हाल
(मई 2018) में भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति
हामिद अंसारी को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ (एएमयूएसयू) की आजीवन
सदस्यता प्रदान कर सम्मानित करने हेतु विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया गया था।
यद्यपि उन्हें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की गई थी परंतु हिन्दू युवा वाहिनी एवं
एबीव्हीपी के प्रदर्शनकारी कार्यकर्ता उस भवन के बहुत नजदीक तक पहुंच गए, जिसमें वे ठहरे थे। यह विरोध प्रदर्शन जिसमें शामिल लोग हथियारों से लैस
थे, कथित तौर पर अंसारी को खुश करने के
लिए जिन्ना की तस्वीर लगाए जाने के विरोध में और यह इस बात पर जोर देने के लिए
किया गया था कि एएमयू से जिन्ना की तस्वीर हटाई जाए। इसके बाद, जैसा कि हमेशा होता है, हिंसा हुई। वाहिनी के कुछ
कार्यकताओं को गिरफ्तार किया गया परन्तु उनमें से अधिकांश को कुछ समय बाद छोड़ दिया
गया। इसके बाद योगी आदित्यनाथ,
जो इस
हिन्दुत्ववादी संगठन के संस्थापक हैं, के
कई बयान आए,
जिनमें यह कहा गया
था कि तस्वीर हटवाई जाएगी। सुब्रमण्यम स्वामी ने सवाल किया कि एएमयू को सबक कौन
सिखाएगा! एएमयू के छात्र, हिन्दू
वाहिनी और
एबीव्हीपी द्वारा की गई हिंसा के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं।
इस
मामले के कई पहलू हैं। पहला यह कि वाहिनी और एबीव्हीपी के हथियारबंद कार्यकर्ता उस
भवन के नजदीक कैसे पहुंच गए,
जिसमें हामिद
अंसारी ठहरे हुए थे। यह उल्लेखनीय है कि अंसारी, जो एक प्रतिष्ठित विद्वान और राजनयिक हैं एवं कई
उच्च पदों पर आसीन रहे हैं,
को अपमानित करने
का कोई मौका छोड़ा नहीं गया है। गणतंत्र दिवस परेड को सलामी न देते हुए उनकी तस्वीर
को यह दिखाने के लिए वायरल किया गया था कि वे गणतंत्र दिवस का अपमान कर रहे हैं।
हालांकि बाद में पता चला उन्होंने जो किया, वह पूरी तरह कायदे के मुताबिक था
क्योंकि केवल राष्ट्रपति ही परेड की सलामी लेते हैं अन्य कोई नहीं। उपराष्ट्रपति
पद से अवकाश ग्रहण करने पर आयोजित विदाई कार्यक्रम में मोदी ने अत्यंत अपमानजनक
ढंग से, संकेतों में कहा कि वे मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर अधिक ध्यान देते थे।
इस तरह, ताजा घटना संघ परिवार द्वारा अंसारी को निशाना बनाए जाने के अभियान की
अगली कड़ी है।
सवाल
यह उठता है कि जिन्ना की तस्वीर का विरोध करने के नाम पर सशस्त्र प्रदर्शनकारियों
का एएमयू परिसर में घुस जाना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह तस्वीर कल लगाई गई थी? यह तस्वीर सन् 1938 से लगी है, जब एएमयू छात्रसंघ ने जिन्ना को छात्रसंघ की
आजीवन सदस्यता प्रदान कर सम्मानित किया था। यह कहा गया कि चूंकि जिन्ना देश के
बंटवारे के लिए जिम्मेदार थे,
इसलिए वे सम्मान
के योग्य नहीं हैं। जिन्ना प्रारंभ में स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे। उन्हें उस
समिति का अध्यक्ष बनाया गया था जो गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से वापिस आने पर उनके
स्वागत के लिए बनाई गई थी। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का मुकदमा लड़ा और यह
उनकी कानूनी प्रतिभा का ही नतीजा था जिससे तिलक सजा-ए-मौत से बच सके। वे नौजवान
क्रांतिकारी भगत सिंह के भी वकील थे और इन सबसे अधिक वे तिलक के साथ
हिन्दू-मुस्लिम एकता गठबंधन (लखनऊ 1916)
में शामिल थे।
भारत कोकिला सरोजनी नायडू ने उन्हें ‘हिन्दू मुस्लिम एकता का संदेशवाहक’ बताया था।
इस
कहानी का दूसरा पहलू भी है। वे सन् 1920 में तब राष्ट्रीय आंदोलन से अलग हो
गए, जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, जो ऐसा पहला आंदोलन था जिसमें सामान्य
भारतीयों ने हिस्सा लिया था। इस आंदोलन ने मानव जाति के इतिहास के सबसे बड़े
जनांदोलन का रूप लिया। जिन्ना एक संविधानवादी थे और उनकी राय थी कि सामान्य लोगों
को अंग्रेजों के विरूद्ध चल रहे संघर्ष से जोड़न अनुचित है। इसी तरह, उन्होंने
खिलाफत आंदोलन में गांधीजी की भूमिका का विरोध किया और धीरे-धीरे उनकी सक्रियता कम
होती गई और अंततः वे वकालत करने लंदन चले गए। दूसरी घटना, जिसने जिन्ना, जो मूलतः धर्मनिरपेक्ष थे, के नजरिए को बदल दिया, वह थी मुस्लिम लीग से उनका
जुड़ना और उसका नेतृत्व संभालना। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को मुसलमानों के
प्रतिनिधि का दर्जा दिया। यह ब्रिटिश
सरकार का सोचा-समझा कदम था क्योंकि मुस्लिम लीग का गठन नवाबों और जमींदारों ने
किया था और उसमें सामंती मूल्य कूट-कूटकर भरे हुए थे। मुस्लिम लीग के नेता के रूप
में उनकी भूमिका और मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र (पाकिस्तान) बनाने संबंधी लाहौर
प्रस्ताव को उनके समर्थन ने उनकी छवि एक साम्प्रदायिक नेता की बना दी। परन्तु केवल
उन्हें ही देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार बताना आधुनिक भारत के इतिहास को
तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना होगा। विभाजन की नींव अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति के माध्यम से रखी थी। विभाजन के पीछे
हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के साम्प्रदायिक तत्व भी थे। सावरकर वे पहले
व्यक्ति थे जिन्होंने कहा था कि भारत में दो राष्ट्र हैं - हिन्दू और मुस्लिम।
दूसरे शब्दों में, भारत हिन्दुओं का देश है इसलिए इसमें मुसलमानों को हिन्दुओं के
अधीन रहना होगा। इसे बाद ही जिन्ना साम्प्रदायिक जाल में फंस गए और उन्होंने तर्क
दिया कि यदि इस देश में दो राष्ट्र हैं तो दो देश क्यों नहीं हो सकते? पाकिस्तान क्यों नहीं बनना चाहिए?
जिन्ना
की कई जीवनियां लिखी गई हैं और उनके कार्यों की कई प्रकार की व्याख्याएं एवं विवेचनाएं
हुईं हैं। पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त, 1947 के भाषण में उन्होंने कहा था कि वहां जनता
अपने-अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र है और राज्य इसमें कोई दखल नहीं
देगा। यह उनकी धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। आडवाणी को अपने
जीवन के उत्तरार्ध में,
बाबरी मस्जिद के
ध्वंस के रूप में धर्मनिरपेक्षता पर सबसे बड़ा प्रहार करने के बाद, यह अहसास हुआ कि जिन्ना
धर्मनिरपेक्ष थे। उन्हें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने की कीमत अपना राजनैतिक
कैरियर खत्म होने के रूप में चुकानी पड़ी और संघ परिवार ने ‘जिन्ना से नफरत करो’ अभियान चलाकर जिन्ना को भारतीय
मुसलमानों और पाकिस्तान का प्रतीक बना दिया।
एएमयू
के घटनाक्रम का इस्तेमाल हिन्दू राष्ट्रवादी एक तीर से कई निशाने साधने में कर रहे
हैं। इनमे से कुछ हैं, हामिद अंसारी,
जिन्हें वे
धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते, को बदनाम कारण। दूसरा, इस मुद्दे का अन्य कई भावनात्मक मुद्दों की तरह
बांटने की राजनीति के लिए इस्तेमाल करना और तीसरा, एएमयू परिसर में हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं
जेएनयू की तरह भय का वातावरण उत्पन्न करना।
यह माना जा सकता है कि जिन्ना, जिन्हें
‘साम्प्रदायिक शरीर में धर्मनिरपेक्ष आत्मा‘ कहा जा
सकता है, हमारे देश में विवादों का विषय बनते रहेंगे और संघ
परिवार एक के बाद एक विभाजित करने वाले मुद्दे उठाता रहेगा।----राम पुनियानी
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