सोमवार, 28 मई 2018

संसदीय राजनीति और उसके नेता

दलित साथियों को स्पष्ट रहना चाहिए कि सुश्री मायावती संसदीय राजनीति कर रही हैं। संसदीय राजनीति में कोई भी नेता जनता का भला नहीं कर सकता है। फिर सुश्री मायावती तो अवसरवाद की राजनीति के लिए उद्भूत नेता हैं। न सुश्री मायावती, न मोदी, न कोई और नेता संसदीय राजनीति से अपनी कौम का कुछ भी भला नहीं कर सकता है। संसदीय राजनीति का गठजोड़ धर्म और पूँजीवाद से होता है इसलिए वह जनता को अज्ञानता में रखता है तथा आपस में बाँटता है। किसी भी संसदीय पार्टी को अपना समझना जनमत को अंधेरे में ढकेलना है। जनता की यह मानसिकता कि अमुक मेरी पार्टी है और इसके सत्ता में रहने से मेरा भला होगा-ही संसदीय पार्टियों और उसके नेताओं की जीत है जबकि सभी पार्टियां और सभी नेता अपनी जाति और अपना धर्म कहकर ख़ास जातियों को बेवकूफ़ बनाती हैं।

अधोलिखित प्रतिक्रिया मेरे उपर्युक्त वक्तव्य को लेकर है। इस प्रतिक्रिया से दलित वैचारिकी की अपरिपक्व शैली देखी जा सकती है। लेखक लिखता क्या है और पाठक समझता क्या है। मैंने जब संसदीय राजनीति की कमियों की तरफ इंगित किया तो मेरे बुद्धिजीवी दलित पाठक ने सर्वप्रथम एक प्रश्न किया जो मेरे लेख से सम्बंधित नहीं है। उसका प्रश्न उसकी मानसिकता के उस स्तर का है जहाँ वह संसदीय राजनीति के इतर और कुछ चिंतन नहीं कर सकता है अथवा अभी तक इससे आगे किसी और स्तर पर सोचा ही नहीं है। उसका प्रश्न है, "क्या आप लोग मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं?" अब इसका क्या जवाब दिया जाय। क्या यह कह दिया जाय कि हां, मैं वोट में विश्वास नहीं रखता हूँ। वैसे भी यह बात सही है कि भारत जैसे देश में जहाँ बूथ कैपचरिंग होती रही है, अब मशीन में ही फ्रॉड कर लिया जाता है, और जनता को जाति और धर्म में गुमराह करके वोट डलवाया जाता है, माफिया अपने आतंक से मानसिक रूप से प्रताड़ित करके वोट ले लेता है, ऐसे में वोट का क्या वैल्यू है? आगे मेरे पाठक ने आरोप लगाया, "ऐसा विश्लेषण जनता को गुमराह करने वाला होता है।" विमर्श को गुमराह कहना अनुचित है। वैसे मैंने संसदीय राजनीति के नेताओं के कमजोरियों की चर्चा की है, न कि किसी खास नेता व खास पार्टी की बुराई की है। ये हैं दलित बुद्धिजीवी। इसीलिए मैं दलित बुद्धिजीवियों को शैशवावस्था का प्राणी कहता हूँ। ये न डॉ. आम्बेडकर को पढ़ते हैं, न डॉ. आम्बेडकर को समझते हैं। इनको "जय भीम" कहने की लत लग गई है। ये दलित खोल से निकलना नहीं चाहते हैं। जब कोई दलित यह कहता है, "लोकतांत्रिक देश में सामाजिक क्रांति के साथ राजनीतिक समझ और उसकी सही दिशा आवश्यक है।" तो इसका सीधा अर्थ यह होता है कि हम संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करते हैं और 'समाजिक क्रांति' की अपेक्षा करते हैं जो संविधान के विपरीत अपराध है। दूसरी बात यह भी कि हम यह भी मानते हैं कि लोकतंत्र ने अभी भी 'राजनीतिक समझ' और 'राजनितिक दिशा' सुनिश्चित नहीं किया है। यह सही है, "भारत मे संवैधानिक अधिकार राजनीतिक रास्तों से ही बने हैं और बचाये जा सकते है।" लेकिन, किसी भी चिंतक को यह बात भली भांति समझ लेना चाहिए कि लोकतंत्र में बहुमत दल किसी भी संवैधानिक अधिकार को बदल सकता है ऐसा अधिकार संविधान किसी भी बहुमत दल की राजनैतिक पार्टी को उपलब्ध कराता है। अभी तक भारतीय संविधान में 99 संसोधन किए जा चुके हैं, वह इसी संविधान और उसकी प्रणाली का ही गुण-अवगुण है। यह भी सही है कि कोई दूसरी पार्टी अस्तित्व में आए तो वह नए कानून बना सकता है जो लोकहित में हो, लेकिन उसकी गारंटी उसके पदच्युत होते ही ख़त्म हो जाती है। इसलिए संसदीय लोकतंत्र में अधिकार बचाने की गारंटी भी अक्षुण नहीं है। कभी-कभी दलित चिंतक इतना स्वार्थी हो जाता है कि वह भी सदियों के संताप की तरह निर्णय ले लेता है और किसी आदर्श की अवहेलना करने लगता है। उसे उच्च नीति-नैतिकता और अदर्श ब्राह्मणों के प्रतिक्रिया में अच्छा ही नहीं लगता है। वह अपने चिंतन में इस तरह मुखरित हो उठता है, "मुझे समझ में नहीं आता है कि आज आदर्शवाद का चोला वो ओढ़ते है जो सदियों से पीड़ित रहे हैं और इतिहास गवाह है कि जो आज पीड़ित है इनके पूर्वजों के आदर्शवाद के कारण ही धन, धान्य और राज चला गया। फिर से उसी आदर्शवाद की तरफ ले जाकर उन्हें हजारो सालों के दल दल मे धकेलने का प्रयास चाहे-अनचाहे न किया जाय तो बेहतर होगा।" दलित ब्राह्मणों के दुराचारी वर्चस्व के कारण इतना पीड़ित है कि वह इनके प्रति बिल्कुल सहिष्णु नहीं होना चाहता है। वह बदला लेना चाहता है। दलित अपने वर्चस्व की स्थिति में खुद ही ब्राह्मण बनना चाहता है और ब्राह्मणों को सदियों तक शूद्र बनाकर प्रताड़ित करना चाहता है, छूत-विचार करना चाहता है। वह भूल जाता है कि ब्राह्मणों ने दलितों के साथ अमानवीयता का व्यवहार जरूर किया था लेकिन अमानवीयता के विरुद्ध मानवीयता ही धर्म है जो धारण करने योग्य होता है। डॉ. आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपना कर महान मानवता का पाठ पढ़ाया था। वे एक व्यक्ति एक मूल्य का सिद्धांत लागू करना चाहते थे। वे लोकतंत्र चाहते थे। वे समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व चाहते थे। वे निजी संपत्ति का उन्मूलन चाहते थे। यह सब एक बड़ा आदर्श है। बिना आदर्शवादी हुए हम ऐसा समाज नहीं निर्मत कर सकेंगे।

इस विश्लेषण से आम लोगों में तर्क की क्षमता पैदा होती है और वे अपने मन की इक्षित बातें इस फ्रंट पर आसानी से रख लेते हैं तथा जनमानस में भी चर्चा करते हैं जिससे राजनीति का यथार्थ और नेताओं के निहितार्थ स्पष्ट होने लगते हैं। मेरे वक्तव्य सिर्फ थीसिस हैं। जनता के पास उसकी एंटी थीसिस मौजूद है जो कालान्तर में सिन्थिसिस बन जाती है। इसलिए किसी भी मतान्तर से डरने की जरूरत नहीं है।

सिर्फ़ एक दलित की फ़ालतू दौलत दिखाने से जातिवाद की कुंठा प्रकट होती है जबकि आवश्यकता है इस तरह के हर पार्टियों के प्रत्येक नेताओं के इनकम के स्रोत को उजागर किया जाय। कांग्रेस के पंडित सुखराम देश के पहले उदाहरण बने। आज सभी नेताओं का लक्ष्य धन-दौलत इकठ्ठा करना है। जाति और धर्म की बात बेईमानी है। वर्तमान राजनीति का चरित्र ही ऐसा है कि कोई भी नेता दुश्चरित्र है। जब हम किसी जाति के नेता पर हमलावर होते हैं तो हम अपनी जाति की कुंठा दिखाते हैं। इस तरह के अप्रोच हमें जातिवादी नफ़रत से निकलने में मदद नहीं करते हैं बल्कि एक दूसरी तरह से हम जातिवाद के शिकार हो जाते हैं। जब भी हम उदहारण दें जातिवाद की झलक न हो। नहीं तो हम पर भी वही तोहमत लग जाएगी। जब हम दूसरों को रास्ता दिखाते हैं तो उससे पूर्व मेरे अंदर से वह गलतियां ख़त्म होनी चाहिए।

जब कोई अतिवादी यह कहता है, "दलित भले ही मायावती संसदीय राजनीति कर रही है लेकिन जिस समाज के लिए कर रही हैं उनमें दृढ़ता और आत्मविश्वास की बृद्धि होती है।" तो वह स्वयं को जातिवाद के फ्रेम में रहकर चिंतन करता है। लेकिन, यदि बाबा साहब के विचारों की पूर्ति पर ध्यान दिया जाता रहे तो आंबेडकरवाद का विजय हो जाएगा और ब्राह्मणवाद की हार निश्चित हो जाती। इससे कितनों का मनोबल ऊंचा होगा? आप को पता होना चाहिए कि अभी भी 27 करोड़ दलित निरक्षर और भूमिहीन हैं। उनके लिए क्या हो रहा है और कौन कर रहा है? जब हम दलितों से इस तरह का संवाद बनाते हैं तो वह सरकार की तरफ से अपने मित्र शक्तियों पर हमलावर हो जाता है। यहाँ भी दलित तर्क शक्ति की जरूरत नज़र आती है। वह कहता है, "यह कहना कि कुछ नहीं हो रहा बेमानी होगी। जिस गाँव से हम तालुक रखते थे, वहाँ पहले सड़क नही थी, स्कूल नहीं था। आज पक्की सड़क है, स्कूल है। आज 27 करोड़ दलित निरक्षर है तो कारण सिर्फ आप हम और वह तमाम लोग हैं जो आगे तो बढ़ गए पर उनकी तरफ मुड़ कर नहीं देखते। गाँव से शहर आकर मकान बनवा लिया। अपने बच्चों को पढ़ा लिया। बस, यही मानसिकता निरक्षरता तो देखता है पर वह निरक्षर क्यों है इसके मूल मे नहीं जाती। अगर हमारे बच्चे साक्षर
हो रहे हैं तो वह निरक्षर न रहें इसके लिए आपका और हमारा योगदान क्या रहा?" जब हम संसदीय राजनीति के असफलता की चर्चा कर रहे हैं तो दलित चिंतक व्यक्तिगत कर्तव्यों पर क्यों आकर टिक जाता है? क्या यह दलित बुद्धिजीविता की कमी के कारण ऐसा सोचता है या तर्क परंपरा में अपनी हेठी समझ कर कुछ भी तर्क देना शुरू कर देता है क्योंकि दलित निरक्षरता का कारण संवैधानिक मसौदा ही है जो दलितों का बौद्धिक वर्ग सोचता ही नहीं है। दलितों का बौद्धिक वर्ग सिर्फ अपने आरक्षण के लिए सतर्क और आंदोलित रहता है।

बहुत से दलित कहते है कि सुश्री मायावती की वजह से दलितों में दृढ़ता और आत्मविश्वास पैदा हुआ है। कोई शक नहीं कि आप और मेरे जैसे दलितों में दृढ़ता और आत्मविश्वास पैदा हुआ है लेकिन 27 करोड़ दलितों में सुश्री की वजह से आत्म विश्वास क्यों नहीं पैदा हुआ? क्या सुश्री मायावती को उनके लिए नहीं कुछ करना चाहिए? मेरा तो बस यह सवाल है कि संसदीय राजनीति में मायावती हो या कोई और सभी अपनी जातियों का बेहतरीन शोषण करते हैं। उनके लिए कोई भी संवैधानिक रास्ता सुनिश्चित करने की तकलीफ़ नहीं उठाते हैं।

दलित विमर्श में हमारे साथी हमलावर होकर पूछते हैं, "आप 27 करोड़ को छोड़ दीजये आप अपने गाँव जाईयेगा केवल अपने नाते रिश्तेदारों को देखियेगा कितने लोग आप की तरह शहर मे मकान बनाने मे सक्षम है, कितने मेदान्ता के कई चक्कर लगाने मे सक्षम है, और अगर नहीं है तो आपका क्या योगदान है कि वह भी सक्षम बनें।" मैं तो आप की इसी बात को उठा रहा हूँ। इसका जवाब हमें ढूढना है इसलिए अनेक राजनीतिक सवालों से टकराना है एवं तर्क पद्धति को विकसित करना है। लेकिन हमारे कई मित्र सवालों के हल खोजने के बजाय मुझसे या मेरे जैसों से भिड़ने की ठान लेते हैं। वहां सोचिए जहाँ से भला होना है। भला तभी किया जा सकता है जब हम उनके लिए क्रांतिकारी सिद्धांत सुनिश्चित कर एक क्रांतिकारी संगठन को विकसित करे। वह संगठन अपने कार्यकर्ताओं के साथ आंदोलन खड़ा कर सरकार को मजबूर कर दे कि शोषित-पीड़ितों के लिए हर आवश्यक भौतिक और नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य संपादित करे।

दलित साथियों का एक सवाल हमेशा तीर-कमान की तरह तैयार रहता है कि बाबा साहब ने क्यों कहा था कि हम को पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, क्योंकि दलित जातियाँ उनकी बात नहीं मान रही थीं और मनमानी कर रही थीं। आज भी दलित जातियाँ बाबा साहब की बात "जातिप्रथा उन्मूलन", "राजकीय समाजवाद", "एक व्यक्ति एक मूल्य", "लोकतंत्र", "आर्य कौन हैं", "पृथक निर्वाचन", "पूना पैक्ट" "संपत्ति का समानीकरण" "समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व" को उनके अनुसार नहीं मानती हैं। अपने-अपने तरह से राजनीति में उलझी हैं। दलित जातियाँ नाम बाबा साहब का जरूर लेती हैं, ब्राह्मणवाद का विरोध जरूर करती हैं लेकिन बाबा साहब की एक भी बात नहीं मानती हैं और न ब्राह्मणवाद के यथार्थ में विरोध ही करती हैं बल्कि दलित जातियाँ स्वयं ही अपने जाति का प्रमाण-पत्र बनवाकर ब्राह्मणवाद को मजबूत करती हैं। कहाँ है जातिवाद का विरोध?

भारत में हर व्यक्ति अपनी ही जाति का भला करने में लगा हुआ है और उसके नेता की राजनीतिक मजबूरी है कि वह जाति के नाते अपनी जाति का भला नहीं कर पाता है। सुश्री मायावती ने अपने ही गुरु रहे मान्यवर कांशीराम साहब के बहुजन के सिद्धांत को सर्वजन वैचारिकी में तब्दील कर दिया तथा स्वीपर को दी जाने वाली नौकरियों को सर्वजन को दे दिया। एससी/एसटी 89 का कानून 2007 में कमजोर कर सर्वजन को मुक्त कर दिया। फिर भी जानता ने अपनी जड़ मजबूत करने के लिए 2007 का चुनाव सुश्री मायावती के पक्ष में जिताया। जनता विमर्श करने का ऑप्शन खुला रखती है लेकिन अपनी ही रेड़ मारने वाले के पक्ष में वोट देती है जिससे उसकी जड़ कमजोर न होने पाए।

कभी-कभी कुछ पूर्वग्राह्युक्त साथी अच्छी बात के साथ असंतुलित बात भी कहते हैं। एक ऐसे ही साथी का मानना है, "जब कोई ये कहता है कि मैं अमुक जाति का नेता हूँ, तब ऐसा लगता है कि वह उस जाति विशेष का सामन्त है और वह जिसका नेता बन रहा है, वह जनता उसका गुलाम।" यह बात बहुत ही खूबसूरत है, बहुत ही तर्क संगत है। किंतु जब वह इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण प्रस्तुत करता है तो उसके अंदर छिपी जातीय संस्कृति का अवशेष दिखाई पड़ने लगता है, जैसे की उसी व्यक्ति के उक्ति से यह बात समझा जा सकता है, " मायावती विकृत मानसिकता से ग्रस्त हैं। इनसे किसी का भी भला नहीं हो सकता है।" सवाल ये है कि अन्य नेता दूध के धुले हैं? जब आप नेताओं की कृतियों की बात कर रहे हैं तो मोदी और योगी को भला कैसे साबित कर सकते है जबकि वे भी इसी संसदीय राजनीति के सिपहसालार हैं? क्या बात है पांडेय जी, आप मोदी और योगी को बहुत आदर सहित उच्चारण कर रहे हैं? यही तो जाति के प्रति मोह है जब आप कहते हैं, " भला मोदी-योगी जी से भी नहीं हो सकता है।" उनके कार्यों को नकारते हुए भी उनके नाम में "जी" शब्द जोड़कर इज्जत बक्सते हैं। किसी भी व्यक्ति व नेता को इज्जत देना बुरी बात नहीं है लेकिन उसी देश, काल, परिस्थिति, पार्टी और राजनीति के किसी दलित को "विकृत" कहें और सवर्ण को "जी" कहकर संबोधित करें तो यह अनजाने ही सही सवर्णीय मानसिकता को प्रदर्शित करता है। संसदीय राजनीति की आलोचना करने वाला निश्चित ही पूँजीवाद विरोधी समाजवादी क्रान्ति का कायल होगा। वह संसदीय राजनीति के नेताओं को सामान रूप से गन्दा मानता है किंतु मनुष्य होने के नाते किसी भी तरह के अपशब्द से बचता है। आप ने लिखा है, "ये संक्रमण काल है।" निश्चित ये संक्रमण काल नहीं है। यह मरणासन्न पूँजीवाद का साम्राज्यवादी काल है। इस काल में अधिकतम मुनाफा कमाना पूँजीपति का उद्देश्य होता है। आप की अगली बात जरूर सत्य है कि, "इस समय कोई नेता नहीं दिख रहा है जो सामान्य जन के हित में कार्य करे।" एक बात और, इस समय सभी नेता अपनी जातियों को बेवकूफ बनाने के लिए पीएचडी करते हैं तथा अन्य कार्यकर्ताओं को भी अपनी जातियों को बेवकूफ बनाने की जुगत ढूढ़ने में लगाए रखते हैं। जनता जाति और धर्म के नशे में धुत उनकी बात मान लेती है। सुश्री मायावती की मानसिकता बिलकुल भी विकृत नहीं है, वह बहुत अच्छी तरह से सोच समझ कर अपने वर्ग के हितों की रक्षा करती है। कोई विकृत मानसिकता का व्यकि ऐसा नहीं कर सकता है।

यह पोलिमिक और वैविध्यपूर्ण और लाभदाई हो जाती है जब कोई साथी यह कहता है कि जाति और धर्म से जुडी बहसें संसाधन के स्वामित्व से जुड़े सवालों और बहसों से जनता का ध्यान डायवर्ट करती हैं जिसका सीधा फायदा पूँजीवादी व्यवस्था को होता है। आम जनता की समस्याएं वैसी की वैसी ही बनी रहती हैं। सवाल सिर्फ जाति के सम्मान और धार्मिक आस्था का नहीं है बल्कि रोटी, रोजगार और लोकतंत्र का है। परंतु दलित साथी हमेशा डॉ. आम्बेडकर, सुश्री मायावती, मा. कांशीराम, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, बसपा और बामसेफ के इर्द-गिर्द ही रहता है। दलितों का मानना है कि यदि संसद पर कब्ज़ा कर लिया जाय तो दलितों की मुक्ति संभव है। ऐसा ही एक साथी का उद्धरण है, "Capture this temple of power for your emancipation." -Dr. B R Ambedkar। उनका वक्तव्य आगे भी है, "ये temple शब्द संसद के लिए ही आया है । स्पष्ट है राजनीति संसदीय ही होगी। पर, पता नही आप कौन सी दुनिया में रहते हैं। लोकतांत्रिक देश है तो संसद तो होगी ही।
वैसे आपने नोट किया होगा कि आप जैसे ही बहन जी के बारे में कोई बकवास लिखते हैं आपके सवर्ण मित्र तुरंत आपकी तारीफ़ शुरू कर देते हैं। बहन जी को मानसिक विकृत तक लिख देते हैं। आपसे पूछना चाहता हूँ जब भी वह शासन चलाती हैं तो आपको मानसिक विकृत लगती हैं क्या? उनके शासन काल में कहीं कोई दंगे की ख़बर ढूंढे नही मिलती, कोई भी व्यक्ति गलत कार्य करे तुरंत कार्यवाही होती है चाहे वो उनकी पार्टी का ही क्यों न हो। अपने ही लोगों को न बक्सना ये शायद आप लोगों की नज़र में मानसिक विकृति होगी। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की बात मानसिक विकृत ही कर सकता है। सलाम आपके लेख को और उन लोगों को भी जिन्होंने आपके लेख में अपने comments के द्वारा चार चांद लगा दिए । डॉ. आम्बेडकर ने "राज्य और अल्पसंख्यक" में लिखा है,

"In parliamentary politics, the majority party is able to change very good views and paragraphs, and this is also a failure of parliamentary politics." उसका हिंदी अनुवाद, "संसदीय राजनीति में बहुमत दल बहुत अच्छे मतों-अनुच्छेदों को बदल सकने का समर्थ रखता है, और यही संसदीय राजनीति का फैल्लुअर भी है।"-डॉ. आम्बेडकर। बहुत सुंदर दिखने वाला यह मंदिर कितने समय तक हमारे हाथों में रह सकता है? क्या उसे हाथों में रखने के लिए हम तानाशाही की तरफ बढ़ेंगे? निष्चित नहीं। फिर क्या करेंगे, कौन सा विकल्प खोजेंगे? डॉ. आम्बेडकर ने "State and minorities" में Vallume-l में पेज न.371 से संविधान का ड्राफ्ट लिखा है जिसे नेहरू और राजेंद्र प्रसाद की कंपनी ने माना ही नहीं-में वास्तविक संविधान का मसौदा लिखा है, को पढ़कर हम अपनी भावनात्मक गलतियों को शुद्ध कर सकते हैं और दलित समाज को वास्तविक परिवर्तन के लिए गाइड कर सकते हैं। सवाल है किसी अन्य साथी की बातों को गहराई से महसूस करने की और यह मानने की कि वह कहीं आप के बराबर अथवा आप से अधिक पढ़ता-लिखता व चिंतन करता है। संविधान सभा का गठन 11.5 उच्च सवर्णों, राजे-रजवाड़ों के वोट से हुआ है। आम जनता का कोई योगदान नहीं था। यह संविधान औपनिवेशिक सत्ता का प्रतिफल है। डॉ. आम्बेडकर साहब की संविधान सभा की स्पीच सुनिए या पढ़िए, आप की ग़लतफ़हमी दूर हो जाएगी। आप की नफ़रत दूर हो जाएगी। डॉ. आम्बेडकर साहब के संविधान का स्वरूप संसदीय नहीं, राजकीय समाजवाद का था लेकिन धूर्तों ने उनके ड्राफ्ट को स्वीकार न करके दलित जातियों को गुमराह कर दिया। संसदीय राजनीति में जीवन-यापन करना एक बात है और संसदीय राजनीति की खामियों को बताना दूसरी बात है। अन्य जातियों की तरह दलितों के अधिकार साथियों को संसदीय राजनीति अच्छी लगती है क्योंकि वह मानता है कि इस देश का संविधान दलितों के मशीहा डॉ. आम्बेडकर ने लिखा है। अब डॉ. आम्बेडकर ने लिखा है तो वह आलोच्य कैसे हो सकता है, वह गलत कैसे हो सकता है। वह संविधान को त्रुटिहीन मानता है। संविधान और संसदीय व्यवस्था दलितों के लिए पूज्य है। जब मैं या कोई अन्य संसदीय व्यवस्था पर चोट करते हैं तो अन्य भारतीय से अधिक दलित तिलमिला उठता है। दलित न डॉ. आम्बेडकर को पढ़ता है, न संविधान को पढ़ता है और न संसदीय व्यवस्था का मतलब ही समझता है। ये सभी चीजें उसके लिए आस्था का विषय हो गई हैं। आस्था में मनुष्य तर्क नहीं करता है। सुश्री मायावती प्रो दलित कहता है कि मैं मायावती के बारे में बकवास लिखता हूँ। अंधश्रद्धा का वह व्यक्ति यह नहीं समझ पाता है कि मायावती एक उदाहरण हैं, बातें तो इस व्यवस्था के सभी नेताओं की हो रही हैं। ये सही बात है कि जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त सवर्ण किसी दलित लेखक के दलित नेताओं पर हमलावर होने से बहुत खुश होते हैं वो इसलिए जब हम अपनी ही जाति के लोगों पर वार करते हैं तो तमाशा देखने वाले और सीटी बजाने वाले ज्यादा मिल जाते हैं।
लेख पर कमेंट्स देखने से पता चलता है कि ये सभी जाति की मानसिकता से ग्रस्त हैं, पर सुश्री मायावती का नाम ले लेने से सभी सवर्ण मानसिकता के साथी भी लेख से सहमत जता रहे हैं । लेकिन, आप यह क्यों भूल जाते हैं कि जो काम सवर्ण कर रहा है वही कार्य करने के लिए आप मुझसे भी अपेक्षा करते हैं। आप भी चाहते हैं कि हम दलितों का ही पक्ष लें जैसे ब्राह्मण ब्राह्मणों का पक्ष लेता है। फिर यही तो जातिवाद है, यही तो जातिप्रथा है। कहाँ है यह आंबेडकरवाद, कहाँ चला गया बुद्ध का दर्शन जिसे आप अप्प दीपो भव कहते हैं, कहाँ गया वैज्ञानिक सत्य जिसे आप वैज्ञानिक कहते हैं, कहाँ गया मानव-मानव का प्रेम जिसे आप मानवतावादी कहते हैं? फिर हम भी भविष्य के बाफले रूप में ब्राह्मण ही तो हैं। वह अन्यायी था हम अन्यायी होना चाहते हैं।

मेरा टिप्पणी उन दलितों के बारे में है जो जातिवादी दृष्टिकोण से काम लेते हैं और मुझे या मेरे जैसे कटु आलोचकों को दलित विरोधी करार देते हैं जबकि हमें एक क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए कार्य करने की जरूरत है। हमें ब्राह्मणवादी झाँसे में आकर अपनी जाति को मजबूत नहीं करना है बल्कि जाति की कमजोर कड़ी को सर्वप्रथम तोडना प्रारंभ करना है।

मुझे आशा और विश्वास है कि आप जातिवादी मानसिकता का विरोध करेंगे। आप जैसे तर्कशील और साहसी व्यक्ति से ही क्रान्ति की उम्मीद है। शेष, न आम्बेडकर को पढ़ते हैं और न उनके सपनों को पूरा करने का उनमें कोई सकल्प ही है। कभी मायावती, तो कभी मेश्राम और कभी भीम आर्मी के चंद्रशेषर उनकी समझ होते हैं। लोग तर्क से नहीं भावना से काम लेते हैं। भावना करुणा का आधार जरूर है लेकिन विज्ञान तर्क की जान है, पद्धति है। बिना विज्ञान व तर्क के करुणा कोरी बकवास सिद्ध होगी। बिल्कुल सही है, बाबा साहब की पुस्तकें आप के घर में होनी चाहिए और उससे भी बड़ी जिम्मेदारी यह है कि आप उन पुस्तकों को पूर्ण रूप से पढ़ डालें। यदि आप ने ऐसा कर लिया है तो आप दलित समाज के बहुत अच्छे प्रवर्तक हैं।

जब भी हम उदहारण दें जातिवाद की झलक न हो। नहीं तो हम पर भी वही तोहमत लग जाएगी। जब हम दूसरों को रास्ता दिखाते हैं तो उससे पूर्व मेरे अंदर से वह गलतियां ख़त्म होनी चाहिए।

सिर्फ़ एक दलित की फ़ालतू दौलत दिखाने से जातिवाद की कुंठा प्रकट होती है जबकि आवश्यकता है इस तरह के हर पार्टियों के प्रत्येक नेताओं के इनकम के स्रोत को उजागर किया जाय। कांग्रेस के पंडित सुखराम देश के पहले उदाहरण बने। आज सभी नेताओं का लक्ष्य धन-दौलत इकठ्ठा करना है। जाति और धर्म की बात बेईमानी है। वर्तमान राजनीति का चरित्र ही ऐसा है कि कोई भी नेता दुश्चरित्र है। जब हम किसी जाति के नेता पर हमलावर होते हैं तो हम अपनी जाति की कुंठा दिखाते हैं। इस तरह के अप्रोच हमें जातिवादी नफ़रत से निकलने में मदद नहीं करते हैं बल्कि एक दूसरी तरह से हम जातिवाद के शिकार हो जाते हैं।

शोषित जनता को व्यवस्था परिवर्तन के लिए एक सक्रिय प्रतिपक्ष बनने के लिए संघर्ष करना चाहिए और जिसके लिए एक जूझारू सतंत्र जन संगठन और क्रन्तिकारी कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है .संसदीय दल या उनके द्वारा बनाये संगठनों से यह काम नहीं हो सकता . शहीद ए आज़म भगत सिंह द्वारा लिखित 'नवजवान सभा की घोषणा पत्र '1926 और ' हिन्दोस्तानी समाजवादी प्रजातान्त्रिक संगठन ISRO की घोषणापत्र '1928 और डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखित 'RPI के संविधान की प्रस्तावना' ,1952 में ऐसी विचार स्पष्ट रूप लिखी हुयी है जिसको मौजूदा दौर के परिप्रेक्ष में देखना होगा. इसके अलावा कई ऐतिहासिक दस्ताबेज है जैसे 'India Mortgaged' (T Nagi Reddy) , जयप्रकाश नारायण की 'सम्पूर्ण क्रांति ' आदि।

"वर्तमान क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा" क्या हो जिसमें दलित डॉ. आम्बेडकर सहित समाहित हों-लिखना उचित होगा। वैसे मैंने भगत सिंह को भी पढ़ा है और कई तरह से विमर्श को प्रस्तुत भी कर चुका हूँ लेकिन दलित है जो डॉ. आम्बेडकर को तो रटता है किन्तु उनकी वाली नहीं करता है। दलित मायावती को नेत्री तो मानता है किंतु उनसे डॉ. आम्बेडकर के सपनों पर तर्क नहीं करता है। अज़ीब है दलित।

जो भी जातिवादी हैं चाहे दलित हों या सवर्ण उन्हें मेरे विचार अच्छे नहीं लगते हैं। दोनों अतिवादी तरह से मेरा विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं। ऐसे लोग न डॉक्टर आम्बेडकर को पढ़ते हैं न मार्क्स को ही लेकिन विद्वान एक नंबर के बनते हैं।

सभी नेता ऐसा ही करते हैं। सुश्री मायावती कोई अलग से नहीं हैं। अलग व्यक्तित्व व समझ हमारी होनी चाहिए क्योंकि क्रान्ति की जरूरत हमारी है, वर्गीय एकता की जरूरत हमको है इसलिए हमें जाति, धर्म, संप्रदाय की खेमेबाजी छोड़कर श्रमिक वर्ग को एक होकर पूँजीवाद व जातिवाद के विरुद्ध लड़ना होगा तथा एक नए समाजवादी संविधान को दृढ़ता पूर्वक लागू करना होगा। इस तरह करने से क्या दलित क्या ब्राह्मण, सभी जातिवादी लोग हमारे विरुद्ध खड़े होकर अनजाने ही पूँजीपतियों का साथ देने लगेंगे क्योंकि ये जनता है और जनता अभी जाति और धर्म के चिंतन से ऊपर नहीं उठ पाई है। यदि हम भी जातिवाद से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं तो हमें भी अपने चिंतन और संस्कृति को डी-कास्ट कर लेना चाहिए।

बहन जी गलत हैं लेकिन मोदी भी संसदीय राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी हैं वे दूध के धुले नहीं हैं। संसदीय राजनीति का कोई भी नेता दूध का धुला नहीं है। जनता की आवाज किसी विशेष पार्टी और नेता के विरुद्ध नहीं, पूरी व्यवस्था के विरुद्ध होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो हम किसी न किसी जाति व जातिवादी पार्टी के पक्ष में हैं।

दलितों की आवाज़ क्या है, जातिप्रथा उन्मूलन अथवा जाति का ध्रुवीकरण कर सत्ता हासिल करना? यदि दलितों की आवाज़ जातिप्रथा उन्मूलन है तो उसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता है और यदि, उसकी आवाज़ सत्ता पर कब्ज़ा करना है तो सुश्री मायावती से बेहतर कोई नहीं सुनता है।

दलित असहमतियाँ मुझे अच्छी लग रही हैं। इससे मैं पुनरचिन्तन करने के लिए बाध्य होऊँगा। मार्क्स ने कहा था, "बहुत सारे दार्शनिकों ने दुनिया की विभिन्न तरह से व्याख्या की है किंतु, सवाल यह है कि दुनिया को बदला कैसे जाय?" यह सवाल आज तक और अभी भी यक्ष प्रश्न की तरह जिन्दा है। डॉ. आम्बेडकर के "The annihilation of caste" के अनुसार जातिप्रथा उन्मूलन किया जाना है। डॉ. आम्बेडकर ने जाति उत्पत्ति की बहुत ही ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए हमें हमारे इतिहास से अवगत करा दिया है। अब जरूरत शेष है जातिप्रथा की दीवार में वैज्ञानिक तौर-तरीकों से कील ठोंकने की। लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि दलित अपने विरोधाभास में जीवित हो उठा है। जैसे उदाहरण के रूप में, जो किसी भी तरह इलीट वर्ग में चले गए उन्हें अब सम्मान चाहिए, इसलिए ब्राह्मणवाद को दोषी मानते हुए ब्राह्मणवाद के जनक पर आक्रामक रहते हैं और शूद-चमार-भंगी कहलवाने से गुरेज करते हैं। ठीक है, मुझे सम्मान का हक़ है। किंतु, वहीं दूसरी ठौर पर दलित जातियाँ शूद-चमार-भंगी बने रहकर वोट की राजनीति भी करना चाहती हैं। एक तरफ जाति उन्हें काटती है और ब्राह्मणों पर जातिप्रथा के प्रवर्तक के रूप में उन्हें जिम्मेदार भी ठहराते हैं दूसरी तरफ जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर स्वयं को चमार, कोरी, धोबी, पासी, धानुक और भंगी साबित भी करते रहते हैं। दलित सवाल यह है कि पहले वह सुनिश्चित कर ले कि वह अपनी जाति पर गर्व करेगा अथवा जातिप्रथा को ख़त्म करने का संघर्ष करते हुए इस अपमान जनक संस्कृति को नेस्तनाबूत करेगा। यदि दलित जाति पर गर्व करता है तो फिर ब्राह्मणों पर भी गर्व करना होगा क्योंकि उसी ने तो हमें इस वर्ण-व्यवस्था में गर्व करने लायक स्थान दिया है। और, यदि नेस्तनाबूत करना है तो यह सवाल मार्क्स का भी था और हमारे प्रिय अन्यतम विद्वान बाबा साहब डॉ. भीम राव आम्बेडकर का भी था, जो किया जाना शेष है।

कुछ साथियों की आदत होती है कि एक अच्छे खासे क्रांतिकारी को भी जाति के दायरे में खड़ा करके उसकी मिट्टी पलीद करने लगते है। सच यह होता है कि ऐसे साथी वैचारिक रूप से चाहते तो अच्छा हैं लेकिन बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से जाति के चिंतन से खुद को बाहर नहीं निकाल पाए हैं। जाने-अनजाने उनमें जातीय अहम् बना हुआ है। जो व्यक्ति अपने को डी-कास्ट नहीं कर पाया है, उससे संबंधित जाति को गाली देने से, वह बौखला उठता है क्योंकि अभी वह अपने को उस जाति का मानता है, चाहे वह चमार हो अथवा ब्राह्मण।

दलितों के अंदर जातिप्रथा-उन्मूलन को विमर्श में उतारना अति आवश्यक है क्योंकि यह दलित ही है जो क्रांतिकारी वर्ग होते हुए भी आरएसएस जैसी विचारधारा में फंसा हुआ है। यह वह वर्ग है जो ब्राह्मणों पर आरोप लगाएगा लेकिन अपनी ही जाति से चिपका रहेगा। खुद ही कम्युनिस्ट नहीं हो पाता है। वेद-पुराण, रामायण और महाभारत पढ़ता है लेकिन मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद नहीं पढ़ता है। क्यों? क्योंकि दलितों को ब्राह्मणवाद से अधिक मार्क्सवाद से डर लगता है। आखिर क्यों? इसलिए कि इसके मस्तिष्क में एक बात आरएसएस ने घुसेड़ दी है कि बाबा साहब मार्क्सवाद नहीं चाहते थे, मार्क्सवाद आंबेडकरवाद विरोधी है। दलित अपना स्वयं का विवेक नहीं लगाता है क्योंकि पढ़ने से डरता है। 1 प्रतिशत दलित भी डॉ. आम्बेडकर की पुस्तकों को नहीं पढ़ा है। कैसे समझेगा? रिसर्च करके देख लीजिए, एक शहर में दस दलितों के घर में डॉ. आम्बेडकर वांगमय निकल जाए तो कहिए। और, यह भी रिसर्च कर लीजिए कि शहर में एक व्यक्ति से अधिक किसी दलित ने बाबा साहब का वांगमय कंप्लीट पढ़ा हो। यहाँ तक कि "जातिप्रथा उन्मूलन" को भी लोग गलती से नहीं पढ़ते हैं। क्या करेंगे।

दलित विद्वान ब्राह्मणों पर आरोप लगाता है कि ब्राह्मण भले प्रगतिशीलता की बात करे, वह भले ही कम्युनिस्ट क्यों न हो, लेकिन वह अपने जाति को नहीं छोड़ता है। सबसे पहले वह हिंदू रहता है, फिर ब्राह्मण होता है तथा बाद में और अंत में, वह प्रगतिशील व कम्युनिस्ट कहलाता है। यह सवाल भारत में सवर्णों पर ही नहीं, सर! अवर्णों पर भी लागू है। हम दलित जब भी सोचते हैं स्वयं को दलित मानकर ही सोचते-लिखते व प्रतिक्रिया देते हैं। हमने स्वयं को डी-कास्ट कहाँ किया है? अन्य जातियों के सापेक्ष छोड़िए, दलितों के मध्य भी हमारा स्वयं का कोरी, चमार, धोबी, पासी, मुसहर की समझ और ऐंठ बना हुआ है। हम प्रथम भी दलित होते हैं और अंततः भी दलित ही बने रहते हैं। हम दलितों के अंदर तो प्रगतिशीलता छू भी नहीं जा रही है। हम ब्राह्मणों को रोज गरियाते हैं लेकिन ब्राह्मणवाद से खुद ही नहीं निकलते हैं और न बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर के "जातिप्रथा उन्मूलन" के निमित्त कार्य ही करते हैं। हमारी एक मानसिकता है कि ब्राह्मण अपनी जाति नहीं त्याग रहा है। अरे दलित मित्रों! हमने भी तो अभी तक अपनी जाति नहीं त्यागी। आखिर क्या कारण है? जबकि दलित जाति तो भारत की सबसे निकृष्ट और घिनौनी जाति मानी जाती है जिस पर हम-आप गौरवान्वित होने लगे हैं और चमारों, कोरियों तथा पासियों का गौरवशाली इतिहास लिखने व पढ़ने लगे हैं। फिर, हम-दलितों ने अभी तक कोई ऐसा विकल्प तैयार किया क्या कि कोई व्यक्ति अपनी जाति त्यागने के बाद कहाँ और कैसे रहे, उसकी संस्कृति और जीवन पद्धति क्या होगी? खुद दलित जातियाँ ऐसे किसी विकल्प के तहत उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए क्या किसी ऐसे अर्थात "जातिविहीन-ब्राह्मणवाद विहीन जीवन पद्धति संघ" में रह रही हैं, जहाँ से दलित बड़े फ़क्र के साथ कह सके कि सुनो ब्राह्मणों! देखो ब्राह्मणों! मैंने ब्राह्मणवाद को लात मार दिया है, मैंने जातिवाद छोड़ दिया है, मैंने तुम्हारे द्वारा बनाई जाति-व्यवस्था की अपनी भी जाति छोड़ दी है।

मेरा काम है अपने विचार लोगों के मध्य रखना, मैंने लिख दिया। अब उन लोगों का काम है उस पर विमर्श करना। वे अपनी मान्यताओं और शिक्षा के स्तर के अनुसार बात रखते हैं। उनकी बातों से अन्य लोग एक्टिव होते हैं। यही उपलब्धि है। अनेक लोग हैं अनेक मत हैं। ईमानदार लोग धीरे-धीरे सत्य तक पहुँच ही जाते हैं। चालाक लोग अपनी ऐंठ में न बात समझ पाते हैं न कुछ कर ही पाते हैं। वे हमेशा धतुआ बने रहने के फ़िराक में रहते हैं। वे हमेशा दूसरों को कमतर समझते हैं। वे हमेशा अपने को ही बेहतर समझते रहते हैं। क्या किया जाय।

आप ने बात सही समझा है। लोगों को मेरे कहे पर यकीन न हो कोई बात नहीं, लेकिन उसकी पुष्टि के लिए आप बाबा साहब के पास तो जाइए, उनकी लिखी पुस्तकें तो पढ़िए और सत्यापित करिए मेरी बात। लेकिन, मेरी बात भी गलत कहेंगे और बाबा साहब की बात जानने की जहमत भी नहीं उठाएंगे।

अरे, कई बार तो ऐसा भी होता है कि साथी लोग सुश्री मायावती जी की तो तरफदारी करते हैं लेकिन सुश्री मायावती जी की सर्वजन वाली बात भी नहीं मानते हैं। जब मायावती जी को ब्राह्मणों से परहेज़ नहीं है तो आप क्यों करैले को और तीता करते हैं।

एक ब्राह्मण साथी ने लिखा है, "जब हम तुम्हें नीच समझते थे तब तुम मेरा सम्मान करते थे और आशा करते थे कि मैं तुमसे प्यार से बोलूँ किन्तु अब जब मैं तुम्हें गले लगाना चाहता हूँ, भेदभाव को छोड़ना चाहता हूँ तो तुम आग मूतना शुरू कर दिए हो और नफ़रत का बीज बो रहे हो। संख्याबल में मुझसे बहुत अधिक होने के बाद भी इतिहास में तुम मुझसे हार गए और मेरे गुलाम बन गए। तुमने अपनी औकात देख ली है। हमने साजिश करके तुम्हारे विरुद्ध न जाने कितनी किताबें लिख डाली और तुम एक किताब नहीं लिख पाए, तुमने अपनी विद्वता भी देख ली है। इसलिए, सहिष्णुता और सामंजस्य बरतों, नहीं तो दुबारा लतियाये गए और गुलाम बनाए गए तो हमारे दरवाजे के सामने निरीह बैठे-बैठे तोते की तरह बस "जय भीम-जय भीम" रटते रहोगे।"

वैसे मुझे इस संबंध में यह कहना है, हम विकास के उस चरण में पहुँच गए हैं कि हमें दुबारा गुलाम बनाना नामुमकिन है। मानसिक विकास का स्तर हमें मरने-मिटने को तैयार कर देगा। हाँ, उसकी यह बात सही है कि हमें रणकौशल अपना कर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व प्राप्त करने की लड़ाई लड़नी चाहिए। ब्राह्मणवाद एक नफ़रत और ऊँच-नीच की संस्कृति है। हमें उसे न मानकर उसको कमजोर कर देना चाहिए लेकिन उसके समर्थकों के आस्था को जातीय आधार पर चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। हमें ब्राह्मण-सवर्ण विरोध नहीं करना चाहिए जिस तरह हम मुस्लिम-इस्लाम विरोध नहीं करते हैं अथवा इस्लाम हिंदू रीति-रिवाज़ों का विरोध उनके मध्य में कहीं नहीं करता है न हिन्दू इस्लाम के मध्य कोई विरोध पैदा करते हैं। वे उनकी नहीं मानते तो वे उनकी नहीं मानते हैं। यह विरोध का नहीं अपनी श्रेष्ठता का मामला है लेकिन दलित है जो यह कहता फिरता है कि ब्राह्मण हमें नीच समझता है। अरे ब्राह्मण के नीच समझने को आप सही क्यों मान लेते हैं, क्यों उसकी बातों से प्रभावित हो जाते हैं? वह तो इस्लाम को भी नीच मानता है तो वह कहाँ अपनी फिलॉसफी बदल लेता है। वह अपने घर में नीच मानता है मानता रहे। मैं उसकी बात नहीं मानता। उससे क्यों अपेक्षा करते हैं कि वह अपने घर मुझे खिलाए-पिलाए, अपने रजाई-गद्दा में सुलाए, अपनी चारपाई पर बैठाए? वो हमें कुर्सी देता है हम उसे कुर्सी दें। वह हमें नीच समझता है, हम भी उसे नीच समझें। किन्तु, जो सवर्ण हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते हैं हम उनसे नफ़रत क्यों करें, उनमें नफ़रत क्यों बोएं? समता पहले विचारों में ही आएगी फिर व्यवहारिक रूप से जातियों के स्तर पर समता लाई जा सकती है परंतु वैमनस्य पैदा करके हम जाति की मानसिकता एवं संस्कृति नहीं ख़त्म कर सकते हैं। प्रगतिशील सवर्णों को साथ लेकर काम करना बुरा नहीं है।

गैर दलित साथी के उस वक्तव्य से हमें अपना मूल्यांकन करना चाहिए। सर्वजन के रूप में हम एक तरफ सुश्री मायावती का पक्ष लेते हैं लेकिन दूसरी तरफ सांस्कृतिक, बौद्धिक और व्यवहारिक तौर पर उन्हीं के दर्शन का विरोध करते हैं। ऐसा क्यों? एक तरफ हम "जय भीम" कहते हुए नहीं थकते तथा बाबा साहब के ग्रेट अनुयायी बनते हैं लेकिन दूसरी तरफ बाबा की मूल विचारधारा समझते ही नहीं, उनकी लिखी पुस्तकें नहीं पढ़ते, यहाँ तक कि बहुत सारे स्तर पर हम बाबा साहब के विरोध में खड़े मिलते हैं। ऐसा क्यों?

आप समझ सकते हैं कि बाबा साहब की मूल विचारधारा न समझने से और वैसा समाज न बनाने से हम सामाजिक विकास में पुनः सदियों-सदियों के लिए पिछड़ जाएंगे।

दलित साथियों को इस विषय पर बहुत गम्भीरता से चिंतन करना पड़ेगा कि वह "जय भीम" रटता हुआ भी बाबा साहब की लिखी बातों को क्यों नहीं मान रहा है? वह सुश्री मायावती के सर्वजन के आधार पर वोट देता हुआ समाज में सर्वजन के सिद्धांत पर क्यों कार्य नहीं करता है? दलितों में अपने मनीषियों का ऑरिजिनल विचार क्यों नहीं फैलता है क्यों अन्य बातों पर अमल करता हुआ गुमराह रहता है? दलित व्यवहारिक तौर पर सवर्णों से चिपका रहता है, जी हुजूरी करता है लेकिन पीठ पीछे उसके विरुद्ध जहर उगला है जबकि होना तह चाहिए कि व्यवहारिक स्तर पर दलितों को सवर्णों का विरोध करना चाहिए किन्तु सैद्धांतिक स्तर पर एक रहने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करना चाहिए। इस तरह असत्य का व्यवहारिक विरोध भी होगा तथा सैद्धांतिक स्तर पर एक करने का विमर्श भी चलेगा।

संसदीय राजनीति के अलावा कौन सा रास्ता है?

समाजवादी राजनीति

---आर डी आनंद






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