इस बार यह कीर्तिमान कर्नाटक के हिस्से में आया। 55 घंटे में ही सरकार गिर गई। येदुरप्पा ने विधानसभा के पटल पर मत विभाजन का सामना किए बिना ही उसी राज्यपाल को अपनी सरकार का त्याग पत्र सौंप दिया जिसने उन्हें 55 घंटे पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। येदुरप्पा ने इस तरह से अपने पूर्व के दावे के उलट यह स्वीकार कर लिया कि उनके पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त विधायकों का समर्थन नहीं था। यह बात राज्यपाल महोदय को पता थी, कर्नाटक और देश की जनता भी जानती थी। राजनैतिक दायरों में यह आम धारणा थी कि सरकार बनाने के लिए भाजपा हर अनैतिक कदम उठाने से गुरेज नहीं करेगी। इसमें भी किसी को शक नहीं था कि महामहिम ने बहुमत सिद्ध करने के लिए जो 15 दिन का समय दिया था उसमें भाजपा विधायकों की खरीद फरोख्त करेगी। कांग्रेस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई। एक नहीं दो बार। पहले सुप्रीम कोर्ट ने महामहिम के फैसले में टाँग अड़ाने से इनकार कर दिया। शपथ ग्रहण की औपचारिकता पूरी हो गई। कांग्रेस दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट गई। खरीद फरोख्त का हवाला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत सिद्ध करने की समय सीमा घटा दी। वह समय सीमा शनिवार को शाम चार बजे खत्म होनी थी। कर्नाटक के राज्यपाल वाजूभाई वाला ने कभी मोदी के लिए गुजरात में अपनी सीट छोड़ी थी। हमेशा वफादार रहे थे। कर्नाटक में उसी वफादारी की नवीनीकरण का समय था। सदन के पटल पर मत विभाजन के समय स्पीकर की भूमिका अहम हो सकती थी। परंपरा के हिसाब से दसवीं बार विधान सभा के लिए चुने गए कांग्रेस के रघुनाथ विश्वनाथ देशपांडे प्रोटेम स्पीकर बनने के हकदार थे। चूंकि देशपांडे से भाजपा के हक में बेइमानी की उम्मीद नहीं की जा सकती थी इसलिए परंपरा से इतर जाते हुए वाजूभाई वाला ने तीसरी बार चुनकर सदन में जाने वाले के०जी० बुपय्यह को प्रोटेम स्पीकर बना दिया। बुपय्यह इससे पहले येदुरप्पा सरकार में स्पीकर रह चुके थे और उन पर येदुरप्पा की सरकार को बचाने के लिए विपक्ष के कई विधायकों को निलम्बित करने का आरोप लग चुका है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की वजह से समय हाथ से निकला जा रहा था। पहला विकल्प विधायकों की खरीद का था। समय कम था इसलिए इस काम की शुरूआत ही उच्चतम स्तर से कर दी गई। खुद येदुरप्पा और जनार्दन रेड्डी विधायकों को फोन करके आफर देने लगे। सरकारी मशीनरी का भी इस्तेमाल हुआ। काम जल्दी में निपटाना था। कांग्रेस और जनता दल (एस) अपने विधायकों को बचाने में लगे रहे। कहीं रिसॉर्ट की बुकिंग कैंसिल तो कही फ्लाइट नहीं उड़ी। इस बीच विधायकों की बोली 150 करोड़ और मंत्री पद तक पहुँच गई। येदुरप्पा और जनार्दन रेड्डी के बोली लगाने वाले आडियो टेप भी आ गए। बात नहीं बनी। विश्वास मत हासिल कर पाना असम्भव हो गया इसलिए मत विभाजन से पहले ही येदुरप्पा और उनके विधायक राष्ट्रगान बजने के दौरान ही सदन छोड़कर चले गए। राष्ट्रगान के सम्मान में फिल्म थिएटरों में खड़े होने की वकालत करने वालों को यह अंदाजा ही नहीं हुआ कि राष्ट्रगान बज रहा है। सत्ता हाथ से निकली तो उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि राष्ट्रगान को राष्ट्रवाद और देशभक्ति का मानक उन्हीं लोगों ने बनाया था। फिर भी अब डैमेज कंट्रोल की बारी थी। हार को जीत बताने की बारी। त्यागपत्र को नैतिक आधार देने के प्रयास किए जाने लगे। कुछ अपवाद के साथ इस दौरान मीडिया ने सत्ता के पक्ष में “धूर्तबाजी को अकलमंदी और आपराधिक लम्पटई को बहादुरी” बताने वाला अपना पूर्व का रवैया कायम रखा। लोकतांत्रिक मूल्यों का चीरहरण करते हुए त्यागपत्र देने को मीडिया ने मास्टर स्ट्रोक बना दिया। यह नहीं बताया कि गोल अपनी ही पोस्ट में मार ली गई है। नया अभियान शुरू किया गया। कांग्रेस जनता दल सेक्युलर के गठबंधन को अनैतिक बताने में पूरी ऊर्जा लगा दी गई। हालाँकि गोवा, मेघालय और मणिपुर में इसका व्यवहार कर्नाटक का ठीक उलटा था। देश को यह बताने की सर तोड़ कोशिश होने लगी कि जनादेश इस
गठबंधन को नहीं मिला है।
कर्नाटक भाजपा के लिए अहम था। उत्तर पूर्व के बाद दक्षिण भारत में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार थी। कांग्रेस के लिए भी भाजपा के विजय रथ को रोकना चुनौती थी। गोवा, मणिपुर, मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया था। नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के मनोबल का भी सवाल था। राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस पहला चुनाव लड़ रही थी। 2019 को सामने रख कर देखें तो दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए कर्नाटक काफी अहम हो जाता है। यह दक्षिण का गेट है। इसीलिए भाजपा का जोर इस बात पर है कि वह चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है तो वहीं कांग्रेस मत प्रतिशत की बात करती है। चुनाव का गणित भी कुछ अलग होता है। कांग्रेस को इस चुनाव में 38 प्रतिशत मत मिले हैं जबकि भाजपा का मत प्रतिशत 36.2 रहा है। लगभग दो प्रतिशत का अंतर सीटों में बड़ा अंतर लेकर आता है। यह अंतर यहाँ भी मौजूद है मगर उलटा। भाजपा को 104 सीटों पर जीत मिली है जबकि कांग्रेस को मात्र 78 सीटों पर ही संतुष्ट होना पड़ा। जनता दल (एस) 18.3 प्रतिशत मतों के साथ 37 सीटें जीतने में सफल रही। 224 विधायकों वाली कर्नाटक विधान सभा के लिए 222 घोषित परिणामों में एक सीट निर्दलीय विधायक को और एक अन्य छोटे स्थानीय दल (कर्नाटका प्रगन्यावंथा जनता पार्टी) को मिली है। समाजवादी पार्टी ने भी इस चुनावी समर में अपने प्रत्याशी उतारे थे। सपा के 24 प्रत्याशियों को कुल 10,385 वोट मिले जिसे प्रतिशत में बदल कर पढ़ लेना आसान नहीं है। पार्टी को सबसे अधिक 3,471 मत नरसिम्हा राजा सीट पर मिले। कई स्थानों पर प्रत्याशी 100 का आँकड़ा भी नहीं पार कर पाए। वहीं बसपा जनता दल (एस) के साथ गठबंधन में थी, 18 सीटों पर चुनाव लड़ी, कोल्लेगल की सीट पर जीत भी दर्ज किया लेकिन उसके अलावा कहीं पर जमानत नहीं बचा पाई। बसपा को कुल 1,08,592 मतों (71792 कोल्लेगल सीट पर) के साथ 0.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। 28 प्रत्याशियों को कुल 23,441 मत प्राप्त हुए जिसमें अधिकतम 3,311 वोट देवर हिप्पर्गी सीट से आसिफ को मिले। यह सीट भाजपा ने 3,353 वोटों के अंतर से जीती। इसी तरह जनता दल यू को 23 सीटों पर कुल 41,638 वोट मिले जिसमें कुंडगोल सीट पर मिलने वाले 7,318 वोट शामिल हैं। स्वराज इंडिया ने भी इस चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई। 10 सीटों पर चुनाव लड़ी। मेलूकोटे सीट पर 73,779 मतों के साथ दूसरे नम्बर पर रही लेकिन कुल 79,400 मत ही प्राप्त कर पाई। इसी तरह शिवसेना को 34 सीटो पर 13,790 तो आरपीआई को 8 सीटों पर 10,465 वोट मिले। अगर गौर से देखा जाए तो साफ मालूम होता है कि वोटों का धु्रवीकरण भाजपा, कांग्रेस और जनता दल एस गठबंधन के पक्ष में हुआ। हिंदुत्व के आधार पर ध्रुवीकरण का फायदा केवल भाजपा को मिला जबकि धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर होने वाली गोलबंदी दो ध्रुवी रही और यह गोलबंदी उतनी मजबूत भी नहीं थी। ऐसा शिवसेना और दूसरे हिंदुत्ववादी दलों को मिलने वाले वोटों से स्पष्ट होता है जबकि दूसरी तरफ देखें तो एसडीपीआई को तीन सीटों पर 45,781 मत प्राप्त हुए। यहाँ यह बात अहम हो जाती है कि जब एमआईएम उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ती है तो समाजवादी पार्टी उसका विरोध इस आधार पर करती है कि इससे सेक्युलर वोटों का बिखराव होगा। यही तकलीफ दिल्ली में आम आदमी पार्टी को रहती है। इन्हीं बुनियादों पर एमआईएम को भाजपा का एजेंट भी घोषित कर दिया जाता है। लेकिन कर्नाटक चुनाव नतीजे साफ जाहिर करते हैं कि इन दोनों दलों का वहाँ कोई नेटवर्क नहीं था फिर बिना किसी तैयारी के उनके वहाँ चुनाव में कूदने को क्या नाम दिया जाए। यही बात स्वराज इंडिया, एनसीपी या 18 सीटों पर 81,191 वोट पाकर सभी सीटों पर जमानत गंवा देने वाली भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पर भी लागू होती है। इस बात में कोई शक नहीं कि अगर थोड़ा और समझदारी से काम लिया जाता तो परिणाम काफी भिन्न भी हो सकते थे। इसे केवल चुनाव में हासिल होने वाले मतों के आधार पर नहीं देखा जा सकता बल्कि समझदारी से काम लेने पर जो वातावरण तैयार हो सकता था उससे परिदृश्य काफी कुछ बदला हुआ होता।
कर्नाटक का संदेश और राहुल गांधी की अध्यक्षता मे कांग्रेस की रणनीति बहुत स्पष्ट है। कर्नाटक में जब येदुरप्पा के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया था तो भाजपा की स्थिति इससे कहीं बेहतर थी। इस बार मोदी का करिश्मा और अमित शाह के प्रबंधन के बावजूद उसका मत प्रतिशत और सीटें दोनों घटी हैं। इस चुनाव में मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की पूरी फौज भाजपा ने कर्नाटक में उतार दी थी। पैसों और सरकारी मशीनरी का जम कर इस्तेमाल किया गया। प्रचार अभियान के दौरान चुनाव आयोग ने आँखे बंद रखी थीं। राज्यपाल की सेवा भी उपलब्ध थी। कुछ अपवादों के साथ मीडिया हर सही को गलत और गलत को सही प्रचारित करने को तत्पर था। उसके बावजूद साधारण बहुमत भी नहीं मिला और सरकार बनाकर अपमानित होना पड़ा। फिर भी ढिठाई देखिए, खुद को सबसे बड़ी पार्टी का अध्यक्ष कहलाने वाला यह कहने से गुरेज नहीं करता है कि अगर विधायकों को छुपाया नहीं गया होता तो वह विश्वास मत प्राप्त कर लेता। दूसरी ओर कांग्रेस जनता दल (एस) के साथ अन्य दलों ने चुनाव प्रचार के दौरान शालीनता बनाए रखी। जनता दल (एस) को बिना शर्त समर्थन देकर आगामी लोकसभा चुनाव के लिए गोलबंदी का मजबूत आधार बना दिया। राहुल के इस संदेश को उत्तर प्रदेश और बिहार में भी खुली आँखों देखा और पढ़ा जा सकता है। आने वाले दिनों में इसे और व्यापकता मिल सकती है। इसी के साथ यह भी गौरतलब है कि फासीवाद के वर्तमान स्वरूप को खाद पानी भी इन्हीं सेक्युलर दलों की वजह से मिली थी। इसने देश को उस जगह ले जाकर खड़ा कर दिया जहाँ चार साल पूरा होने के बावजूद सरकार की उपलब्धियाँ और जन समस्याएँ, महँगाई, बेरोजगारी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाईं। भारतीय लोकतंत्र को फिर से पटरी पर लाना है तो संस्थाओं के अलोकतांत्रीकरण और केंद्रीकरण के खिलाफ भी ठोस कार्यनीति के साथ आना होगा। सबसे बढ़कर यह कि खुद अपने अंदर मौजूद और पनप रहे फासीवादी कीटाणुओं को भी नष्ट करना होगा।
-मसीहुद्दीन संजरी
लोकसंघर्ष पत्रिका जून 2018 अंक में प्रकाशित
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