शनिवार, 19 नवंबर 2022
साहित्य उत्सव में छिपकली!
साहित्य उत्सव में छिपकली!
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रोशनी से मंच नहाया हुआ था। लेखक जिस कुर्सी पर बैठा था,ठीक उसके पीछे एक पान मसाले का बड़ा-सा पोस्टर दीख रहा था। जिस पर एक मोटी छिपकली गश्त लगा रही थी। युवक और युवतियां वॉकी-टॉकी लिए इधर-उधर भागते-दौड़ते नजर आ रहे थे।
'आप जैसा लिखते हैं, वैसा कोई नहीं लिखता!' श्रोता ने मंचासीन सजे-धजे माइक पकड़े लेखक से कहा।
'क्या मैं इतना घटिया लिखता हूं!' लेखक के यह कहते ही सभागार में ठहाके लगे।
'अरे सर! आप बिरले हैं...आप बहुत अच्छा लिखते हैं। आपका जो स्तर है,उसके आसपास भी कोई नहीं फटकता!' श्रोता ने दिल खोलकर अपने दिल की बात कही।
'तह-ए-दिल से आपका शुक्रिया!' इतना कहने के बाद लेखक सांस रोकर गंभीर हो गया। बोला,'मैं अकेला ही क्यों! मैं तो चाहता हूं कि मेरे जैसे दसियों हों! दसियों क्या... सौ,हजार लेखक और हों! यह साहित्य के लिए अच्छा होगा!' अब जाकर लेखक ने सांस छोड़ी।
'तब आपके लिए अच्छा नहीं होगा सर!' श्रोता में से किसी ने कहा। एक बार फिर सभागार ठहाकों से गूंज उठा। मगर लेखक गंभीर बना रहा।
उसने हस्तक्षेप किया,'मैंने अभी जो बात कही है,पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से कही है। शायद आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा। मैं फिर दोहरा दूं कि मेरे जैसे हजारों लेखक और हो जाए जिससे साहित्य का भला हो! अगर मेरे नीयत में जरा भी खोट हो...मैं झूठ बोल रहा हूं तो इसी वक्त मेरी जुबान टूट कर गिर जाए!'
दूसरे पल लोगों ने देखा कि मंच पर लेखक की जुबान पड़ी उछल रही है,जैसे मछली को पानी से निकाल दिया हो!
'हूऊ...सोने से पहले तुमने ऐसा कुछ देखा था,जो तुम्हें असामान्य लगा हो!' सपना सुनने के बाद लेखक के मित्र ने पूछा।
'कल तो टीवी देखते-देखते सो गया!'
'पक्का!'
थोड़ी देर सोचने के बाद लेखक बोला,'हां याद आया! सोने से पहले मैंने अपने बेडरूम में एक छिपकली देखी जिसकी पूंछ नहीं थी! फिर मैंने नीचे देखा उसकी पूंछ उछल रही थी!'
'तभी... तभी तुमने वैसा ही सपना देखा!' मित्र ने समाधान प्रस्तुत किया।
'अमा यार! कहां छिपकली की पूंछ और कहां एक लेखक की जुबां! कोई अंतर ही नहीं!'
'क्या अंतर है!'
'क्यों नहीं अंतर है!' लेखक ने प्रतिकार किया।
'उसकी पूंछ काट दी जाए और तुम्हारी जुबान दोनों जिंदा रहोगे!'
'हद है!' लेखक गुस्से से बोला। 'छिपकली रेंगती है!' लेखक ने दलील पेश की।
'तुम भी!'
'उसे अपने अस्तित्व के लिए कोई न कोई दीवार चाहिए!' लेखक हार मानने को तैयार नहीं था।
'तुम्हें भी!'
'वह कीड़े खाती है!' थोड़ी देर चुप रहने के बाद लेखक ने अपना ट्रंप कार्ड चला।
'देखो,कीड़े से मतलब सिर्फ खुराक से है!नॉनवेज तो तुम भी खाते हो!' मित्र ने लेखक की आंखों में झांका।
'तो क्या मुझमें और छिपकली में कोई अंतर नहीं!' लेखक ने टेबल पर एक जोरदार मुक्का मारा।
'है न!'
'क्या!' लेखक की आंखें चमकीं।
'तुम पूंछ का काम अपनी जुबान से लेते हो!'
'बस इतना ही!'
'इतना काफी है!'
'मैं कहता हूं इतना काफी नहीं है!' लेखक चीखा।
'इतने से ही काफी ईनाम-इकराम मिल जाते हैं!'
'न ऐसी छिपकली दिखी होती,न ऐसा सपना आया होता!' लेखक की आंखें दीवार को देखने लगीं।
'तो मैं चलूं!'
'सच कहो नहीं तो तुम्हारी जुबान टूट कर गिर जायेगी! क्या मुझमें और छिपकली में कोई और अंतर नहीं है!' लेखक रूआंसा हो गया।
'हैं न!'
'क्या!' लेखक ने दबी जुबान से पूछा।
'छिपकली के पूंछ दुबारा आ जाती है!'
अनूप मणि त्रिपाठी
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