
महाराष्ट्र राज्य के बीड जिले में वर्ष 2016 में 200 से अधिक किसानों ने कर्ज न दे पाने के स्थिति में आत्महत्या कर ली और उसी जिले में वर्ष 2017 के शुरूआती छह महीने में अब तक 46 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। पंजाब के चुनाव के बाद मार्च 2017 में बनी कैप्टन अमरिन्दर सिंह की सरकार के अब तक के 50 दिनों के दौर में 50 किसानों ने आत्महत्या कर ली। 18 मई 2017 को भटिंडा और मानसा जिलों में तीन किसानों ने सार्वजनिक स्थल पर आत्महत्या कर ली। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रधानमंत्री तीन वर्ष पूर्व जनसभाओं में घूम-घूमकर स्वामीनाथन रिपोर्ट किसानों के लिए लागू करने की दलील देकर कह रहे थे कि लागत दर से 50 फीसदी अधिक मूल्य देने की व्यवस्था करेंगे परन्तु सुप्रीम कोर्ट में कृषि मंत्रालय की तरफ से दायर प्रमाण पत्र में सरकार ने कहा कि उन्होंने इस प्रकार के वायदे कभी नहीं किये। ग्रामीण जीवन के लोग प्रधानमंत्री से आशा लगाये बैठे हैं कि उनके जनधन के एकाउंट में 15-15 लाख रूपये पहुंचेंगे। दो करोड़ युवतियों और युवकों को हर वर्ष नौकरी मिलेगी। यह सब ऐलान के तीन साल बाद भी आकाश में आकाशबेल के रूप में लटके हुए हैं।
देश के अंदर पिछले ढाई दशकों से आक्रामक रूप से लागू किये जा रहे उदारीकरण-बाजारीकरण की नीति ने ग्रामीण जीवन को तहस-नहस कर डाला। आर्थिक विकास और उपभोग के उपलब्ध सरकारी आंकड़े ये बताते हैं कि शहरी लोगों की तुलना में ग्रामीण लोगों की बुनियादी आर्थिक स्थिति शहरी लोगों के मुकाबले गहरी असमानताओं में फसी पड़ी है। आर्थिक भेदभाव की योजनाओं के बाद भी श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार किसानों से इनकम टैक्स वसूलने का एलान करते हुए झूठे आंकड़े देकर किसानों को आर्थिक रूप में समृद्धि बताकर गलतफहमी पैदा करने में जुटी है। गाँव की जिंदगी इतनी कठिन हो गई है कि लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं। लगभग 9 प्रतिशत की दर से ग्रामीण जीवन के लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। एक और बड़ी त्रासदी यह है कि ग्रामीण युवा भी खेती-किसानी से मुँह मोड़ रहे हैं। अगर यही दौर चलता रहा तथा भूमि सुधार और ग्रामीण विकास दोनों पर संतुलित नजर नहीं रखी गई तो हमारा उत्पादन और उत्पादकता दोनों ही गिर जाएगी और ऐसी हालत में हमारी खाद्य सुरक्षा के सामने संकट और गहरा हो जाएगा।
कृषि जोत क्षेत्र में तेजी से बदलाव
भारत के अंदर कृषि जोत के रकबों में लगातार बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे हैं, यह गहरी चिंता का विषय है। भारत में संयुक्त परिवारों के टूटने और बिखरने और नकारात्मक पूंजीवादी प्रभावों के कारण भूमि बटवारा लगातार गहरा होता चला जाएगा। लगभग 85 फीसदी कृषि जोतों का रकबा छोटा और मझोला है अर्थात भारत सरकार के कृषि जनगणना के अनुसार मार्जिनल किसान के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि, छोटा किसान का मतलब एक से दो हेक्टेयर भूमि का मालिक, सेमीमिडयम दो से चार हेक्टेयर भूमि का मालिक, मध्यम किसान का अर्थ चार से दस हेक्टेयर भूमि पर खेती करने वाला और दस हेक्टेयर से अधिक भूमिधर को बड़े किसान की श्रेणी में रखा गया है। पिछले तीन वर्षों में सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या भाजपा शासित महाराष्ट्र में की है। महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक में जिन किसानों ने आत्महत्या की उनमें एक-तिहाई किसान दस हेक्टेयऱ से अधिक अर्थात बड़े किसान भूमिधर थे। वर्ष 2000 और 2001से लेकर 2010-11 के बीच मार्जिनल भूमिधर किसानों की संख्या-75.41 मिलियन (साढ़े सात करोड़ से अधिक) से बढ़कर 92.83 मिलियन (9 करोड़ से अधिक) हो गई और यह बढ़त लगभग 23 प्रतिशत हुई। छोटे भूमिधरों की संख्या-22.70 मिलियन अर्थात लगभग सवा दो करोड़ से बढ़कर 24.78 मिलियन लगभग दो करोड़ पैतालिस लाख हो गई अर्थात इसमें 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मध्यम भूमिधरों की संख्या-3 प्रतिशत घट गई और इसी प्रकार बड़े भूमिधरों की संख्या 11 प्रतिशत घट गई। सेमी मीडियम भूमिधरों की संख्या-0.7 प्रतिशत बढ़ गई। वर्ष 2010-11 के केन्द्र सरकार के सर्वेक्षण के अनुसार भूमि का क्षेत्रफल विभिन्न प्रकार के भूमिधरों के पास इस प्रकार से है :-
छोटे और मार्जिनल भूमिधरों के पास 44.6 प्रतिशत भूमि सेमी मीडियम और मीडियम भूमिधरों के पास 44.8 प्रतिशत भूमि और बाकी बचा 10.6 प्रतिशत भूमि बड़े भूमिधरों के पास है। उपरोक्त आंकड़ों से यह साफ दिखाई देता है कि मीडियम भूमिधर बहुत तेजी से छोटे और मार्जिनल
भूमिधरों में बदलते जा रहे हैं और इस स्थिति में हाल-फिलहाल कोई उलटा बदलाव दिखाई देना संभव नहीं है। यह अनुमान लगाया जाता है कि भारत के अंदर औसत भूमिधरी आज की स्थिति में 1.15 हेक्टेयर की है और कृषि अर्थशास्त्री यह अनुमान लगा रहे हैं कि वर्ष 2020-21 में यह रकबा घट जाएगा।
कृषि क्षेत्र के विभिन्न फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में हो रहे परिवर्तनों पर बिना गंभीरता से ध्यान दिये और चर्चा किये बगैर हम दुनिया के अन्य देशों से प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाने की दिशा में बढ़त लेने की बात तो दूर हम उनके समकक्ष भी नहीं हो पाएँगे। दूध, कपास के उत्पादन के मामले में दुनिया में हम पहले नंबर पर हैं। लेकिन हमारी उत्पादकता प्रति गाय या भैंस या प्रति हेक्टेयर बहुत कम है। कृषि वैज्ञानिक अनुसंधान और कृषि लागत को घटाकर किसानों के अंदर वैज्ञानिक चेतना बढ़ाकर तथा खेती को लाभकारी बनाकर ही हम अपनी कृषि उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ा सकते हैं। हमें अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण जीवन और कृषि विकास पर लगाना होगा अन्यथा सिकुड़ती कृषि व्यवस्था के कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगार लोगों की फौज सामाजिक जीवन को तहस-नहस कर देगी।
-अतुल कुमार ‘अंजान’
मो0-9811008579
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लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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