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भारत में बीसवीं सदी का अंतिम दशक ख़त्म होते-होते समस्त मुख्यधारा राजनीतिक
पार्टियों, मंचों और माध्यमों से गरीबी की चर्चा समाप्त हो गई. देश की शासक जमात
के बीच यह तय माना गया कि अब देश में गरीबी नहीं रही/नहीं रहेगी. जो गरीबी इधर/उधर
दिखाई देती है वह गरीबों की अपनी वजह से है; देश की (कारपोरेट) राजनीति और सरकार
की (नवउदारवादी) आर्थिक नीतियों से उसका सीधा संबंध नहीं है. लिहाज़ा, गरीबी का
रोना अब बंद होना चाहिए. देश अब सही पटरी पर आया है; जल्दी से जल्दी सब कुछ का
निजीकरण कर देना चाहिए. पब्लिक डोमेन में यह सब ताल ठोंक कर कहने वाले लगभग सभी
लोग सार्वजनिक क्षेत्र में चपरासी से सचिव के ओहदे तक की नौकरी करने वालों की
संतान थे.
इक्कीसवीं सदी के दो दशक अमीरी और केवल अमीरी की चर्चा के दशक रहे हैं. इस बीच
गरीब और अमीर भारत की पुरानी कशमकश राजनीतिक चर्चा से ख़त्म हो गई. अब केवल अमीर
भारत है जिसे चमकदार, स्मार्ट, नया, महाशक्ति, विश्व-गुरु आदि बताने की विज्ञापनबाज़ी
पर सरकारें और राजनीतिक पार्टियां हर साल अरबों रूपया उड़ा देती हैं. राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री स्तर के नेता यह सब कहते और करते हैं. अमीर भारत की सत्ता पर कब्ज़ा
करने और बनाए रखने की लड़ाई सस्ती नहीं हो सकती - वह (यानी भारत का लोकतंत्र) खरबों
का खेल बन चुकी है. अमीर भारत में धन्नासेठों, नेताओं, नौकरशाहों के ठाठ-बाट सामंतों
को लजाने वाले होते हैं. सामान्य संपन्न परिवारों तक की शादियों में करोड़ों रुपये
खर्च किए जाते हैं.
24 मार्च 2020 को कोरोना विषाणु के हमले के चलते देश में अचानक तालाबंदी हुई. अमीर
भारत के ठाठ-बाट को चुपचाप अपनी पीठ पर ढोने वाला गरीब भारत हकबका कर शहरों से गांवों
की ओर पैदल निकल पड़ा. औरतों के सिर पर गठरियां, पुरुषों के हाथों में बक्से, दोनों
की गोदियों और बगल में बच्चे. सभी का एक बयान - रहने-खाने का ठिकाना नहीं है,
इसलिए गांव जा रहे हैं, पैदल अगर वाहन नहीं है. मेरी रिहाइश का इलाका आनंद विहार
दिल्ली में महाकूच का केंद्र था. साथी विजेंद्र त्यागी ने लगभग रोते हुए फोन पर
कहा कि भीड़ में निकली ये महिलाएं रास्ते में कहां हाजत करेंगी, कहां रात काटेंगी? राजधानी
दिल्ली से लेकर देश के समस्त नगरों-महानगरों तक फैला महाकूच का नज़ारा पूरी दुनिया
ने देखा. अमीर भारत के भाग्यविधाताओं ने भी आश्चर्य किया कि ये लोग क्यों सड़कों पर
निकल आये हैं? क्या मज़दूर बस्तियों, अथवा इनके जो भी ठिकाने थे, में ये पड़े नहीं
रह सकते थे? इनके घरों पर ऐसी ही खुशहाली थी तो यहां क्यों आए थे? दुनिया के सामने
देश की छवि खराब के दी है! हालांकि अंदरखाने खुश भी थे कि यहां रहते तो और ज्यादा
खतरनाक तरीके से बीमारी फैलाते.
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ताला-बंदी के चार-पांच दिनों के भीतर यह सच्चाई सामने आ गई कि अमीर भारत असंगठित
क्षेत्र के करीब 50 करोड़ प्रवासी/निवासी मेहनतकशों की पीठ पर लदा हुआ है. इनमें
करीब 10 प्रतिशत ही स्थायी श्रमिक हैं. बाकी ज्यादातर रोज कुआं खोदते हैं और पानी
पीते हैं. महामारी में इन मेहनतकशों की भूमिका अचानक स्थगित हो जाने से रोजी-रोटी
का संकट खड़ा हो गया और वे हुजूम में अमीर भारत और उसकी सरकार के सामने आ गए. यह एक
बड़ी खबर बन गई. कई लाख किसानों की आत्महत्याएं भी कभी इतनी बड़ी खबर नहीं बनी थी. तालाबंदी
में बेघर/बेरोजगार हुए असंगठित क्षेत्र के इन मज़दूरों को राशन/भोजन मुहय्या कराने
के सरकारी और स्वयंसेवी प्रयास शुरू किए गए. सोशल मीडिया पर इन मज़दूरों की दुर्दशा
पर लगातार अनेक टिप्पणियां होने लगीं. कई विद्वानों, विशेषज्ञों व नेताओं ने आंकड़ों
के आधार पर अपने लेखों/बयानों में 50 करोड़ श्रम-बल की हकीकत सामने रखी. उन्होंने विषय का विविध दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया. मुख्यधारा
अखबारों और पत्रिकाओं में ऐसे लेखों को काफी जगह मिली है. देश की सर्वोच्च अदालत,
संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक आर्थिक संस्थाओं तक भी बात पहुंची है.
मज़दूरों को लेकर होने वाली इस पूरी चर्चा और सहायता प्रयासों में एक
अन्तर्निहित सामान्य तार मिलता है. वह यह कि देश की करीब आधी आबादी को अमीर भारत
के पुरोधा आधुनिक संवैधानिक अर्थ में नागरिक नहीं मानते. उनके लिए वे सामंती अर्थ
में प्रजा हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उनके प्रति मानवीय नज़रिया अपनाने को कहा है. यानी
सुप्रीम कोर्ट की नज़र में भी वे नागरिक अधिकारों के हक़दार नहीं, कृपा के पात्र
हैं. सुप्रीम कोर्ट को उनकी दुर्दशा का कोई नीतिगत कारण नज़र नहीं आता. बल्कि उसे उनकी
हिमायत में दाखिल की गई याचिकाएं हिमाकत नज़र आती हैं. वरना सबसे पहले सुप्रीम
कोर्ट को कहना चाहिए कि मज़दूरों की इस दुर्दशा का कारण संविधान विरोधी नवउदारवादी
आर्थिक नीतियां हैं; उन्हें रद्द करके संविधान में उल्लिखित राज्य के
नीति-निर्देशक तत्वों/सिद्धांतों के आधार पर सही आर्थिक नीतियां बनाई जानी चाहिए.
इस मामले में यहां कुछ उदाहरण देना चाहूंगा. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व
कुलपति प्रोफेसर दीपक नैयर ने अपने लेख 'लाइव्ज एंड लाइवलीहुड्स' (इंडियन
एक्सप्रेस 3 अप्रैल 2020) में एक जगह इतिहास से सबक सीखने की बात कही तो मुझे उत्सुकता हुई कि आगे वे
1991 में थोपी गईं नई आर्थिक नीतियों को छोड़ने का सुझाव देंगे जो एक ऐतिहसिक भूल
थी. ख़ास तौर से बुद्धिजीवियों की तरफ से. लेकिन उन्होंने 1918-1919 के स्पेनिश इंफ्लुएंजा
की घटना से सबक सीखने की बात कही है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के
महासचिव सीताराम येचुरी ने प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में महामारी से निपटने
के लिए आवंटित राशि को अपर्याप्त बताया, लेकिन उन्होंने विश्व बैंक,
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्वव्यापार संगठन आदि द्वारा निर्देशित आर्थिक नीतियों
को त्याग कर संविधान सम्मत नीतियां लागू करने की मांग नहीं की. भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी (सीपीआई) के महासचिव डी रजा ने अपने लेख 'रिवील्ड बाई द वायरस : द पेंडेमिक
हैज एक्सपोज्ड द लिमिट्स ऑफ़ कैपिटलिज्म' (इंडियन एक्सप्रेस 11 अप्रैल 2020) में नवउदारवादी
पूंजीवाद की सीमाओं का जिक्र किया है. लेकिन कम से कम 50 करोड़ मजदूरों को सस्ते
श्रम में तब्दील करने वाली नवउदारवादी नीतियों को अविलम्ब त्यागने की मांग सरकार
से नहीं की. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कोरोना महामारी के चलते पैदा हुए
आर्थिक संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री को सुझाव लिख कर दिए हैं. उनमें नहीं
मापी जा सकने वाली आर्थिक खाई के लिए जिम्मेदार नई आर्थिक नीतियों को वापस ले लिए
जाने का सुझाव नहीं है. ये नीतियां कांग्रेस द्वारा शुरू की गईं थीं. उन्होंने ऐसा
वादा भी नहीं किया कि फिर से सत्ता में आने पर कांग्रेस इन धन्नासेठ परस्त नीतियों
पर पुनर्विचार करेगी.
मजदूरों की दुर्दशा पर एक जगह यह पढ़ने को मिला कि उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिक
जैसा बर्ताव किया जा रहा है. नागरिक, भले वह दोयम दर्जे का हो, के साथ कतिपय
नागरिक अधिकार और मानव-गरिमा की गारंटी जुडी होती है. क्या कोई दोयम दर्जे का
नागरिक वह बर्ताव बर्दाश्त कर सकता है जो तालाबंदी के दौरान सड़कों और मजदूर
बस्तियों में ठुंसे लोगों के साथ किया जा रहा है? क्या दोयम दर्जे का नागरिक-परिवार
सप्ताह-भर के लिए भी अपनी आर्थिक हैसियत के बल पर सम्मानपूर्वक खाना नहीं खा सकता?
क्या दोयम दर्जे की नागरिक महिलाएं जन-धन योजना में डाली गई मात्र 500 रुपये की
खैरात को तत्काल निकालने के लिए घंटों लाइन में खड़ी रह सकती हैं? सच्चाई सीधी और
साफ़ है. यह विशाल श्रम-बल में शामिल लोग किसी भी पैमाने से नागरिक नहीं हैं - न
शासक वर्ग की नज़र में, न खुद अपनी नज़र में. थोड़े भी नागरिक-बोध से संपन्न व्यक्ति कैसे
भी संकट में सत्ता द्वारा फेंके गए टुकड़ों पर जीने के लिए तैयार नहीं हो सकता. वह
कम से कम अपनी मेहनत की कीमत पर हक़ जरूर जताएगा.
कहने का आशय यह है कि प्रवासी अथवा अन्य मज़दूरों को लेकर होने वाली चर्चा में
राजनीतिक (संवैधानिक पढ़ा जाए) नज़रिया गायब है. भारत की इस विशाल मज़दूर आबादी का
जीवन दोधारी तलवार पर चलता है : (क) नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उन्हें अमीर
भारत की अर्थव्यवस्था से हमेशा के लिए बहिष्कृत कर दिया है; (ख) बहिष्कृत अवस्था
में उन्हें अपना सस्ता श्रम देकर दूर-दराज इलाकों में अमीर भारत का तरह-तरह का निर्माण-कार्य
और सेवा-कार्य करना है. ध्यान दिया जा सकता है कि भारत में बताए जाने वाले 50 करोड़
मजदूरों की संख्या यूरोपियन यूनियन में शामिल देशों की कुल जनसंख्या अथवा
अमेरिका-रूस की एक साथ कुल जनसंख्या से ज्यादा है. यह भारत के अंदर एक पूरा भारत
है, जिसे डॉ. लोहिया गरीब भारत कहते थे. लेकिन चर्चा में किसी नेता, विद्वान्,
संस्था, पत्र-पत्रिका अथवा नागरिक ने गरीब भारत जैसी राजनैतिक शब्दावली का प्रयोग
नहीं किया. किसी ने यह नहीं कहा कि मेहनतकशों की दुर्दशा 1991 में लागू की गईं नई
आर्थिक नीतियों का अनिवार्य परिणाम है; कि यह गलती थी; कि 30 साल बीत जाने के बाद इन
नीतियों को रद्द किया जाना चाहिए; कि कोई देश 50 करोड़ लोगों को दयनीय स्थिति में
रख कर सभ्य या शक्तिशाली नहीं कहला सकता.
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संविधान में दिए गए राज्य के नीति निर्देशक तत्व (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़
स्टेट पालिसी) नागरिकों के मौलिक अधिकारों की तरह बाध्यकारी नहीं हैं. लेकिन उन्हें
विधायिका और कार्यपालिका की शासन-विधि (गवर्नेंस) के लिए मूलभूत बताया गया है. वे आर्थिक-सामाजिक
के साथ हर तरह की बराबरी का समाज बनाने की संविधान की प्रतिज्ञा को सामने लाते हैं.
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने 19 नवम्बर 1948 को
संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था, "इस सभा का यह इरादा है कि भविष्य में
विधायिका और कार्यपालिका दोनों को (संविधान के) इस भाग में अधिनियमित इन
सिद्धांतों के लिए केवल दिखावटी प्रेम नहीं प्रदर्शित करना है. बल्कि अब के बाद इन्हें
देश के शासन संबंधी समस्त कार्यकारी और विधायी कार्रवाई का आधार बनाया जाना चाहिए."
अम्बेडकर ने नीति-निर्माण के इन्हीं निर्देशों के मद्देनज़र कहा है कि संविधान का
लक्ष्य एक समाजवादी व्यवस्था कायम करना है. 1991 में संविधान के इस लक्ष्य को उलट
दिया गया. नतीज़ा हम सामने देख रहे हैं - मज़दूरों की यह दुर्दशा.
समाजवादी नेता और विचारक किशन पटनायक ने संविधान के विरुद्ध की गई इस
प्रतिक्रांति को सबसे पहले चिन्हित किया था. उन्होंने 1994 के शुरू में कहा कि
जगतीकरण के स्वीकार के साथ भारत में प्रतिक्रांति की शुरुआत हो गई है. करीब तीन
दशक बीतने के बाद कह सकते हैं कि देश में प्रतिक्रांति की गहरी नींव डाली जा चुकी
है. यह केवल वैश्वीकरण के सीधे समर्थक शासक-वर्ग के बल पर संभव नहीं हुआ है. खीज
में अमीर भारत से बहिष्कृत मेहनतकश जनता पर भी इसकी जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती.
पूंजीवाद अपने बुद्धिजीवी और नेता ही नहीं, घरों के भीतर और बाहर
गलियों-सड़कों-चौराहों पर अपनी जनता भी बनाता हुआ आगे बढ़ता है. अमीर भारत के
उच्छिष्ट पर जीना इस जनता ने अपनी नियति स्वीकार कर ली है. दरअसल, भारत के शासक
वर्ग का प्रगतिशील कहा जाने वाला तबका इस प्रतिक्रांति के लिए जिम्मेदार है. विकास
का पूंजीवादी मॉडल उसकी घुट्टी में है. वह हमेशा से मानता है कि विकास का रास्ता केवल
पूंजीवाद से होकर गुजरता है. संवैधानिक संसदीय लोकतंत्र के आधार पर समता के साथ
सम्पन्नता का भारतीय समाजवादी विचार उसे कभी स्वीकार नहीं हुआ.
यह अच्छी बात है कि पूरे देश में अनेक लोग और संस्थाएं श्रमिक परिवारों की मदद
में जुटे हैं. आशा की जानी चाहिए कि उनमें से कुछ लोग जरूर इस समस्या पर राजनीतिक
तरीके से विचार करेंगे. यह समझेंगे कि कोरोना महामारी भले ही मानवता पर अचानक और अदृश्य
शक्ति का हमला हो, देश की आबादी के विशाल हिस्से की खाद्य असुरक्षा अचानक और
अदृश्य कारणों से नहीं है.
-प्रेम सिंह
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)
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