संवैधानिक व्यवस्था की शुरूआत की। इसके अन्तर्गत हमारा साझा उद्धेश्य रहा हैः
प्रत्येक भारतीय नागरिक का जीवन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय से परिपूर्ण
हो। इस हेतु विकास की योजनाबद्ध प्रक्रिया के अन्तर्गत राष्ट्रीय आय वृद्धि
द्वारा इन राष्ट्रीय उद्धेश्यों की ओर निरन्तर अग्रसर होने के प्रयासों के सात
दशक पूरे होने वाले हैं। नतीजन आज केे बाजार भावों के आधार पर अनुमानित
राष्ट्रीय आय एक हजार से ज्यादा गुणा बढ़ चुकी हैः अपर्याप्त रूप से संतुलित और
जनहित के नजरिये से उपयुक्तताविहीन। देश की सारी जनसंख्या इस दौरान चार गुणा से
ज्यादा हो चुकी है। केवल शहरी लोगों की संख्या सन् 1950 की देश की सारी आबादी
के बराबर हो चुकी है। आधुनिक संसार की सारी वैज्ञानिक औद्योगिक नियामतें भारत
में कमोबेस मात्रा में देखी जा सकती हैं। किन्तु वास्तविक राष्ट्रीय आय वृद्धि
मात्र तीस गुणा के आसपास का स्तर छू पायी है। विद्यमान स्थिति के ऐसे विविध
पक्षों का संतुलित आकलन दुर्भाग्यवश यह दिखाता है कि घोर गहराती न्यायशून्य
विषमताओं का साया हमारे राष्ट्रीय जीवन के हरेक पहलू पर छाया हुआ है।
सन् 1950 के बाद भारत के आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज प्रक्रिया लोकतांत्रिक
चुनावों द्वारा स्थापित राज्य के निदेशन-नियमन तथा प्रत्यक्ष भूमिका द्वारा
पांच साला विकास की बारह योजनाओं की श्रृंखला तथा बाद में सीधे नवउदारवादी
नीतिगत निजाम के अनुरूप राजकीय तथा काॅरपोरेट इकाईयों के निर्णयों के अनुसार चल
रही है। इस जीडीपी ग्रोथ प्रक्रिया में उत्तराधिकार में मिली तथा नवचयनित
नौकरशाही, स्वतंत्र न्यायपालिका तथा कानूनी ढांचे में स्थापित, संचालित तथा
नियमित अतिकेन्द्रित निजी कम्पनी क्षेत्र की भागीदारी तथा कत्र्ताधत्र्ता
भूमिका के योगदान उल्लेखनीय रहे हैं।
भारत लम्बे अरसे से जड़ता, पर निर्भरता, राष्ट्रीय आत्म-निर्धारण के अभाव तथा
वैश्विक प्रगति से कदमाताल मिलाने में असमर्थ रहा था। अब नवोदित स्वतंत्र भारत
को स्वभाविक है कि समग्र विकास की चुनौती से दो-दो हाथ होना था। सामने मुंह
बाये खडी थी बहुआयामी गैर-बराबरी। इस विषमता के शिकार जनजन के जीवन में अभावों,
कमजोरियां, तिरस्कार आदि का बोलबाला है। विडम्बना यह है कि निराशाजनक संस्थागत
व्यवस्थाओं और अघोषित किन्तु नकारात्मक प्रवृत्तियों का दमघोटू वातावरण और उनकी
विरासत सक्रिय है। ’विकास’ के द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता का पुनर्निमाण और उसमें
तृणमूलीय समुचित भागीदारी मात्र आर्थिक वृद्धि यानी धनी पश्चिमी देशों के
अनुकृतिकारक औद्योगीकरण और मात्रात्मक उत्पादन बढ़ोतरी द्वारा संभव मान लिये
गये। आजादी के जन-आन्दोलन की गौरवशाली परम्परायें और लोकतांत्रिक सुशासन का
समर्थकारी (इनेबलिंग) संविधान, प्रखर जन-चेतना के अनेक आयामों और
महायुद्धोपरान्त उभरती वैश्विक स्थिति की शीत-युद्धरत संभावनाओं और खतरों का
मिलाजुला आलम सभी अप्रत्यक्ष रूप से जीडीपी वृद्धि के इस महाअभियान के संभावित
सहायक निर्धारक तत्त्व माने गये।
देश के अन्दर भी त्रासद राष्ट्र-विभाजन से जुड़ी तथा उत्पन्न विविध स्थितियों और
विदा होते साम्राज्यशाही निजाम के व्यापक नकारात्मक नतीजों की विरासत ने अनेक
समस्याओं का भारी अम्बार लगा दिया। राष्ट्रीय विकास के अनेक अहम् कार्यक्रमों
और नीतियों का जनपक्षीय लोकतांत्रिक निर्धारण और समन्वय न हो पाना, आगत की
पदचाप की भांति, अपना स्याह साया सत्ता-हस्तांतरण के साथ-साथ दिखाने लगे थे।
हमारी दुरावस्था के अन्य कई आयाम भी सक्रिय थे। विभाजित आजाद भारत और
लोकतांत्रिक राष्ट्र को औपनिवेशी, सामन्ती, अर्द्धसामन्ती व्सवस्था के साथ ही
गहरी धार्मिक कट्टरता, विभेद, टकराव तथा उनके दुरूपयोग से उपजे अन्याय का
मुकाबला करना बाकी था। आर्थिक-वित्तीय-व्यापारिक गतिविधियों की संगठित,
अपेक्षाकृत नयी उत्पादन-व्यवस्था अपने वजूद और संचालन पर काबिज आंशिक, पराश्रित,
असंतुलित, आत्मकेन्द्रित लंगड़े पूंजीवादी-काॅरपोरेटी चंगुल में फंसी हुई थी।
ऐसे भावी विकास सरंजामों विहिन अनुपयुक्त औद्योगिक वित्तीय ढांचे तथा अभावों,
अशिक्षा, जर्जर स्वास्थ्य से परेशान श्रम-शक्ति के साथ अर्थव्यवस्था और राजनीति
में दोहरे व्यवहार में पारंगत निजी पूंजी के मुख्य नियंत्रकों प्रबन्धकों को
आर्थिक वृद्धि का राज्य समर्थित नियामित साझा, मिश्रित अधिकार दिया गया।
पारम्परिक, विकेन्द्रित खेती तथा ग्रामीण कामधन्धें ही न्यूनतम मानवीय क्षमताओं,
संसाधनों तथा आधारभूत सार्वजनिक सुविधओं-सेवाओं से वंचित विशाल जन-शक्ति और
सारे राष्ट्र और आम लोगों के जीवनाधार थे। उनकी आन्तरिक शक्ति और क्षमतायें
सुसुप्त और असंगठित थीं। दूसरी ओर, इने-गिने अति-अल्पसंख्यक शीर्षस्थों की
उछालमारती स्व-केन्द्रित महत्त्वकांक्षाओं को एक समन्वित, समतामूलक, साझे विकास
के घोषित आवरण में लपेटकर यथास्थिति समर्थक आर्थिक वृद्धि का अग्रदूत बनाया
गया।
देखा जाये तो राष्ट्रीय आय वृद्धि की धुरी कुल मिलाकर ’आधुनिक तरक्की’ में
सहायक छोटे-से महानगरीय औद्योगिक-वित्तीय, आत्म-केन्द्रित, काॅरपोरेट क्षेत्र
को बनाया गया। यह आधुनिक अतिकेन्द्रित क्षेत्र सामाजिकता, न्यायप्रियता और
पारदर्शी कानूनी व्यवहार के विपरीत आदिम संचयन प्रक्रियाओं में सिद्धहस्त हो
चुका था। किन्तु इस अग्रणीकत्र्ता-धत्र्ता तबके के लिये भी पर्याप्त, उपयुक्त
आधारभूत संरचना और सक्षम, कुशल, प्रेरित तथा कटिबद्ध श्रम, कौशल शक्ति तथा
भौतिक-तकनीकी विकासार्थ आवष्यक संसाधनों का अभाव था। पष्चिम की सफलता, वैभव तथा
प्रभुसत्ता की चमक-दमक और अपनी दुर्दशा का अंधेरा सार्थक सोच पर ग्रहण लगा रहे
थे। योजना और विकास पक्षीय चेतना के संकेत तो थे - किन्तु भारतीय परिस्थितियों
का समुचित आकलन तक अपर्याप्त था - मामूली से शुरूआतों- संकेतों के बावजूदा।
महात्मा गांधी का एक वैकल्पिक ’विजन’, जीवन-दर्शन तो उपलब्ध थे, किन्तु उनको
ठोस, व्यवहारिक, क्रियान्वयनकारी रूप देने के प्रयास लगभग नदारद थे। ’सफल’, ’
सशक्त’, ’साधन-सम्पन्न’ पष्चिम के साम्राज्यवादी वर्चस्व के धनी देश
युद्धोपरान्त नई उभरती वैश्विक परिस्थितियों में अपनी प्रभुसत्ता बचाने, बढ़ाने
की सक्रिय तैयारियां कर रहे थे। उन्हें बड़ी कामयाबी भी मिली।
आजादी के बाद भारत जैसे नवस्वतंत्र, लोकतांत्रिक देशों, के ’अल्पविकास’ को तथा
भावी विकास-पथ को तथाकथित विकास के अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों और नीतियों के
नागपाश में जकड़ दिया गया। तीव्र, सतत राष्ट्रीय आय वृद्धि तथा अनुगामी
औद्योगीकरण के बावजूद पहले से ज्यादा गहरी, कष्टकर, अमानवीय गैर-बराबरी अधिकांश
भारतीयों के मानव-संवैधानिक अधिकारों का हनन कर रहे हैं।
आइये, अगले कुछ पन्नों में हम इस बहुधा-उपेक्षित यथार्थ के चन्द पक्षों पर
विचार करें।
भारत की पहली पंचवर्षीय योजना ने बीसवीं सदी के चार-पांच दशकों के अनेक आर्थिक-
सामाजिक परिवर्तनों की सराहना की। किन्तु साथ में यह भी कहा कि ये परिवर्तन देश
की “संभावनाओं और जरूरतों” की तुलना में “आंशिक और सीमित” थे। आधुनिकता के कुछ
खास पहलूओं का जिक्र भी किया गया। किन्तु निष्कर्ष में यहा कहा गया कि “पिछले
कुछ दशकों के आर्थिक विकास के फलस्वरूप जीवन-स्तर तथा रोजगार के अवसरों में कोई
महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं हो पाया और शायद आमदनी तथा सम्पत्ति की असमानतायें कुछ
अंशों तक और गहराई हैं।”
विदेशी शासन के लम्बे दौर का उपरोक्त आंकलन अपने नरम तथा उदार दृष्टिकोण के
बावजूद भी भारत की, अधिकांश भारतीयों की गंभीर दुर्दशा और चिन्ताजनक स्थिति,
विशेष तौर पर गहराती विषमता से काफी अंशों तक आंखें नहीं मूंद पाया।
सनद रहे यह महत्त्वपूर्ण सरकारी दस्तावेज यह भी कहता है कि वर्तमान हालात में ’
सभी पहलूओं को एक साथ लेकर चलने वाले विकासीय योजनागत’ रास्ते को अपनाने की
जरूरत है। कहा गया कि इस समन्वित नजरिये के अन्तर्गत विभिन्न पहलूओं को अलग-अलग
खांचों में बांटे बगैर आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है।
पहली योजना यह भी मानती है कि एक भिन्न आर्थिक और सामाजिक निजाम की दिशा में
रूपान्तरण की प्रक्रिया में मूलभूत मूल्यों और व्यवहारिक समाधानों को अपनाने और
उन्हें संगत बनाने के लिये तत्पर रहने की जरूरत है। इस तत्परता का स्पष्ट
उल्लेख मिलता है जब यह योजना दस्तावेज कहता है कि एक अल्पविकसित देश को अपने
आर्थिक विकास के लिये यह सीखना पड़ता है कि समाज में उपलब्ध मानवीय तथा भौतिक
संसाधनों से वस्तुओं तथा सेवाओं की वृद्धिमान आपूर्ति कैसे हासिल की जाये। ऐसे
आर्थिक विकास को बौद्धिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक उन्नति का प्रतिफल (
पूर्ववत्र्ती शत्र्त या शुरूआती आधारभूमि नहीं) माना जा सकता है। साफ है ऐसे
त्रिविध विकास से जन-जन को सम्पन्न करना होगा। इस प्रकार पहली योजना के पहले
अध्याय में, कुछ दो मुंही बातों के बीच में आर्थिक वृद्धि यानी जीडीपी ग्रोथ को
विकास की धुरी माना गया है। व्यवहारिकता (प्रेगमेटिज्म) की दुहाई देते हुये इस
दिशा में उतार-चढ़ाव देखते हुये भारत की जीडीपी की मुख्य प्रवृत्ति वृद्धिमान
बनी रही।
आगे चलकर, कई दशकों बाद, सन् 1990 से नवउदारवादी मूलभूत वैचारिक-नीतिगत और
व्यवहारगत पुनर्रचना को स्वीकार करने के बाद भी गाहे-बगाहे समावेशी विकास का
जुमला उछाला जा रहा है। किन्तु भारतीय शासकीय-राजनीतिक तबके अभी भी आर्थिक
वृद्धि के राज्य समर्पित-पोषित काॅरपोरेट-श्रीमंत आर्थिक संवृद्धि का असली पाया,
घुमाफिरा कर, यथावत जीडीपी ग्रोथ को ही ’विकास’ मानते रहते हैं। अनेक तरह के
विभिन्न वैचारिक-नीतिगत और मान्यतामूलक उतार-चढ़ावों तथा चुनौतियों तथा
निराशाजनक नतीजों से आंखें मूंद कर ये शीर्ष वर्चस्वी तबके अभी-भी जीडीपी
वृद्धि की केन्द्रीय भूमिका और स्थिति को यथावत बनाये हुये हैं। आये दिन हर
संभव मंच से जीडीपी की वृद्धि-दर को विकास के रूप में प्रचारित और पोषित किया
जाता है। उसके चरित्र, कत्र्ता-धत्र्ता, संकेन्द्रण तथा उनके कार्यकलापों के
परिणामस्वरूप जन-जन के प्रतिकूलन यानी अधिकांश नागरिकों के दूषित, न्यायहीन
सीमान्त समावेशन को अघोषित रूप लगातार आमजन की अनिवारणीय नियति के रूप में
प्रचारित किया करते हैं।
जीडीपी वृद्धि दर को विकास-विमर्श का समानार्थक, असली-ठोस रूप मानना वास्तव में
’विकास’ के रूप में पूरे आधुनिक काल के, भारत ही नहीं विष्वव्यापी स्तर पर
वर्चस्ववान शक्तियों के निरन्तर बढ़ते प्रभुत्त्व, सम्पन्नता को और ज्यादा
लगातार बढ़ाते रहने का छùनाम और घोषित प्रयास और परिणाम है। यह अनेक सामाजिक,
आर्थिक, तकनीकी, वित्तीय चुनौतियों को नकारते हुए वैश्विक विषमताओं और उनके
वर्तमान अमानवीय स्तर को दृढ़तर बनाने की न्यायविहीन, निर्मम दास्तान है। किस
तरह विष्वव्यापी पूंजीवाद विभिन्न देशों में अपने अलग-अलग संस्करणों के रूप में
साझी मानवीय क्षमताओं, भौतिक संसाधनों, उपकरणों और संभावनाओं पर कुछ अल्पसंख्य
तबकों के वर्चस्व को निरन्तर बढ़ाने के लिए सारे मानव इतिहास को अमानवीय दुखों,
आंसूओं, रक्तपात और शैतानी मूल्यों के सागर में डूबोता रहा है, यह जगजाहिर है।
इसके दो भारतीय संस्करण (एक तो अंग्रेजी राज्य के दौरान और दूसरा, एक मानवीय-
सामाजिक मूल्यों और व्यवस्था की संवैधानिक कवायद के बावजूद पिछले सात दशकों में
130 करोड़ से ज्यादा कागजी नागरिकता सम्पन्न भारतवासियों के जमीनी हालत) इस
कहानी का बखूबी बयान करते हैं। लगातार देश के सरकारी तथा वैश्विक पूंजीवाद के
महारथियों द्वारा, यथास्थिति पोषक वृद्धि रूपी मात्रात्मक ’विकास’ को टुकड़ों-
टुकड़ों में बांटा जा रहा है। अनिश्चित कालान्तर में शीर्षस्थ वैभव तथा पूंजीभूत
शक्ति के अधोगामी प्रवाह द्वारा सभी वंचितों के जीवन में एक अनिश्चित अन्तराल
के बाद कुछ पर - निर्धारित खुशियां बिखेरने का भ्रम परोसने वाले ’विकास-विमर्श’
के तत्त्वावधान में। इस प्रकार राष्ट्रीय आय वृद्धि के तिलस्म के तहत उनके
अतुलनीय गंभीर और सतही पहलूओं और हिस्सों को एक तरह की सतही समानता और
सादृष्यता के आवरण में खड़ा करके कु-विकास और साझे-सह-विकास को एक ही पलडे में
तोला जाता रहा है।
आंकड़ों की बाजीगरी से बचते हुए सन् 2011 की राष्ट्रव्यापी जातिगत सामाजिक-
आर्थिक जनगणना के आंशिक रूप से प्रकाशित तथा शेष को अभी तक छिपाये रखने के
बावजूद कुछ तथ्यों की ओर ध्यान दीजिये। स्पष्ट नजर आता है और किन्हीं अन्य
स्त्रोतों के तथ्यों से ज्यादा रवांटी स्तर पर कि आजादी के तुरन्त बाद मुख्यतः
1950 के दशक के मुकाबले आज की घड़ी तब से तीन गुणा से ज्यादा ग्रामीण
भारतवासियों के परिवार के सबसे कमाऊ सदस्य की आमदनी सन् 2011 तक अभी भी सन्
2011 के कीमत-स्तर पर पांच हजार रूपये प्रतिमाह से कम है। वे आजीविका-साधन तथा
मानवीय न्यूनतम जरूरतों के लिये आवष्यक अपनी नगण्य विरासत के अतिरिक्त आज भी
राज्य तथा समाज द्वारा प्रदत्त न्यूनतम मानवीय सुविधाओं और सेवाओं से वंचित
हैं। दूसरी ओर, विभिन्न प्रकार की विषमताओं की विष-बेल निरन्तर निस्सीम आकाशी
स्तर को पार करती जा रही है। एक अति-लघु अति-सम्पन्न-शक्तिशाली और प्रभावशाली
एक प्रतिशत लोगों ने राज्य, समाज और अर्थव्यवस्था के 60 प्रतिशत के समतुल्य भाग
पर कब्जा जमा रखा है। यह है आधुनिक विकास-भ्रम का मायाजाल।
इस प्रकार की विकट स्थिति के बीच की खाई मापने के बचकाने प्रयास सच्चाई पर
पर्दा डाल रहे हैं। अकूत श्वेत-ष्याम धन और उसके इर्द-गिर्द पसरी धूसर जैसी
मटियाली रंगवाली (ग्रे) राजनीतिक-आर्थिकी पूरी सामाजिक व्यवस्था, मूल्यों और
कानूनी लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को डस रहे हैं। हमारे संविधान के उद्दात
प्रावधानों तथा उच्च आदर्शों और भारतीय संस्कृति में उद्भाषित शाष्वत मूल्यों
और विधानों के आचरण और व्यवहार में सदियों से उनके विपरीत व्याप्त सच्चाई
आधुनिक ग्रोथ, औद्योगीकरण तथा श्वेत-ष्याम राजनीतिक-आर्थिकी की त्रासद सच्चाई
है। अब आधुनिकीकरण, अन्ध उपभोक्तावाद तथा धन-वैभव-शानो-शौकत के रूप में और धूसर,
ग्रे राजनीतिक-आर्थिकी के तहत विषमताभरे हमारे समाज का अधिकाधिक, शर्मनाक
वहशीकरण होता जा रहा है।
जाहिर है अनेक रूपों में जारी भारतीय समाज तथा जन-जीवन की अपने स्थूल तथा गूढ़
अर्थों में चल रही इस भयावह दुखदायी गाथा को समझने और बदलने की जरूरत को
अतिरंजित नहीं किया जा सकता है।
शुरू में ही यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि आजादी के बाद कैसे पहली कौर में
मक्खी के समान कुछ ऐसी शुरूआतें हुईं जिनसे निजात पाना दिनोंदिन मुष्किल होता
जा रहा है। किन अर्थों में सन् 1947 का भारत एक अल्प-विकसित संसार का बड़ा भाग
था और किन दिशाओं में, किन अर्थों में, किन कत्र्ता-धत्र्ता सक्रिय कारकों - के
बलबूते हम स्वयं अपने भाग्य-विधाता बन पाते इनका और इन के पीछे निहित विचारों,
मतों और मान्यताओं और एक नये सर्व-सुखदायी, न्याय और समतामय संसार के सपने की
विशद चर्चा यहां सम्भव नहीं है। किन्तु कुछ मूल तत्त्वों का अति-संक्षिप्त
उल्लेख तो किया ही जा सकता है।
हमारे शासक पश्चिमी साम्राज्यशाही देशों ने अपनी संस्कृतियों, सामाजिक-आर्थिक
वैश्विक व्यवस्था और अपने निजाम, व्यवहार, ’सफलताओं’ को श्रेयस और प्रेयस
आदर्शों के रूप में प्रचारित किया। भारत के अभिजात तबकों में भी इन विचारों और
व्यवहार ने अच्छी-खासी पैंठ जमा ली थी। अधिकांश देशों और लोगों को घोर -
असमानताओं के अंधेरे में धकेलकर पश्चिमी आर्थिक-वित्तीय-भौतिक चमक-दमक के नीचे
दिगभ्रमित कर दिया गया। भारत के शीर्षस्थ तबकों तक को आतंकित-प्रभावित करने में
उन्होंने भारी सफलता हासिल की। वहां के विद्वत्त्व और नेतृत्त्व के सुर में सुर
मिलाते हमारे अधिकांश अभिजात तबकों ने, अपने आपसी मतभेदों के बावजूद, पष्चिम के
अन्धानुकरण-अनुसरण के रूप में, और अधिकांशतः उन्हीं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
तत्त्वावधान में, भावी भारत की उज्ज्वल छवि देखी। “महाजनो येन गतः पंथा” मंत्र
के तहत पश्चिमी औद्योगीकरण, पूंजी-संचयन और आधारभूत संरचना की ओर तेजी से बढ़ने
के लिये राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक योजनायें और नीतियाँ शुरू की गयीं।
इस प्रकार के आर्थिक-राजनीतिक माॅडल के तहत भारत के अति-लघु सम्पत्तिवान कम्पनी
क्षेत्र के नायकों को कागजी समान नागरिकता अधिकार सम्पन्न जनमत द्वारा चुने गये
नेताओं और नूतन गौरवान्वित नौकरशाही के मार्ग-दर्शन, नियमन तथा संरक्षण की
छत्रछाया में लगातार जीडीपी वृद्धि की महती विकासगामी, आधुनिकता-प्रणेता,
कत्र्ताधत्र्ता भूमिका से नवाजा गया।
यह अपने विशाल पटलीय स्वरूप में लुभावना सा माॅडल जमीनी, व्यवसायिक, वैश्विक
थपेड़ों की मार खाते हुए भारत के कुछ अति लघु सम्पन्न-सशक्त तबकों की कानूनी और
मनमानी कारगुजारियों के द्वारा उनकी सफलताओं, उपलब्धियों और समृद्धि की नयी
अट्टालिकायें निर्मित कर रहा है। असंख्य लोगों के अधिकारों, सपनों, आकांक्षाओं
को गहरी नींव में जमीदोज करके आगे की इबादत रचते इस माॅडल के सार-तत्त्व को
भारत के पिछले सात दशकों के विकास इतिहास की असली कहानी माना जा सकता है। सनद
रहे कि जीडीपी वृद्धि के इर्द-गिर्द रचे-रचाये, प्रचारित, थोपे गये ’विकास’ को
एक तकनीकी, तटस्थ, सर्वहितकर, सार्वभौम रूप में निरूपित, उद्भाशित, प्रचारित और
कार्यान्वित किया गया था। इसके अन्तर्गत होता यह है वास्तव में विद्यमान क्रूर
सामाजिक संबंध, और उनके नतीजे, बहुसंख्यकों के प्रयासों और साधनों को कठोर
पथरीली चट्टानों की तरह निष्फल करते जा रहे हैं।
जब दूसरे महायुद्ध के बाद तक प्रचलित साम्राज्यशाही व्यवस्था से धीरे-धीरे आजाद
होकर एक तीसरी दुनिया उभर रही थी, विदा होते साम्राज्यी चालबाज-निपुण और शीत-
युद्ध में निरत पश्चिमी देशों ने एक दूरगामी रणनीति बनायी। भारत जैसे देशों की
सत्तासीन ताकतों को साथ मिलाकर और उनके स्वार्थों और समझ के अनुकूल। उन्होंने
अपनी तात्कालिक समस्याओं के समाधान, आने वाले आर्थिक संकटों के साथ मंदी-गिरावट,
शीतयुद्ध आदि में पैबन्द लगाने और अपने पक्षपाती शक्ति-संतुलन तथा अपने
सांस्कृतिक-तकनीकी-वैचारिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए जीडीपी वृद्धिकारी
औद्योगीकरण के रास्ते पर भारत जैसे देशों को प्रवृत्त-प्रेरित किया। वित्तीय-
तकनीकी तथा जियो-पोलिटिकल मदद करके अपने स्वार्थ साधे। इस तरह भारत की बड़ी
काॅरपोरेट पूंजी के रूप में धनी देशों की प्रभुतासम्पन्न शक्तियों ने यहां अपने
आंतरिक समर्थक पैदा किये।
रूसी कम्युनिस्ट शासक भी भारत जैसे देशों के पूंजी और बाजारवादी शासकों के
सहयोगी बनकर, इन विकास रणनीतियों में सहायक बनकर अपनी राष्ट्रीय वैचारिक हित
साधना में लगे - अपनी मूल वैश्विक समतापोषक जनपक्षीय सैद्धान्तिक-वैचारिक
प्रतिबद्धताओं से व्यवहारिक स्तर पर विचलित होते हुए। यदि साम्यवादी खेमा भारत
की जनविकसोन्मुख, विकेन्द्रित विकास नीति के सहयोगी, उनके स्वदेशी समताकारी
माॅडल के सहायक बनते तो वे एक ही पत्थर से कई शिकार कर पाते। किन्तु पश्चिमी
पूंजीवाद के अनुकृतिकारी विकास के सार-तत्त्व, अर्थात् राजकीय-वित्तीय-तकनीकी
काॅरपोरेटी आर्थिक शक्ति-केन्द्रीकरण को बिना परखे वे उनके प्रतियोगी होना तो
दूर अपना खुद का अस्तित्त्व तक नहीं बचा पाये। भारत में शुरू में मुख्य
वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी आपस में बिखरी साम्यवादी ताकतों के
निरंतर पराभव और विचलन का बेबाक, स्वतंत्र, जनोन्मुख आकलन और विकल्पों का चयन
अभी तक उनके विचारों, संकल्पों और कार्यक्रमों का भाग नहीं बन पाये हैं।
कुल मिलाकर अंग्रेजी राज के दौरान आंशिक सीमा तक सफल किन्तु पर-निर्भर, कमजोर
तथा सच्ची सामाजिक उद्यमिताविहीन अतिअल्पसंख्यक, आत्मकेन्द्रित काॅरपोरेटी
व्यवसायी कुल मिलाकर पष्चिमपरस्त और जन-विमुख बने रहे। वे राज्य के साथ मिश्रित
आर्थिक वृद्धि इंजिन के चालक-संचालक तो बनाये गये, किन्तु वे भारतीय
जनाकांक्षाओं, संसाधनों, भारत की विष्वव्यापी तुलनात्मक स्थिति के विपरीत चलते
हुए अपनी निजी समंद्धि के लिये जीडीपी वृद्धिनुमा निरंतर उर्द्धवगामी, असंतुलित
और गैर-बराबरी बढ़ाने वाली अनुपयुक्त प्रगति के हथियार बन गये। अपने धन-बल, छलबल,
राजकीय नेतृत्त्व से सांठगांठ के आधार पर, घोषित राष्ट्रीय उद्धेश्यों, कानूनी
सामाजिक हितकारी नियमन तथा अपनी शीर्षस्थ वित्तीय-प्रबन्धक भूमिका का गैर-
कानूनी उपयोग और सामाजिक नियमन का उल्लंघन करते हुए ये वर्चस्वी तबके न केवल जन
-विकास बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति की कब्र खोदने वाले तत्त्वों में बदल गये।
आजादी की लड़ाई में दिखाई दिये काॅरपोरेटी तत्त्वों का दो-मुंहा राजनीतिक सहयोग-
सहकार विकृत, जन-विरोधी जीडीपी वृद्धि के स्वार्थान्ध काले धन के सृजन और
संग्रहण के उपकरण में तबदील कर लिया गया। इन क्रूर हालात में उपेक्षित कृषि और
स्थानीय लघु तथा कुटीर उद्योग विकास नीति के अंतरंग, और अग्रगामी पुनर्गठित अंग
नहीं बनाये गये। अपितु यथास्थिति पोषण के साथ-साथ भूमि-सुधार जैसे, कार्यक्रमों
को महज नारेबाजी तक बांधने के सबब बने। राज्य की वित्तीय स्थिति कमजोर बनी रही
क्योंकि उसमें खर्च तथा राजस्व दोनों पक्षों में जनपक्षधारिता का नितांत अभाव
था। पंूजी, सम्पत्ति और शक्ति के समाज-विरोधी निरंतर-वृद्धिमान संकेन्द्रण के
खिलाफ कोई प्रभावी, ईमानदार व्यवस्था नहीं की गयी। भारतीय बड़े-आधुनिक उद्योग,
राजकीय प्रत्यक्ष भागीदारी की मल्हमपट्टी के बावजूद मुख्यतः बाहरी तकनीकों,
सीमित बाजारों तथा काॅरपोरेट कुप्रबंधन तथा हेराफेरी के शिकार बनकर व्यवहारिक
जमीन पर एम.एन.सी. कम्पनियों की ’बी-टीम’ भर रह गये। अर्थव्यवस्था और शक्ति-
सम्पन्नता का अति संकेन्द्रण बढ़ा। गरीबी घटाने के लोकलुभावन नाटक चुनावी
राजनीति के हथकंडे मात्र रह गये। कुल मिलाकर, विगत दशकों में एक दारूण, दयनीय,
दूषित और दीन-हीन विरोधी ’विकास’ धन, फरेब और शारीरिक ताकत-बल पर टिके लोकतंत्र
के तहत भारत का दुर्भाग्य बना। अनेक संघर्षों से प्राप्त स्वराज की यह स्थिति
आजादी के सात साल बाद लिखी दिनकर की कविता “समर शेष है” में अपनी अनूठी भाव-
प्रबलता के साथ व्यक्त की गयी है। दुर्योगवश सत्तर साल बाद भी वैसी ही स्थिति
बदस्तूर जारी है। राजनीति एक सीमित परिवारवादी और लघु-सिंडीकेटी व्प्यवसाय और
कम्पनियाँ लोक-शोषण के हथियार बन गये हैं। राजनीति और आर्थिकी के शिखरों की
व्यवहाररत परस्पर-विलयित व्यवस्था लोकतंत्र तथा जन-विकास के शत्रु बने हुये
हैं।
इस जीवन-मरण जैसे अहम प्रष्न के कुछ विकास-विषयक बिन्दु यहाँ मोटे तौर पर उठाये
गये हैं। ये बताते हैं किस तरह विकास-विमर्श को पूंजी और सत्ता के विलयन का
ग्रहण लील गया है। गहन विषमताओं का काला साया फैलाये देश में चारों ओर खड़ी है
आजीविका विहीनता, अपर्याप्तता, अनिश्चितता और साथ में न्यायहीन व्यवस्था
संचालन। गैर-बराबरी, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, आवासविहीनता, अशिक्षा और कुशिक्षा,
प्रदूषित पर्यावरण, नारी तथा बाल अस्मिता और अल्पसंख्यकों तथा दलितों पर क्रूर
हमलों का सिलसिला, हर किसी जरूरत और अधिकार का निजीकरण-वाणिकीकरण आदि सब मिलकर
जाति, धर्म, भाषा, लिंग आदि विभेदों को बेरहम हवा दे रहे हैं। इन सबके पीछे एक
गंभीर कारक हमारी उत्तराधिकार में मिली तथा लगातार बढ़ती, नजरअंदाज की गयी
बहुमुखी गैर-बराबरी तथा विकास-प्रतिकूलन संस्थायें तथा नीतियां है। इस मूलभूत
राजरोग का बढ़ती, जीडीपी द्वारा इलाज नीम-हकीमी भरा धोखा साबित हो चुका है। इसका
चरम परिणति है नवउदारवादी चालू नीतियों में समानता पोषण का पूर्ण अभाव। चालबाजी,
जालसाजी, जुमलेबाजी भरे लोकलुभाऊ उपाय सैंकड़ो-हजारों विभिन्न छù और घोषित
तरीकों से आम आदमी से उनके जन्मजात और अपरिहार्य हक छीनकर उन्हें कुछ मोटी
नाममात्र की लोकदिखाऊ सुविधायें प्रदान करने का स्वांग भरते हैं। ऐसी नीतियों
का अनन्तकालीन चयन और अनुपालन भी ऐसी विषमता के दानव के सुरसा सरीखे प्रसार को
रोक नहीं सकते हैं।
अतः जनपक्षीय विकास-विमर्श को नवजीवन और गहन सार्थकता प्रदान करना हमारे समय की
सबसे बड़ी चुनौती है।
और अन्त में कुछ खास निष्कर्ष
सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही विभिन्न प्रकार की आपस में एक-दूसरे को बलवती
करती असमानतायें अंग्रेजी शासन के दौरान अत्यधिक गहन, खतरनाक और व्यापक हो गईं।
व्यक्तिगत, पारिवारिक, प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय आय के अपर्याप्त तथा निचले स्तर
को बहुसंख्यक लोगों के लिये निरन्तर अधोगामी गतिशीलता देने का एक सतत सक्रिय
कारण ऐसी बहुमुखी विषमतायें रही हैं। राष्ट्रीय पिछड़ेपन के व्यापक स्तर पर
फैलते प्रभाव, जैसे भुखमरी, अशिक्षा-कुशिक्षा, जर्जर स्वास्थ्य, गरीबी, न्यूनतम
मानवीय आवष्यकता विहीनता तथा कुछ लोगों का उपलब्ध संसाधनों, क्षमताओं, संचालन
व्यवस्था पर गहरा एकाधिकार, उनके द्वारा शेष समाज पर शोषण का अन्यायभरा शिकंजा
(यानी इनका गैर-लोकतांत्रिक स्वरूप) मूलतः बहुआयामी गैर-बराबरी के दुष्प्रभाव
हैं। इस प्रकार देश की निम्नस्तरीय, अस्थिर, असंतुलित, अनुपयुक्त वस्तु-सेवा
तथा क्षेत्रक, उत्पादन-प्रणाली, प्रादेशिक संरचना, आवष्यक वृद्धिदर से नीचे
उनका जड़तामय स्तर भी हमारे यहाँ पसरी गैर-बराबरी की देन है। साथ-ही, संभवतः इस
बदतर होती स्थिति का सबसे ज्यादा गंभीर कारण जनजन को अपने घेरे में बांध रखने
वाली असमनताओं का दुष्चक्र है। देश और समाज के अति-अल्पसंख्यक शीर्षस्थ वैभव-
विलासिता - नाइंसाफी तथा त्रासद आत्म-केन्द्रितता में डूबे समूह इन मूल कारणों
से आंखे चुराते हैं। वे इन स्थितियों, संस्थाओं, मूल्यों, राजकीय तथा सामाजिक
शक्ति-संसाधनों का प्रतिबिम्ब या संकेत विषमता के गर्त में नहीं देखकर उन्हें
राष्ट्रीय आय के कमत्तर, कम गतिशील, नीचे स्तर में खोजते हैं। नतीजन नकारात्मक,
अवांछनीय, असंतुलित आर्थिक-सामाजिक संरचना और नीतियों का दोष राष्ट्रीय आय के
अपेक्षाकृत कमतर और नीची सकल तथा प्रति-व्यक्ति आय के सिर पर मढ़ दिया गया है।
ऐसी ’विकास’ नीति का लब्बोलुआम येन-केन-प्रकारेण राष्ट्रीय आय वृद्धि की तेज
तथा सतत प्रवाहमान गति की ओर बढ़ना बताया जाता है। जाहिर है इसके लिये जिम्मेदार
अन्तर्निहित कारण और उनके दुष्प्रभाव जीडीपी वृद्धि के साथ ही बाजार द्वारा
यथास्थिति को दृढ़तर करते रहने की वजह से दूषित अथवा कुविकास के रूप में प्रकट
होंगे।
उपरोक्त किस्म का भ्रामक और अनिष्टकारी ‘विकास’ या ’आर्थिक संवृद्धि ’विमर्श’
जब तक अपने अपरिवर्तित रूपों में लागू किया जाता है, आम आदमी यानी विभिन्न
विभेदों में ग्रसित जन-जन, अपने संवैधानिक कागजी नागरिक अधिकारों और तथाकथित
स्वतंत्र बाजार व्यवस्था में भागीदारी-विहीन बना रहेगा, उन पर असमानता तथा
कुविकास का साया गहराता जायेगा।
याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को संविधान सभा के अध्यक्ष द्वारा पेश एक न्यूनतम,
शुरूआती कार्यक्रम और संकल्प जो प्रत्येक भारतीय को समग्र राष्ट्रीय विकास में
भागीदारी के लिए सक्षम बनाने की नींव रखने, समता, न्याय, मानवता, बन्धुत्त्व,
सक्रिय भागीदारी आदि की आधारशिलायें प्रस्थापित करने की जरूरी शत्र्त था और अभी
भी है। हम पिछले कुछ पृष्ठों में देख चुके हैं कि इस कार्यक्रम तथा निश्चय को
वास्तविक, व्यवहारिक तथा नीतियों में दरकिनार करके भारत ने पश्चिमी विकास या
आर्थिक वृद्धि अर्थशास्त्र की गिरफ्त में फंसकर, धनी तथा सशक्त अन्य जनों की
बढ़ती हित साधना के लिये सकल राष्ट्रीय आय की तीव्र और सतत यथास्थितिपोषक वृद्धि
का आत्मघाती रास्ता अपना लिया। इस मूलभूत गलत कदम का खामियाजा सारा देश लगातार
भुगत रहा है।
-कमलनयन 'काबरा'
प्रत्येक भारतीय नागरिक का जीवन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय से परिपूर्ण
हो। इस हेतु विकास की योजनाबद्ध प्रक्रिया के अन्तर्गत राष्ट्रीय आय वृद्धि
द्वारा इन राष्ट्रीय उद्धेश्यों की ओर निरन्तर अग्रसर होने के प्रयासों के सात
दशक पूरे होने वाले हैं। नतीजन आज केे बाजार भावों के आधार पर अनुमानित
राष्ट्रीय आय एक हजार से ज्यादा गुणा बढ़ चुकी हैः अपर्याप्त रूप से संतुलित और
जनहित के नजरिये से उपयुक्तताविहीन। देश की सारी जनसंख्या इस दौरान चार गुणा से
ज्यादा हो चुकी है। केवल शहरी लोगों की संख्या सन् 1950 की देश की सारी आबादी
के बराबर हो चुकी है। आधुनिक संसार की सारी वैज्ञानिक औद्योगिक नियामतें भारत
में कमोबेस मात्रा में देखी जा सकती हैं। किन्तु वास्तविक राष्ट्रीय आय वृद्धि
मात्र तीस गुणा के आसपास का स्तर छू पायी है। विद्यमान स्थिति के ऐसे विविध
पक्षों का संतुलित आकलन दुर्भाग्यवश यह दिखाता है कि घोर गहराती न्यायशून्य
विषमताओं का साया हमारे राष्ट्रीय जीवन के हरेक पहलू पर छाया हुआ है।
सन् 1950 के बाद भारत के आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज प्रक्रिया लोकतांत्रिक
चुनावों द्वारा स्थापित राज्य के निदेशन-नियमन तथा प्रत्यक्ष भूमिका द्वारा
पांच साला विकास की बारह योजनाओं की श्रृंखला तथा बाद में सीधे नवउदारवादी
नीतिगत निजाम के अनुरूप राजकीय तथा काॅरपोरेट इकाईयों के निर्णयों के अनुसार चल
रही है। इस जीडीपी ग्रोथ प्रक्रिया में उत्तराधिकार में मिली तथा नवचयनित
नौकरशाही, स्वतंत्र न्यायपालिका तथा कानूनी ढांचे में स्थापित, संचालित तथा
नियमित अतिकेन्द्रित निजी कम्पनी क्षेत्र की भागीदारी तथा कत्र्ताधत्र्ता
भूमिका के योगदान उल्लेखनीय रहे हैं।
भारत लम्बे अरसे से जड़ता, पर निर्भरता, राष्ट्रीय आत्म-निर्धारण के अभाव तथा
वैश्विक प्रगति से कदमाताल मिलाने में असमर्थ रहा था। अब नवोदित स्वतंत्र भारत
को स्वभाविक है कि समग्र विकास की चुनौती से दो-दो हाथ होना था। सामने मुंह
बाये खडी थी बहुआयामी गैर-बराबरी। इस विषमता के शिकार जनजन के जीवन में अभावों,
कमजोरियां, तिरस्कार आदि का बोलबाला है। विडम्बना यह है कि निराशाजनक संस्थागत
व्यवस्थाओं और अघोषित किन्तु नकारात्मक प्रवृत्तियों का दमघोटू वातावरण और उनकी
विरासत सक्रिय है। ’विकास’ के द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता का पुनर्निमाण और उसमें
तृणमूलीय समुचित भागीदारी मात्र आर्थिक वृद्धि यानी धनी पश्चिमी देशों के
अनुकृतिकारक औद्योगीकरण और मात्रात्मक उत्पादन बढ़ोतरी द्वारा संभव मान लिये
गये। आजादी के जन-आन्दोलन की गौरवशाली परम्परायें और लोकतांत्रिक सुशासन का
समर्थकारी (इनेबलिंग) संविधान, प्रखर जन-चेतना के अनेक आयामों और
महायुद्धोपरान्त उभरती वैश्विक स्थिति की शीत-युद्धरत संभावनाओं और खतरों का
मिलाजुला आलम सभी अप्रत्यक्ष रूप से जीडीपी वृद्धि के इस महाअभियान के संभावित
सहायक निर्धारक तत्त्व माने गये।
देश के अन्दर भी त्रासद राष्ट्र-विभाजन से जुड़ी तथा उत्पन्न विविध स्थितियों और
विदा होते साम्राज्यशाही निजाम के व्यापक नकारात्मक नतीजों की विरासत ने अनेक
समस्याओं का भारी अम्बार लगा दिया। राष्ट्रीय विकास के अनेक अहम् कार्यक्रमों
और नीतियों का जनपक्षीय लोकतांत्रिक निर्धारण और समन्वय न हो पाना, आगत की
पदचाप की भांति, अपना स्याह साया सत्ता-हस्तांतरण के साथ-साथ दिखाने लगे थे।
हमारी दुरावस्था के अन्य कई आयाम भी सक्रिय थे। विभाजित आजाद भारत और
लोकतांत्रिक राष्ट्र को औपनिवेशी, सामन्ती, अर्द्धसामन्ती व्सवस्था के साथ ही
गहरी धार्मिक कट्टरता, विभेद, टकराव तथा उनके दुरूपयोग से उपजे अन्याय का
मुकाबला करना बाकी था। आर्थिक-वित्तीय-व्यापारिक गतिविधियों की संगठित,
अपेक्षाकृत नयी उत्पादन-व्यवस्था अपने वजूद और संचालन पर काबिज आंशिक, पराश्रित,
असंतुलित, आत्मकेन्द्रित लंगड़े पूंजीवादी-काॅरपोरेटी चंगुल में फंसी हुई थी।
ऐसे भावी विकास सरंजामों विहिन अनुपयुक्त औद्योगिक वित्तीय ढांचे तथा अभावों,
अशिक्षा, जर्जर स्वास्थ्य से परेशान श्रम-शक्ति के साथ अर्थव्यवस्था और राजनीति
में दोहरे व्यवहार में पारंगत निजी पूंजी के मुख्य नियंत्रकों प्रबन्धकों को
आर्थिक वृद्धि का राज्य समर्थित नियामित साझा, मिश्रित अधिकार दिया गया।
पारम्परिक, विकेन्द्रित खेती तथा ग्रामीण कामधन्धें ही न्यूनतम मानवीय क्षमताओं,
संसाधनों तथा आधारभूत सार्वजनिक सुविधओं-सेवाओं से वंचित विशाल जन-शक्ति और
सारे राष्ट्र और आम लोगों के जीवनाधार थे। उनकी आन्तरिक शक्ति और क्षमतायें
सुसुप्त और असंगठित थीं। दूसरी ओर, इने-गिने अति-अल्पसंख्यक शीर्षस्थों की
उछालमारती स्व-केन्द्रित महत्त्वकांक्षाओं को एक समन्वित, समतामूलक, साझे विकास
के घोषित आवरण में लपेटकर यथास्थिति समर्थक आर्थिक वृद्धि का अग्रदूत बनाया
गया।
देखा जाये तो राष्ट्रीय आय वृद्धि की धुरी कुल मिलाकर ’आधुनिक तरक्की’ में
सहायक छोटे-से महानगरीय औद्योगिक-वित्तीय, आत्म-केन्द्रित, काॅरपोरेट क्षेत्र
को बनाया गया। यह आधुनिक अतिकेन्द्रित क्षेत्र सामाजिकता, न्यायप्रियता और
पारदर्शी कानूनी व्यवहार के विपरीत आदिम संचयन प्रक्रियाओं में सिद्धहस्त हो
चुका था। किन्तु इस अग्रणीकत्र्ता-धत्र्ता तबके के लिये भी पर्याप्त, उपयुक्त
आधारभूत संरचना और सक्षम, कुशल, प्रेरित तथा कटिबद्ध श्रम, कौशल शक्ति तथा
भौतिक-तकनीकी विकासार्थ आवष्यक संसाधनों का अभाव था। पष्चिम की सफलता, वैभव तथा
प्रभुसत्ता की चमक-दमक और अपनी दुर्दशा का अंधेरा सार्थक सोच पर ग्रहण लगा रहे
थे। योजना और विकास पक्षीय चेतना के संकेत तो थे - किन्तु भारतीय परिस्थितियों
का समुचित आकलन तक अपर्याप्त था - मामूली से शुरूआतों- संकेतों के बावजूदा।
महात्मा गांधी का एक वैकल्पिक ’विजन’, जीवन-दर्शन तो उपलब्ध थे, किन्तु उनको
ठोस, व्यवहारिक, क्रियान्वयनकारी रूप देने के प्रयास लगभग नदारद थे। ’सफल’, ’
सशक्त’, ’साधन-सम्पन्न’ पष्चिम के साम्राज्यवादी वर्चस्व के धनी देश
युद्धोपरान्त नई उभरती वैश्विक परिस्थितियों में अपनी प्रभुसत्ता बचाने, बढ़ाने
की सक्रिय तैयारियां कर रहे थे। उन्हें बड़ी कामयाबी भी मिली।
आजादी के बाद भारत जैसे नवस्वतंत्र, लोकतांत्रिक देशों, के ’अल्पविकास’ को तथा
भावी विकास-पथ को तथाकथित विकास के अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों और नीतियों के
नागपाश में जकड़ दिया गया। तीव्र, सतत राष्ट्रीय आय वृद्धि तथा अनुगामी
औद्योगीकरण के बावजूद पहले से ज्यादा गहरी, कष्टकर, अमानवीय गैर-बराबरी अधिकांश
भारतीयों के मानव-संवैधानिक अधिकारों का हनन कर रहे हैं।
आइये, अगले कुछ पन्नों में हम इस बहुधा-उपेक्षित यथार्थ के चन्द पक्षों पर
विचार करें।
भारत की पहली पंचवर्षीय योजना ने बीसवीं सदी के चार-पांच दशकों के अनेक आर्थिक-
सामाजिक परिवर्तनों की सराहना की। किन्तु साथ में यह भी कहा कि ये परिवर्तन देश
की “संभावनाओं और जरूरतों” की तुलना में “आंशिक और सीमित” थे। आधुनिकता के कुछ
खास पहलूओं का जिक्र भी किया गया। किन्तु निष्कर्ष में यहा कहा गया कि “पिछले
कुछ दशकों के आर्थिक विकास के फलस्वरूप जीवन-स्तर तथा रोजगार के अवसरों में कोई
महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं हो पाया और शायद आमदनी तथा सम्पत्ति की असमानतायें कुछ
अंशों तक और गहराई हैं।”
विदेशी शासन के लम्बे दौर का उपरोक्त आंकलन अपने नरम तथा उदार दृष्टिकोण के
बावजूद भी भारत की, अधिकांश भारतीयों की गंभीर दुर्दशा और चिन्ताजनक स्थिति,
विशेष तौर पर गहराती विषमता से काफी अंशों तक आंखें नहीं मूंद पाया।
सनद रहे यह महत्त्वपूर्ण सरकारी दस्तावेज यह भी कहता है कि वर्तमान हालात में ’
सभी पहलूओं को एक साथ लेकर चलने वाले विकासीय योजनागत’ रास्ते को अपनाने की
जरूरत है। कहा गया कि इस समन्वित नजरिये के अन्तर्गत विभिन्न पहलूओं को अलग-अलग
खांचों में बांटे बगैर आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है।
पहली योजना यह भी मानती है कि एक भिन्न आर्थिक और सामाजिक निजाम की दिशा में
रूपान्तरण की प्रक्रिया में मूलभूत मूल्यों और व्यवहारिक समाधानों को अपनाने और
उन्हें संगत बनाने के लिये तत्पर रहने की जरूरत है। इस तत्परता का स्पष्ट
उल्लेख मिलता है जब यह योजना दस्तावेज कहता है कि एक अल्पविकसित देश को अपने
आर्थिक विकास के लिये यह सीखना पड़ता है कि समाज में उपलब्ध मानवीय तथा भौतिक
संसाधनों से वस्तुओं तथा सेवाओं की वृद्धिमान आपूर्ति कैसे हासिल की जाये। ऐसे
आर्थिक विकास को बौद्धिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक उन्नति का प्रतिफल (
पूर्ववत्र्ती शत्र्त या शुरूआती आधारभूमि नहीं) माना जा सकता है। साफ है ऐसे
त्रिविध विकास से जन-जन को सम्पन्न करना होगा। इस प्रकार पहली योजना के पहले
अध्याय में, कुछ दो मुंही बातों के बीच में आर्थिक वृद्धि यानी जीडीपी ग्रोथ को
विकास की धुरी माना गया है। व्यवहारिकता (प्रेगमेटिज्म) की दुहाई देते हुये इस
दिशा में उतार-चढ़ाव देखते हुये भारत की जीडीपी की मुख्य प्रवृत्ति वृद्धिमान
बनी रही।
आगे चलकर, कई दशकों बाद, सन् 1990 से नवउदारवादी मूलभूत वैचारिक-नीतिगत और
व्यवहारगत पुनर्रचना को स्वीकार करने के बाद भी गाहे-बगाहे समावेशी विकास का
जुमला उछाला जा रहा है। किन्तु भारतीय शासकीय-राजनीतिक तबके अभी भी आर्थिक
वृद्धि के राज्य समर्पित-पोषित काॅरपोरेट-श्रीमंत आर्थिक संवृद्धि का असली पाया,
घुमाफिरा कर, यथावत जीडीपी ग्रोथ को ही ’विकास’ मानते रहते हैं। अनेक तरह के
विभिन्न वैचारिक-नीतिगत और मान्यतामूलक उतार-चढ़ावों तथा चुनौतियों तथा
निराशाजनक नतीजों से आंखें मूंद कर ये शीर्ष वर्चस्वी तबके अभी-भी जीडीपी
वृद्धि की केन्द्रीय भूमिका और स्थिति को यथावत बनाये हुये हैं। आये दिन हर
संभव मंच से जीडीपी की वृद्धि-दर को विकास के रूप में प्रचारित और पोषित किया
जाता है। उसके चरित्र, कत्र्ता-धत्र्ता, संकेन्द्रण तथा उनके कार्यकलापों के
परिणामस्वरूप जन-जन के प्रतिकूलन यानी अधिकांश नागरिकों के दूषित, न्यायहीन
सीमान्त समावेशन को अघोषित रूप लगातार आमजन की अनिवारणीय नियति के रूप में
प्रचारित किया करते हैं।
जीडीपी वृद्धि दर को विकास-विमर्श का समानार्थक, असली-ठोस रूप मानना वास्तव में
’विकास’ के रूप में पूरे आधुनिक काल के, भारत ही नहीं विष्वव्यापी स्तर पर
वर्चस्ववान शक्तियों के निरन्तर बढ़ते प्रभुत्त्व, सम्पन्नता को और ज्यादा
लगातार बढ़ाते रहने का छùनाम और घोषित प्रयास और परिणाम है। यह अनेक सामाजिक,
आर्थिक, तकनीकी, वित्तीय चुनौतियों को नकारते हुए वैश्विक विषमताओं और उनके
वर्तमान अमानवीय स्तर को दृढ़तर बनाने की न्यायविहीन, निर्मम दास्तान है। किस
तरह विष्वव्यापी पूंजीवाद विभिन्न देशों में अपने अलग-अलग संस्करणों के रूप में
साझी मानवीय क्षमताओं, भौतिक संसाधनों, उपकरणों और संभावनाओं पर कुछ अल्पसंख्य
तबकों के वर्चस्व को निरन्तर बढ़ाने के लिए सारे मानव इतिहास को अमानवीय दुखों,
आंसूओं, रक्तपात और शैतानी मूल्यों के सागर में डूबोता रहा है, यह जगजाहिर है।
इसके दो भारतीय संस्करण (एक तो अंग्रेजी राज्य के दौरान और दूसरा, एक मानवीय-
सामाजिक मूल्यों और व्यवस्था की संवैधानिक कवायद के बावजूद पिछले सात दशकों में
130 करोड़ से ज्यादा कागजी नागरिकता सम्पन्न भारतवासियों के जमीनी हालत) इस
कहानी का बखूबी बयान करते हैं। लगातार देश के सरकारी तथा वैश्विक पूंजीवाद के
महारथियों द्वारा, यथास्थिति पोषक वृद्धि रूपी मात्रात्मक ’विकास’ को टुकड़ों-
टुकड़ों में बांटा जा रहा है। अनिश्चित कालान्तर में शीर्षस्थ वैभव तथा पूंजीभूत
शक्ति के अधोगामी प्रवाह द्वारा सभी वंचितों के जीवन में एक अनिश्चित अन्तराल
के बाद कुछ पर - निर्धारित खुशियां बिखेरने का भ्रम परोसने वाले ’विकास-विमर्श’
के तत्त्वावधान में। इस प्रकार राष्ट्रीय आय वृद्धि के तिलस्म के तहत उनके
अतुलनीय गंभीर और सतही पहलूओं और हिस्सों को एक तरह की सतही समानता और
सादृष्यता के आवरण में खड़ा करके कु-विकास और साझे-सह-विकास को एक ही पलडे में
तोला जाता रहा है।
आंकड़ों की बाजीगरी से बचते हुए सन् 2011 की राष्ट्रव्यापी जातिगत सामाजिक-
आर्थिक जनगणना के आंशिक रूप से प्रकाशित तथा शेष को अभी तक छिपाये रखने के
बावजूद कुछ तथ्यों की ओर ध्यान दीजिये। स्पष्ट नजर आता है और किन्हीं अन्य
स्त्रोतों के तथ्यों से ज्यादा रवांटी स्तर पर कि आजादी के तुरन्त बाद मुख्यतः
1950 के दशक के मुकाबले आज की घड़ी तब से तीन गुणा से ज्यादा ग्रामीण
भारतवासियों के परिवार के सबसे कमाऊ सदस्य की आमदनी सन् 2011 तक अभी भी सन्
2011 के कीमत-स्तर पर पांच हजार रूपये प्रतिमाह से कम है। वे आजीविका-साधन तथा
मानवीय न्यूनतम जरूरतों के लिये आवष्यक अपनी नगण्य विरासत के अतिरिक्त आज भी
राज्य तथा समाज द्वारा प्रदत्त न्यूनतम मानवीय सुविधाओं और सेवाओं से वंचित
हैं। दूसरी ओर, विभिन्न प्रकार की विषमताओं की विष-बेल निरन्तर निस्सीम आकाशी
स्तर को पार करती जा रही है। एक अति-लघु अति-सम्पन्न-शक्तिशाली और प्रभावशाली
एक प्रतिशत लोगों ने राज्य, समाज और अर्थव्यवस्था के 60 प्रतिशत के समतुल्य भाग
पर कब्जा जमा रखा है। यह है आधुनिक विकास-भ्रम का मायाजाल।
इस प्रकार की विकट स्थिति के बीच की खाई मापने के बचकाने प्रयास सच्चाई पर
पर्दा डाल रहे हैं। अकूत श्वेत-ष्याम धन और उसके इर्द-गिर्द पसरी धूसर जैसी
मटियाली रंगवाली (ग्रे) राजनीतिक-आर्थिकी पूरी सामाजिक व्यवस्था, मूल्यों और
कानूनी लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को डस रहे हैं। हमारे संविधान के उद्दात
प्रावधानों तथा उच्च आदर्शों और भारतीय संस्कृति में उद्भाषित शाष्वत मूल्यों
और विधानों के आचरण और व्यवहार में सदियों से उनके विपरीत व्याप्त सच्चाई
आधुनिक ग्रोथ, औद्योगीकरण तथा श्वेत-ष्याम राजनीतिक-आर्थिकी की त्रासद सच्चाई
है। अब आधुनिकीकरण, अन्ध उपभोक्तावाद तथा धन-वैभव-शानो-शौकत के रूप में और धूसर,
ग्रे राजनीतिक-आर्थिकी के तहत विषमताभरे हमारे समाज का अधिकाधिक, शर्मनाक
वहशीकरण होता जा रहा है।
जाहिर है अनेक रूपों में जारी भारतीय समाज तथा जन-जीवन की अपने स्थूल तथा गूढ़
अर्थों में चल रही इस भयावह दुखदायी गाथा को समझने और बदलने की जरूरत को
अतिरंजित नहीं किया जा सकता है।
शुरू में ही यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि आजादी के बाद कैसे पहली कौर में
मक्खी के समान कुछ ऐसी शुरूआतें हुईं जिनसे निजात पाना दिनोंदिन मुष्किल होता
जा रहा है। किन अर्थों में सन् 1947 का भारत एक अल्प-विकसित संसार का बड़ा भाग
था और किन दिशाओं में, किन अर्थों में, किन कत्र्ता-धत्र्ता सक्रिय कारकों - के
बलबूते हम स्वयं अपने भाग्य-विधाता बन पाते इनका और इन के पीछे निहित विचारों,
मतों और मान्यताओं और एक नये सर्व-सुखदायी, न्याय और समतामय संसार के सपने की
विशद चर्चा यहां सम्भव नहीं है। किन्तु कुछ मूल तत्त्वों का अति-संक्षिप्त
उल्लेख तो किया ही जा सकता है।
हमारे शासक पश्चिमी साम्राज्यशाही देशों ने अपनी संस्कृतियों, सामाजिक-आर्थिक
वैश्विक व्यवस्था और अपने निजाम, व्यवहार, ’सफलताओं’ को श्रेयस और प्रेयस
आदर्शों के रूप में प्रचारित किया। भारत के अभिजात तबकों में भी इन विचारों और
व्यवहार ने अच्छी-खासी पैंठ जमा ली थी। अधिकांश देशों और लोगों को घोर -
असमानताओं के अंधेरे में धकेलकर पश्चिमी आर्थिक-वित्तीय-भौतिक चमक-दमक के नीचे
दिगभ्रमित कर दिया गया। भारत के शीर्षस्थ तबकों तक को आतंकित-प्रभावित करने में
उन्होंने भारी सफलता हासिल की। वहां के विद्वत्त्व और नेतृत्त्व के सुर में सुर
मिलाते हमारे अधिकांश अभिजात तबकों ने, अपने आपसी मतभेदों के बावजूद, पष्चिम के
अन्धानुकरण-अनुसरण के रूप में, और अधिकांशतः उन्हीं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
तत्त्वावधान में, भावी भारत की उज्ज्वल छवि देखी। “महाजनो येन गतः पंथा” मंत्र
के तहत पश्चिमी औद्योगीकरण, पूंजी-संचयन और आधारभूत संरचना की ओर तेजी से बढ़ने
के लिये राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक योजनायें और नीतियाँ शुरू की गयीं।
इस प्रकार के आर्थिक-राजनीतिक माॅडल के तहत भारत के अति-लघु सम्पत्तिवान कम्पनी
क्षेत्र के नायकों को कागजी समान नागरिकता अधिकार सम्पन्न जनमत द्वारा चुने गये
नेताओं और नूतन गौरवान्वित नौकरशाही के मार्ग-दर्शन, नियमन तथा संरक्षण की
छत्रछाया में लगातार जीडीपी वृद्धि की महती विकासगामी, आधुनिकता-प्रणेता,
कत्र्ताधत्र्ता भूमिका से नवाजा गया।
यह अपने विशाल पटलीय स्वरूप में लुभावना सा माॅडल जमीनी, व्यवसायिक, वैश्विक
थपेड़ों की मार खाते हुए भारत के कुछ अति लघु सम्पन्न-सशक्त तबकों की कानूनी और
मनमानी कारगुजारियों के द्वारा उनकी सफलताओं, उपलब्धियों और समृद्धि की नयी
अट्टालिकायें निर्मित कर रहा है। असंख्य लोगों के अधिकारों, सपनों, आकांक्षाओं
को गहरी नींव में जमीदोज करके आगे की इबादत रचते इस माॅडल के सार-तत्त्व को
भारत के पिछले सात दशकों के विकास इतिहास की असली कहानी माना जा सकता है। सनद
रहे कि जीडीपी वृद्धि के इर्द-गिर्द रचे-रचाये, प्रचारित, थोपे गये ’विकास’ को
एक तकनीकी, तटस्थ, सर्वहितकर, सार्वभौम रूप में निरूपित, उद्भाशित, प्रचारित और
कार्यान्वित किया गया था। इसके अन्तर्गत होता यह है वास्तव में विद्यमान क्रूर
सामाजिक संबंध, और उनके नतीजे, बहुसंख्यकों के प्रयासों और साधनों को कठोर
पथरीली चट्टानों की तरह निष्फल करते जा रहे हैं।
जब दूसरे महायुद्ध के बाद तक प्रचलित साम्राज्यशाही व्यवस्था से धीरे-धीरे आजाद
होकर एक तीसरी दुनिया उभर रही थी, विदा होते साम्राज्यी चालबाज-निपुण और शीत-
युद्ध में निरत पश्चिमी देशों ने एक दूरगामी रणनीति बनायी। भारत जैसे देशों की
सत्तासीन ताकतों को साथ मिलाकर और उनके स्वार्थों और समझ के अनुकूल। उन्होंने
अपनी तात्कालिक समस्याओं के समाधान, आने वाले आर्थिक संकटों के साथ मंदी-गिरावट,
शीतयुद्ध आदि में पैबन्द लगाने और अपने पक्षपाती शक्ति-संतुलन तथा अपने
सांस्कृतिक-तकनीकी-वैचारिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए जीडीपी वृद्धिकारी
औद्योगीकरण के रास्ते पर भारत जैसे देशों को प्रवृत्त-प्रेरित किया। वित्तीय-
तकनीकी तथा जियो-पोलिटिकल मदद करके अपने स्वार्थ साधे। इस तरह भारत की बड़ी
काॅरपोरेट पूंजी के रूप में धनी देशों की प्रभुतासम्पन्न शक्तियों ने यहां अपने
आंतरिक समर्थक पैदा किये।
रूसी कम्युनिस्ट शासक भी भारत जैसे देशों के पूंजी और बाजारवादी शासकों के
सहयोगी बनकर, इन विकास रणनीतियों में सहायक बनकर अपनी राष्ट्रीय वैचारिक हित
साधना में लगे - अपनी मूल वैश्विक समतापोषक जनपक्षीय सैद्धान्तिक-वैचारिक
प्रतिबद्धताओं से व्यवहारिक स्तर पर विचलित होते हुए। यदि साम्यवादी खेमा भारत
की जनविकसोन्मुख, विकेन्द्रित विकास नीति के सहयोगी, उनके स्वदेशी समताकारी
माॅडल के सहायक बनते तो वे एक ही पत्थर से कई शिकार कर पाते। किन्तु पश्चिमी
पूंजीवाद के अनुकृतिकारी विकास के सार-तत्त्व, अर्थात् राजकीय-वित्तीय-तकनीकी
काॅरपोरेटी आर्थिक शक्ति-केन्द्रीकरण को बिना परखे वे उनके प्रतियोगी होना तो
दूर अपना खुद का अस्तित्त्व तक नहीं बचा पाये। भारत में शुरू में मुख्य
वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी आपस में बिखरी साम्यवादी ताकतों के
निरंतर पराभव और विचलन का बेबाक, स्वतंत्र, जनोन्मुख आकलन और विकल्पों का चयन
अभी तक उनके विचारों, संकल्पों और कार्यक्रमों का भाग नहीं बन पाये हैं।
कुल मिलाकर अंग्रेजी राज के दौरान आंशिक सीमा तक सफल किन्तु पर-निर्भर, कमजोर
तथा सच्ची सामाजिक उद्यमिताविहीन अतिअल्पसंख्यक, आत्मकेन्द्रित काॅरपोरेटी
व्यवसायी कुल मिलाकर पष्चिमपरस्त और जन-विमुख बने रहे। वे राज्य के साथ मिश्रित
आर्थिक वृद्धि इंजिन के चालक-संचालक तो बनाये गये, किन्तु वे भारतीय
जनाकांक्षाओं, संसाधनों, भारत की विष्वव्यापी तुलनात्मक स्थिति के विपरीत चलते
हुए अपनी निजी समंद्धि के लिये जीडीपी वृद्धिनुमा निरंतर उर्द्धवगामी, असंतुलित
और गैर-बराबरी बढ़ाने वाली अनुपयुक्त प्रगति के हथियार बन गये। अपने धन-बल, छलबल,
राजकीय नेतृत्त्व से सांठगांठ के आधार पर, घोषित राष्ट्रीय उद्धेश्यों, कानूनी
सामाजिक हितकारी नियमन तथा अपनी शीर्षस्थ वित्तीय-प्रबन्धक भूमिका का गैर-
कानूनी उपयोग और सामाजिक नियमन का उल्लंघन करते हुए ये वर्चस्वी तबके न केवल जन
-विकास बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति की कब्र खोदने वाले तत्त्वों में बदल गये।
आजादी की लड़ाई में दिखाई दिये काॅरपोरेटी तत्त्वों का दो-मुंहा राजनीतिक सहयोग-
सहकार विकृत, जन-विरोधी जीडीपी वृद्धि के स्वार्थान्ध काले धन के सृजन और
संग्रहण के उपकरण में तबदील कर लिया गया। इन क्रूर हालात में उपेक्षित कृषि और
स्थानीय लघु तथा कुटीर उद्योग विकास नीति के अंतरंग, और अग्रगामी पुनर्गठित अंग
नहीं बनाये गये। अपितु यथास्थिति पोषण के साथ-साथ भूमि-सुधार जैसे, कार्यक्रमों
को महज नारेबाजी तक बांधने के सबब बने। राज्य की वित्तीय स्थिति कमजोर बनी रही
क्योंकि उसमें खर्च तथा राजस्व दोनों पक्षों में जनपक्षधारिता का नितांत अभाव
था। पंूजी, सम्पत्ति और शक्ति के समाज-विरोधी निरंतर-वृद्धिमान संकेन्द्रण के
खिलाफ कोई प्रभावी, ईमानदार व्यवस्था नहीं की गयी। भारतीय बड़े-आधुनिक उद्योग,
राजकीय प्रत्यक्ष भागीदारी की मल्हमपट्टी के बावजूद मुख्यतः बाहरी तकनीकों,
सीमित बाजारों तथा काॅरपोरेट कुप्रबंधन तथा हेराफेरी के शिकार बनकर व्यवहारिक
जमीन पर एम.एन.सी. कम्पनियों की ’बी-टीम’ भर रह गये। अर्थव्यवस्था और शक्ति-
सम्पन्नता का अति संकेन्द्रण बढ़ा। गरीबी घटाने के लोकलुभावन नाटक चुनावी
राजनीति के हथकंडे मात्र रह गये। कुल मिलाकर, विगत दशकों में एक दारूण, दयनीय,
दूषित और दीन-हीन विरोधी ’विकास’ धन, फरेब और शारीरिक ताकत-बल पर टिके लोकतंत्र
के तहत भारत का दुर्भाग्य बना। अनेक संघर्षों से प्राप्त स्वराज की यह स्थिति
आजादी के सात साल बाद लिखी दिनकर की कविता “समर शेष है” में अपनी अनूठी भाव-
प्रबलता के साथ व्यक्त की गयी है। दुर्योगवश सत्तर साल बाद भी वैसी ही स्थिति
बदस्तूर जारी है। राजनीति एक सीमित परिवारवादी और लघु-सिंडीकेटी व्प्यवसाय और
कम्पनियाँ लोक-शोषण के हथियार बन गये हैं। राजनीति और आर्थिकी के शिखरों की
व्यवहाररत परस्पर-विलयित व्यवस्था लोकतंत्र तथा जन-विकास के शत्रु बने हुये
हैं।
इस जीवन-मरण जैसे अहम प्रष्न के कुछ विकास-विषयक बिन्दु यहाँ मोटे तौर पर उठाये
गये हैं। ये बताते हैं किस तरह विकास-विमर्श को पूंजी और सत्ता के विलयन का
ग्रहण लील गया है। गहन विषमताओं का काला साया फैलाये देश में चारों ओर खड़ी है
आजीविका विहीनता, अपर्याप्तता, अनिश्चितता और साथ में न्यायहीन व्यवस्था
संचालन। गैर-बराबरी, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, आवासविहीनता, अशिक्षा और कुशिक्षा,
प्रदूषित पर्यावरण, नारी तथा बाल अस्मिता और अल्पसंख्यकों तथा दलितों पर क्रूर
हमलों का सिलसिला, हर किसी जरूरत और अधिकार का निजीकरण-वाणिकीकरण आदि सब मिलकर
जाति, धर्म, भाषा, लिंग आदि विभेदों को बेरहम हवा दे रहे हैं। इन सबके पीछे एक
गंभीर कारक हमारी उत्तराधिकार में मिली तथा लगातार बढ़ती, नजरअंदाज की गयी
बहुमुखी गैर-बराबरी तथा विकास-प्रतिकूलन संस्थायें तथा नीतियां है। इस मूलभूत
राजरोग का बढ़ती, जीडीपी द्वारा इलाज नीम-हकीमी भरा धोखा साबित हो चुका है। इसका
चरम परिणति है नवउदारवादी चालू नीतियों में समानता पोषण का पूर्ण अभाव। चालबाजी,
जालसाजी, जुमलेबाजी भरे लोकलुभाऊ उपाय सैंकड़ो-हजारों विभिन्न छù और घोषित
तरीकों से आम आदमी से उनके जन्मजात और अपरिहार्य हक छीनकर उन्हें कुछ मोटी
नाममात्र की लोकदिखाऊ सुविधायें प्रदान करने का स्वांग भरते हैं। ऐसी नीतियों
का अनन्तकालीन चयन और अनुपालन भी ऐसी विषमता के दानव के सुरसा सरीखे प्रसार को
रोक नहीं सकते हैं।
अतः जनपक्षीय विकास-विमर्श को नवजीवन और गहन सार्थकता प्रदान करना हमारे समय की
सबसे बड़ी चुनौती है।
और अन्त में कुछ खास निष्कर्ष
सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही विभिन्न प्रकार की आपस में एक-दूसरे को बलवती
करती असमानतायें अंग्रेजी शासन के दौरान अत्यधिक गहन, खतरनाक और व्यापक हो गईं।
व्यक्तिगत, पारिवारिक, प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय आय के अपर्याप्त तथा निचले स्तर
को बहुसंख्यक लोगों के लिये निरन्तर अधोगामी गतिशीलता देने का एक सतत सक्रिय
कारण ऐसी बहुमुखी विषमतायें रही हैं। राष्ट्रीय पिछड़ेपन के व्यापक स्तर पर
फैलते प्रभाव, जैसे भुखमरी, अशिक्षा-कुशिक्षा, जर्जर स्वास्थ्य, गरीबी, न्यूनतम
मानवीय आवष्यकता विहीनता तथा कुछ लोगों का उपलब्ध संसाधनों, क्षमताओं, संचालन
व्यवस्था पर गहरा एकाधिकार, उनके द्वारा शेष समाज पर शोषण का अन्यायभरा शिकंजा
(यानी इनका गैर-लोकतांत्रिक स्वरूप) मूलतः बहुआयामी गैर-बराबरी के दुष्प्रभाव
हैं। इस प्रकार देश की निम्नस्तरीय, अस्थिर, असंतुलित, अनुपयुक्त वस्तु-सेवा
तथा क्षेत्रक, उत्पादन-प्रणाली, प्रादेशिक संरचना, आवष्यक वृद्धिदर से नीचे
उनका जड़तामय स्तर भी हमारे यहाँ पसरी गैर-बराबरी की देन है। साथ-ही, संभवतः इस
बदतर होती स्थिति का सबसे ज्यादा गंभीर कारण जनजन को अपने घेरे में बांध रखने
वाली असमनताओं का दुष्चक्र है। देश और समाज के अति-अल्पसंख्यक शीर्षस्थ वैभव-
विलासिता - नाइंसाफी तथा त्रासद आत्म-केन्द्रितता में डूबे समूह इन मूल कारणों
से आंखे चुराते हैं। वे इन स्थितियों, संस्थाओं, मूल्यों, राजकीय तथा सामाजिक
शक्ति-संसाधनों का प्रतिबिम्ब या संकेत विषमता के गर्त में नहीं देखकर उन्हें
राष्ट्रीय आय के कमत्तर, कम गतिशील, नीचे स्तर में खोजते हैं। नतीजन नकारात्मक,
अवांछनीय, असंतुलित आर्थिक-सामाजिक संरचना और नीतियों का दोष राष्ट्रीय आय के
अपेक्षाकृत कमतर और नीची सकल तथा प्रति-व्यक्ति आय के सिर पर मढ़ दिया गया है।
ऐसी ’विकास’ नीति का लब्बोलुआम येन-केन-प्रकारेण राष्ट्रीय आय वृद्धि की तेज
तथा सतत प्रवाहमान गति की ओर बढ़ना बताया जाता है। जाहिर है इसके लिये जिम्मेदार
अन्तर्निहित कारण और उनके दुष्प्रभाव जीडीपी वृद्धि के साथ ही बाजार द्वारा
यथास्थिति को दृढ़तर करते रहने की वजह से दूषित अथवा कुविकास के रूप में प्रकट
होंगे।
उपरोक्त किस्म का भ्रामक और अनिष्टकारी ‘विकास’ या ’आर्थिक संवृद्धि ’विमर्श’
जब तक अपने अपरिवर्तित रूपों में लागू किया जाता है, आम आदमी यानी विभिन्न
विभेदों में ग्रसित जन-जन, अपने संवैधानिक कागजी नागरिक अधिकारों और तथाकथित
स्वतंत्र बाजार व्यवस्था में भागीदारी-विहीन बना रहेगा, उन पर असमानता तथा
कुविकास का साया गहराता जायेगा।
याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को संविधान सभा के अध्यक्ष द्वारा पेश एक न्यूनतम,
शुरूआती कार्यक्रम और संकल्प जो प्रत्येक भारतीय को समग्र राष्ट्रीय विकास में
भागीदारी के लिए सक्षम बनाने की नींव रखने, समता, न्याय, मानवता, बन्धुत्त्व,
सक्रिय भागीदारी आदि की आधारशिलायें प्रस्थापित करने की जरूरी शत्र्त था और अभी
भी है। हम पिछले कुछ पृष्ठों में देख चुके हैं कि इस कार्यक्रम तथा निश्चय को
वास्तविक, व्यवहारिक तथा नीतियों में दरकिनार करके भारत ने पश्चिमी विकास या
आर्थिक वृद्धि अर्थशास्त्र की गिरफ्त में फंसकर, धनी तथा सशक्त अन्य जनों की
बढ़ती हित साधना के लिये सकल राष्ट्रीय आय की तीव्र और सतत यथास्थितिपोषक वृद्धि
का आत्मघाती रास्ता अपना लिया। इस मूलभूत गलत कदम का खामियाजा सारा देश लगातार
भुगत रहा है।
-कमलनयन 'काबरा'
लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित |
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-06-2018) को "पूज्य पिता जी आपका, वन्दन शत्-शत् बार" (चर्चा अंक-3004) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
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