मंगलवार, 18 सितंबर 2018

नागरिकता पर राजनीति

असम में शेष भारत से जा कर बसने वालों का इतिहास नया नहीं है। अंग्रेजी शासनकाल में बंगालियों को असम में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। आजादी के बाद कई हिंदी भाषी राज्यों झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और यहाँ तक कि नेपाल से भी लोग जाकर असम में बसते रहे हैं। निःसंदेह इसमें बंगलादेश से भी गैर कानूनी तौर पर असम में दाखिल हो गए बंगलादेशी (हिदू, मुसलमान दोनों) भी शामिल हैं। बंगलादेश की जनगणना में हिंदू अल्पसंख्यकों का घटता प्रतिशत भी इसे पुष्ट करता है जो विभाजन के समय 24 प्रतिशत थी और अब घटकर 9 प्रतिशत रह गई है। असम के गैर असमियों में बंगला भाषियों की संख्या अधिक होने के कारण स्थानीय लोगों का गुस्सा उनके खिलाफ ही था। उनके खिलाफ असम के मूलनिवासी समुदाय के छात्र, नवजवान 1977 से 1985 तक आनदोलनरत् रहे। यह आनदोलन शुद्ध रूप से बंगाली और विदेशी विरोधी था। 1985 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में आनदोलनकारी छात्र संगठन आल असम स्टूडेंट्स यूनियन, भारत सरकार और असम सरकार के बीच असम समझौता हुआ। इस समझौते में स्पष्ट कहा गया था कि 24 मार्च 1971 की आधी रात के बाद असम में प्रवेश करने वाले विदेशियों को भारतीय नागरिक नहीं माना जाएगा और उन्हें देश से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद केन्द्र और असम में सरकारें बदलती रहीं, यहाँ तक कि असम गणपरिषद की सरकार भी बनी लेकिन इस समझौते पर अमल नहीं हुआ।  मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि (मतगणना के आधार पर तैयार) 1951 के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को विशुद्ध नागरिकों की पहचान के लिए अपडेट किया जाए। इस प्रकार एनआरसी की वर्तमान प्रक्रिया 2015 में शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता के चलते तीन साल की प्रक्रिया के बाद पहली ड्राफ्ट रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1917 को जारी की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल 3.29 करोड़ लोगों ने पंजीकरण के लिए आवेदन किया था जिसमें 1.9 करोड़ लोगों को पंजीकृत किया गया था। 30 जुलाई 2018 को दूसरा और फाइनल ड्राफ्ट जारी किया गया जिसके मुताबिक 2.89 करोड लोगों को वैध नागरिक माना गया। इस प्रकार कुल 40 लाख लोगों की नागरिकता पर सवालिया निशान लग गया। यह आँकड़ा असम सरकार के गृह एवं राजनैतिक विभाग द्वारा 2012 में जारी श्वेत पत्र के आँकड़ों से 800 प्रतिशत अधिक है। 20 अक्तूबर 2012 को  असम सरकार के गृह एवं राजनैतिक विभाग ने विदेशियों के मुद्दे पर एक श्वेत पत्र जारी किया जिसके अनुसार शुरू में असम में विदेशियों की संख्या 1,50,000-2,00,000 आँकी गई थी बाद में इस संख्या के 5,00,000 तक होने का अनुमान लगाया गया। वैसे भी अगर मान लिया जाए कि चालीस लाख लोग अवैध तरीके से 25 मार्च 1971 से 2014 बीच (एनआरसी प्रक्रिया शुरू होने तक) बंगलादेश से भारत आए तो घुसपैठ का प्रति वर्ष औसत 90,000 और प्रति माह 7,500 से अधिक आता है। इतने बड़े पैमाने पर इतने लम्बे समय तक घुसपैठ कम से कम उस सीमा पर सम्भव नहीं है जहाँ सीमा सुरक्षा बल सरहदों की निगहबानी के लिए तैनात हों। वहीं यह तथ्य भी कि 1977 से 1985 तक बंगला भाषियों के खिलाफ स्थानीय छात्रों, नवजवानों के हिंसक आनदोलनों और नस्लीय दंगों के दौरान घुसपैठ की सम्भावना नगण्य रह जाती है। अगर इन वर्षों को निकाल दिया जाए तो घुसपैठ का यह औसत बहुत बढ़ जाता है जो स्वभाविक नहीं है। इसका मतलब यह हरगिज नहीं है कि अवैध प्रवास की समस्या नहीं है लेकिन शायद जिस स्तर पर इसका होना सामने आ रहा है वह न हो। इसके ऐतिहासिक कारण भी हैं। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि 1971 के पाकिस्तान विभाजन से पहले पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तानी सरहदों पर एक जैसी चौकसी नहीं थी। इसके रणनीतिक कारण थे। इसी के चलते 1971 में भारत के सैन्य हस्तक्षेप से पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश बना। इस दौरान दोनों देशों के बीच आम नागरिकों और उन्हीं के भेस में दोनों देशों की एजेंसियों अहलकारों का बड़े स्तर पर सरहदों के पार आना जाना रहा।
    राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) ने अपने फाइनल ड्राफ्ट में जिन लोगों को भारतीय नहीं माना है उनमें पूर्व राष्ट्रपति भारत सरकार फखरुद्दीन अली अहमद के परिजन भी हैं, सेवानिवृत्त सेना के अधिकारी मो. अजमल हक, भाजपा विधायक रमाकांत देवरी, परेश बरुआ की पत्नी और बेटों के नाम भी शामिल नहीं हैं। ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनके परिवार के कुछ लोगों के नाम तो मौजूद हैं लेकिन कुछ अन्य के नाम नहीं हैं। बलिया उत्तर प्रदेश की छोटकी देवी का परिवार 1945 में असम चला गया था। उनके बेटे और बहू को संदिग्ध मतदाता सूची में डाल कर जेल भेज दिया गया। सदमें में छोटकी देवी को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। एनआरसी की बहस के दौरान त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब देव और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी की नागरिकता को लेकर कुछ दिलचस्प बातें सामने आई। इस बीच बिप्लब देब के विकीपीडिया पेज को तीन दिनों में 37 बार एडिट किया गया जिसमें यह दावा किया गया कि देब का जन्म स्थान बंग्लादेश का कछुआ उपजिला चाँदपुर का राजधर गाँव है जहाँ वह 25 नवम्बर 1971 को पैदा हुए। उसके बाद ही उनके पिता 1971 में असम आए। बंगलादेशी सूत्रों के हवाले से कहा गया कि श्री देब बंगलादेश में ही गर्भ में आए और त्रिपुरा में उसी तारीख में पैदा हुए। बिप्लब देब के मीडिया सलाहकार संजय मिश्रा का दावा है कि उनके पिता हरधरन ने शरणारर्थी के बतौर नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत 27 जून 1967 को पंजीकृत करवाया और देब 25 नवम्बर 1971 को उदयपुर, जनपद गोमाती त्रिपुरा में पैदा हुए। इसी प्रकार गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी की वेबसाइट www.vijayrupani.in के हवाले से कहा गया है कि वह 2 अगस्त 1956 को मियांमार की राजधानी रंगून में पैदा हुए। उनका परिवार बेहतर भविष्य के लिए 1960 में भारत आ गया। उन्होंने या उनके परिवार ने भारतीय नागरिकता के लिए किस प्रकार औपचारिकताएँ पूरी की इसकी कोई जानकारी नहीं है, लेकिन रूपानी पहले एबीवीपी और आरएसएस में शामिल हुए और उसी रास्ते से गुजरात के मुख्यमंत्री भी बने। 

    असम या भारत के अन्य भागों में जहाँ साक्षरता दर कम है, नागरिकों से अपेक्षा नहीं की जा सकती कि उनके पास अपनी नागरिकता के सबूत होंगे ही या वह उन्हें सुरक्षित रख पाए होंगे। हिंदी भाषी क्षेत्रों ही के बहुत से परिवारों के पास राशन कार्ड तक नहीं है और न ही उन्होंने कभी बैंक देखा है। जिन लोगों ने स्कूल, कालेज का मुँह नहीं देखा, शादियों का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ, जमीन जायदाद खरीदने की हैसियत नहीं है उनके लिए नागरिकता का प्रमाण जुटा पाना आसान नहीं है। असम में भीषण बाढ़ की वजह से कई बार पूरे-पूरे गाँव तबाह हो गए। सब कुछ बह गया और परिवारों को राहत कैम्पों में शरण लेनी पड़ी। एनआरसी ने नागरिकता के प्रमाण के तौर पर 14 दस्तावेजों की सूची जारी की है जिसमें 1. एनआरसी 1951, 2. 24 मार्च 1971 का इलेक्ट्रोलर राल, 3. जमीन या किराएदारी का रिकार्ड, 4. नागरिकता प्रमाण पत्र, 5. स्थाई निवास प्रमाण पत्र, 6. शरणार्थी पंजीकरण प्रमाण पत्र, 7. पासपोर्ट, 8. जीवन बीमा, 9. सरकार द्वारा जारी कोई लाइसेन्स या प्रमाण पत्र, 10. सरकारी नौकरी का प्रमाण पत्र, 11. बैंक या पोस्ट आफिस खाता, 12. जन्म प्रमाण पत्र, 13. बोर्ड या विश्वद्यालय की शिक्षा प्रमाण और 14. न्यायालय का रिकार्ड या प्रक्रिया। लेकिन वहाँ की परिस्थितियों को देखते हुए इन सरल शर्तों को भी पूरा कर पाना आसान नहीं है। समाज के  कमजोर और अनपढ़ लोगों के लिए यह कभी आसान नहीं होता। पंचायतों द्वारा जारी किए प्रमाणपत्र को एनआरसी ने मानने से इनकार कर दिया। सरकार का भी पक्ष यही था और हाईकोर्ट ने भी इसे कायम रखा। राजनैतिक विश्लेषक और स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने जनवरी 2018 में ‘क्या भारत को असम के उबलते हुए ज्वालामुखी बन जाने की परवाह है’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में इस समस्या पर अपना मत इस प्रकार जाहिर किया है “तीन तरह के लोग हैं जिनके नाम सूची में नहीं हैं मूल निवासियों के नियमित मामले जिनके कागजात पूरे नहीं हैं, संदिग्ध मामले और विशेष वर्ग जिन्होंने पंचायतों द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्र दाखिल किए हैं। वर्तमान विवाद इसी तीसरी कटेगरी को लेकर है। हाईकोर्ट ने इन प्रमाण पत्रों को निरस्त कर दिया है और राज्य सरकार भी इस निर्णय का समर्थन करती है। इस कटेगरी में 27 लाख मुस्लिम महिलाएँ शामिल हैं जिनके पास कोई कागजी सबूत नहीं हैं, उनकी शादियों का पंजीकरण नहीं हुआ और न ही उनके पास कोई ‘शैक्षिक डिग्री है। उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है”। इससे स्पष्ट होता है कि जिन लोगों को एनआरसी सूची में स्थान नहीं मिल सका है उनमें बड़ी संख्या उन भारतीयों की भी हो सकती है जिनके पास अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए दस्तावेजी सबूत नहीं है खासकर महिलाओं की।
    एनआरसी के फाइनल ड्राफ्ट में जिन 40 लाख लोगों को शामिल नहीं किया गया है उनमें अपुष्ट आँकड़ों के मुताबिक 24 लाख मुसलमान और 16 लाख हिंदू समुदाय के लोग हैं। आरएसएस और भाजपा राजनैतिक लाभ के लिए असम की स्थानीय बनाम बंगाली समस्या को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाने के लिए बेचैन है। फाइनल ड्राफ्ट के जारी होते ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सहित कई माननीयों ने ड्राफ्ट का स्वागत करते हुए बंगलादेशी मुसलमानों को देश से निकालने की वकालत शुरू कर दी। हालाँकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि फाइनल ड्राफ्ट के आधार पर किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। यह भी कहा गया है कि जिन लोगों के नाम फाइनल ड्राफ्ट में नहीं हैं उन्हें फिर से अपनी नागरिकता के पक्ष में 30 अगस्त से 28 सितम्बर 2018 तक आवेदन करने का कानूनी अधिकार है। साफ जाहिर है कि फाइनल ड्राफ्ट भी अभी फाइनल नहीं है। दूसरी तरफ केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 19 जुलाई 2018 को संसद में संशोधन विधेयक लाकर असम में भारतीय नागरिकता के मामले को पूरी तरह साम्प्रदायिक बना दिया है। इस विधेयक के अनुसार बंगलादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से बिना किसी वैध दस्तावेज के भारत में प्रवेश करने वाले वहाँ के अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को 6 साल तक भारत में रहने की शर्त पर नागरिकता प्रदान की जाएगी। विधेयक में बंगलादेश के अलावा अफगानिस्तान, पाकिस्तान का नाम शामिल कर के यह कहा गया है कि उन देशों में अल्पसंख्यकों को भेदभाव का शिकार बनाया जाता है और पड़ोसी देशों में उनका उत्पीड़न भी होता है जबकि अवैध मुस्लिम प्रवासियों को आर्थिक प्रवासी माना गया है। हालाँकि भारत में स्वयं अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव और उत्पीड़न के आरोप लगते रहे हैं। इसके अतरिक्त भारत सरकार द्वारा ऐसे समय पर यह कदम उठाया गया है जब देश में अल्पसंख्यकों पर सुनियोजित हमले हो रहे हैं और असम में एनआरसी द्वारा अवैध नागरिकों की पहचान के काम को लेकर कई तरह के सवाल हैं। ऐसे में सरकार के इस कदम के पीछे छुपा साम्प्रदायिक एजेंडा एक खुला हुआ रहस्य है। यह विधेयक 1985 में होने वाले असम समझौते की शर्तों का भी उल्लंघन करता है जिसमें अवैध प्रवासियों वापस उनके देश भेजने की बात पर सहमति हुई थी। लेकिन मोदी सरकार ने उसमें हिंदू, मुस्लिम का पुछल्ला लगा दिया। दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनआरसी की कार्यपद्धति पर सवाल उठाते हुए पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के वंशजों को सूची में शामिल न किए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया है। उन्होंने अवैध घोषित किए गए नागरिकों को पश्चिम बंगाल में बसाने की भी बात कही। उनके इस बयान के पीछे भी राजनीति देखी जा सकती है। चूँकि सूची में जगह न पाने वालों में सबसे बड़ी संख्या बंगला भाषियों की है इस लिए संभव है कि उन पर ऐसे बंगाली परिवारों का दबाव भी हो जो असम चले गए थे लेकिन उनकी जडं़े पश्चिम बंगाल में मौजूद हैं।
    असम वास्तव में योगेन्द्र सिंह के शब्दों में ‘उबलता हुआ ज्वालामुखी है’ और इस अत्यंत जटिल समस्या का राजनीतिक और कूटनीतिक समाधान ही सम्भव है। जैसा कि कई बुद्धिजीवियों ने सुझाया है कि एनआरसी की प्रक्रिया को जारी रखते हुए पंचायत प्रमाण पत्रों को नागरिकता के लिए वैध प्रमाण माना जाए और साम्प्रदायिक आधार पर नागरिकता सम्बंधी विधेयक को वापस लिया जाए। अवैध प्रवासियों के मामले में उनके देशों खासकर बंगलादेश को कूटनीतिक स्तर पर अपने नागरिकों को वापस लेने के लिए आमादा किया जाए, लेकिन जिस तरह से भाजपा और केंद्र व असम की भाजपा सरकारों ने अब राजनैतिक लाभ के लिए इस समस्या का साम्प्रदायीकरण किया है और आगामी लोक सभा चुनावों में इस मुद्दे को गरमाने के आसार दिखाई दे रहे हैं उससे इतिहास की सबसे बड़ी मानव की त्रासदी आशंका बढ़ती जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अब सफलतापूर्वक इसे टालने का प्रयास किया है और वही एक मात्र आशा की किरण भी है।
असम के नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स का अंतिम ड्राफ्ट आ चुका है। इसके मुताबिक लगभग 40 लाख लोग ऐसे हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं या संदिग्ध मतदाता हैं। उन्हें बंगलादेशी बताया जाता है। बंगलादेश का कहना है कि उसका कोई नागरिक भारत में गैरकानूनी प्रवासी नहीं है। बंगलादेश के सूचना एवं प्रसारण मंत्री हसनुल हक ने स्पष्ट कहा है कि “किसी बंगला भाषी को बंगलादेशी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि “असम में एक शताब्दी पुराने नस्लीय संघर्ष से सभी अवगत हैं। पिछले 48 सालों में किसी भारतीय सरकार ने बंगलादेश के साथ अवैध अप्रवास का मामला नहीं उठाया”। संकेत स्पष्ट है कि जिन लोगों को भारत का नागरिक नहीं माना गया है, बंगलादेश उन लोगों को लेने के लिए तैयार नहीं है। अगर इस तरह की स्थिति बनती है और उसका सर्वमान्य समाधान नहीं निकाला जाता है तो निश्चित ही आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी मानव त्रासदी मुँह बाए खड़ी है। यह सवाल हर संवेदनशील मस्तिष्क को झिझोड़ रहा है कि इन 40 लाख लोगों का भविष्य क्या होगा? क्या बंगलादेश को इन्हें स्वीकार करने पर आमादा किया जा सकेगा? क्या इनके नागरिक अधिकार समाप्त हो जाएँगे और इन्हें शरणार्थी कैम्पों में पीढ़ी दर पीढ़ी रहने पर मजबूर होना पड़ेगा? इनकी जान, माल, मान, सम्मान की सुरक्षा की क्या गारंटी होगी? भारत के जंगलों में हजारो साल से रह रहे आदिवासियों के गाँवों को उजाड़ दिया गया और उन्हें अपने ही जल, जंगल, जमीन से बेदखल होना पड़ा। ऐसा केवल इसलिए संभव हो पाया क्योंकि उनके पास अपनी दावेदारी के दस्तावेजी सबूत नहीं थे। ऐसा नहीं है कि असम में बंगलादेशियों के घुसपैठ की समस्या नहीं है लेकिन एनआरसी में पंजीकरण की प्रक्रिया में सुविधा की राजनीति के हस्तक्षेप के चलते ऐसे नतीजे सामने आ रहे हैं जिनसे हजारो भारतीयों के सामने भी विदेशी घोषित कर दिए जाने का संकट उत्पन्न हो गया है।

-मसीहुद्दीन संजरी
मोबाइलः 09455571488
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2018 में प्रकाशित 

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