भगत सिंह का जन्म पंजाब प्रान्त के लायलपुर जिले के बंगा गाँव में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था। देश विभाजन के पश्चात यह पाकिस्तान में चला गया। भगत सिंह का पैतृक घर भारत के पंजाब प्रान्त के नवा शहर का खटकड़कला गाँव है जहाँ प्रतिवर्ष उनकी शहादत-स्मृति में शहीद मेला लगता है। शहीदे आजम भगत सिंह एक साथ पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश तीनों देशों में याद किए जाते हैं। इसलिए भगत सिंह एक साथ तीनों देशों के इन्कलाब के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं।
20 मार्च 1931 को फांसी दिए जाने के तीन दिन पूर्व ‘रहम की अपील’ के स्थान पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने पंजाब के गवर्नर के नाम लिखे पत्र में कहा था ‘हम यह ऐलान करते हैं कि एक जंग जारी है .....और तब तक यह जंग जारी रहेगी जब तक मुट्ठी भर ताकतवर लोगों द्वारा भारत की जनता व मेहनतकश लोगों तथा उनकी आमदनी के साधनों की लूट जारी रहेगी....’
वास्तव में देश के मेहनतकश मजदूर-किसान देश के आधार हैं। आमजनता के पक्ष में ऐसे उज्ज्वल भविष्य का खूबसूरत सपना रखना और उस सपने को पूरा करने के लिए अपने जीवन को कुर्बान कर देने का बेखौफ जज्बा क्या दर्शाता है? भगत सिंह के अन्दर एक सच्चे इंसान का आत्म-विश्वास और मानव सभ्यता के इतिहास और विकास पर अटूट भरोसा था। शहीदे-आजम का यह दृढ़संकल्प आज भी पीड़ित जनता और नवजवानों के खून में गर्मी पैदा कर देता है- “वे सोचते हैं कि मेरे शरीर को नष्ट कर इस देश में सुरक्षित रह जाएँगे-यह उनकी गलतफहमी है। वे मुझे मार सकते हैं लेकिन मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, लेकिन मेरी आकांक्षाओं को नहीं दबा सकते...’
सचमुच न ही हमारे देश में अंग्रेज सुरक्षित रह सके और न ही भगत सिंह के विचारों और आकांक्षाओं को दबाया जा सका। उनके जीवनकाल में अंग्रेजों द्वारा ही नही, बल्कि उनके राजनैतिक-वैचारिक भारतीय विरोधियों द्वारा भी उन्हें, उनके साथियों व उनके संगठन को बदनाम करने, आतंकवादी-उग्रवादी कहकर जनता को बरगलाने और उनसे काटने की कोशिश की गई। यह कोशिश शासक वर्गों द्वारा आज भी कई रूपों में जारी है। किन्तु इसका असर उल्टा ही हुआ है। भगत सिंह व उनके साथी जनता के सबसे चहेते और अनुकरणीय चमकते सितारे बनते गए हैं। इधर कुछ वर्षों से भगत सिंह को केसरिया पगड़ी पहनाकर उनका भी भगवाकरण करना फांसीवादी ताकतों की साजिश का ही एक हिस्सा है।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से लेकर साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की मार झेल रहे आज के भारत तक अहिंसात्मक आन्दोलन बनाम क्रांतिकारी हिंसा, गांधीवाद बनाम उग्रवाद-आतंकवाद के मसलों पर काफी गंभीर बहसें हुई हैं। ये बहसें आज तक जारी हैं। भारत का शासक वर्ग जो लाखों पुलिसियों-फौजियों और जन संहारक हथियारों से लैस है, अपनी हिंसा को राष्ट्रीय सुरक्षा का नाम देता है तथा विरोधी आन्दोलनकारियों द्वारा की गई पत्थरबाजी, नारेबाजी तथा किताबें-पत्रिकाएँ रखने, छपने तक को ‘विध्वंसक’ और ‘हिंसक’ मानता है। इसके लिए कई काले कानून बने हैं और अनगिनत लोगों को इसके चलते जेल में डाला गया है। शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह का स्पष्ट मानना था कि ‘जब दुनिया सर से पाँव तक हथियारों से लैस है’.....क्रांतिकारियों को झूठे सिद्धांतों के चलते अपने रास्ते से नहीं भटकना चाहिए।’ जनवरी 1930 में लाहौर हाई कोर्ट में दिए अपने बयान में उन्होंने कहा था ‘इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’ ‘क्रांति’ यानी अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था का आमूल परिवर्तन’ व ‘शोषणविहीन समाज की रचना।’
उनका दावा था कि ‘अगर वर्तमान शासन-व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है।’ इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि ‘भयंकर युद्ध’ पूरी तरह ‘अहिंसक’ होगा जिसमें सिर्फ विचारों की तलवार चलेगी। सांप्रदायिक हिंसा को वे शासक वर्गों की हिंसा मानते हैं जिसमें धर्म का इस्तेमाल किया जाता है। मनुवादी जातीय हिंसा के खिलाफ वे तथाकथित ‘अछूतोंय का आह्वाहन करते हैं-‘सोये हुए शेरों! उठो, और बगावत कड़ी कर दो।’ शहीद भगत सिंह ने कहा था-‘देश का भविष्य नवजवानों के सहारे है।’ किन्तु आज नौजवान भी अक्सर भ्रमित सवालों में फँसे हैं-‘लेकिन चारा क्या है?”
टीवी व अन्य माध्यमों से हमारे जीवन के जर्रे-जर्रे में घुसेड़ी जा रही है साम्राज्यवादी संस्कृति न केवल बनावटी चेतना का निर्माण कर क्रूर प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिवाद व अश्लील उपभोक्तावाद का निर्माण कर रही है बल्कि समग्र रूप से यह जनमानस में निराशा और कुंठा भरकर साम्राज्यवाद को अपराजेय सिद्ध करने की कोशिश कर रही है। संवेदनशीलता इस तरह कुंद हो रही है कि भूख से हुई मौतें, किसानों की आत्महत्याएँ, बच्चियों से बलात्कार और किसी निहत्थे आदमी का ‘मुठभेड़’ के नाम पर कत्ल कर दिया जाना भी आक्रोशित नहीं करता है, विरोध और विद्रोह के लिए नहीं उकसाता। किन्तु क्या सचमुच कोई चारा नही बचा है?.... नहीं! भगत सिंह सहित अनगिनत शहीदों की कतारें हमें दिखा गई हैं कि उनकी शहादत, उनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। उनकी क्रांतिकारी विरासत न केवल जिंदा है, बल्कि साम्राज्यवादियों और उनके पिट्ठू शासकों की आँखों में उंगली डालकर उन्हें जता रही है कि हम जीतेंगे। आज भी शहीद-ए-आजम भगत सिंह व उनके साथियों की शहादत-स्मृति देश के गद्दार और दलाल शासक वर्गों सहित साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रोश को भी तेज करता रहेगा। आइए, हम भी अपनी भूमिका निभाएँ, क्रांतिकारी आन्दोलन विकसित व तेज करने का प्रयास करें! शहीदे-आजम भगत सिंह व साथियों के प्यारे नारे को और तेज और व्यापक रूप में बुलंद करें- इंकलाब जिंदाबाद!
-राजेश
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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