मौजूदा सामयिक परिदृश्य बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण है। मजदूरों किसानों के जीवन में तबाही मची हुई है। नोटबंदी, जीएसटी और निरुद्योगीकरण ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी को जन्म दिया है। इस तरह की भयानक बेरोजगारी स्वतंत्र भारत में पहले कभी नहीं देखी गयी। केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के शासन में विगत तीन सालों में मात्र दो लाख लोगों को रोजगार मिला है। जबकि मोदी सरकार ने हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा किया था। वहीं दूसरी ओर खेती-किसानी के मोर्चे पर हालात पहले से भी ज्यादा खराब हुए हैं, किसानों को अपनी उपज का न्यूनतम लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा है। बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में उत्पादन में गिरावट आई है। बड़े पैमाने पर छोटे कल-कारखाने बंद हुए हैं। बाजार में मुद्रा के चलन में संकुचन महसूस किया जा रहा है।
समाज में चौतरफा अपराधीकरण की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। ऐसे में बार-बार यह सवाल उठ रहा है वामपंथी दल कहाँ हैं, कम्युनिस्ट क्या कर रहे हैं? वामदलों की भूमिका को आम जनता आशाभरी नजरों से देख रही है, हर आदमी चाहता है कि वामदलों का मौजूदा परिस्थितियों में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़े, जमीनी स्तर पर इसमें बदलाव आया है कई इलाकों में किसानों और मजदूरों के बड़े संयुक्त संघर्षों में कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके जनसंगठनों की सक्रिय भूमिका रही है, मसलन, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हाल ही में महाराष्ट्र में किसानों के संयुक्त संघर्षों में हजारों किसानों की शिरकत ने साफ संदेश दिया है कि कम्युनिस्ट पार्टी या वामपंथ का अंत नहीं हुआ है। हाँ, एक बात जरूर है, वामदलों के संघर्षों को मीडिया का जितना कवरेज मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा, इसके चलते कम्युनिस्टों के राजनैतिक हस्तक्षेप को आम जनता महसूस नहीं कर पाती है।
वाम आंदोलन के सामने आज कई स्तरों पर चुनौतियाँ हैं, पहली चुनौती है साम्प्रदायिकता और उससे जुड़े संगठनों की, इन संगठनों ने राष्ट्रीय स्तर पर विशाल सांगठनिक ढांचा खड़ा कर लिया है, 20 से ज्यादा राज्यों में भाजपा की सरकारें और केन्द्र में उनके नेतृत्व में सरकार है, इसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़त और वर्चस्व को सहज ही देखा जा सकता है। साम्प्रदायिक संगठन बड़े कौशल के साथ आम जनता को गैर-जरूरी मसलों पर उलझाए हुए हैं, मीडिया से लेकर साइबर माध्यमों तक गैर जरूरी मसलों पर प्रौपेगैंडा चल रहा है, यह काम आज जितने नियोजित ढंग से हो रहा है वैसा पहले कभी नहीं देखा गया। आज साम्प्रदायिक ताकतें देश का दैनंदिन एजेण्डा तय कर रही हैं, बहस-परिचर्चा और टॉक शो के विषय तय कर रही हैं, फलतः देश में गैर-जरूरी मसलों पर बहस की कृत्रिम बाढ़ आ गई है, इनमें अधिकांश प्रश्न या घटनाएं वे हैं जो घटित ही नहीं हुए, कहने का आशय यह कि साम्प्रदायिक ताकतें अघटित-घटना को खबर और चर्चा का विषय बना रही हैं, इसने मीडिया के क्षितिज से असली सवालों और समस्याओं को गायब कर दिया है।
मौजूदा दौर में लंपट बुर्जुआजी का अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति, मासकल्चर आदि से लेकर सामाजिक नीतियों तक वर्चस्व है। यह फलक बहुत व्यापक है, लेकिन इस रुप में अधिकतर दल या विचारक इसे नहीं देखते। लुंपेन बुर्जुआजी हम सबके जीवन में छोटी छोटी बेईमानी के जरिए दाखिल होता है, हमें अपने रंग में रँग लेता है।
हमारे यहाँ लुंपेन बुर्जुआवर्ग का विकास देश के विभिन्न इलाकों में भिन्न गति से हुआ है। नव्य उदार दौर में नव्य बुर्जुआ, लंपटवाद का विकास तेजगति से होता है। समाजवाद और उदारतावाद का पतन होता है। ये दोनों विचारधाराएँ लंपट बुर्जुआ को पसंद नहीं हैं। फलतः वे इस दौर में हाशिए पर चले गए और देश में साम्प्रदायिकता-पृथकतावाद और आतंकवाद का वर्चस्व बढ़ा। इन तीनों को लंपट बुर्जुआजी ने लंबे समय से पाला पोसा है, इनके जरिए लूट और अव्यवस्था का सिलसिला बनाए रखने में उसे मदद मिली है।
भारतीय बुर्जुआजी शुरू से लोकतंत्र विरोधी और लंपट रहा है। इसकी संविधान विरोधी, लोकतंत्र विरोधी लंबी परंपरा है। राजनीति में इसने अपराध और अपराधीकरण को महिमामंडित किया है। उसके विकास के गर्भ से जो मध्यवर्ग जन्मा वह भी क्रिमिनल और भ्रष्ट है। इसके साथ ही नव्य पूँजीपति का विदेशों की ओर पलायन, बैंकों की लूट, करप्ट नौकरशाही, करप्ट न्यायपालिका, करप्ट राजनेता और उनके पीछे गोलबंद जनता में लंपटगीरी-भ्रष्टाचार
आपराधिकता वे साझा तत्व हैं, जिनका भाजपा-कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं। ये सब मिलकर अपराधी समाज बनाते हैं, यह समाज नागरिक समाज का विलोम है। आज पूँजीपति वर्ग और अपराधी समाज ही लोकतंत्र, संविधान और स्वतंत्र मीडिया के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मोदी तो उसके वाई प्रोडक्ट हैं। वाम दलों को अपराधीकरण से सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है।दिलचस्प बात यह है साम्प्रदायिक-पृथकतावादी और आतंकी संगठनों का अपराधी समाज और उसके ताने-बाने के साथ गहरा संबंध है।
विगत चार सालों में मीडिया को सत्ताधारी दल के अनुकूल ढाल दिया गया है। अब बड़े मीडिया में और खासतौर पर न्यूज टीवी चैनलों में वही चीज दिखाई जाती है जिसको पीएमओ देखना चाहता है। चैनलों से खबरें गायब हैं और उनकी जगह प्रायोजित और अघटित घटना की खबरों का प्रसारण हो रहा है। अब मीडिया का मुख्य काम जनता की राय पेश करना नहीं है बल्कि भाजपा-आरएसएस के लिए माहौल बनाना मुख्य लक्ष्य है। वह उनके पक्ष में दर्शकों, श्रोताओं में संस्कार, स्वीकृति और विनिमय भावना पैदा कर रहा है। यह विनिमय जहाँ एक ओर वैचारिक समर्थक बनाने में मदद कर रहा है वहीं दूसरी ओर मीडिया के लिए मुनाफा भी पैदा कर रहा है।
इस सबके बावजूद देश में सामाजिक शक्ति संतुलन फासीवाद के पक्ष में नहीं है। वे आक्रामक जरूर हैं लेकिन बहुसंख्यक नहीं हैं, आज भी फासीवाद विरोधी ताकतें बहुसंख्यक हैं। आज भी देश में लोकतंत्र के पक्ष में सामाजिक राजनैतिक संतुलन है, हर स्तर पर लोकतांत्रिक शक्तियों के पक्ष में शक्ति संतुलन है। संसद, विधानसभा और न्यायपालिका संविधान के नियमों के तहत काम कर रहे हैं। इसके अलावा विभिन्न वर्गों के बीच में लोकतांत्रिक संगठनों की पकड़ आज भी मजबूत है। उल्लेखनीय है लोकतंत्र में फासीवादी संगठन भी सक्रिय रह सकते हैं। लेकिन जब वे हर क्षेत्र में निर्णायक हो जाएँ तब ही फासीवाद की दस्तक कह सकते हैं। साम्प्रदायिक ताकतों को एकजुट संघर्षों और एकजुट रणनीति और लोकतांत्रिक कार्यनीति के जरिए ही परास्त किया जा सकता है। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहाँ से वामदलों की महत्वपूर्ण भूमिका बन सकती है। आज बाजार संकटग्रस्त है, शिक्षा संकटग्रस्त है, न्यायपालिका विवादों में फँसी है, केन्द्र सरकार हर मोर्चे पर असफल हुई है और आम जनता में असन्तोष बढ़ रहा है। इस असन्तोष को राजनैतिक दिशा देने में वामदलों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और इसकी पूरी संभावनाएँ हैं कि वामदल आने वाले समय में वैचारिक और सांगठनिक तौर पर और अधिक सक्रिय होंगे।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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