गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024
संघ ने जब भारतीय संसद पर हमला किया था
‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी और संघ का लोकप्रिय दुष्प्रचार
संघ का एक आजमाया हुआ तरीका अपने विरोधियों को नकारने, चरित्रहनन करने और अंत में कुछ न कर पाने पर उसकी पूरी छवि को ही अपने रंग में रंगने का रहा है ताकि उससे चुनौती कम से कम मिले। आयरन लेडी के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की छवि के साथ भी संघ परिवार ने यही प्रयोग करने की कोशिश की थी। यह कुछ कुछ वैसा ही था जैसे 2014 के बाद आई मोदी सरकार ने महात्मा गांधी की वैचारिक छवि को बदलने के लिए उन्हें स्वच्छता अभियान का पोस्टर बॉय बना दिया।
मैं अमूमन लोगों से यह पूछता हूं कि इंदिरा गांधी को पहली बार आयरन लेडी क्यों और कब कहा गया। ज्यादातर लोग 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध और बांग्लादेश निर्माण को इसकी वजह बताते हैं। यह संघ की उसी रणनीति का परिणाम है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। दरअसल, इंदिरा गांधी के आयरन लेडी कहे जाने की कहानी आरएसएस के एक देशविरोधी कृत्य से जुड़ी है जिसे बहुत शातिराना तरीके से भुलाने की कोशिश की जाती रही है।
हुआ यह था कि 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन पर आरएसएस से जुड़े साधुओं की एक भीड़ ने गाय को लेकर क़ानून बनाने की मांग के नाम पर हमला कर दिया। इसका नेतृत्व जनसंघ से करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरानंद कर रहे थे। एक घंटे तक जैसी भयानक अराजकता हुई, दिल्ली ने 1947 के बंटवारे के बाद ऐसा पहली बार देखा था। सरकारी संपत्ति को करोड़ों की क्षति हुई। संघ के हमलावरों ने एक पुलिस जवान की हत्या भी कर दी। इंदिरा गांधी ने सख्ती की हिदायत दी और छह हमलावर मारे गए। उन्होंने गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा की शुरुआती शिथिलता के कारण उन्हें दूसरे ही दिन पद से हटा दिया।
जिस दिन यह हमला हुआ उस दिन इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव भी आना था और उन्हें बमुश्किल 10 महीने सत्ता में हुए थे। कांग्रेस के अंदर का इंदिरा-विरोधी गुट उन्हें तब तक गूंगी गुड़िया बता कर उन्हें कमजोर और निर्णय न ले पाने वाली नेता के बतौर प्रचारित करता रहा था। इस घटना के बाद अंग्रेजी मीडिया, खासकर द स्टेटसमैन अखबार ने इंदिरा गांधी के लिए ‘आयरन लेडी’ उपमा का इस्तेमाल करना शुरू किया। इस उपमा के बाद इंदिरा गांधी की छवि जहां कठोर निर्णय लेने वाली नेता की बनी जिससे उनका विरोधी गुट कमजोर पड़ा वहीं यह संदेश भी गया कि संवैधानिक मूल्यों और संस्थाओं पर किसी भी तरह के हमलों का वह मुहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं। चाहे यह हमला संस्कृति और धर्म की आड़ में ही क्यों न किया गया हो।
जाहिर है संघ परिवार कभी नहीं चाहेगा कि कोई यह जाने कि इंदिरा गांधी को आयरन लेडी का खिताब उसके खिलाफ़ ही सख्त कार्रवाई के लिए मिला था।
आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण भारत का इंदिरा का सपना अब भी बाकी है…
इस कलंक को छुपाने के लिए ही संघ ने पांच साल बाद हुए पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध में उसे हराने और बांग्लादेश के निर्माण के इर्द-गिर्द इंदिरा गांधी को लेकर यह नैरेटिव गढ़ना शुरू किया क्योंकि वह उसे मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान के विभाजन के लिहाज से सूट करता था। सच्चाई यह है कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध वहां के अल्पसंख्यक बांग्लाभाषी लोगों की स्वतंत्र होने की लोकतांत्रिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए उनके आग्रह पर किया था न कि किसी सांप्रदायिक द्वेष के तहत। समझा जा सकता है कि पड़ोसी मुल्कों के लोगों को इंदिरा गांधी पर कितना भरोसा था कि वे अपनी जायज आकांक्षाओं के लिए सैन्य समर्थन तक की मांग तब भारत से कर सकते थे जबकि आज हम देखते हैं कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद पड़ोसी मुल्क नेपाल में लोकतंत्र को समाप्त कर फिर से राजशाही स्थापित करने तक की मांग वहां की राजशाही समर्थक शक्तियां करने लगी थीं।
राजनेता विचारों के प्रतीक होते हैं। इंदिरा लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतीक थीं। इसीलिए फिलिस्तीन और क्यूबा समेत तीसरी दुनिया के तमाम देश उनकी तरफ देखते थे। इन्हीं मूल्यों के नैतिक बल पर वो अमरीकी राष्ट्रपति को उन्हीं के घर पर आँख दिखा सकती थीं। इसीलिए जब संघ इंदिरा गांधी द्वारा इमर्जेंसी लगाये जाने की बात करता है तब उसके दावों को गहराई से परखने की ज़रूरत है क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि जिस संगठन का लेशमात्र भी लोकतंत्र में यकीन न हो, जो नागरिक अधिकारों का खुला विरोधी हो, उसे किसी इमर्जेंसी से दिक्कत हो?
इस सवाल पर जब आप सोचें तो इन दो परिस्थितिजन्य तथ्यों को जरूर संज्ञान में रखें:
1. 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान में 26वां संशोधन करके राजाओं को मिलने वाले मुआवजे प्रिवी पर्स को समाप्त कर दिया था। इंदिरा सरकार यह पैसा दलितों के विकास पर लगाना चाहती थी। ये महाराजा लोग संघ और जनसंघ के सबसे बड़े आर्थिक स्रोत थे। इस स्रोत के कटने से हिंदुत्ववादी शक्तियाँ तिलमिलाई हुई थीं। उन्होंने रजवाड़ों को प्रोत्साहित करके उन्हें कांग्रेस के खिलाफ़ चुनाव में उतारकर एक तरह से इसे पलटने की राजनीतिक कोशिश भी की थी।
2. नवनिर्माण के नाम पर इंदिरा गांधी के खिलाफ चलाया गया आंदोलन शुरू तो गुजरात के एक हॉस्टल के मेस की फीस को लेकर हुआ था लेकिन समाजवादी और संघी गठजोड़ ने आंदोलन का केंद्र बिहार को बना दिया, जिसके कांग्रेसी मुख्यमन्त्री का नाम अब्दुल गफूर खान था। यानी यह पूरा ड्रामा ही एक मुस्लिम मुख्यमन्त्री को हटाने के लिए रचा गया था, जिसका एक नारा था- गाय हमारी माता है, गफूर उसको खाता है। यह वो दौर था जब कांग्रेस ने मुसलमानों को मुख्यमन्त्री बनाना शुरू किया था। यह सिलसिला आगे राजस्थान में बरकतुल्ला खान, असम में सय्यदा अनवरा तैमूर, महाराष्ट्र में अब्दुल रहमान अंतुले, पोंडिचेरी में हसन फारुख तक चला। संघ और समाजवादी धारा को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने आंतरिक अराजकता का माहौल बनाना शुरू कर दिया। आधुनिक संदर्भ में इसे अन्ना आंदोलन जैसा कह सकते हैं।
इंदिरा गांधी ने रजवाड़ों-पूंजीपतियों और साम्प्रदायिक शक्तियों के इस गठजोड़ के खतरे को भांप लिया था। इसीलिए इमर्जेंसी लगाने के बाद सबसे पहला काम संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को जोड़ने का किया ताकि दलितों, कमजोरों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर किसी तरह की कोई आंच न आए।
गांधी बनाम मोदी: लोकतंत्र में सियासी जंग का आखिरी मोर्चा सज चुका है!
याद रहे मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी 2015 को सभी अखबारों में संविधान की पुरानी प्रस्तावना को ही विज्ञापित करवाया था जिसमें ये दोनों शब्द नहीं थे। सवाल उठने पर सरकार ने इसे ‘भूल’ बता दिया था। यह भूल नहीं थी। इसीलिए हम देखते हैं कि पिछले तीन साल में दो बार राज्यसभा में भाजपा के सांसदों ने संविधान से इन दोनों शब्दों को हटाने के लिए प्राइवेट मेम्बर बिल पेश किया है।
इंदिरा गांधी को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए इस तथ्य को भी संज्ञान में रखा जाना चाहिए कि उनकी हत्या से कुछ दिन पहले ख़ुफ़िया विभाग ने उन्हें सूचित कर दिया था कि एक समुदाय विशेष के उनके अंगरक्षकों से उन्हें खतरा है और इसलिए उन्हें वे हटा दें। उन्होंने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि हो सकता है सूचना सही हो लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रमुख होने के नाते वे ऐसा नहीं कर सकतीं। उनकी शहादत अपने शब्दों और मूल्यों के प्रति समर्पण और उनकी रक्षा के लिए जान तक दे देने की उनके अदम्य साहस का प्रतीक है।
यही मूल्य आज फिर खतरे में हैं। उनके पोते राहुल गांधी इन्हीं मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हीं ‘हम भारत के लोग’ के बीच हैं जिन्होंने इसे बनाया और खुद को आत्मार्पित किया था।
लेखक शहनावाज आलम उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं
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