सुहासिनी चट्टोपाध्याय भारत की प्रथम महिला कम्युनिस्ट के रूप में जानी जाती हैं। उनके पिता का नाम अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और माता का नाम बरदा सुन्दरी देवी था। सुप्रसिद्ध नेता सरोजिनी नायडू की वे बहन थी। उनका जन्म 8जून 1901 में हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में हुआ था। वे आठ भाई - बहनों में सबसे छोटी थीं। उनकेपिता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन से गहरे रूप से जुड़े हुए थे।वे हैदराबाद कॉलेज के प्रिंसिपल थे।वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय सुहासिनी के ही भाई थे।17 वर्ष की उम्र में सुहासिनी की मुलाकात ए.सी.एन. नम्बियार से हुई जो मद्रास में पढ़ रहे थे। नम्बियार इतिहास के अत्यंत विवादास्पद व्यक्ति रहे हैं। सुहासिनी की बहन मृणालिनी का घर वहां था।सुहासिनी विविध गुणों वाली महिलाथीं जैसे कला, संगीत, इतिहास, यात्रा,इ.। उनके भाइयों में थे- वीरेन्द्र,हरीन्द्रनाथ, रानेन्द्रनाथ, इ. और बहनोंमें मृणालिनी, सुहालिनी, वगरैह।
इंगलैंड एवं जर्मनी में
सुहासिनी और नम्बियार 1919में विवाह के बाद लंदन चले गए।सुहासिनी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया और नम्बियार पत्रकार के तौर पर काम करने लगे। दो वर्षोंं बाद वे दोनों बर्लिन चले गए। सुहासिनी बर्लिन यूनिवर्सिटी में जर्मन पढ़ने लगीं।उन्होंने अनुवाद का काम भी ले लिया और जर्मनों को अंग्रेजी पढ़ाने लगीं।बर्लिन में सुहासिनी वामपंथी एवं मार्क्सवादी आंदोलनों के संपर्क में आईं।उनके बड़े भाई वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का सुहासिनी पर गहरा प्रभाव पड़ा।वीरेन्द्र जर्मन कम्युनिस्ट आंदोलन के संपर्क में थे साथ ही वे कॉमिन्टर्न के संपर्क में भी थे। वीरेन्द्रनाथ ने अक्टूबर1920 में ताशकंद में हुई उस बैठक में भाग लिया जिसमें ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की घोषणा की थी। यह कोशिश असफल रही और इसका कोई नतीजा नहीं निकला।वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय को केंद्रीय चरित्र बनाकर सुप्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक सॉमरसेट मॉम ने एक कहानी ‘गिउलियाला जारी’ शीर्षक से लिखा।सुहासिनी गांधीवादी विचारों से दूर जाने लगी। अनुवाद करने के दौरान उन्हें समाजवादी, कम्युनिस्ट और अराजक विचारों से अवगत होने का मौका मिला। वे जर्मन कम्युनिस्टों के काम से प्रभावित हुईं। उन्हें सोशल डेमोक्रेट्स को देखने-समझने का मौका मिला और उनकी निष्क्रियता उन्हें पसंदन हीं थी।सुहासिनी पहली बार वीरेन्द्रनाथ से बर्लिन में मिली थीं, 25 वर्षों बाद।सुहासिनी के जन्म के बाद ही वीरेन्द्रनाथ बर्लिन चले गए थे। अमरीकी कम्युनिस्ट एग्निस स्मेडली उन दोनों की भेंट का विस्तृत और भावपूर्ण वर्णन करती हैं। वीरेन्द्रनाथ ने कम्युनिस्ट विचारों का सुहासिनी का गहरा प्रभावपड़ा। सुहासिनी अपने भाई से मिलने ऑक्सफोर्ड से आई थी।अंग्रेज सरकार ने उनके पिता को हैदराबाद छोड़ कलकत्ता जाने को मजबूर कर दिया। वहां उन्हें घर में नजरबंद रखा। समय-समय पर पुलिस आकर घर की तलाशी लेती, सुहासिनीके खिलौने, तकिए और घर का सारा सामान तोड़-फोड़कर रख देतीः वह गुप्त सामग्री और संदेशों की खोज में थी। पिता की मृत्यु ऐसी ही हालत में हो गई ।
पूर्व के मेहनतकशों का विश्वविद्यालय
जल्द ही सुहासिनी मास्को स्थित‘‘पूर्व के मेहनतकशों के विश्वविद्यालय’में भर्ती होने के लिए निकल पड़ीं। अगस्त1927 में वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने एम.एन.रॉय को लिखा कि वे सुहासिनी को पूर्व के मेहनतकशों के विश्वविद्यालय’ में भर्ती करने में मदद लिए अनुरोध करें। रॉय ने इसमें उनकी मदद की। इन सब गतिविधियों से नम्बियार और सुहासिनी में दूरियां बढ़ती गई और वे एक दूसरे से अलग हो गए। सुहासिनी केवल एक बार ही बर्लिन वापस गई।भारत वापसी सुहासिनी 17 दिसंबर 1928 को जहाज से मास्को से बंबई वापस आई। उनके साथ सुहासिनी चट्टोपाध्यायः असाधारण महिला कम्युनिस्ट ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता लेस्टर हचिन्सन भी थे। ब्रिटिश खुफिया विभाग की समझ थी कि उन्हें जान बूझकर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की सहायता के लिए भेजा था। हचिन्सन अगले ही साल मेरठ षड्यंत्र केस में पकड़े गए। हचिन्सन सुहासिनी के ही निवास में रहने लगे जहां, खार, प. बंबई में,मृणालिनी भी रहा करती। इस बीच सुहासिनी ‘स्पार्क’ ;ेचंता-चिन्गारी नामक पत्रिका के साथ काम करने लगीं। उन्होंने एम.एन. रॉय को पत्रिका के जनवरी 1929 के अंक में लिखने का अनुरोध किया । साथ ही सुहासिनी ने अखबारों में अनुवादिका के रूप में काम करने संबंधी विज्ञापन भी दे दिया। 1929 की फरवरी में नम्बियार ने सुहासिनी को उनसे अलग होने की सूचना दे दी।
मेरठ षड्यंत्र केस में सहायता
सुहासिनी ने मेरठ षड्यंत्र केस;1929 में कैदियों की सक्रिय सहायता करना आरंभ किया। वे स्पार्क का काम तो कर ही रही थीं उन्होंने हचिन्सन द्वारा प्रकाशित न्यू स्पार्क में भी सक्रिय सहायता की। इस बीच हचिन्सन गिरफ्तार हो गए। 20 जून 1929 को सुहासिनी ने मेरठ से मृणालिनी को पत्र में लिखा कि उन्होंने मेरठ जेल में डॉ. अधिकारी, हचिन्सन, ब्रैडले तथा स्प्रैट से मुलाकात की।इस संदर्भ में वे मृणालिनी और सरोजिनी नायडू के संपर्क में भी थीं।उनकी एक अन्य बहन सुनालिनी देवी भी पूर्व के विश्वविद्यालय’, मास्को मेंपढ़ रही थीं और बाद में जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं।
कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल
1929 में सुहासिनी चट्टोपाध्याय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। उन्होंने ‘लिट््ल बैले ग्रुप’ तथा इप्टा में सक्रिय काम आरंभ किया।1938 में सहासिनी का विवाह आर.एम. जाम्भेकर से हो गया।जाम्भेकर पार्टी और ट्रेड यूनियनों के सक्रिय नेता थे। सुहासिनी और जाम्भेकर ‘फ्रेंड्स ऑफ सोवियत यूनियन’ ;एफ.एस.यू. संस्थापकों में थे। पार्टी ने सोवियत संघ पर हिटलरके हमले के बाद सुहासिनी को बंबई में इस संगठन को गठित करने का निर्देश दिया। उन्होंने बड़ी संख्या में युवाओं को इसमें लाया। जाम्भेकर और सुहासिनी के साथ शशि बकाया भी रहा करते।सुहासिनी के डांग तथा बकाया परिवारों के साथ लाहौर में काफी नजदीकी संबंध थे। सुहासिनी ने विमला बकाया ;डांग,सत्यपाल डांग, रवि बकाया तथा लाहौर एवं अमृतसर के साथियों को राजनैतिक एवं व्यक्ति रूप से प्रभावित किया। सुहासिनी ने आजाद हिंद फौज की लक्ष्मी सहगल को भी गहरे रूप से प्रभावित किया।जब कभी सुहासिनी लाहौर जातीं,वे बकाया परिवार के साथ समय बितातीं। उनकी बहन मृणालिनी के घर में वे सभी शामें गुजारा करते। मृणालिनी उस वक्त गंगाराम स्कूल की प्राचार्य थीं। राजनीति, साहित्य, कविता-पाठ,कला, इ. पर बातें होतीं।आर.एम. जाम्भेकर 1942 में नासिक जेल से रिहा हुए और फरवरी से सुहासिनी और शशि के साथ एफ.एस.यू. गठित करने में लग गए। उन्होंने गांधीजी के आवाहन पर पूना का फर्ग्यूसन कॉलेज छोड़ दिया और साबरमती आश्रम में भर्ती हो गए। फिर वे इलाहाबाद एस.जी. सरदेसाई के पास चले गए। वे दोनों ही नेहरू के प्रभाव में मार्क्सवाद की ओर झुके। एफ.एस.यू. का प्रथम अ.भा.सम्मेलन जून 1944 में बंबई में संपन्न हुआ। इसमें सरोजिनी नायडू अध्यक्ष और जाम्भेकर महासचिव बनाए गए। सुहासिनी इसकी सक्रिय कार्यकर्ता थीं।दिसंबर 1929 में सुहासिनी ने लाहौर में आयोजित अ.भा. नौजवान सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। मार्च 1947 नेहरू की पहल पर सुहासिनी और जाम्भेकर को दिल्लीमें ‘एशियाई संबंध सम्मेलन’ में आमंत्रित किया गया। सरोजिनी नायडू ने अध्यक्षता की। सम्मेलन को गांधीजी ने भी संबोधित किया।
‘बी.टी.आर.’ काल
1947 के अंत में सुहासिनी और जाम्भेकर सोवितय संघ तथ अनय पूर्वी योरपीय देशों की यात्रा पर निकल गए।लेकिन वे तीन वर्षों तक योरप में फंसे रह गए। इसका प्रमुख कारण 1948 में पार्टी पर ‘बी.टी.आर.’ लाइन का हावी होना था। दोनों को पार्टी से आदेश दिया गया कि जब तक उन्हें आदेश न दिया न जाए, वे वापस भारत न आएं! पार्टी में संकट का उनके भावी जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।उन दोनों ने प्राग को अपना हेडक्वार्टर बनाया। उन्होंने 1949 में पैरिस में आयोजित प्रथम विश्व शांति सम्मेलन में भाग लिया। जाम्भेकर विश्व शांति परिषद के नेतृत्व में शामिल किए गए।
वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय का दुखांत
वे वीरेन्द्र का पता भी करने लगे।उल्लेखनीय है कि 1937 के बाद वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का कोई पता नहीं चला। उनके साथ अबनी मुखर्जी भी गायब हो गए। वे दोनों ही जर्मनीछोड़ सोवियत संघ में रह रहे थे। पं.नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में भी उनकी खोज-खबर की गई थी। आज काफी विस्तार से जानकारियां मिली है।स्तालिन के शासन के दौरान जो दमन-चक्र चला, उसी का शिकार ये दोनों भारतीय कम्युनिस्ट भी बने। बिना किसी कारण और आरोप के उन्हें1937 में गिरफ्तार कर लिया गया।फिर 1938 में उन्हें स्तालिन की जेल में गोली मार दी गई। । समझा जाता है कि उन पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाया गया। उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया गया।ये सारी जानकारियां आजादी के बाद भारत सरकार को सोवियत सरकार ने स्तालिन की मृत्यु के बाद दी। अन्य स्रोतों से भी उनकी पुष्टि हुई।जब सुहासिनी और जाम्भेकर सोवियत संघ में पूछताछ कर रहे थे तो उन्हें कुछ भी नहीं बताया गया।
संकीर्णतावादी राजनीति का कुप्रभाव
सुहासिनी और जाम्भेकर 1951में भारत लौटे। ‘बी.टी.आर.’ काल में उन पर शक किया गया। 1950 में बी.टी.आर. हटा दिए गए थे। लेकिन उस दौर के शक का वातावरण अभी दूर नहीं हुआ। वे दोनों पहले एफ.एस.यू. और फिर ‘इस्कस’ में काम करने लगे। लेकिन किसी पॉलिट ब्यूरो सदस्यके दबाव पर उन्हें ऊपरी कमेटियों मेंनहीं आने दिया गया। सुहासिनी का सक्रिय राजनैतिक जीवन लगभग समाप्त-प्राय हो गया। जाम्भेकर बादमें पार्टी के मराठी साप्ताहिक ‘युगांतरके संपादक भी बने।
सुहासिनी काफी बीमार रहने लगीं।वे व्हील-चेयर’ पर आ गईं। फिर भी उन्होंने भा.क.पा. का कभी साथ नहीं छोड़ा, 1964 में पार्टी में फूट पड़ने के बाद भी। उनका ‘इस्कस’ से भी सक्रिय संबंध बना रहा।सुहासिनी के काम करने का तरीका वे अधिकतर व्यक्तिगत प्रभाव एवं संबंधों के जरिए विशेषकर युवा लोगोंको संगठन में लातीं। उनके प्रभाव से एफ.एस.यू. एवं इस्कस के जरिये बड़ीसंख्या में लोग बंबई तथा अन्य जगहों पर पार्टी में आए।सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजनों,प्रदर्शनियों, इ. के जरिये विविध गुणों वाले व्यक्ति शामिल हुए। उनके भाई हरींंद्र नाथ चट्टोपाध्याय भी कला एवंसाहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए और पार्टी में भी सक्रिय रहे।1927 में हरिन ने द इंटरनेशनल गीत का हिंदी अनुवाद किया ;‘‘उठ जाओ भूखे बंदी....’’। सुहासिनी ने इसे अंग्रेजी में बर्लिन में गाया।
अमीर हैदर खान की सहायता
मेरठ षड्यंत्र केस के सिलसिले में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। इसमें अमीर हैदर खां का भी नाम था। वे विदेश से आकर बंबई में रह रहे थे और घाटे,डांगे तथा अन्य से मिल चुके थे वे भी सुहासिनी के साथ रह रहे थे। वे रिजवीके कमरे में मिले। सुहासिनी ने हैदर को कहा कि उनका बंबई में रहना खतरे से खाली नहीं है? इसलिए वे निकल जाएं। हैदर ने इटालियन पासपोर्ट का इस्तेमाल करके गोवा होते हुए नेपल्स का जहाज पकड़ लिया जिसके बाद उन्हें हैम्बर्ग जाना था।इस प्रकार सुहासिनी की सहायतासे हैदर मेरठ केस के जाल से निकल भागे।इसी प्रकार जब हैदर 1931 में बंबई वापस आए तो उन्हें मद्रास भेजनेकी जरूरत पड़ गई। बंबई पार्टी ने तय किसा कि हैदर बंबई से बाहर चले जाएं। सुहासिनी को हैदर के लिए उचित जगह तय करने के लिए मद्रास भेजा गया। सुहासनी ने पैसों का भी इंतजाम कर दिया।हैदर कुछ समय बाद गिरफ्तार कर लिए गए और मद्रास जेल भेज दिएगए। पार्टी ने उनके मुकदमे की तैयारी के लिए सुहासिनी, उनकी बहन और रणदिवे को भेजा।मेरठ जेल से छूटने के बाद घाटे और मिरजकर की मुलाकात हैदर और सुहासिनी से हुई। इस बीच पार्टी ने कांग्रेस में काम करने का फैसला लिया।सुहासिनी और अन्य साथी कांग्रेस मेंशामिल हो गए।सुहासिनी ने हैदर को कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन ;1940 में भाग लेने में पैसों से भी सहायता की।चीन की यात्रा1954 में सुहासिनी और जाम्भेकर ने चीन की यात्रा की। कहाजाता है कि माओ त्से-तुंग से मिलनेवाले थोड़े-से भारतीयों में वे भी थीं।उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट नेता लिउ शाओ-ची से भी मुलाकात की।सुहासिनी जाम्भेकर की मृत्यु 26नवंबर 1973 को हो गई।
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