शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

मौलाना हसरत मोहानी




 मौलाना हसरत मोहानी इतिहास के

असाधारण व्यक्ति थे जो भारतीय

कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से जुड़े

हुए थे। उनका नाम ‘इंकलाब

जिंदाबाद’ के नारे और कांग्रेस में पूर्ण

आजादी का प्रस्ताव पेश करने से भी

संबंधित है।

हसरत मोहानी का जन्म 1 जनवरी

1875 को वर्तमान उत्तर प्रदेश के

जिला उन्नाव के मोहान गांव में हुआ

था। उनकी जन्म की तिथि विवादास्पद

है। वह क्षेत्र यूपी का यूनान ;ग्रीसद्ध

कहलाता था क्योंकि वहां ज्ञान-चर्चा

और पढ़ने-लिखने का वातावरण था।

स्वयं मौलाना हसरत के परिवार की

महिलाएं शिक्षित थीं और उन्हें साहित्य

की सूक्ष्मताओं का ज्ञान था। दूसरा प्रभाव

पुनर्जागरण का थाः सर सैय्यद अहमद

ने एक स्कूल की स्थापना कर

‘‘अलीगढ़ आंदोलन’’ की शुरूआत की।

हसरत मोहानी की प्राथमिक शिक्षा

गांव में ही हुई। आगे उनका दाखिला

मोहान के गवर्नमेंट हाई स्कूल और

फिर फतेहपुर के गवर्नमेंट हाई स्कूल

में हुआ।

उसी दौरान उनकी उर्दू शायरी में

दिलचस्पी पैदा हो गई। उन्होंने ‘हसरत

मोहानी’’ उपनाम अपना लियाऋ ‘मोहान’

से मोहानी आया। सुप्रसि( गजल

‘‘चुपके-चुपके रात-दिन’’ उन्हीं की

लिखी हुई है। साथ ही उनकी दिलचस्पी

विद्यार्थी आन्दोलन में भी हो गई।

हसरत बड़े तेज विद्यार्थी थे। उन्होंने

दो स्थानों से एन्ट्रेस परीक्षा दी और

दोनों ही में सबसे आगे रहे। अलीगढ़

के सर जियाउद्दीन ने अलीगढ़

इन्स्टीच्यूट गैजट में उनके रिकॉर्ड देखे

और उन्हें तुरंत अलीगढ़ पहुंचने को

कहा। हसरत ने एम.ए.ए.ओ. कॉलेज

में एडमिशन ले लिया जो आगे चलकर

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन गया।

‘‘उर्दू-ए-मुआल्ला’

अपनी पढ़ाई समाप्त करके हसरत

वकीली करना चाहते थे लेकिन अंग्रेज

सरकार ने ऐसा नहीं करने दिया।

इसलिए हसरत ने अपना एक छोटा-सा

प्रेस खड़ा कर लिया। लकड़ी के ‘‘प्रेस’

वे खुद लाते, चलाते और कागज

छापते। इस अखबार का नाम था

‘‘उर्दू-ए-मुआल्ला’’ उनकी पत्नी

निशातुन्निसा भी इस काम उनकी

सक्रिय सहयोगी थी। तुर्की तथा अन्य

विषयों पर हसरत के कई लेख अंग्रेजों

को पसंद नहीं आए। इसलिए उन्होंने

यह प्रेस बंद करवा दिया।

इस पत्रिका में हसरत मोहानी ने

समाजवाद के समर्थन में कई लेख

लिखे, जैसे ‘‘समाजवाद क्या चाहता

कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी

मौलाना हसरत मोहानीः भाकपा के संस्थापकों में

है,’’, ‘‘रूस की नई पीढ़ी का विकास’’,

‘‘पं. नेहरू और समाजवाद’’, इ.।

पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के

संस्थापकों में एक सैय्यद सिब्ते हसन

1970 में लिखते हैं कि कुछ

मुल्ला-मौलवी समाजवाद का नाम तक

नहीं सुनना चाहते थे लेकिन मौलाना

हसरत मोहानी खुद को ‘मुस्लिम

कम्युनिस्ट’’ कहते थे। वे आगे लिखते

हैंः ‘‘आगे बढ़कर काम करनेवाला ये

आदमी लाभ-हानि की बात कभी नहीं

सोचा करते.....उनके पास न घर था

और न ही कार और न ही फैक्टरियों

में शेयर...इसकी पॉकेट खाली रहती

थी लेकिन दिल बड़ा उदार था।

कांग्रेस में

हसरत ने 1899 में मैट्रिक फर्स्ट

डिविजन में पास की। जल्द ही वे उभरते

राष्ट्रीय आंदोलन की चपेट में आ गए।

उन्हें एम.ए.ओ. कॉलज से राष्ट्रीय

आजादी के नारे लगाने के लिए निकाल

दिया गया। आजादी उनकी एक तरह

से जिद थी। उन्होंने किसी तरह बी.ए.

पास किया।

हसरत मोहानी बाल गंगाधर तिलक

से खूब प्रभावित थे, यहां तक कि हसरत

उन्हें अपना गुरू मानते थे। तिलक के

ही कहने पर हसरत कांग्रेस में शामिल

हुए और 1904 के अधिवेशन में भाग

लिया। इसके बाद वे सूरत के

ऐतिहासिक अधिवेशन ;1907द्ध में

शामिल हुए। उन्होंने गोखले, मोतीलाल

नेहरू तथा अन्य उदारवादियों के

विरू( तिलक का साथ दिया। वे

तिलक, लाला लाजपत राय और

अरविंद घोष के साथ थे। तिलक के

साथ ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ी।

हसरत मोहानी स्वदेशी आंदोलन

के नेता बन गए और विदेशी कपड़ों के

बहिष्कार का प्रचार किया। उन्होंने

अलीगढ़ के रसेल स्ट्रीट में ‘‘स्वदेशी

खिलाफत कपड़ा भंडार’’ की स्थापना

की। बंबई के प्रसि( व्यापारी सर

फजलभाय करीमभाय ने मौलाना

शिबली नोमानी के कहने पर कर्ज पर

सामान मुहैय्या किया। हसरत और

उनकी पत्नी निशातुन्निसा दूकान में

बैठा करते और समान बेचा करते, साथ

ही स्वदेशी का प्रचार भी किया करते।

वास्तव में यह दूकान गांधीजी की

पत्रिका यंग-इंडिया की सहायता करने

के लिए खोली गई थी।

हसरत उर्दू-ए-मोआल्ला में

स्वदेशी के पक्ष में लिखा करते। 1908

में अंग्रेजों की आलोचना करते हुए

‘‘मिस्र के देशभक्त मुस्तफा कमाल की

मृत्यु’’ नामक एक लेख पत्रिका में

प्रकाशित हुआ। इसे आजमगढ़ के एक

राष्ट्रवादी नेता और एडवोकेट इकबाल

सोहेल ने लिखा था लेकिन अनाम छापा

था। अंग्रेज बहुत नाराज हो गए और

हसरत को अपने गुस्से का शिकार

बनाते हुए उनपर राजद्रोह का आरोप

लगाया, 2 वर्षों की कठोर कारावास

की सजा सुनाई और 5 सौ रुपयों का

जुर्माना ठोक दिया। हसरत ने लेख

लिखने का जुर्म खुद के नाम ले लिया।

हसरत ने जेल के अपने अनुभवों

के बारे में लिखा। गिरफ्तारी के वक्त

उनकी बेटी नीमा बहुत बीमार थी।

लेकिन बेगम निशातुन्निसा ने उन्हें पत्र

में लिखा कि वे घर की चिंता न करें।

बेगम मजबूत इरादों की महिला थीं।

उन्होंने बुर्का और पर्दा करना छोड़ दिया,

वे खुले रूप से राजनैतिक काम करतीं,

ऑल इंडिया वीमैन्स कॉन्फ्रेंस की नेता

थीं, कांग्रेस के अधिवेशनों में हिस्सा

लिया करतीं, और बरेली समेत कई

जगहों पर महिलाओं को संगठित किया

करतीं। इसे गांधीजी ने यंग इंडिया

के 1921 के एक अंक में मुखपृष्ठ

पर नोट किया है।

हसरत को जेल मे रोज एक मन

गेहूं पीसना पड़ता था और उन्हें कोई

सुविधाएं नहीं थीं। उनकी सारी किताबें

जला दी गई थीं। अलीगढ़ की उनकी

लाइब्रेरी से किताबें कई गाड़ियों में

लादकर उनकी जुर्माने की रकम जमा

करने के लिए बेच दी गईं। अंग्रेज और

यूरोपियन बंदियों का बाथरूम वाले

अलग-अलग कमरे दिए गए थे।

भारतीय कैदियों का इस्तेमाल उनके

नौकरों के तौर पर किया जाता था।

उन्हें 1910 में रिहा किया गया।

1911 में त्रिपोली पर इटली के

आक्रमण के साथ त्रिपोली का यु(

आरंभ हो गया हसरत मोहानी ने इसके

खिलाफ आवाज उठाई। वे ‘‘रेड

क्रिसेन्ट’’ आंदोलन में शामिल हो गए।

1913 में उनका प्रेस जब्त कर लिया

गया। मौलाना और बेगम को दो जून

का खाना भी नसीब नहीं होता था।

फिर भी, मौलाना आजाद

अल-हिलाल में लिखते हैं कि ‘‘वे

सब चीजों के बारे में अनजान रहा

करते और आजादी की सुरा पीकर मस्त

रहा करते, सच्चाई के अंतहीन संगीत

में डूबे हुए..........’’

1915 में काबुल में ‘‘अस्थाई

भारत सरकार’’ के गठन की घोषणा

की गई। राजा महेंद्र प्रताप इसके अध्यक्ष

और ओबैदुल्ला सिंधी प्रधानमंत्री बनाए

गए। हसरत मोहानी ने इसका स्वागत

किया। ओबैदुल्ला ने अस्थाई सरकार

की सहायता की मोहानी से अपील की।

मोहानी फिर गिरफ्तार कर लिए गए।

इस बार वे पहले ललितपुर जेल में

रखे गए, फिर झांसी, प्रतापगढ़,

लखनऊ, फैजाबाद और मेरठ की जेलों

में स्थानांतरित कर दिए गए। उन्हें 22

मई 1918 को रिहा कर दिया गया।

रिहाई के बाद मोहानी मुस्लिम लीग

के अधिवेशनों में शामिल हुए। उनमें से

एक की उन्होंने अध्यक्षता भी की। लेकिन

लीग के साथ उनका केई तालमेल

नहीं बैठा। वे पूर्ण आजादी पर जोर दे

रहे थे।

मोहानी दम्पत्ति 1920 में कानपुर

चले गए। एक प्रतिनिधिमंडल जब

वायसराय से मिलने गया तो मोहानी ने

उनसे हाथ मिलाने से इंकार कर दिया

और चुपचाप खिसक लिए। ये मौलाना

हसरत मोहानी ही थे जिन्होंने

‘‘इन्कलाब जिंदाबाद’’ का नारा लगाया

जिसे भगत सिंह ने प्रचारित किया। यह

नारा प्रथम कार्ल मार्क्स ने दिया था।

कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण

आजादी का प्रस्ताव

हसरत मोहानी और बेगम

निशातुन्निसा ने कांग्रेस के अहमदाबाद

अधिवेशन ;1921 द्ध में भाग लिया।

इसमें स्वामी कुमारानंद, अशफाक

उल्ला और रामप्रसाद बिस्मिल भी

शामिल हुए। यह अधिवेशन मोहानी द्वारा

पूर्ण आजादी का प्रस्ताव पेश करने के

लिए प्रसि( है। यह प्रस्ताव उन्होंने

स्वामी कुमारानंद के साथ मिलकर पेश

किया था।

अधिवेशन में हिस्सा लेने वाले

सैय्यद सुलेमान निदवी लिखते हैं कि

एकाएक दो स्वयंसेवक गांधीजी के पास

दौड़े आए और उन्होंने सूचित किया

कि हसरत मोहानी ने विषय समिति में

पूर्ण आजादी का प्रस्ताव पेश किया है

और इस पर अड़े हुए हैं। गांधीजी

दौड़े-दौड़े वहां गए लेकिन मोहानी टस

से मस नहीं हुए और प्रस्ताव उन्होंने

प्रतिनिधि अधिवेशन में पेश कर दिया।

जाहिर है पूर्ण आजादी का यह प्रस्ताव

पराजित हो गया। कांग्रेस ने पूर्ण आजादी

का ध्येय अंततः 1929 में स्वीकार

कर लिया।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का

स्थापना सम्मेलन, कानपुर,

1925

हसरत मोहानी रूसी क्रांति से गहरे

रूप से प्रभावित थे। कानपुर में उनका

घर कम्युनिस्ट गतिविधियों का केंद्र

बनता जा रहा था। उन्होंने कानपुर में

पार्टी ऑफिस खेलने में भी सहायता

की।

के. एन. जोगलेकर अपने संस्मरणों

में लिखते हैं कि बंबई के ग्रुप को वी.

एच. जोशी से पता चला कि सत्यभक्त

और हसरत मोहानी तथा अन्य दिसंबर

1925 में कानपुर में अखिल भारतीय

कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित करने

की तैयारी कर रहे हैं। वी. एच. जोशी

कानपुर जेल मे बंद एस. ए. डांगे से

मिलने जा रहे थे। बंबई ग्रुप ने इस

पहल का पूर्ण समर्थन किया।

हसरत मोहानी प्रथम ;संस्थापनाद्ध

अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन

;कानपुर,1925द्ध की स्वागत समिति

के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने कांग्रेस

अधिवेशन के पंडाल से थोड़ा अलग

कम्युनिस्ट सम्मेलन के लिए एक पंडाल

खड़ा करने में मदद की। स्वागत समिति

की सदस्यता पांच रुपए थी। इससे

थोड़ा  पैसा आ गया। मोहानी ने अन्य

स्रोतों से भी काफी पैसे जमा करने में

सफलता प्राप्त की। सम्मेलन में 300

से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।

एक मजदूर जुलूस निकाला गया जो

कांग्रेस के पंडाल तक गया। इसका

नेतृत्व करने वालों में हसरत मोहानी

और निशातुन्निसा भी थे।  यहां  के अध्यक्ष के रूप में मौलाना हसरत मोहानी का भाषण

दिलचस्प था। उन्होंने कहाः‘‘कम्युनिस्ट आंदोलन किसानों और मजदूरों का

आंदोलन है। भारत की जनता आम तौर पर इस आंदोलन के सि(ांतों और

उद्देश्यों से सहमत हैं....कुछ कमजोर और घबराये लोग कम्युनिज्म के नाम से ही

डरते हैं। हालांकि ये गलतफहमियां पूंजीपतियों ने फैलाई हैं।’’

इस आरोप का खंडन करते हुए कि कम्युनिस्ट विदेशी शक्तियों के प्रति

वफादार हैं, मोहानी ने कहाः ‘‘हमारा संगठन पूरी तरह भारतीय है....समान

उद्देश्यों वाली अन्य पार्टियों के साथ हमारे संबंध हमदर्दी और मानसिक लगाव के

होंगे, खासकर तीसरी इंटरनेशनल के साथ। हम सिर्फ उनका साथ देने वाले हैं,

उनके पीछे-पीछे चलने वाले नहीं.....’’

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उद्देश्यों को उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट कियाः

‘‘उचित तरीके अपनाकर स्वराज या पूर्ण आजादी हासिल करना...

‘‘.......किसानों और मजदूरों की मुक्ति तथा खुशहाली के लिए हर तरह से

काम करना। इस संदर्भ में उन सभी राजनैतिक पार्टियों से सहयोग करना जो

उपर्युक्त उद्देश्यों को हासिल करने में मदद करे।

‘‘कम्युनिज्म के सि(ांतों के प्रचार का इंतजाम करना....

‘‘हम धर्मां के प्रति अति-सहिष्णुता का भाव रखते हैं।’’

हसरत मोहानी कहा करते थे कि इस्लाम भी पूंजीवाद के खिलाफ है। उन्होंने

इस बात पर जोर दिया कि ‘‘रूसी शब्द ‘सोवियत’ वास्तव में अरबी शब्द

‘सोवियत’ ही है जिसका अर्थ होता है समानता।’’

उन्होंने कहा कि कुछ लोग कम्युनिज्म को धर्म-विरोधी बताते हैं। सच तो

यह है कि धर्म के मामलों में हम सबसे अधिक लचीलेपन और सहिष्णुता

प्रदर्शित करते हैं। वह हर व्यक्ति जो हमारे सि(ांत स्वीकार करता है हमारी पार्टी

में शामिल किया जाएगा चाहे वह मुस्लिम हो या हिन्दू या ईसाई या बौ( या और

कोई या कोई बिना धर्म के।

‘‘हमारे कुछ मुस्लिम नेता बिना आधार के यह कहते हैं कि कम्युनिज्म

इस्लाम के खिलाफ है। सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है।’’

मौलाना हसरत मोहानी को सम्मेलन में चुनी गई केंद्रीय कार्यकारिणी समिति

में शामिल कर लिया गया। उन्हें 1927 में बंबई में हुई कार्यकारिणी समिति में

फिर से ले लिया गया। लेकिन इसके बाद पार्टी के साथ उनके मतभेद गंभीर होते

चले गए। फलस्वरूप उन्हें 1928 के अंत में पार्टी से हटा दिया गया। वे कांग्रेस

के अलावा मुस्लिम लीग में भी कार्य करने पर जोर देते रहे। पार्टी उनके लीग में

शामिल होने की बात से सहमत नहीं थी।

लेकिन मुस्लिम लीग में भी वे तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे और वहां टकराव

की स्थिति में आते रहे। वे धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों की नीति से सहमत नहीं

थे। देश के विभाजन के तो वे बिल्कुल खिलाफ थे।

इस बीच उन्होंने अपनी एक ‘आजाद पार्टी’ भी बनाई।

हसरत मोहानी ने प्रगतिशील लेखक संघ ;प्रलेसद्ध के स्थापना सम्मेलन

;लखनऊ, 1936द्ध में भी हिस्सा लिया।

वे हमेशा ट्रेनों में थर्ड क्लास में यात्रा किया करतेऋ ‘ऐसा क्यों’ पूछने पर

कहतेः ‘क्योंकि फोर्थ क्लास नहीं है इसलिए’!

हिन्दू-मुस्लिम एकता

हसरत मोहानी हिन्दू-मुस्लिम एकता की जोरदार वकालत किया करते।

उन्हें ‘इस्लामी कम्युनिस्ट’ कहा जाता। वे नियमित रूप से हज यात्रा पर जाया

करते और हर बार लौटने पर मथुरा-वृन्दावन में श्रीकृष्ण की पूजा में जाया

करते, खासकर जन्माष्टमी के अवसर पर! उन्होंने कृष्ण को ‘पैगम्बर’ बताते हुए

कविताएं भी लिखीं।

संविधान सभा के सदस्य

हसरत मोहानी 1946 में गठित संविधान सभा में मुस्लिम लीग के टिकट

पर चुने गए। वे डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित संविधान रचना समिति के

सदस्य भी थे। लेकिन उनके ढे़र सारे मतभेद थे। वे सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के

खिलाफ थे। डॉ. अम्बेडकर से भी उनके भारी मतभेद थे। उनका विचार था कि

भारतीय संविधान में देश की विशेषताओं का ध्यान कम रखा गया है और अन्य

देशों के संविधानों की नकल की गई है। वे सोवियत मॉडल वाले संघीय ढांचे को

पसंद करते थे।

उन्हांने भारतीय संविधान पर अनुमोदन का हस्ताक्षर करने से इंकार करदिया।

मौलाना हसरत मोहानी की मृत्यु 13 मई 1951 को हो गई। गांधीजी ने

उन्हें मुस्लिम समुदाय का सबसे बहुमूल्य रत्न बताया।

मौलान हसरत मोहानी की याद में आज देशभर में कई संस्थाएं, स्कूल,

यादगार-स्थल इत्यादि मौजूद हैं।

-अनिल राजिमवाले


1 टिप्पणी:

gohan ने कहा…

certainly revisit again.
I guess you have made many really interesting points. Not as well many ppl would actually think about it the direction you just did. I am really impressed that there is so much about this subject that has been uncovered and you made it so nicely, Sarah Berger

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