सन 2017 में भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले में सुप्रसिद्ध पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नौलखा जेल में निरुद्ध है। उन पर आरोप है कि 31 दिसंबर 2017 को भीमा कोरेगांव में एल्गर परिषद की बैठक हुई थी और अगले दिन वहां हिंसा शुरू हो गई थी। उक्त मामले में उच्चतम न्यायालय में गौतम नौलखा प्रथम सूचना रिपोर्ट रद्द करने की याचिका पर सुनवाई से पिछले सोमवार को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गगोई से ने अलग कर लिया था,जिसका कोई भी कारण उन्होंने नहीं बताया था।
आज न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट ने भी उनकी याचिका की सुनवाई से स्वयं को अलग कर लिया है। पिछले 3 दिनों में न्यायमूर्ति एन. वी. रमाना न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी न्यायमूर्ति वी..आर. गवई सुनवाई से अपने को अलग कर चुके हैं और किसी भी न्यायमूर्ति ने सुनवाई से अलग होने का कोई भी कारण नहीं बताया है। गौतम नौलखा के ऊपर दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट में कवि वर वराराव, सुधा भारद्वाज. वेरोम गोंजाल्विसज व अरुण फरेरा भी है। जिसमें वरवरा राव की जेल में हालत गंभीर है।
अगर माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गण बैगर कोई कारण बताए लोगों की सुनवाई नहीं करेंगे तो विधि का शासन और संविधान की रक्षा कौन करेगा? अगर किसी भय या कार्यपालिका के दबाव या अन्य किसी कारण से सुनवाई नहीं होती है तो कैसे न्याय का शासन चलेगा? यह गंभीर प्रश्न व्यवस्था के समक्ष खड़ा हो गया है? आपातकाल में भी कुछ इसी तरह की स्थितियां पैदा हुई थी, जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा था। आज जब जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन, संविधान, कानून व्यवस्था जैसे गंभीर प्रश्न खड़े हुए हैं उस समय भी अगर न्यायपालिका मौन है तो किस तरह से लोकतंत्र संविधान सुरक्षित रहेगा। अगर भारतीय न्यायपालिका किसी के दबाव में है तो यह और भी गंभीर स्थित है।
-रणधीर सिंह सुमन
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