यह ढंग बहुत कारगर सिद्ध हुआ क्योंकि अब शराबियों पर पूरा सामाजिक दबाव था।
खाने-पीने की जगहों पर शराब-
    सोवियत मनो-विशेषज्ञों के द्वारा सुझाए गए ढंग के आधार पर खाने-पीने की जगहों में शराब का प्रयोग बढ़ाने के लिए एक लहर चलाई गई। देखने को यह शराब को प्रोत्साहन देने वाला कदम लगता है, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक कारण थे। एक यह कि लोग उन शराब के अड्डों पर शराब पीना छोड़ दें जहाँ सिर्फ शराब ही मिलती थी। क्योंकि खालिस शराब पीना हानिकारक होता है। दूसरा पुराने तजुर्बों से यह साबित हो चुका था कि लोग गरीबी के कारण ही शराब की तरफ भागते थे। उनको शराब और खाने में से किसी एक को चुनना पड़ता था और वह अक्सर शराब को प्राथमिकता देते थे। सोवियत सरकार द्वारा बनाए गए नए कानून के अन्तर्गत शराब सिर्फ ऐसे खाने-पीने के घरों में ही मिलती थी, जहाँ परिवार भोजन करते थे और पूरा घरेलू वातावरण होता था। इससे लोगों के व्यवहार और आदतों में सुधार हुए। लोग अब शराब कम पीते थे, क्योंकि साथ खाना भी खाना होता था। इस ढंग से सोवियत रूस में शराबखोरी काफी तेजी के साथ घटी। इसी तरह वर्ष 1949 की चीनी क्रान्ति ने भी महिलाओं को सड़ी-गली परम्पराओं की बेड़ियों से आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्रान्ति के एक वर्ष बाद 1950 में एक नया विवाह कानून पारित किया गया जिसके अन्तर्गत महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार हासिल हुआ जो उससे पहले केवल पुरुषों को हासिल था। जबरिया कराए जाने वाले विवाह, बहुविवाह, बाल विवाह की प्रथाओं पर रोक लगा दी गई। महिलाओं को अपना पति चुनने व बच्चा पैदा करने या न करने की पूरी आजादी मिली। छोटी बच्चियों के पैर बाँधे जाने जैसी बर्बर प्रथाओं को खत्म किया गया। वेश्यावृत्ति का खात्मा करके इस मानवद्रोही व्यवसाय में लगी महिलाओं को नौकरियों के नए अवसर मुहैया कराए गए। महिलाओं को नुमाइश की वस्तुओं की तरह प्रस्तुत करने वाले विज्ञापन प्रतिबंधित किए गए।
    चीनी क्रान्ति के बाद महिलाएँ पहली बार घर की चहार दीवारियों से निकलकर फैक्ट्रियों व सामूहिक फार्मों में पुरुषों के साथ मिलकर काम करने लगीं। लाखों की संख्या में महिलाएँ लाल सेना में भी शामिल हुईं। यही नहीं, नौजवान स्त्रियों ने खुद को छोटे-छोटे समूहों में संगठित करके निर्माण के ऐसे कामों को अंजाम दिया जिन्हें परम्परागत रूप से पुरुषों के लिए आरक्षित समझा जाता था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में महिलाओं को चूल्हे-चौके और बच्चों की परवरिश की घरेलू दासता से मुक्त करने के लिए सामूहिक भोजनालयों और शिशुशालाओं का ताना-बाना रिहाइश के इलाकों एवं फैक्ट्रियों के निकटवर्ती क्षेत्रों में विकसित किया गया। अब महिलाओं को भी समाजवादी चीन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का पूरा समय मिलने लगा। इन शिशुशालाओं में बच्चों की देखभाल के लिए नियुक्त किए गए लोगों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था। इस तरह के उपक्रमों से महिलाएँ कितने बड़े पैमाने पर घर की चौहद्दियों से निकलकर सामाजिक उत्पादन की दुनिया में शिरकत करने लगीं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1971 तक 90 प्रतिशत चीनी महिलाएँ घरों से बाहर काम कर रही थीं। कामगार महिलाओं को मातृत्व लाभ की सुविधाएँ (जैसे मातृत्व अवकाश, नवजात शिशुओं को स्तनपान के लिए काम के दौरान 40-60 मिनट की छुट्टी) भी उपलब्ध कराई जा रही थीं।
    इस प्रकार हम पाते हैं कि उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व में सामूहिक हितों की पूर्ति के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था ने सोवियत संघ, चीन, आदि समाजवादी मुल्कों को सिर्फ आर्थिक और राजनैतिक शोषण से ही मुक्ति नहीं दिलाई बल्कि उसने मानवीय मर्यादा और समानता के आधार पर जो समाज स्थपित किया उसने बिल्कुल एक नए इंसान का निर्माण किया जिसने स्त्रियों की गुलामी, नशाखोरी और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में भी अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की।
 
-मुकेश असीम
मोबाइल : 09967345125
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

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