सोमवार, 4 नवंबर 2024

मीर जाफर और पन्द्रह लाख के लालची

-बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के दरबार में उपस्थित होकर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रतिनिधि राबर्ट क्लाईव बंगाल में व्यापार करने की अनुमति मांग रहा था। सिराजुद्दौला ने साफ मना कर दिया। कहा, "मेरे नाना ने कहा है , सब पर विश्वास करना मगर अंग्रेजों पर मत करना, इसलिये आप बाहर जायें। क्लाईव ने युद्ध की धमकी दी, सिराजुद्दौला ने कहा, मुझे युद्ध करना मंजूर है लेकिन तुमको यहां व्यापार करने की अनुमति नही दूँगा। बंगाल के पूर्व नवाब अलीवर्दी खाँ को बेटा नही था , उन्हे सिर्फ बेटी थीं इसलिये उन्होने अपनी बेटी के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। अलीवर्दी खाँ अंग्रेजों के बहुत खिलाफ थे और उन्हे कभी प्रश्रय नही दिया। सिराजुद्दौला ने राबर्ट क्लाईव की चुनौती को स्वीकार किया और तय हुआ 23 जून 1757 को प्लासी के मैदान में युद्ध होगा। ( प्लासी , बंगाल की तत्कालीन राजधानी मूर्शिदाबाद से 22 की0मी0 दूर नदिया ज़िले में अवस्थित है।) सिराजुद्दौला ने अपने गुप्तचरों से पता कराया तो पता चला कि क्लाईव के पास मात्र 3050 ( 950 यूरोपियन और 2100 भारतीय ) सैनिक हैं। सिराजुद्दौला निश्चिंत हो गया कि उसके अठारह हजार सैनिक मिनटों में राबर्ट क्लाईव को मसल देंगे, इसलिये अति आत्मविश्वास में स्वयं नही जाकर उसने अपने सेनापति मीर जाफर को भेज दिया। प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला की विशाल फौज देखकर राबर्ट क्लाईव के हाँथ पाँव फूल गये, लेकिन क्लाईव जानता था कि अगर हिंदुस्तानियों को लालच दो तो वे अपनी मातृभूमि क्या , सात पुश्तो को भी बेच देंगे। उसने तुरंत मीरजाफर को संधि प्रस्ताव भेजा और उसे बंगाल और बिहार का नवाब बनाने का लालच दिया। मीरजाफर स्वार्थ में अंधा होकर क्लाईव के जाल में फंस गया और संधि हो गयी। कुछ लोग कहते हैँ कि प्लासी में बड़ा भीषण युद्ध हुआ, वे गलत हैं, प्लासी में कोई युद्ध नही हुआ सिर्फ संधि हुई, और इस संधि के तहत अठारह हजार की फौज के साथ एक सेनापति ने तीन हजार की फौज के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार पणिक्कर कहते हैं। प्लासी का युद्ध वास्तव में कोई युद्ध नही था , यह एक षड्यंत्र और विश्वासघात का घिनौना प्रदर्शन था , लेकिन इसका स्थान विश्व के निर्णायक युद्धों में से एक है। क्योंकि इसी के द्वारा बंगाल से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डालने की शुरुआत हुई और एक व्यापारिक संस्था ने राजनीतिक बागडोर अपने हांथो में ले ली। अब राबर्ट क्लाईव अपनी डायरी में लिखता है, "जब मैंने मीरजाफर को संधि के जाल में फंसा लिया तो हमलोग मूर्शिदाबाद की ओर बढे। मै आगे घोड़े पर सवार, मेरे पीछे मेरे 950 यूरोपियन सिपाही और उसके पीछे बीस हजार भारतीय फौज, हमलोग जब जा रहे थे तो सड़क के दोनोें किनारे खड़े भारतीय तालियां बजा रहे थे। अगर ये विरोध में एक एक पत्थर भी चला देते तो हम सभी मारे जाते।" कहानी आगे भी है लेकिन मेरा उद्देश्य यही पूरा हो जाता है, इसलिये यहीं समाप्त करता हूँ। हमें लगता है कि हम सब कहीं न कहीं आज भी अपने अन्दर मीरजाफर को पाल कर रखे हुए हैं। पन्द्रह लाख का लालच मिला तो अपनी बुद्धि , विवेक , ज्ञान और नैतिकता पर लोभ की चादर चढ़ा कर कूदने लगे। यह दृश्य बदला नही है। आज भी हम सड़क के किनारे खड़े होकर तालियां बजाने वालों के अनुसरण में हर भ्रष्टाचार , अपराध , कुकर्म और बेशर्मी पर खुश होकर तालियां बजा रहे हैं। -एडवोकेट सुधीर सिंह रघुवंशी

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