भारतीय लोगों में फूट डालने के लिए ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ने मजहब और जाति को कामयाबी से इस्तेमाल किया था। बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों का खौफ दिखा कर, अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का खौफ दिखा कर और एक जाति के लोगों को दूसरी जाति के लोगों का डर दिखाकर अँग्रेजी सरकार उन सभी पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश करती थी।
सूबा सरहद में अंग्रेजी सरकार को दिक्कत यह थी कि यहाँ मुसलमान इतने ज्यादा बहुसंख्यक थे कि उनको यहाँ के हिन्दू-सिख अल्पसंख्यकों का खौफ दिखाना हास्यास्पद ही होता। सूबा सरहद में मुसलमानों की आबादी 93 प्रतिशत थी। हिन्दू, सिख आबादी सिर्फ 7 प्रतिशत थी। सूबा सरहद में ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक बड़ी समस्या यह थी कि सरहदी सूबे में मुसलमानों के बहुसंख्यक होने के बावजूद मुस्लिम लीग की यहाँ कोई मौजूदगी नहीं थी। 93 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले हमारे इस सूबे में खुदाई खिदमतगार तहरीक का जोर था, जो कि पश्तून मुसलमानों की पार्टी थी।
खुदाई खिदमतगार समाजवादी थे और अँग्रेजी हुकूमत के सख्त खिलाफ थे। जाहिर-सी बात है कि साम्राज्यवादी अंग्रेजों को कांग्रेस की तरह ही इनसे भी खतरा था।
सरहदी सूबे और कबायली इलाकों के लिए इस्लाम का नाम इस्तेमाल करने में अंग्रेजों को खुदाई खिदमतगारों से बड़ी दिक्कत थी। ये सच्चे मुसलमान थे। कई जगहों पर मदरसे चलाते थे। हिन्दुओं और सिखों के सच्चे दोस्त थे। और, सूबा सरहद में अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्मन भी खुदाई खिदमतगार ही थे।
दूसरी तरफ, अंग्रेज-परस्त मुस्लिम लीग का सूबे की असेम्बली में एक भी मेम्बर नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह जरूरी हो गया था कि सूबे में मुस्लिम लीग को मजबूत किया जाए और खुदाई खिदमतगारों को नुकसान पहुँचाया जाए। उन्होंने ऐसा ही किया।
सूबा सरहद में पाकिस्तान मूवमेंट असल में ब्रिटिश हुकूमत और खुदाई खिदमतगारों के दरमियान हुई लड़ाई है। खुद को छुपाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने पर्दे के पीछे रहकर मुस्लिम लीग की हर तरह से मदद की और खुदाई खिदमतगारों को हर तरह से नुकसान पहुँचाया।
1937 में सूबा सरहद में खुदाई खिदमतगारों की मिनिस्ट्री बनने के बाद सरकारी टाइटल होल्डर लोगों को अपनी फिक्र होने लगी। आम लोग सूबाई मिनिस्ट्री के कामों से खुश होने लगे। सरकारी टाइटल होल्डर लोगों की अहमियत कम होने लगी।
ब्रिटिश हुकूमत और उसके अफसरों ने सरकारी टाइटल होल्डर लोगों की बेचैनी को समझा। अफसरों के पास यह एक और मौका था, जब वे खुदाई खिदमतगारों के खिलाफ एक और साजिश रच सकते थे। उन्होंने सूबा सरहद की मुस्लिम लीग का कन्ट्रोल अपने इन ‘सर’, ‘नवाबों’, ‘खानबहादुरों’ वगैरह को देने का फैसला किया।
1937 में सूबा सरहद की सूबाई असेम्बली में मुस्लिम लीग का एक भी मेम्बर नहीं था। 1937 के चुनावों के वक्त वहाँ मुस्लिम लीग का कोई वजूद ही नहीं था। सितम्बर, 1937 में ऐबटाबाद में सूबाई मुस्लिम लीग की बुनियाद रखी गई थी। नौशेरा के मौलाना शाकिरुल्लाह को इसका सदर बनाया गया। वह जमीअत-उल-उलेमा के सदर भी थे। मरदान के मौलाना मोहम्मद शोएब को सेक्रेटरी बनाया गया। वे जमीअत-उल-उलेमा के भी सेक्रेटरी थे। अप्रैल, 1937 में जिस दिन सर साहिबजादा अब्दुल कय्यूम की सूबा सरहद की मिनिस्ट्री भंग हुई, बिल्कुल उसी दिन सूबा सरहद की मुस्लिम लीग की बुनियाद रखी गई।
एक साल बाद ही, सितम्बर, 1938 में सूबा सरहद की मुस्लिम लीग की लीडरशिप को बदल दिया गया। मौलाना शकिरुल्लाह की जगह ‘खान बहादुर’ सादुल्लाह खान सूबा सरहद की मुस्लिम लीग के रहनुमा बना दिए गए। सूबा सरहद की मुस्लिम लीग ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग का सिर्फ नाम-मात्र हिस्सा ही थी, वरना वह स्वतंत्रता से ही काम कर रही थी। सूबाई मुस्लिम लीग पूरी तरह से उन लोगों के कंट्रोल में आ गई, जिनको अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से सर, नवाब, खान बहादुर, ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट वगैरह के टाइटल मिले हुए थे।
एक तो, सर, नवाब, खान बहादुर, ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट वगैरह के टाइटल हासिल करने वाली अंग्रेज परस्त सियासी लीडरशिप को अब मुस्लिम लीग का बैनर मिल गया। दूसरा, सूबा सरहद में अपनी मुखालिफ जमातों का मुकाबला करने के लिए ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत के पास अब सूबाई मुस्लिम लीग के तौर पर एक सियासी फ्रण्ट मिल गया लेकिन, ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत को सूबा सरहद में एक ऐसा मजहबी फ्रण्ट भी चाहिए था, जिसकी आड़ में वह कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारधारा को सूबा सरहद और कबायली इलाकों में फैलने से रोक सके।
अफगानिस्तान के पूरी तरह से आजाद हो जाने के बाद से ही ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत सूबा सरहद और कबायली इलाकों को एक बफर जोन (buffer zone) के तौर पर तैयार करने में लगी हुई थी। इसके लिए इस्लाम का इस्तेमाल करना उनको सबसे आसान रास्ता लगता था।
सूबाई मुस्लिम लीग के तौर पर एक सियासी फ्रण्ट तैयार करने के साथ-साथ एक मजहबी फ्रण्ट भी तैयार किया जाने लगा। खान अब्दुल गफ्फार खान साहिब के सपुत्र और स्वतन्त्रता संग्रामी खान अब्दुल वली खान साहब ने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है। जो इसको विस्तार से जानना चाहें, वे उनकी किताब में पढ़ सकते हैं। पश्तो जबान में लिखी उनकी यह किताब इंग्लिश में ‘फैक्ट्स आर फैक्ट्स’ (Facts Are Facts) के टाइटल से मिलती है। इसका उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है।
खान अब्दुल वली खान साहब ने इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में खुद जाकर सर जॉर्ज कनिंघम की डायरियों का अध्ययन किया और उनसे नोट्स लिखे। जॉर्ज कनिंघम की डायरियों से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि कैसे उस वक्त की ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ने मजहबी रहनुमाओं को अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया।
सूबा सरहद और कबायली इलाकों में गवर्नर जॉर्ज कनिंघम ने मौलवियों और पीरों के जरिए जो प्रोपेगैंडा किया, उस पर इंग्लिश की एक किताब British Propaganda and Wars of Empire: Influencing Freinds and Foe भी पढ़ने लायक है, जो क्रिस्टोफर टक और प्रोफेसर ग्रेग कैनेडी ने संपादित की है।
सर जॉर्ज कनिंघम ब्रिटिश इण्डिया में सूबा सरहद के गवर्नर थे। सूबा सरहद में पाकिस्तान मूवमेंट में उनका बहुत बड़ा रोल था। मुहम्मद अली जिन्नाह सर जॉर्ज कनिंघम की कितनी कदर करते थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान बनते ही मुहम्मद अली जिन्नाह ने कनिंघम को बुलाकर पाकिस्तान में सूबा सरहद का पहला गवर्नर नियुक्त किया था।
ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत की तरफ से पूरे इण्डिया में प्रोपेगैंडा-वॉर (प्रोपेगैंडा-जंग) बहुत सालों से जारी था, लेकिन दूसरी संसार जंग में उनको इसकी जरूरत बहुत ज्यादा महसूस हुई। यह प्रोपेगैंडा-वॉर चल तो पूरे इण्डिया में रही थी, लेकिन यहाँ मैं सिर्फ सूबा सरहद में चली ब्रिटिश प्रोपेगैंडा-वॉर की ही बात करूँगा। वैसे भी, ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत को बड़े पैमाने पर हथियारबन्द बगावत का खतरा खासतौर पर सरहदी पश्तूनों से ही था। इसलिए जोरदार प्रोपेगैंडा भी उन्हीं के इलाकों में हुआ।
प्रोपेगैंडा के लिए सरकार ने रेडियो और मूवीज का भी इस्तेमाल किया और पैम्फलेट्स का भी। रेडियो की समस्या यह थी कि बहुत कम लोगों के पास रेडियो सेट थे। मूवीज की समस्या यह थी कि उन्हें दूर के इलाकों, खास करके पहाड़ी इलाकों में लोगों तक पहुँचाना तकरीबन नामुमकिन था। पैम्फलेट्स की समस्या यह थी कि सूबा सरहद के ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे नहीं थे। इसलिए एक रास्ता यह निकाला गया कि मौलवियों और पीरों को सरकारी प्रोपेगैंडा के लिए इस्तेमाल किया जाए, क्योंकि उनका लोगों से सीधा सम्पर्क था।
सर जॉर्ज कनिंघम ने सूबा सरहद के मौलवियों और पीरों से सम्पर्क करने के लिए ‘खान बहादुर’ कुली खान का इस्तेमाल किया। कुली खान को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे उन मौलवियों से भी खुफिया तौर पर सम्पर्क करें, जो खुलेआम सामने आकर हिमायत करने को तैयार नहीं थे।
कनिंघम ने कुली खान के जरिए सबसे पहले मुल्ला मरवत को भर्ती किया। मुल्ला मरवत पहले खाकसार तहरीक से जुड़े हुए थे। कुली खान ने मुल्ला मरवत को यह यकीन दिला दिया कि इस्लाम की सेवा यही है कि इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ जिहाद किया जाए। इस्लाम के दुश्मन कौन हैं, इस बात का फैसला साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत के अफसर करते थे। मुल्ला मरवत का इस्तेमाल करके जमीअत-उल-उलेमा-ए-सरहद के ओहदेदारों से भी सम्पर्क किया गया। सूबा सरहद के गर्वनर थे सर जॉर्ज कनिंघम, और सर जॉर्ज कनिंघम के डायरेक्ट एजेंट थे कुली खान, और आगे कुली खान के एजेंट थे मुल्ला मरवत। इस तरह उन्होंने सूबा सरहद में मौलवियों और पीरों का एक ऐसा मजबूत गठजोड़ बनाना शुरू किया, जिसको इस्लाम के नाम पर ब्रिटिश हुकूमत के फायदे के लिये इस्तेमाल किया जा सके। कनिंघम ने मौलवियों के तीन वर्ग बनाए। पहले वर्ग में छोटे मौलवी थे। इस वर्ग के मौलवियों के इंचार्ज लोकल ‘खान साहिब’ या ‘खान बहादुर साहिब’ बना दिये गए। जो इनसे बड़े मौलवी थे, उनके इंचार्ज डिप्टी कमिश्नर्ज बना दिये गए। जो बहुत बड़े मौलवी थे, उनका सीधा सम्पर्क गवर्नर कनिंघम से था।
मिसाल के तौर पर, कनिंघम की तरफ से ‘खान बहादुर’ गुलाम हैदर खान शेरपाओ को 9-10 मौलवियों का इंचार्ज बनाया गया था। ‘खान बहादुर’ गुलाम हैदर खान शेरपाओ पाकिस्तान मूवमेंट का एक बड़ा नाम माने जाते हैं। पाकिस्तान बनने के बाद सूबा सरहद के आठवें गवर्नर बने हयात मोहम्मद खान शेरपाओ उन्हीं ‘खान बहादुर’ गुलाम हैदर खान शेरपाओ के बेटे थे।
कनिंघम ने लिखा है कि उसने गुलाम हैदर को कहा कि वह हर मुल्ला से निजी तौर पर मिले और उसे इस्लाम के लिए काम करने के लिए तैयार करे। गुलाम हैदर को हिदायत दी गई कि हर मुल्ला को सरकार की तरफ से 45 रुपये दिए जाएँ। उन दिनों 45 रुपये एक छोटे मौलवी के लिये बड़ी रकम हुआ करती थी। कनिंघम ने गुलाम हैदर से यह भी कहा कि मौलवियों को इशारा दे दिया जाए कि अगर उनका काम तसल्लीबख्श हुआ, तो उनको सरकारी पेन्शन भी दी जा सकती है। कनिंघम ने लिखा है कि उसने गुलाम हैदर को 600 रुपये दिए। ये रुपये उन्हीं मौलवियों में बांटे जाने के लिए थे।
इसी तरह, नौशेरा और पेशावर जिलों के मौलवियों का इंचार्ज डिप्टी कमिश्नर इस्कन्दर मिर्जा को बनाया गया। स्वात, बुनेर, और मरदान के मौलवियों की जिम्मेदारी स्वात रियासत के प्रधानमंत्री हजरत अली की थी। हजरत अली के
अधीन मौलवियों को हर महीने उस वक्त के 15 रुपये दिए जा रहे थे। इसी तरह, बन्नू के मौलवियों की जिम्मेदारी नवाब जफर खान और ताज अली शेरपाओ को दी गई। ताज अली उन्हीं ‘खान बहादुर’ गुलाम हैदर खान शेरपाओ के बेटे थे, जो कनिंघम के खास आदमी थे और उन्हीं के अधीन काम कर रहे थे।
डेरा इस्माइल खान के डिप्टी कमिश्नर मोहम्मद असलम को कनिंघम ने 600 रुपये दिए। यह रुपये उस इलाके के तीन मजहबी रहनुमाओं, अमा खेल के फकीर, पीर मूसा जई, और पीर जकूरी को देने के लिए थे। इन तीनों को भी यह कहा गया कि अगर उनका काम तसल्ली बख्स हुआ, तो उनकी पेमेंट बढ़ा दी जाएगी। खयबेर के मौलवियों की जिम्मेदारी वहाँ के पोलिटिकल एजेंट मिस्टर बेकन की थी। खयबेर में पोलिटिकल एजेंट ने मौलाना अब्दुल बकी को अपने मिशन में शामिल करके उसे 1000 रुपये दिए। मौलवी बरकतउल्ला को कनिंघम ने 1000 रुपये दिए थे। बरकतउल्ला के जरिए बाजौर के 10-12 मौलवी ब्रिटिश हुकूमत के इस मिशन के लिए भर्ती किए गए थे। ऐसा नहीं था कि गवर्नर कनिंघम मौलवियों और पीरों को रुपये बांट कर उन पर अंधा यकीन कर लेता था। बाकायदा जासूसों को उन मौलवियों और पीरों पर नजर रखने के लिये भेजा जाता था। यह सुनिश्चित किया जाता था कि जिस मकसद के लिए ब्रिटिश हुकूमत उन मौलवियों और पीरों पर रुपये लुटा रही थी, वह मकसद पूरा भी हो रहा था या नहीं। यह अँग्रेजी हुकूमत की तरफ से फेंके गये रुपयों का ही कमाल था कि कई ऐसे मौलवी भी अँग्रेजी हुकूमत के तरफदार हो गए, जो पहले अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ थे। दूसरी संसार जंग शुरू होने से ब्रिटिश साम्राज्य को यह डर सताने लगा कि कहीं हालात का फायदा उठा कर सोवियत संघ अफगानिस्तान के रास्ते ब्रिटिश इण्डिया पर हमला न कर दे। तब अंग्रेजी हुक्मरानों के इशारे पर जमीअत-उल-उलेमा ने यह ऐलान किया कि सोवियत संघ अगर अफगानिस्तान पर हमला करता है, तो हर मुसलमान का यह फर्ज है कि वह सोवियत संघ के खिलाफ जिहाद में शामिल हो। इसके लिए उन मौलवियों ने दलील पेश की कि अंग्रेज बाइबिल को मानने वाले हैं, जो कि एक आसमानी किताब है। इस तरह अंग्रेज अहल-ए-किताब हैं। जबकि सोवियत यूनियन के हुक्मरान कम्युनिस्ट हैं, जो न खुदा को मानते हैं और न किसी आसमानी किताब को। इसलिए अंग्रेजों और मुसलमानों को मिलकर काफिर कम्युनिस्टों के खिलाफ लड़ना चाहिए। इसलिए उन मौलवियों और पीरों ने मुसलमानों को ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में भर्ती होने के लिए कहा, ताकि काफिर कम्युनिस्ट सोवियत यूनियन के खिलाफ जंग करके इस्लाम की खिदमत की जा जाए।
इण्डियन नेशनल कांग्रेस के नेता ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत की इस बात के लिए मुखालिफत कर रहे थे कि भारतीय नेताओं से पूछे बिना ही भारत को भी संसार जंग में शामिल कर दिया गया था। अक्टूबर, 1939 में इण्डियन नेशनल कांग्रेस ने अपनी सभी आठ सूबाई मिनिस्ट्रीज से इस्तीफा दे दिया। यह एक आत्मघाती कदम था। वाइसराय लिनलिथगोअ और मुहम्मद अली जिन्नाह कांग्रेस के इस कदम से बहुत खुश हुए। जिन्नाह ने तो बाकायदा 22 दिसम्बर, 1939 को ‘डे ऑफ डीलिवरन्स’ ;क्ंल वि क्मसपअमतंदबमद्ध के तौर पर मनाया।
एक तरफ कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को अंग्रेजी हुकूमत ने कैदखानों में बंद कर दिया गया। दूसरी तरफ सरकार परस्त मौलवियों ने कांग्रेस के खिलाफ भी प्रोपेगैंडा तेज कर दिया। कांग्रेस के जंग के खिलाफ लिए गए फैसले को लेकर इस तरह से प्रोपेगैंडा किया गया, जैसे जंग में शामिल न होना इस्लाम के खिलाफ है। इस तरह सोवियत संघ, कम्युनिस्टों और इण्डियन नेशनल कांग्रेस को इस्लाम का दुश्मन कहकर उनके खिलाफ प्रोपेगैंडा तेज कर दिया गया। खुदाई खिदमतगार भी कांग्रेस के साथ होने की वजह से इस प्रोपेगैंडा का शिकार बना दिए गए।
भारत में रहते लोगों की कम्युनिस्ट सोवियत संघ से क्या दुश्मनी थी? भारत में रहते लोगों की जर्मनी से क्या दुश्मनी थी? भारत में रहते लोगों की इटली से क्या दुश्मनी थी? भारत में रहते लोगों की अगर दुश्मनी थी, तो साम्राज्यवादी ब्रिटेन से थी, जो पूरे भारत पर अपनी ताकत से कब्जा जमाए बैठा था। जरूरत तो इस बात की थी कि भारत के लोग आपस में एकता रखते और ब्रिटिश साम्राज्य को भारत से उखाड़ फेंकते।
कनिंघम ने लिखा है कि जमीअत-उल-उलेमा के लोगों ने जून, 1942 में कोहाट जिले का और जुलाई में पेशावर और मरदान का दौरा करके इस्लामिक थीम पर जर्मनी, इटली, और जापान विरोधी प्रोपेगैंडा, और पाकिस्तान थीम पर कांग्रेस विरोधी प्रोपेगैंडा किया।
अंग्रेज परस्त मुल्ला जो भी पैम्फलेट बाँटते, उसको पहले गवर्नर कनिंघम को दिखा कर मंजूरी लेते। कनिंघम ने खुद लिखा है कि मौलाना मोहम्मद शुऐब और मौलाना मिद्ररूल्लाह उससे मिलने नथियागली आए और उसे उर्दू में एक बड़ा ड्राफ्ट दिखाया, जो कांग्रेस-विरोधी, जापान-विरोधी, और मार्क्सवाद-विरोधी था।
खान अब्दुल वली खान साहिब ने लिखा है कि अंग्रेजों ने उन मौलवियों के नाम और पते दर्ज करके इस्लाम की मदद की है। पेशावर जिले से वे 24 मौलवी थे, जिनमें से 6 पेशावर शहर से थे, 13 चरसद्दा तहसील से थे, 3 नौशेरा तहसील से थे। 18 मौलवी मरदान और सवाबी से थे। यह पढ़ना शर्मनाक लगता है कि कैसे मजहब के इन तर्जुमानों ने अपना ईमान पॉलीटिकल एजेंटों को बेच दिया और चांदी के चंद सिक्कों के बदले इस्लाम की सौदेबाजी की। इण्डिया के सच्चे बेटों और वतनपरस्तों के खिलाफ उनके झूठे फतवों के सबूत देखना और भी गम की बात है। यह खान अब्दुल वली खान साहिब ने लिखा है।
जर्मनी की तरफ से सोवियत संघ पर हमले के बाद हालात ऐसे हो गए कि अंग्रेजी हुकूमत को सोवियत संघ का ब्रिटिश इण्डिया या अफगानिस्तान पर हमले का अंदेशा खत्म हो गया। लेकिन जगह-जगह पर ब्रिटिश साम्राज्य को जर्मनी की तरफ से हार का सामना करना पड़ रहा था। इधर ईपी के फकीर हाजी मिर्जाली खान वजीर की तरफ से कबायली इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ा गया जिहाद लगातार जारी था। उससे अंग्रेजी हुकूमत बहुत परेशान थी। अंग्रेजी हुकूमत को लग रहा था कि अफगानिस्तान में जर्मनी और इटली के एजेंट ईपी के फकीर की मदद कर रहे हैं। इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी थी। वैसे, कभी अंग्रेजी हुकूमत को यह भी लगता रहा था कि फकीर की मदद सोवियत संघ कर रहा है।
अंग्रेजी हुकूमत ने अफगानों पर जोर डाला कि वे जर्मनों को अफगानिस्तान से बाहर निकाल दें। अफगानों ने ऐसा नहीं किया। इसी दौरान सीरिया के शमी पीर की तरफ से कबायलियों को अफगान सरकार के खिलाफ बगावत के लिए उकसाने की बड़ी घटना हुई। अंग्रेजों ने शमी पीर को 25 हजार पाउंड देकर वापस सीरिया भेज दिया। शमी पीर की इस कार्रवाई के पीछे असल में कौन-सी ताकत थी, इसको लेकर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। लेकिन इतना जरूर है कि शमी पीर के जाने के बाद अंग्रेजों ने ईपी के फकीर के साथ भी सौदेबाजी करनी चाही। लेकिन यह फकीर बिकने वालों में से नहीं था। ब्रिटिश इण्डिया के कबायली इलाकों और अफगानिस्तान में एक्सिस ताकतों (जर्मन, इटली, और जापान) की तरफ से भी प्रोपेगैंडा बढ़ने लगा। एक्सिस ताकतों की यह कोशिश थी कि कबायली लड़ाकों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिये तैयार किया जाये। अब ब्रिटिश प्रोपेगैंडा मशीनरी ने अपने प्रोपेगैंडा में थोड़ा-सा बदलाव करने का फैसला किया। सूबा सरहद के गवर्नर कनिंघम ने लिखा है कि उसने कुली खान को सलाह दी कि वह कम्युनिस्ट विरोधी प्रोपेगैंडा को थोड़ा बदल दें और ज्यादा जोर जर्मनी और इटली के खिलाफ प्रोपेगैंडा करने पर दें। कम्युनिस्ट सोवियत संघ के खिलाफ प्रोपेगैंडा करते वक्त वे मौलवी कहते थे कि अंग्रेज बाइबिल को मानने वाले हैं, इसलिए अंग्रेज अहल-ए-किताब हैं जबकि सोवियत यूनियन के हुक्मरान कम्युनिस्ट हैं, जो न खुदा को मानते हैं और न किसी आसमानी किताब को। इसलिए अंग्रेजों और मुसलमानों को मिलकर काफिर कम्युनिस्टों के खिलाफ लड़ना चाहिए।
अब उन्हीं मौलवियों को जर्मनी और इटली के खिलाफ प्रोपेगैंडा करने की हिदायत दी गई। जर्मनी और इटली के लोग भी तो मजहबी अकीदे से वैसे ही थे, जैसे ब्रिटिश थे। वे भी बाइबिल को मानने वाले अहल-ए-किताब थे। अगर वे मौलवी अंग्रेजों की हिमायत इसलिए कर रहे थे कि अंग्रेज अहल-ए-किताब हैं, तो जर्मनी और इटली वाले भी तो अहल-ए-किताब ही थे लेकिन मौलवियों को इससे कोई मतलब ही नहीं था। अंग्रेज अफसरों ने रूसियों को काफिर कहा, तो मौलवियों ने भी रूसियों को काफिर कह दिया। अब जब अंग्रेज अफसरों ने जर्मनों और इटालियनों को इस्लाम के दुश्मन कहा, तो मौलवियों ने जर्मनों और इटालियनों को इस्लाम के दुश्मन घोषित कर दिया।
वैसे, वक्त-वक्त की बात है। तब कम्युनिस्ट होने की वजह से सोवियत संघ उन मौलवियों के लिए काफिर था। अब एक कम्युनिस्ट मुल्क चीन ही पाकिस्तान का सबसे बड़ा दोस्त है। खैर! मुस्लिम ओट्टोमन एम्पायर को तोड़ने वाले, मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को देश-निकाला देकर उसको कैद में डालने वाले, अफगानों पर जुल्म करने वाले, सूबा सरहद और कबायली इलाकों में पश्तूनों पर खौफनाक अत्याचार करने वाले ब्रिटिश हुक्मरानों को इस्लाम और मुसलमानों के सच्चे खैरख्वाह बताने वाले इन अंग्रेज परस्त मौलवियों और पीरों को बस ब्रिटिश हुकूमत से मिल रहे रुपयों से मतलब था। मजहब का नाम वे बस अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे थे।
-अमृत पाल सिंह ‘अमृत’
मोबाइल : 09988459759
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2018 में प्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें