मुजफ्फरपुर (बिहार) से लेकर देवरिया, प्रतापगढ़ (उप्र) तक बालिका संरक्षण गृहों में बेबस, लाचार, अनाथ, विधवा लड़कियों का इस्तेमाल प्रभावशाली लोगों के यौन लिप्सा की पूर्ति के लिए किया जाता रहा। यह सच सामने आ जाने के बाद हर संवेदनशील व्यक्ति शर्मसार महसूस कर रहा है। वैसे इस सभ्य भारतीय समाज का यह विद्रूप चेहरा ना पहली बार दिख रहा है और ना अंतिम बार।
टीवी चैनल इस घटना को सनसनीखेज के रूप में पेश कर रहे हैं तो पक्ष-विपक्ष के नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हम ऐसा नहीं मानते कि इसके पहले की सरकार के शासनकाल में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी थी, लेकिन एक बात साफ है कि शासन-प्रशासन के नाक के नीचे यह सारी घटनाएं घट रही थीं और हमारे देश की सरकार बड़े-बड़े पोस्टर और होल्डरों पर जो बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा लिख रही है और महिला सशक्तिकरण का दावा कर रही है उस की पोल खुल चुकी है। इस घटनाक्रम के बाद लगता है कि जनता के पैसे से बड़े-बड़े होर्डिंग लगा कर जो हँसते हुए मोदी के चेहरे को दिखाते हुए लिखा जा रहा है कि-बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार। दरअसल ये जनता को मोदी मुँह चिढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। भाजपा के मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से बलात्कार की घटनाओं में साफ तौर पर तेजी से इजाफा हुआ है एनसीआरबी की क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 2010 से 2016 के बीच प्रति एक लाख आबादी पर बलात्कार की घटनाएँ और उनकी दर इस प्रकार है-वर्ष 2010 में 22172, वर्ष 2011 में 24206, वर्ष 2012 में 24926, वर्ष 2013 में 33707, वर्ष 2014 में 36735, वर्ष 2015 में 34652 और वर्ष 2016 में 29947 बलात्कार की घटनाएँ हुई, यानी क्रमशः 3.9 प्रतिशत, 4.1 प्रतिशत, 4.3 प्रतिशत, 5.7 प्रतिशत, 6.1 प्रतिशत, 5.7 प्रतिशत 6.9 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई। यह सब साफ-साफ दिखाता है कि वर्षों के दौरान बलात्कार की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा था और एनडीए सरकार के बाद जो भाजपा गठबंधन की राजग सरकार है उसमें भी खासा उछाल आया। गर्भ में ही बच्चियों को मार देने की घटनाएँ हिंदुओं में सबसे ज्यादा हैं जो भाजपा शासित राज्यों में चिंताजनक लैंगिक अनुपात से जाहिर होता है। लैन्सेंट द्वारा 2011 में किए गए एक
अध्ययन के मुताबिक पिछले तीन दशकों में एक करोड़ बीस लाख बच्चियों को जन्म से पहले ही मार दिया गया। लोकसंघर्ष के पिछले अंक में कठुआ में हुए गिरोह बंद बलात्कार पर लिखे मेरे लेख को पाठक जरूर पढ़ें, जिसमें भाजपा से जुड़े 21 बलात्कारियों का क्रमवार विवरण है।
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार देशभर के 9000 बाल संरक्षण गृहों में कुल 233000 बच्चे रहते हैं। इनमें बड़ी संख्या में बच्चियाँ हैं। अधिकांश बालिका गृहों के वही हालत हैं जो मुजफ्फरपुर या देवरिया में सामने आए हैं। इस तरह के तथ्य पहले भी देश के अन्य हिस्सों से आते रहे हैं।
हाल फिलहाल देवरिया के डीएम और एसपी को सस्पेंड कर दिया गया है और देवरिया बालिका संरक्षण गृह की संरक्षिका गिरिजा त्रिपाठी व उनकी दो पुत्रियों-कनकलता व कंचनलता त्रिपाठी और उनके पति मोहन त्रिपाठी को हिरासत में लिया जा चुका है। तमाम वामपंथी, दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा कठोर से कठोर कार्रवाई की माँग के लिए मुख्यमंत्री के पुतला दहन से लेकर चक्का जाम और प्रतिरोध सभाएँ की गई हैं। पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय का कहना है कि ऐसे मामलों में पॉस्को के धारा 19-21 के तहत जाँच के दायरे में आला अधिकारियों और मुख्यमिंत्रयों को भी लाना चाहिए। इन पर सीधी कार्रवाई करते हुए मुकदमा दर्ज होना चाहिए, लेकिन सीमित कार्रवाई के चलते बच्चियों के यौन शोषण पर चुप रहने वाले अधिकारी और शह देने वाले प्रभावी व्यक्ति गिरफ्त से बच जाएँगे। इसकी आँच योगी-नीतीश तक नहीं पहुँचेगी। एक महिला संगठन का मानना है कि बालिका संरक्षण गृहों में सामाजिक कार्यकत्रियों की नियुक्ति होनी चाहिए, बिना उनकी भूमिका के बच्चियों पर होने वाले यौन हिंसा को रोकना मुश्किल है।
देवरिया बालिका संरक्षण गृह संरक्षिका गिरजा त्रिपाठी के बहाने हम उन दुःखद पहलुओं का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे कि आखिर वे कौन से कारक हैं, जहाँ मां-बाप जैसे माने जाने वाले संरक्षिका या संरक्षक ही रक्तपिपासु भक्षकों जैसे बर्ताव करते पाए जा रहे हैं। आखिर बच्चियों की आपबीती सुनकर रूह काँप जाती है। आखिर क्यों मानवता को कंपा देने वाले व्यवहार को सहने के लिए बच्चियाँ मजबूर है? वह इतनी बेबस और लाचार क्यों हैं? इसके लिए शोषक और शोषित दोनों पक्षों की जाँच, पड़ताल होनी चाहिए।
प्रथम दृष्टया, गिरजा त्रिपाठी की ओर रुख करने पर पता चलता है कि उनके पास ‘माँ विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाज सेवा संस्थान के द्वारा देवरिया रेलवे स्टेशन के पास बालिका संरक्षण गृह, भुजौली कालोनी में वृद्धाश्रम, सलेमपुर (जमुना) में तलाक व विधवा संरक्षण गृह, गोरखपुर (मोहद्दीपुर) में बाल संरक्षण गृह, दत्तक ग्रहण अभिकरण और स्वाध्याय गृह का संचालन होता है। मनरेगा योजना के तहत माँ विंध्यवासिनी संस्थान को महिला मजदूरों के बच्चों को काम करने के दौरान देखभाल करने को पालना गृह योजना के संचालन की भी जिम्मेदारी मिली थी। यह और बात है कि जगह-जगह ऐसे पालना गृह योजना में फर्जी मजदूरों और उनके बच्चों के नाम पर बजट लेने की शिकायत मिलने लगी है, लेकिन इससे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ऐसी संरक्षिका (या संरक्षक उनके पति) पिछले दसियों साल में बढ़ती बेरोजगारी और मंहगाई के दौर में भी लखपति करोड़पति वर्गों में शामिल रहे। प्रतिष्ठा का लाभ लेकर और लुटेरा वर्ग के चरित्र को साकार करने वालों की ही तो शासन प्रशासन में ऊपर तक पकड़ होती है।
दूसरी ओर बालिका संरक्षण गृह के उन बच्चियों की और रुख करते हैं कि वह उत्पीड़ित या शोषित होने वाली लड़कियां कौन है उनकी स्थिति क्या है? ये किनकी बेटियाँ हैं? आखिर यह आती कहाँ से है? उनको संरक्षण गृहों में क्यों लाया गया? जब हम इन सवालों का जवाब ढूँढने की कोशिश करते हैं तो पता चलता है कि हमारे देश में हमारे समाज में बेसहारा, बेबस, अनाथ, लाचार, परिवार, समाज से दुत्कारी गई या फेंक दी गई ऐसी बेटियाँ हैं, जिनका दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसे वे अपना कह सकें।
टीवी चैनल इस घटना को सनसनीखेज के रूप में पेश कर रहे हैं तो पक्ष-विपक्ष के नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हम ऐसा नहीं मानते कि इसके पहले की सरकार के शासनकाल में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी थी, लेकिन एक बात साफ है कि शासन-प्रशासन के नाक के नीचे यह सारी घटनाएं घट रही थीं और हमारे देश की सरकार बड़े-बड़े पोस्टर और होल्डरों पर जो बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा लिख रही है और महिला सशक्तिकरण का दावा कर रही है उस की पोल खुल चुकी है। इस घटनाक्रम के बाद लगता है कि जनता के पैसे से बड़े-बड़े होर्डिंग लगा कर जो हँसते हुए मोदी के चेहरे को दिखाते हुए लिखा जा रहा है कि-बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार। दरअसल ये जनता को मोदी मुँह चिढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। भाजपा के मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से बलात्कार की घटनाओं में साफ तौर पर तेजी से इजाफा हुआ है एनसीआरबी की क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 2010 से 2016 के बीच प्रति एक लाख आबादी पर बलात्कार की घटनाएँ और उनकी दर इस प्रकार है-वर्ष 2010 में 22172, वर्ष 2011 में 24206, वर्ष 2012 में 24926, वर्ष 2013 में 33707, वर्ष 2014 में 36735, वर्ष 2015 में 34652 और वर्ष 2016 में 29947 बलात्कार की घटनाएँ हुई, यानी क्रमशः 3.9 प्रतिशत, 4.1 प्रतिशत, 4.3 प्रतिशत, 5.7 प्रतिशत, 6.1 प्रतिशत, 5.7 प्रतिशत 6.9 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई। यह सब साफ-साफ दिखाता है कि वर्षों के दौरान बलात्कार की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा था और एनडीए सरकार के बाद जो भाजपा गठबंधन की राजग सरकार है उसमें भी खासा उछाल आया। गर्भ में ही बच्चियों को मार देने की घटनाएँ हिंदुओं में सबसे ज्यादा हैं जो भाजपा शासित राज्यों में चिंताजनक लैंगिक अनुपात से जाहिर होता है। लैन्सेंट द्वारा 2011 में किए गए एक
अध्ययन के मुताबिक पिछले तीन दशकों में एक करोड़ बीस लाख बच्चियों को जन्म से पहले ही मार दिया गया। लोकसंघर्ष के पिछले अंक में कठुआ में हुए गिरोह बंद बलात्कार पर लिखे मेरे लेख को पाठक जरूर पढ़ें, जिसमें भाजपा से जुड़े 21 बलात्कारियों का क्रमवार विवरण है।
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार देशभर के 9000 बाल संरक्षण गृहों में कुल 233000 बच्चे रहते हैं। इनमें बड़ी संख्या में बच्चियाँ हैं। अधिकांश बालिका गृहों के वही हालत हैं जो मुजफ्फरपुर या देवरिया में सामने आए हैं। इस तरह के तथ्य पहले भी देश के अन्य हिस्सों से आते रहे हैं।
हाल फिलहाल देवरिया के डीएम और एसपी को सस्पेंड कर दिया गया है और देवरिया बालिका संरक्षण गृह की संरक्षिका गिरिजा त्रिपाठी व उनकी दो पुत्रियों-कनकलता व कंचनलता त्रिपाठी और उनके पति मोहन त्रिपाठी को हिरासत में लिया जा चुका है। तमाम वामपंथी, दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा कठोर से कठोर कार्रवाई की माँग के लिए मुख्यमंत्री के पुतला दहन से लेकर चक्का जाम और प्रतिरोध सभाएँ की गई हैं। पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय का कहना है कि ऐसे मामलों में पॉस्को के धारा 19-21 के तहत जाँच के दायरे में आला अधिकारियों और मुख्यमिंत्रयों को भी लाना चाहिए। इन पर सीधी कार्रवाई करते हुए मुकदमा दर्ज होना चाहिए, लेकिन सीमित कार्रवाई के चलते बच्चियों के यौन शोषण पर चुप रहने वाले अधिकारी और शह देने वाले प्रभावी व्यक्ति गिरफ्त से बच जाएँगे। इसकी आँच योगी-नीतीश तक नहीं पहुँचेगी। एक महिला संगठन का मानना है कि बालिका संरक्षण गृहों में सामाजिक कार्यकत्रियों की नियुक्ति होनी चाहिए, बिना उनकी भूमिका के बच्चियों पर होने वाले यौन हिंसा को रोकना मुश्किल है।
देवरिया बालिका संरक्षण गृह संरक्षिका गिरजा त्रिपाठी के बहाने हम उन दुःखद पहलुओं का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे कि आखिर वे कौन से कारक हैं, जहाँ मां-बाप जैसे माने जाने वाले संरक्षिका या संरक्षक ही रक्तपिपासु भक्षकों जैसे बर्ताव करते पाए जा रहे हैं। आखिर बच्चियों की आपबीती सुनकर रूह काँप जाती है। आखिर क्यों मानवता को कंपा देने वाले व्यवहार को सहने के लिए बच्चियाँ मजबूर है? वह इतनी बेबस और लाचार क्यों हैं? इसके लिए शोषक और शोषित दोनों पक्षों की जाँच, पड़ताल होनी चाहिए।
प्रथम दृष्टया, गिरजा त्रिपाठी की ओर रुख करने पर पता चलता है कि उनके पास ‘माँ विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाज सेवा संस्थान के द्वारा देवरिया रेलवे स्टेशन के पास बालिका संरक्षण गृह, भुजौली कालोनी में वृद्धाश्रम, सलेमपुर (जमुना) में तलाक व विधवा संरक्षण गृह, गोरखपुर (मोहद्दीपुर) में बाल संरक्षण गृह, दत्तक ग्रहण अभिकरण और स्वाध्याय गृह का संचालन होता है। मनरेगा योजना के तहत माँ विंध्यवासिनी संस्थान को महिला मजदूरों के बच्चों को काम करने के दौरान देखभाल करने को पालना गृह योजना के संचालन की भी जिम्मेदारी मिली थी। यह और बात है कि जगह-जगह ऐसे पालना गृह योजना में फर्जी मजदूरों और उनके बच्चों के नाम पर बजट लेने की शिकायत मिलने लगी है, लेकिन इससे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ऐसी संरक्षिका (या संरक्षक उनके पति) पिछले दसियों साल में बढ़ती बेरोजगारी और मंहगाई के दौर में भी लखपति करोड़पति वर्गों में शामिल रहे। प्रतिष्ठा का लाभ लेकर और लुटेरा वर्ग के चरित्र को साकार करने वालों की ही तो शासन प्रशासन में ऊपर तक पकड़ होती है।
दूसरी ओर बालिका संरक्षण गृह के उन बच्चियों की और रुख करते हैं कि वह उत्पीड़ित या शोषित होने वाली लड़कियां कौन है उनकी स्थिति क्या है? ये किनकी बेटियाँ हैं? आखिर यह आती कहाँ से है? उनको संरक्षण गृहों में क्यों लाया गया? जब हम इन सवालों का जवाब ढूँढने की कोशिश करते हैं तो पता चलता है कि हमारे देश में हमारे समाज में बेसहारा, बेबस, अनाथ, लाचार, परिवार, समाज से दुत्कारी गई या फेंक दी गई ऐसी बेटियाँ हैं, जिनका दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसे वे अपना कह सकें।
सभी लोग आए दिन अखबार पढ़ते होंगे एक नवजात बच्ची सड़क के किनारे पाई गई। अब दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य ऐसी कुछ नवजात बच्चियों पर किसी की नजर पड़ जाती है और पुलिस के सहयोग से इन्हे ऐसे तथाकथित संरक्षण गृहों को पहुँचा दिया जाता है। ऐसे ही भीख माँगने वाली, प्रेमी के साथ घर से भागकर आने के बाद प्रेमी द्वारा धोखा दी जाने वाली, पुलिस द्वारा मुक्त कराई गई वेश्याओं की बेटियों के लिए ऐसे संरक्षण गृह ही अंतिम विकल्प दिखते हैं।कुछ बेटियाँ साम्प्रदायिक, जातिय या अन्य संघर्षरत क्षेत्रों से अनाथ होकर आ जाने को लेकर मजबूर हुई होती हैं। ऐसे गरीब, भूमिहीन, बेबस, लाचार बेटियां की मजबूरी ही सब अत्याचार को घुट-घुटकर पीने सहने को विवश करती रहती है। ऐसे में औरत ही औरत का दुश्मन है जैसी रूढ़ कहावत को नकारते हुए संरक्षिका और बच्चियों के बीच वर्गीय फर्क को पहचानने की जरूरत है। हकीकत के मां-बाप और उनके बच्चों में कोई वर्गीय विभाजन नहीं दिखता लेकिन यहां संरक्षण गृहों के मालिक और वहाँ के अनाथ, बेबस, लाचार बच्चों के बीच साफ वर्गीय विभाजन है और दोनों के बीच कोई ममता नहीं एक लाभ-हानि या मुनाफे का संबंध है। इसलिए बच्चियों के लिए अच्छे स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने और अच्छी सरकारी या गैर सरकारी नौकरियों के बारे में सोचा भी नहीं जाता, उन्हें बर्तन मांजने, झाड़ू-पोछा लगाने और देह-व्यापार करने के लायक समझा जाता है। क्या संरक्षण गृहों के मालिक या मालिकिन या आला अधिकारी, राजनेता अपने बच्चे-बच्चियों के लिए ऐसा सोच भी सकते हैं? कभी नहीं! इसीलिए इन बच्चियों के साथ यौन हिंसा का समाधान का रास्ता भी वर्ग संघर्षों के रास्ते से जुड़ जाता है जो सम्पत्तिशाली वर्ग के लिए काफी निर्मम और कुख्यात है। आज भी सर्वहारा (मजदूर) वर्ग ही इस संघर्ष को सफलता की ओर ले जा सकता है। मेहनतकश मजदूर वर्ग का दर्शन ऐलान करता है कि इन बच्चियों के साथ यौन हिंसा, महिलाओं के व्यापक आबादी पर जारी यौन हिंसा का ही हिस्सा हैं। बच्चियों-महिलाओं के साथ वर्गीय और पितृसत्तात्मक दोनों तरीकों से होने वाले क्रूर व अशिष्ट शोषण के खिलाफ संघर्ष की चाह रखने वाले लोगों को इसके बुनियादी कारणों को समझना होगा। इसके साथ ही समझ को यहाँ तक ले जानी चाहिए कि महिलाओं पर जारी यौन हिंसा की समाप्ति सड़ चुकी व्यवस्था के समाप्ति से ही संभव है, जो ऐसे अपराधियों को जन्म देती है, प्रोत्साहन देती है और जायज ठहराती है। इससे कम पर समाधान नहीं ढूंढा जा सकता।
मुजफ्फरपुर के बालिका संरक्षण गृह के मनीष ठाकुर हों या देवरिया की गिरजा त्रिपाठी हों या प्रतापगढ़ की बालिका गृह की संरक्षिका रमा मिश्रा हों ये सभी समाज के परजीवी वर्ग यानी कि साम्राज्यवाद और सामंतवाद परस्त पूँजीपति या जमींदार वर्ग के ही हिस्से हैं जो जनता के दुश्मन माने जाने चाहिए। ये महिलाओं की लैंगिक वर्गीय शोषण से अति मुनाफा कमाने का धंधा करते हैं। लगातार अपने अति मुनाफे को कायम रखने के लिए वर्गीय व पितृसत्तात्मक शोषण उत्पीड़न को जारी रखते हैं। ध्यान रहे यह वर्गीय और लैंगिक दमन महिलाओं के सपनों, इरादों और राज्य सत्ता के खिलाफ सामाजिक क्रांति को जड़ से खत्म कर देता है। भारतीय समाज में सामंतवाद व पूंजीवादी, साम्राज्यवाद का ऐसा गठजोड़ बन चुका है जो एक मानव द्रोही समाज का निर्माण करता है। यही कारण है कि हर जगह महिलाओं के खिलाफ पुरुष प्रधान मूल्यों, धारणाओं, प्रथाओं, आदतों, संस्कृतियों व विचारधाराओं की सड़न है। पितृसत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मौजूदा शोषक शासक वर्ग के हितों में महिलाओं के ऊपर प्रभुत्व, शोषण, उत्पीड़न, दमन और अनेक अपराधों को थोपता है और साथ ही साथ महिला-पुरुष के आपसी वर्गीय एकता को भी तोड़ता है। वर्तमान सत्ता इतनी मानवद्रोही व्यवस्था है जो पितृसत्तात्मक (पुरुष प्रधान) विचार और धारणा को जायज बनाती है।
हमारे देश में सामंती और ब्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था के आपसी गठजोड़ से कायम 200 वर्षों की साम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम चला लेकिन
मध्यमवर्गीय पूँजीवादी नेतृत्व के चलते जनवाद-क्रांति संभव नहीं हो पाई। नतीजतन देश में सामंती विचारधारा का निर्मूलन नहीं हो सका। आज भी पुरुष प्रधान सामंती विचारधारा समाज में मौजूद है जो कि महिलाओं का शरीर पुरुषों के लिए लिप्सा को तृप्त करने के लिए ही मानते हैं। उनके अनुसार पुरुषों का सबसे बड़ा पुरुषार्थ यह होता है कि वह एक से अधिकस्त्रियों का भोग करें। ऐसे में महिलाओं द्वारा अनिच्छा जाहिर करने या विरोध करने वाली न्याय पूर्ण दावेदारी के लिए बलात्कार सबक सिखाने वाला एक हथियार है। पुराने समय में राजे महाराजे और नवाबों के जमाने में सैकड़ों स्त्रियों का रनिवास और हरम बनाया जाता रहा। बहुपत्नी विवाह प्रथा प्रभावी रही है। एकनिष्ठता की माँग तो सिर्फ स्त्रियों से की जाती है, पुरुष तो व्यभिचार या बलात्कार के लिए स्वतंत्र हैं।
वर्तमान भारतीय व्यवस्था में आज भी एक ओर तमाम सड़े-गले, पिछड़े व पितृ सत्तात्मक मध्ययुगीन सामती मूल्य, मान्यताओं को शादी-विवाह, रीति, रिवाजों, उत्सवों में देखते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं कार्यक्रमों में पूँजीवादी साम्राज्यवादी अर्थात पश्चिमी संस्कृति से गलबहियाँ भी देख सकते हैं। यह अनायास नहीं है कि टाई-कोट पहनना, अंग्रेजी बोलना, साम्राज्यवादी धुनों पर बंदरों जैसे थिरकना आधुनिकता की पहचान बन चुकी है।
इस तरह परत-दर-परत अंतर्विरोधों वाला जो जटिल भारतीय समाज का निर्माण हो चुका है उन्हें हल किए बिना सिर्फ बलात्कारियों और उनके संरक्षकों को मृत्यु दंड देना, धार्मिक बनाना या फाँसी दे देना बुनियादी कारणों को खत्म करने की माँग करने की जगह उनके परिणामों से सख्ती से निपटने की माँग भर हैं। महिला पुलिस का संरक्षण या महिला संगठन (जहाँ व्यक्ति केंद्रित या गैर जनवादी, जूनियार्टी, सिनियार्टी, चापलूसी लोग का बोलबाला ही है) की कार्यकत्रियों के संरक्षण भी इस बात की गारंटी नहीं करता कि बच्चियों, महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा, शोषण, उत्पीड़न, दमन को रोकने की गारंटी कर देगा क्योंकि सवाल राज्यसत्ता का है। जिसमें तमाम बहुतायत लोग शोषक, शासक वर्गीय विचारों से लैस होते हैं। विषैली वृक्ष की जड़ों को उखाड़ने के बजाए पत्ते तोड़ने से अब काम नहीं चलेगा। महिलाओं के खिलाफ शोषण, उत्पीड़न, दमन जैसी तमाम समस्याओं से मुक्ति का सवाल एक वर्गीय सवाल है और देश में चल रहे विविध वर्ग संघर्षों का जरूरी हिस्सा है। हमें हर तरह के संघर्षों में महिलाओं के लिए हक-हिस्से में, विकास में समान भागीदारी और पितृसत्ता की समाप्ति के लिए राजनीति, अर्थनीति ,विचारधारा और संस्कृति में भी वर्ग संघर्ष को जारी रखना होगा। महिला-पुरुष की सच्ची बराबरी का एहसास तो तभी कराया जा सकता है जब क्रान्ति के जरिए आधार और अधिरचना दोनों में क्रांतिकारी रूपांतरण द्वारा समता व न्याय पर आधारित सचमुच लोकतांत्रिक समाज का निर्माण हो।
हाल के 27-28 वर्षों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही नृशंसता, बर्बरता और घृणित यौन हिंसा का प्रमुख कारण है साम्राज्यवादी वैश्वीकरण, निजीकरण व उदारीकरण (स्च्ळ) द्वारा जनित उपभोक्ता वाद! 1991 से नई आर्थिक नीति (स्च्ळ) लागू हो जाने के बाद खुलेआम पतनशील साम्राज्यवादी संस्कृति व सामंती पितृसत्तात्मक संस्कृतियों का गठजोड़ मिलकर रुग्ण, पतनशील, विद्रूप संस्कृति को बढ़ा दिया है। ताकि स्त्री देह से रात दिन अति मुनाफा (सुपर प्रॉफिट) कमाया जा सके। स्त्री देह को माल के रूप में सहज बनाने के लिए वर्तमान राज्यसत्ता द्वारा संचालित मीडिया, फिल्में, अखबार, पत्र-पत्रिकाएं व इंटरनेट मिलकर ऐसी काल्पनिक स्त्री की तस्वीर पेश करते हैं जो हर हालत में हर पुरुष को मिलनी चाहिए। जबकि वास्तविक जीवन में अधिकांश भारतीय पुरुषों को ऐसी स्त्री की झलक भी नहीं मिलती। उनके जीवन में उपस्थित स्त्री का बाजार द्वारा प्रायोजित स्त्री से कोई मेल नहीं है। स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाला भारतीय पुरुष का पितृसत्तात्मक सामंती मन रात दिन उसे पाने भोगने के लिए बेचैन रहता है। इसके अलावा दूसरा पक्ष यह भी है कि पूँजी की गति महिलाओं की आजादी एवं आत्मनिर्भरता की आकांक्षा और रोजी-रोटी की जरूरतें आज अधिक से अधिक संख्या में औरतों को घर से बाहर निकलने और बाजार में मर्दों से होड़ करने को बाध्य कर रही है। इस तरह वह जाने-अंजाने चुनौती देती है और उसका शिकार भी बनती हैं। सड़क-चौराहों से लेकर संसद के गलियारों तक ऐसे अपेक्षाकृत स्वतंत्र महिलाओं पर फब्तियाँ कसने वाले हमें मिल जाते हैं। इस प्रकार समाज में एक ऐसी स्त्री विरोधी संस्कृति का निर्माण किया गया है जिसमें स्त्री की स्वतंत्रता, बराबरी, गरिमा और आत्म सम्मान के लिए कोई स्थान नहीं दिखता है। सामंती और पूँजीवादी, साम्राज्यवाद की दोनों संस्कृतियाँ स्त्री को अलग-अलग तरीके से भोगने की वस्तु समझती हैं। साथ ही वे स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व को जायज ठहराती हैं। स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार तथा यौन उत्पीड़न के अन्य रूप इसी वर्चस्वशाली संस्कृति और विचारधारा के परिणाम हैं। ध्यान रहे ऐसी सड़ी गली पतित संस्कृति व विचारधारा को पैदा करने वाली प्रश्रय देने वाली सड़ चुकी मौजूदा व्यवस्था (राजसत्ता) ही है। इसलिए महिलाओं पर जारी यौन हिंसा की समाप्ति सड़ चुकी व्यवस्था के समाप्ति से ही संभव है जो ऐसे अपराधियों को जन्म देती है, प्रोत्साहन देती है और जायज ठहराती है।
वर्तमान में लाखों-करोड़ों पीड़ित महिलाएँ, बच्चियाँ मौजूदा सड़ चुकी व्यवस्था के खिलाफ जनांदोलनों में शामिल हो रही हैं, अपनी चुप्पी तोड़ रही हैं और नए समाज के विविध विकल्पों में शामिल होने का प्रयास कर रही हैं-यह एक नई रोशनी है। हमारे देश के मणिपुर, असम, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, काश्मीर, तेलंगाना, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में विविध न्यायपूर्ण आंदोलनों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका-भागीदारी है। हमारे उत्तर भारत में भी उत्तराखंड में जंगल के पेड़ों की सुरक्षा में महिलाओं द्वारा छेड़ा गया चिपको-आन्दोलन, निर्भया कांड के खिलाफ नई दिल्ली में महिलाओं के साथ उठ खड़ा हुआ जनप्रतिरोध, बीएचयू की छात्राओं की बहादुराना संघर्षों से प्रेरणा मिल रही है। देश में बाबाओं के दुष्चक्र में फंसे हुए समाज के बीच में इक्की-दुक्की लड़कियाँ ही आसाराम बापू और राम रहीम जैसे लोगों को जेल की सलाखों के पीछे धकेल पाती हैं। बालिका संरक्षण गृह की इक्की-दुक्की लड़कियाँ इस अग्रिम कड़ी में जुड़ेंगी। इरोम शर्मीला, सोनी सोढ़ी, मेधा पाटेकर, तीस्ता सितलवाड़ अब अकेली नहीं रहीं। समाज में बताने की जरूरत है-चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है, जिंदा आदमी के लिए!
हमारे देश में सामंती और ब्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था के आपसी गठजोड़ से कायम 200 वर्षों की साम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम चला लेकिन
मध्यमवर्गीय पूँजीवादी नेतृत्व के चलते जनवाद-क्रांति संभव नहीं हो पाई। नतीजतन देश में सामंती विचारधारा का निर्मूलन नहीं हो सका। आज भी पुरुष प्रधान सामंती विचारधारा समाज में मौजूद है जो कि महिलाओं का शरीर पुरुषों के लिए लिप्सा को तृप्त करने के लिए ही मानते हैं। उनके अनुसार पुरुषों का सबसे बड़ा पुरुषार्थ यह होता है कि वह एक से अधिकस्त्रियों का भोग करें। ऐसे में महिलाओं द्वारा अनिच्छा जाहिर करने या विरोध करने वाली न्याय पूर्ण दावेदारी के लिए बलात्कार सबक सिखाने वाला एक हथियार है। पुराने समय में राजे महाराजे और नवाबों के जमाने में सैकड़ों स्त्रियों का रनिवास और हरम बनाया जाता रहा। बहुपत्नी विवाह प्रथा प्रभावी रही है। एकनिष्ठता की माँग तो सिर्फ स्त्रियों से की जाती है, पुरुष तो व्यभिचार या बलात्कार के लिए स्वतंत्र हैं।
वर्तमान भारतीय व्यवस्था में आज भी एक ओर तमाम सड़े-गले, पिछड़े व पितृ सत्तात्मक मध्ययुगीन सामती मूल्य, मान्यताओं को शादी-विवाह, रीति, रिवाजों, उत्सवों में देखते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं कार्यक्रमों में पूँजीवादी साम्राज्यवादी अर्थात पश्चिमी संस्कृति से गलबहियाँ भी देख सकते हैं। यह अनायास नहीं है कि टाई-कोट पहनना, अंग्रेजी बोलना, साम्राज्यवादी धुनों पर बंदरों जैसे थिरकना आधुनिकता की पहचान बन चुकी है।
इस तरह परत-दर-परत अंतर्विरोधों वाला जो जटिल भारतीय समाज का निर्माण हो चुका है उन्हें हल किए बिना सिर्फ बलात्कारियों और उनके संरक्षकों को मृत्यु दंड देना, धार्मिक बनाना या फाँसी दे देना बुनियादी कारणों को खत्म करने की माँग करने की जगह उनके परिणामों से सख्ती से निपटने की माँग भर हैं। महिला पुलिस का संरक्षण या महिला संगठन (जहाँ व्यक्ति केंद्रित या गैर जनवादी, जूनियार्टी, सिनियार्टी, चापलूसी लोग का बोलबाला ही है) की कार्यकत्रियों के संरक्षण भी इस बात की गारंटी नहीं करता कि बच्चियों, महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा, शोषण, उत्पीड़न, दमन को रोकने की गारंटी कर देगा क्योंकि सवाल राज्यसत्ता का है। जिसमें तमाम बहुतायत लोग शोषक, शासक वर्गीय विचारों से लैस होते हैं। विषैली वृक्ष की जड़ों को उखाड़ने के बजाए पत्ते तोड़ने से अब काम नहीं चलेगा। महिलाओं के खिलाफ शोषण, उत्पीड़न, दमन जैसी तमाम समस्याओं से मुक्ति का सवाल एक वर्गीय सवाल है और देश में चल रहे विविध वर्ग संघर्षों का जरूरी हिस्सा है। हमें हर तरह के संघर्षों में महिलाओं के लिए हक-हिस्से में, विकास में समान भागीदारी और पितृसत्ता की समाप्ति के लिए राजनीति, अर्थनीति ,विचारधारा और संस्कृति में भी वर्ग संघर्ष को जारी रखना होगा। महिला-पुरुष की सच्ची बराबरी का एहसास तो तभी कराया जा सकता है जब क्रान्ति के जरिए आधार और अधिरचना दोनों में क्रांतिकारी रूपांतरण द्वारा समता व न्याय पर आधारित सचमुच लोकतांत्रिक समाज का निर्माण हो।
हाल के 27-28 वर्षों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही नृशंसता, बर्बरता और घृणित यौन हिंसा का प्रमुख कारण है साम्राज्यवादी वैश्वीकरण, निजीकरण व उदारीकरण (स्च्ळ) द्वारा जनित उपभोक्ता वाद! 1991 से नई आर्थिक नीति (स्च्ळ) लागू हो जाने के बाद खुलेआम पतनशील साम्राज्यवादी संस्कृति व सामंती पितृसत्तात्मक संस्कृतियों का गठजोड़ मिलकर रुग्ण, पतनशील, विद्रूप संस्कृति को बढ़ा दिया है। ताकि स्त्री देह से रात दिन अति मुनाफा (सुपर प्रॉफिट) कमाया जा सके। स्त्री देह को माल के रूप में सहज बनाने के लिए वर्तमान राज्यसत्ता द्वारा संचालित मीडिया, फिल्में, अखबार, पत्र-पत्रिकाएं व इंटरनेट मिलकर ऐसी काल्पनिक स्त्री की तस्वीर पेश करते हैं जो हर हालत में हर पुरुष को मिलनी चाहिए। जबकि वास्तविक जीवन में अधिकांश भारतीय पुरुषों को ऐसी स्त्री की झलक भी नहीं मिलती। उनके जीवन में उपस्थित स्त्री का बाजार द्वारा प्रायोजित स्त्री से कोई मेल नहीं है। स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाला भारतीय पुरुष का पितृसत्तात्मक सामंती मन रात दिन उसे पाने भोगने के लिए बेचैन रहता है। इसके अलावा दूसरा पक्ष यह भी है कि पूँजी की गति महिलाओं की आजादी एवं आत्मनिर्भरता की आकांक्षा और रोजी-रोटी की जरूरतें आज अधिक से अधिक संख्या में औरतों को घर से बाहर निकलने और बाजार में मर्दों से होड़ करने को बाध्य कर रही है। इस तरह वह जाने-अंजाने चुनौती देती है और उसका शिकार भी बनती हैं। सड़क-चौराहों से लेकर संसद के गलियारों तक ऐसे अपेक्षाकृत स्वतंत्र महिलाओं पर फब्तियाँ कसने वाले हमें मिल जाते हैं। इस प्रकार समाज में एक ऐसी स्त्री विरोधी संस्कृति का निर्माण किया गया है जिसमें स्त्री की स्वतंत्रता, बराबरी, गरिमा और आत्म सम्मान के लिए कोई स्थान नहीं दिखता है। सामंती और पूँजीवादी, साम्राज्यवाद की दोनों संस्कृतियाँ स्त्री को अलग-अलग तरीके से भोगने की वस्तु समझती हैं। साथ ही वे स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व को जायज ठहराती हैं। स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार तथा यौन उत्पीड़न के अन्य रूप इसी वर्चस्वशाली संस्कृति और विचारधारा के परिणाम हैं। ध्यान रहे ऐसी सड़ी गली पतित संस्कृति व विचारधारा को पैदा करने वाली प्रश्रय देने वाली सड़ चुकी मौजूदा व्यवस्था (राजसत्ता) ही है। इसलिए महिलाओं पर जारी यौन हिंसा की समाप्ति सड़ चुकी व्यवस्था के समाप्ति से ही संभव है जो ऐसे अपराधियों को जन्म देती है, प्रोत्साहन देती है और जायज ठहराती है।
वर्तमान में लाखों-करोड़ों पीड़ित महिलाएँ, बच्चियाँ मौजूदा सड़ चुकी व्यवस्था के खिलाफ जनांदोलनों में शामिल हो रही हैं, अपनी चुप्पी तोड़ रही हैं और नए समाज के विविध विकल्पों में शामिल होने का प्रयास कर रही हैं-यह एक नई रोशनी है। हमारे देश के मणिपुर, असम, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, काश्मीर, तेलंगाना, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में विविध न्यायपूर्ण आंदोलनों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका-भागीदारी है। हमारे उत्तर भारत में भी उत्तराखंड में जंगल के पेड़ों की सुरक्षा में महिलाओं द्वारा छेड़ा गया चिपको-आन्दोलन, निर्भया कांड के खिलाफ नई दिल्ली में महिलाओं के साथ उठ खड़ा हुआ जनप्रतिरोध, बीएचयू की छात्राओं की बहादुराना संघर्षों से प्रेरणा मिल रही है। देश में बाबाओं के दुष्चक्र में फंसे हुए समाज के बीच में इक्की-दुक्की लड़कियाँ ही आसाराम बापू और राम रहीम जैसे लोगों को जेल की सलाखों के पीछे धकेल पाती हैं। बालिका संरक्षण गृह की इक्की-दुक्की लड़कियाँ इस अग्रिम कड़ी में जुड़ेंगी। इरोम शर्मीला, सोनी सोढ़ी, मेधा पाटेकर, तीस्ता सितलवाड़ अब अकेली नहीं रहीं। समाज में बताने की जरूरत है-चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है, जिंदा आदमी के लिए!
-राजेश
मोबाइल : 9889231737
मोबाइल : 9889231737
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2018 में प्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें