मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डफोड़...

* क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डफोड़...* हमारा प्रजातंत्र जो वास्तव मे पूंजीवादी लोकतंत्र से शुरू होकर 75 साले बीतते पूंजीवादी फासिस्ट तंत्र मे पूरी तरह से तब्दिल हो चुका है. पहले के वैचारिक आदर्श गांधी- नेहरू रहे और दूसरे के आदर्श सावरकर- गोलवलकर हैं. *“यदि मतदान से कुछ बदला जा सकता, तो वे अबतक इसपर रोक लगा चुके होते!” – मार्क ट्वेन (प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक)*.. कांग्रेस या भाजपा, दोनों ही पार्टियों के शासन का इतिहास देखें तो भाजपा में भी उतना ही भ्रष्टाचार है, और वह भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती है जिन्हें कांग्रेस। वास्तव में दोनो ही मुनाफे के लिये अन्धे हैं, जो पूँजीवाद का मूल मंत्र है, इसलिए इनमें से किसी को काना भी नहीं कहा जा सकता। इतना मान लेने वाले कुछ लोगों का अगला सवाल यह होता है कि फिर अभी क्या करें, किसी को तो चुनना ही पड़ेगा? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें थोड़ा विस्तार से वर्तमान व्यवस्था पर नज़र डालनी होगी। आर्थिक व्यवस्था और आर्थिक सम्बन्धों को जैसा का तैसा छोड़ दिया जाये और फिर राजनीति पर एक नज़र डाली जाये तो सभी पूँजीवादी पार्टियों के चरित्र को स्पष्ट किया जा सकता है। *पूँजीवादी मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था के संचालन के लिए किसी भी राजनीतिक पार्टी की सरकार हो उसके शासन में अर्थव्यवस्था और उसके साथ मज़दूर तबाह जरूर होते हैं। मज़दूरों के सामने रोज़गार के सारे विकल्प धीरे-धीरे कम होते जाते हैं, महँगाई-बेरोज़गारी बढ़ती है और इन सभी कारणों से पूरे समाज में असन्तोष भी बढ़ता ही है।* लोगों के बीच बढ़ रहे असन्तोष का विस्फोट न हो जाये, इसके लिये पूँजीवादी शासक वर्ग कभी मध्यावधि चुनाव का, कभी आपातकाल तो कभी साम्प्रदायिक दंगों का सहारा लेता रहा है। भारत के इतिहास में इस तरह की कई घटनाओं के उदाहरण मौजूद हैं। इसके साथ ही कुछ राजनीतिक पार्टियों या सभ्य-समाज के प्रतिनिधियों के नेतृत्व में सुधारात्मक आन्दोलन भी लगातार चलते रहते हैं, जो व्यवस्था के बदलाव के लिए उसपर लगातार बढ़ रहे मेहनतकश जनता के असन्तोष के दबाव को कम करने की भूमिका निभाते हैं। *समाज की यह सभी गतिविधियाँ किसी पराभौतिक शक्ति के प्रभाव में नहीं होती, बल्कि इस पूरी व्यवस्था को संचालित करने वाले कुछ वैज्ञानिक नियम हैं जिन्हें समझा जा सकता है, और इनकी समझ के आधार पर इस व्यवस्था को बदला भी जा सकता है जिससे हर दिन जारी मज़दूरों-किसानो की दुर्दशा और कुछ सालों में होने वाली बड़ी आर्थिक तबाही में व्यापक मज़दूर वर्ग की बर्बादी को जड़ से समाप्त किया जा सके।* चूँकि मज़दूर यह नियम नहीं समझते, न ही कभी उसे इन्हें समझने का मौका दिया जाता है। ऐसी स्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता के भुक्तभोगी समाज के आम मेहनतकश लोगों के बीच यह आम धारणा विकसित होती है कि वर्तमान सरकार में बैठे लोगों को हटाकर दूसरे लोगों को उनकी जगह पर बिठा देने से कुछ “बदलाव” हो सकता है। जबकि पूँजीवादी सम्बन्धों के हितों की रक्षा के लिए मौजूद पूरी राज्यसत्ता पर कोई सवाल नहीं उठने दिया जाता। इसलिए यह लाज़िमी है कि समाज में किसी संगठित क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की गैर-मौजूदगी में मेहनतकश जनता आर्थिक व्यवस्था पर स्वतःस्फूर्त ढंग से कोई सवाल नहीं उठा सकती (आज कोई क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन क्यों मौजूद नहीं है, यह अपने आप में अलग से विश्लेषण का विषय है…)। *पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था के दायरे में रहते हुए कुछ ऐसे लोग भी समाज में पैदा हो जाते हैं जो जनता की इस आम धारणा का राजनीतिक फायदा उठाकर स्वयं सत्ता में आने के सपने देखते हैं। ये लोग या तो जानबूझ कर फायदा उठाना चाहते हैं, या उनकी स्वयं का दृष्टिकोण इतना संकीर्ण होता है कि वे कुछ सुधारों को ही समाज का अन्तिम लक्ष्य समझ बैठे होते हैं।* यही कारण है कि पूरी व्यवस्था पर नियन्त्रण रखने वाले पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि और सरकार में बैठे उनके विचारक प्रचार के माध्यम से लोगों के बीच इस आम धारणा को और मज़बूती प्रदान करते हैं और उनके सामने किसी व्यक्ति को मसीहा के रूप में विराजमान कर देते है। जो लोग किसी क्रान्तिकारी विकल्प की ओर जा सकते थे, या वर्तमान आर्थिक व्यवस्था पर कोई सवाल खड़ा कर सकते थे वे समाज में फैले इस भ्रामक जाल में फँसकर किसी ठोस बदलाव की माँगों से भटका दिये जाते हैं। *पक्ष, विपक्ष या कोई और तीसरे पक्ष का पूँजीवादी जनतन्त्र में यही काम है। जब जनता एक पार्टी से परेशान हो जाये तो दूसरे को, और जब दूसरे से परेशान हो तो फिर पहले को या किसी तीसरे मदारी को उनके सामने विकल्प की तरह लाकर खड़ा कर दिया जाता है।* लेकिन अन्त में ‘ढाक के तीन पात’ वाली कहावत चरितार्थ होती है, और पूँजीवादी आर्थिक सम्बन्धों के अन्तर्गत मज़दूरों की बर्बादी और शोषण के दम पर मुनाफ़ाख़ोरी बदस्तूर जारी रहती है। फिर आर्थिक संकट आते हैं, फिर एक बार लोग बेरोज़गार होकर सड़कों पर आ जाते हैं, फिर एक बार नौजवान-किसान आत्महत्या करने लगते हैं, और फिर लोगों को किसी दूसरे विकल्प की तलाश के लिए धकेल दिया जाता है। यदि संगठित क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन मौजूद न हो तो एक बार फिर कोई और व्यक्ति या कोई और पार्टी विकल्प के रूप में लोगों के सामने लाकर खड़ी कर दी जाती है, और उसे कभी धर्म का डण्डा थमा दिया जाता है, तो कभी जाति की लाठी, और कभी ख़ून की शुद्धता जैसे नारों के साथ प्राचीन शुद्धता का झण्डा। यह हम पिछले सालों से हमारे देश में चल रही राजनीति और आन्दोलनों में काफी स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। पहले अन्ना ने आन्दोलन किया तो बड़ी संख्या में लोग उनके पीछे हो लिए, फिर रामदेव ने केसरिया धोती पहनकर अपने चेलों-चपाटों के साथ आन्दोलन किया और लोग उनके साथ हो लिए, फिर केजरीवाल ने एक पार्टी बनाकर लोगों के सामने कुछ ऐसी बातें कीं जो सुनने में ऊपर से उग्र (सिर्फ) राजनीति बदलाव करने वाली लगती हैं, और लोग उनका समर्थन करने लगे और आज-कल मोदी को हिन्दुत्व के प्रतीक के रूप में एक विकल्प के रूप में मध्य-वर्ग के सामने खड़ा किया जा रहा है। मुझे लगता है कि बात स्पष्ट करने के लिए इतना काफी है। लेकिन इन सभी आन्दोलनों और विकल्पों की बात करने वाले पूँजीवादी प्रतिनिधियों में से कोई भी आर्थिक व्यवस्था में बदलाव की बात नहीं करता, कोई यह नहीं कहता कि देशी-विदेशी कम्पनियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए जिस तरह पूरा आर्थिक-राजनीतिक तन्त्र काम कर रहा है उस पर नियंत्रण लगाने की आवश्यकता है। किसी ने भी यह नहीं कहा कि मेहनत-मज़दूरी करने वाली देश की व्यापक जनता की बर्बादी का कारण पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था है, कि लोग बेरोज़गार किसी और कारण से नहीं बल्कि इसलिए हैं कि वर्तमान पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के सभी साधन पूँजीपति वर्ग के नियंत्रण में हैं, और मेहनतकश चाहकर भी काम नहीं कर सकते। क्योंकि उन्हें काम तभी मिलता है जब कोई पूँजीपति अपने मुनाफ़े के लिये कोई उद्योग शुरू करता है जहाँ मज़दूर अपने श्रम को बेचकर उसकी तिजोरियाँ भरने के लिये काम करते हैं। जनता के इन मसीहाओं में से कोई यह भी नहीं कहता कि पूँजीवाद में मज़दूर अपनी आजीविका के लिये उजरती गुलामी के लिए मजबूर होते हैं, और पूँजी के रूप में सारे संसाधन जो जनता की मेहनत से पैदा किये गये हैं वे कुछ लोगों के पास संकेन्द्रित हो चुके हैं। आज पूरी दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की अर्थव्यवस्था मन्दी से जूझ रही है, ऐसे में सत्ता पर नियन्त्रण रखने वाली पूँजीवादी ताक़तें किसी ऐसे विकल्प की तलाश में हैं जो खुले रूप में मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए जनता का खुला बर्बर दमन करने में समर्थ हो और उसे उनके मूल मुद्दों से भटका कर रख सके। *जबतक मज़दूरों के नियंत्रण में जनता के हितों और आवश्तकताओं के अनुरूप आर्थिक सम्बन्धों में आमूलगामी बदलाव नहीं होंगे, तबतक लोभ-लालच-अपराध और पूँजीवादी समाज में हर दिन पैदा होने वाली अनेक विसंगतियों को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि वास्तव में कोई सही दिशा में कुछ करना चाहता है तो उसे एक क्रान्तिकारी विकल्प के निर्माण के लिए कोशिश करनी होगी और समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझना होगा।* नहीं तो बन्दर की तरह पेड़ की एक डाल से दूसरी डाल पर उछलकूद कर पसीना बहाने को ही श्रम मान लेना महामूर्खता है, जिससे कोई परिणाम नहीं निकल सकता। आज हमें सभी मेहनतकश लोगों के सामने सोचने का एक प्रस्ताव रखना चाहिए और ऐसी हर कठमुल्लावादी विचारधारा, मान्यता, दर्शन, पाखण्ड का प्रचार करने वाले पण्डों-पुजारियों तथा मुल्ला-मौलवियों का विरोध करना चाहिए जो लोगों को आत्मकेन्द्रित होकर जीने, उन्हें स्वार्थी बनाने, घोंघे की तरह अपने खोल में घुस जाने की वकालत करते हैं। वास्तव में सभी लोग चौबीसों घण्टे अपने जीवन के हर क्षण अपनी आवश्यकताओं के लिए वैचारिक तथा भौतिक रूप से (अतीत, वर्तमान तथा भविष्य) के करोड़ों लोगों द्वारा पैदा की जाने वाली वस्तुओं पर निर्भर हैं। अपनी मुक्ति के रास्ते भी हमें अकेले में नहीं मिलेंगे, बल्कि अपने जैसे करोड़ों लोगों के साथ मिलकर संघर्ष करने से ही हमें वास्तविक मुक्ति और न्याय हासिल होगा। साम्राज्यवादी डाकुओं की बढ़ती लूट, देशी सरमायेदारों की फूलती थैलियाँ, मेहनतकशों की बढ़ती तबाही, बेरोज़गारी, आसमान छूती महँगाई, छँटनी-तालाबन्दी, तबाही-बर्बादी, काले कानून, लाठी-गोली का प्रजातंत्र, बिकता न्याय, अराजकता, लूटपाट, गुण्डागर्दी, दलाली, कमीशनखोरी, भ्रष्टाचार, मण्डल-कमण्डल, दंगे-फसाद, भ्रष्ट सरकार, झूठी संसद, नपुंसक विरोध इनसे निजात पाने की राह क्या है? इलेक्शन या इंक़लाब? drbn singh

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