मंगलवार, 28 जनवरी 2025
महान क्रांतिकारी श्रीपाद अमृत डांगे - जिन्हें उल्लू अभी भी समझ नही पाए
सुप्रसिद्ध चिंतक जगदीश्वर चतुर्वेदी अगले रविवार 2 फरवरी को नई दिल्ली में AITUC कार्यालय में एस.ए. डांगे की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में उनकी विरासत और जीवन पर चर्चा करेंगे।
वह चर्चा को आधार देने के लिए,वह यहां वर्ष के कार्यक्रमों के लिए घोषणा पत्र उपलब्ध कर रहे हैं:
घोषणा पत्र
श्रीपाद अमृत डांगे १२५वाँ जन्म वर्ष उत्सव
श्रीमान श्रीपाद अमृत डांगे एक महान स्वतंत्रता सेनानी,प्रखर देशभक्त , भारत में ट्रेड यूनियन एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक और एक सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक विचारक थे। उनका जन्म 1899 में महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। डांगे की चेतना पर बाल गंगाधर तिलक जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने गहरा प्रभाव डाला। वे अपने छात्र जीवन से ही स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ गए।
डांगे 1917 की ऐतिहासिक महान अक्टूबर रूसी क्रांति से भी प्रभावित हुए। इस प्रकार वे बीसवीं सदी के दो ऐतिहासिक आंदोलनों से प्रभावित हुए, एक तरफ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन और दूसरी तरफ उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई विदेशी शासन से लड़ाई । उन्होंने न केवल इन दोनों आंदोलनों में भाग लिया, बल्कि उन्होंने इन्हें समझने और इनकी व्याख्या करने में अपनी रचनात्मक प्रतिभा लगाई। उन्होनें एक तरफ़ भारतीय जनता और गांधी जी के सत्याग्रह के बीच मेल देखा और दूसरी तरफ रुसी क्रांति की सफलता। श्री डांगे ने अपनी राजनीतिक सोच की शुरुआत गांधी और लेनिन के बीच तुलना करके की परन्तु बाकी ज़िन्दगी गांधी और लेनिन के विचारों के बीच सामान्य आधार खोजने और समन्वय ढूँढ़ने में लगाई।
इसी कारण से डांगे हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक राजनीतिक विचारकों में से एक हैं। इस वर्ष हम श्री डांगे का 125वाँ जन्म दिवस मना रहे हैं। डांगे की प्रासंगिकता भारतीय क्रांति के सिद्धांतकार के रूप में है । वह समझते थे कि भारत में क्रांतिकारी प्रक्रिया रूस और चीन की तरह नहीं होगी। न ही वे मार्क्स के सिद्धांतों को भारतीय संदर्भ में हठधर्मिता से लागू करने में विश्वास करते थे। इस वजह से, श्री डांगे के काम को समझकर हम भारतीय क्रांतिकारी प्रक्रिया के सही कालक्रम और विचार तक पहुँच सकते हैं। उनकी सोच हमें इस समय के अनेक सवालों पर मार्गदर्शन देती है। भारतीय राज्य व्यवस्था का स्वभाव क्या है और हम इस राज्य व्यवस्था के साथ भारतीय लोगों के रिश्ते को किस रूप में देख सकते हैं? हमें इस समय के क्रांतिकारी संघर्ष और 'समाजवाद' के बीच के रिश्ते को कैसे फिर से परिभाषित करना चाहिए?
डांगे ने भारतीय जनता के वास्तविक हालात का गहरा अध्ययन किया। वह भारतीय जनता की नब्ज़ को पहचानते थे और उनकी चेतना और गति समझते थे। इस वजह से डांगे भारत के लोगों और उनके नेता महात्मा गांधी के बीच द्वंद्वात्मक संबंध को देखने में सक्षम थे। इस मामले में, उनकी आजीवन सोच कम्युनिस्ट आंदोलन के अन्य विचारकों से अलग थी। उनहोंने गांधीजी को एक क्रांतिकारी के रूप में देखा, और उनके अहिंसक सत्याग्रह के तरीकों को भारतीय जनता के लिए सबसे उपयुक्त रणनीति माना। उन्हें भारतीय लोगों के प्रति गहरा प्रेम और उनकी क्षमताओं में विश्वास था।
डांगे को क्रांति की गहरी समझ थी। वह नहीं मानते थे कि भारतीय आजादी
एक बुर्जुआ क्रांति थी। उन्होंने इस क्रांति का साम्राज्यवाद-विरोधी होने का गुण और लोगों के बीच इसके आधार को देखा। उन्होंने देखा कि भारतीय परिस्थितियों की विशेषताओं के कारण एक अहिंसक क्रांति आवश्यक थी। साथ ही उन्होंने यह समझा कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का क्रांतिकारी उद्देश्य था ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य-व्यवस्था का शांतिपूर्ण अहिंसक ढंग से समाप्ती ।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान डांगे ने कम्युनिस्ट आंदोलन को कट्टरपंथी, अति-वामपंथी और ‘पेटी-बुर्जुआ’ विचारधारा से दूर धकेलने का प्रयास किया। इस तरह, उन्होंने तिलक, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे कांग्रेस नेताओं को उनकी पुरानी सोच के बावजूद भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौता करते नहीं देखा। उन्होंने यह स्वीकार करने से इंकार किया कि पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया में एक है, और भारतीय राष्ट्रवादी पूँजीवादी वर्ग के जटिल रूप को गहराई से समझने की आवश्यकता देखी। उनका मानना था कि भारतीय लोगों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के समय सभी प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों को कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना चाहिए।
आज़ादी के बाद, वे हिंसक तरीकों से राज्य सत्ता पर कब्ज़ा करने और "पूंजीपति वर्ग" को उखाड़ फेंकने के रोमांचक विचार नहीं रखते थे। बल्कि वह मानते थे कि इस लोकतान्त्रिक क्रांति को पूरा करने की ज़रुरत है जो शहादतों और मेहनत से हासिल की गई है. भारतीय राज्य व्यवस्था के साथ जुड़ कर लोगों के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए काम करना होगा। डांगे की कार्यनीति भारतीय राज्य व्यवस्था की सटीक समझ पर आधारित थी। उन्होंने देखा कि भारतीय राज्य व्यवस्था को पुराने उदारवादी या साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर नहीं समझा जा सकता। यह समाज के ऊपर सिर्फ़ एक दमनकारी संरचना नहीं थी जिसका इस्तेमाल अन्यथा असभ्य लोगों को व्यवस्था देने के लिए किया जाए, न ही यह केवल वर्ग हितों का एक साधन थी। यह राज्य व्यवस्था भारतीय जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा करने का एक साधन थी जिन्होनें स्वतंत्रता संग्राम के माध्यम से अपनी आवाज़ उठाने के लिए संघर्ष किया। इसलिए, डांगे ने भारतीय राज्य व्यवस्था द्वारा बनाए गए ढाँचे में लोकतांत्रिक क्रांति को जारी रखने के लिए लड़ाई लड़ी।
श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के महत्त्वपूर्ण दौर में डांगे ने इंदिरा गांधी के अनेक कदमों जैसे बैंक राष्ट्रीयकरण, भूमि सुधार और पूंजी की मिल्कियत तथा राष्ट्रीय कर ढाँचे में सुधार का समर्थन किया । उन्होंने 1971 की भारत-सोवियत समझौते को एक प्रगतिशील और साम्राज्यवाद विरोधी कदम के रूप में देखा। उन्होंने इंदिरा गांधी के नेतृत्व को स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पाया और उनके प्रति लोगों के प्रेम को पहचाना। उन्होंने कहा कि लोगों के दिल में इंदिरा जी के लिए एक विशेष स्थान था क्योंकि वह एक महिला नेता भी थीं। जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, तो उन्होंने इसे देश में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी/डीप स्टेट के साथ मिली हुई ताकतों द्वारा बनाए जा रहे अराजकता और “कलर क्रांति” के माहौल का मुकाबला करने के लिए एक आवश्यक कदम के रूप में देखा। वह अपनी इस समझ पर आजीवन बने रहे जिस कारण उन्हें उसी पार्टी से ही निष्कासित किया गया जिसकी स्थापना में उन्होंने अग्रणी भूमिका थी। इस मामले में, उनका जीवन निर्मला देशपांडे और कुछ हद तक अरुणा आसफ अली के जीवन के समान है। ये तीनों हस्तियाँ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की वह शाखाएँ थीं जिन्होंने 'संपूर्ण क्रांति' के कृत्रिम दावों को पहचाना। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारतीय समाज और शासक वर्ग ने एक क्रांति-विरोधी और पश्चिम की ओर देखने वाला मोड़ लिया।
आज जब हम डांगे का मूल्यांकन कर रहे हैं, तो हम सोवियत संघ का पतन और भारतीय अर्थव्यवस्था के नवउदारवादी सुधार शुरू हुए 30 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। इन नवउदारवादी सुधारों ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम के कुछ मूल्यों को नकारने की कोशिश की। हम ऐसा ऐसे समय में कर रहे हैं जब भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, लेकिन सांप्रदायिकता, धार्मिक भेदभाव , पहचान की राजनीति, गरीबी और असमानता माहौल है और यह निरन्तर बढ़ रहा है । इस समय में, हमें डांगे के एकता और संघर्ष के नारे को वापस लाना ज़रूरी है। हमें शांति और लोकतंत्र के पक्ष में सभी ताकतों को एकजुट करने के लिए काम करना चाहिए। साथ ही, हमें सही विचारों और भारत और दुनिया में राजनीतिक स्थिति की सही समझ के लिए संघर्ष करना चाहिए।
कुछ लोगों का मानना है कि प्राथमिक संघर्ष 'संविधान को बचाना' या उदारवादी अधिकार हासिल करना है, लेकिन हमें अपने स्वतंत्रता संग्राम के विचारों के अनुरूप भारतीय लोगों के लिए वास्तविक लोकतंत्र की लड़ाई लड़ना चाहिए। अवसरवादी गठबंधनों के बजाय, हमें उन विचारों के लिए संघर्ष करना चाहिए जो लोगों को एकजुट कर सकें। हमें भारतीय राज्य व्यवस्था को इस तरह से बदलने की कोशिश करनी चाहिए कि यह लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बने, गरीबी उन्मूलन करे और समाजवाद के सपने को साकार करे, जो अंततः वास्तविक लोकतंत्र है।
डांगे ने समझा कि हम भारत के बारे में कूपमंडूक बन कर नहीं सोच सकते और हमें भारत को विश्व इतिहास को बदलने में अपनी भूमिका निभाते हुए देखना चाहिए। इस सन्दर्भ में, हम आज एक ऐतिहासिक और रोमांचक समय में रह रहे हैं और आशा और उम्मीद के अनेक कारण मौजूद हैं। पश्चिमी देश, खासकर अमेरिकी राजनीति और समाज गहरे संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। दूसरी ओर, ब्रिक्स के उभरते देशों के माध्यम से एक नयी लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था जन्म ले रही है। फिर भी, पश्चिम एशिया और पूर्वी यूरोप दोनों में संकट और युद्ध जारी है और परमाणु युद्ध की संभावना मंडरा रही है। जब दुनिया का प्रमुख “लोकतंत्र”, फिलिस्तीनी जनता के नरसंहार में सहायता देता है तो सवाल उठता है, “फासीवाद” असल में कहाँ है? बांग्लादेश का उदाहरण दिखाता है कि कैसे एक स्थायी लोकतांत्रिक समाज को, "फासीवाद" से लड़ने के नाम पर, विदेशी शक्तियों की मदद से अस्थिर किया जा सकता है। हमें इन युद्धों और अस्थिरता के पीछे असली अपराधी को पहचानना चाहिए और शांति के लिए संघर्ष करने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
हमें भारतीय जनता को गहराई से समझने की कोशिश करनी होगी। आम भारतीयों को सांप्रदायिक या बहुसंख्यकवादी होने का दोषी ठहराने के बजाय, हमें उन ताकतों के खिलाफ लड़ना चाहिए जो उन्हें गरीबी में रखती हैं। हमें श्री डांगे की तरह लोगों के प्रति प्रेम की भावना से और उनमें एक बुनियादी विश्वास रख कर आगे बढ़ना होगा। लोगों के प्रति इस प्रेम के वजह से डांगे भारतीय परंपरा में रुचि रखते थे और वे भारतीय दार्शनिक परंपरा के बारे में खुलेपन से सोचते थे। हमें एकता, शांति, गरीबी उन्मूलन और एक नई विश्व व्यवस्था के लिए संघर्ष करना होगा। हमें अंततः भारतीय बच्चों के लिए लड़ना होगा ताकि वे भविष्य में अपनी पूरी क्षमता तक पहुँच सकें।
एस. ए. डांगे - एक इंटरव्यू
बिपिन चंद्रा
फरवरी 1984 में, मुझे कॉमरेड एस.ए. डांगे का इंटरव्यू लेने का अवसर मिला, जो आजीवन क्रांतिकारी रहे, जिन्होंने कभी भी दुनिया को वैसी स्वीकार नहीं किया जैसी वह थी और उन्होंने अपना पूरा जीवन मानवीय स्थिति को बदलने के लिए समर्पित कर दिया। भले ही कॉमरेड डांगे बुढ़ापे और खराब स्वास्थ्य की समस्याओं का सामना कर रहे थे, उनके इंटरव्यू से 1930-1948 की अवधि के बारे में एक गहरी, हालांकि बिखरी हुई, समझ प्रकट हुई ।
अपने 75 वर्ष से अधिक लंबे राजनीतिक जीवन में, डांगे भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की सोच और व्यवहार में आवश्यक परिवर्तनों के प्रति लगातार जागरूक रहे। इसने उन्हें लगातार कुछ नया करने, आंदोलन का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने और आंदोलन की कमजोरियों और अंधे तरीकों पर काबू पाने के लिए नए तरीकों की खोज करने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रीय जीवन और मजदूर वर्ग के आंदोलन में कम्युनिस्टों के योगदान के प्रति पूरी तरह जागरूक रहते हुए भी उन्होंने कभी भी आत्मसंतुष्ट दृष्टिकोण नहीं अपनाया। राष्ट्रीय जीवन के हर बड़े मोड़ पर - 1929-1930, 1936-37, 1942 और 1946-47 - उन्होंने राजनीतिक वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाने का प्रयास किया।
वह उन कुछ भारतीय मार्क्सवादियों में से एक थे जिन्होंने भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के रणनीतिक परिप्रेक्ष्य से जूझने की कोशिश की। सवाल यह नहीं है कि वह सही थे या ग़लत। अपने पहले ही प्रकाशित काम में उन्होंने गांधी को लेनिन के खिलाफ खड़ा कर दिया। बाद में उन्होंने माना कि यह गलत था। साथ ही, इस अपरिपक्व लेखन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति का मूल प्रश्न भी खड़ा कर दिया। 1947 तक वे लगातार गांधी जी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक, आवामी और वैचारिक चरित्र का अन्वेषण करते रहे। 1947 के बाद, उन्होंने लोकतांत्रिक भारत के राजनीतिक ढांचे का सम्मान किया और इस रूपरेखा का देश में समाजवाद और लोकतंत्र के लिए संघर्ष के लिए क्या महत्त्व था।
डांगे अपने मज़ाक और तीखे व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उनके इंटरव्यू में दोनों के उदाहरण सामने आए। उदाहरण के लिए, 1936 में राष्ट्रीय कांग्रेस के फैजाबाद सत्र में, कांग्रेस नेतृत्व द्वारा एक प्रस्ताव पेश किया गया था जिसमें आग्रह किया गया था कि भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा बनाया जाए। डांगे ने एक संशोधन पेश करते हुए कहा कि संविधान सभा ऐसा केवल "सत्ता जीतने के बाद" करे। दक्षिणपंथी नेताओं ने संशोधन का विरोध करते हुए कहा कि यह रूसी क्रांतिकारी अनुभव पर आधारित था और इसलिए आंदोलन में विदेशी विचारधारा को पेश करने का एक प्रयास था। डांगे के जवाब पर चारों ओर हंसी गूंज उठी, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू सबसे आगे थे, "कृपया मुझे बताएं कि "संविधान सभा' शब्द किस वैदिक विचारधारा से आया है?" इसी तरह, उन्होंने 1983 में बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल के दौरान दत्ता सामंत से कहा; “क्या आप कम से कम कथा साहित्य पढ़ते हैं? कृपया कुछ पढ़ें।” वह इस बात से भयभीत थे कि एक श्रमिक नेता कम पढ़ता है और, जैसा कि उन्होंने कहा, "शिक्षित लोग असंस्कृत और साहित्य के बारे में अशिक्षित बने हुए हैं।" एक और किस्सा उन्हीं के शब्दों में: “...भारत में सामान्य चीजें बहुत कम लोग पढ़ते हैं। वे मुझे अगाथा क्रिस्टी पढ़ते हुए पाते हैं और वे मुझ पर हंसते रहते हैं। 'आप अगाथा क्रिस्टी को क्यों पढ़ रहे हैं?' मैंने कहा क्योंकि 'क्यूंकि मैं आप सभी को भूलना चाहता हूं।'
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गांधीजी और भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में उनके नेतृत्व के पहलुओं के बारे में कॉमरेड डांगे के विचार बेहद ताज़ा और रचनात्मक थे।
गांधीजी के बारे में उन्होंने विश्लेषण उन्होंने इस तरह शुरू कि "महात्मा गांधी को हमेशा जन अभियान से प्रेरणा मिलती थी," और वे अकेले ही "जनता को गति दे सकते थे।" यह आकस्मिक नहीं था कि जिस लेख के साथ गांधीजी ने 1942 का आंदोलन शुरू किया था उसका शीर्षक था "द लायन शेक्स द मेन"। वास्तव में, डांगे ने कहा, गांधीवादी गांधी को नहीं समझते हैं "क्योंकि वे उन्हें केवल एक अहिंसक पैगंबर के रूप में सोचते हैं।" दूसरी ओर, डांगे उन्हें "एक वास्तविक क्रांतिकारी मानते थे जो यदि आवश्यक हो तो हिंसा का उपयोग करने में संकोच नहीं करेगा". गांधी ने 1942 में जनता को हिंसा के लिए उकसाने के वायसराय के आरोप का जवाब 1943 में दिया था, की जनता की हिंसा अँगरेज़ सरकार की “लियोनी हिंसा” का जवाब था। यानी यह “आपकी हिंसा का प्रतिरूप” था। “यह (जनता की हिंसा का) की सफाई देने का प्रयास नहीं है तो और क्या है?” डांगे ने पूछा।
डांगे के अनुसार, एक शब्द में कहें तो गांधीवादी राजनीति और रणनीति का मूल उद्देश्य ब्रिटिश (औपनिवेशिक) राज्य व्यवस्था को नष्ट करना था। यह एक और कारण था कि गांधी को एक क्रांतिकारी के रूप में देखना सही था। गांधीजी पर प्रमुख कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर व्यंग करते हुए डांगे ने कहा: “यह फैक्ट्स पर भी फिट नहीं बैठेगा। महात्मा गांधी हर बार क्रांति को धोखा देते हैं, और यहां वह बार-बार क्रांति शुरू करते हैं।”
डांगे का गांधीजी और अहिंसा पर भी कुछ कहना था। चीन से अलग, जहां सन यात-सेन ने एक गणतंत्र से शुरुआत की थी और सरदारवाद के कारण किसानों के पास हथियार थे, भारत में किसान बेहथियार थे। इसके चलते गांधीजी ने संघर्ष का एक अनोखा रूप, अहिंसा और सत्याग्रह अपनाया। यह सही था "उन परिस्थितियों में जिनमें हम पूरी तरह से बेहथियार थे।" इन परिस्थितियों में, "कोई अन्य रास्ता नहीं था"।
गांधीजी द्वारा आंदोलनों को वापस लेने और 1931 में गांधी-इरविन समझौते के रूप में समझौता करने के संबंध में, डांगे सबसे तीव्रबुद्धि थे। डांगे ने कहा, गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया और समझौता तभी किया, जब उन्होंने देखा कि आंदोलन नीची ढलान पर है। एक सामान्य टिप्पणी करते हुए, डांगे ने कहा: “उन्होंने (गांधी) जब भी देखा कि जनता का मूड खराब हो रहा है, उन्होंने हमेशा समझौता किया। उन्होंने कभी अपने आप से समझौता नहीं किया, सिर्फ तभी जब उन्होंने देखा कि जनता थक गयी है”। 1931 में गांधी-इरविन समझौते का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए, जिसके वजह से 1930 का नमक सत्याग्रह ख़तम कर दिया गया था, डांगे ने कहा, “इसके लिए वजह यह थी कि वह देख रहे थे कि विद्रोह नीचे की ओर जा रहा था। एक रणनीतिज्ञ होने के नाते वह किसी आंदोलन के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के बाद उसे ख़त्म नहीं करना चाहते थे।” इस संबंध में उन्होंने कहा कि यह कहना "सभी अन्यायपूर्ण" था, जैसा कि रजनी पाल्मे दत्त ने बाद में लिखा, कि गांधी ने पूंजीवादी दबाव के तहत समझौता किया था। डांगे ने बताया कि यह एक और सवाल था जिस पर वह उस समय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर अलग-थलग थे, क्योंकि उन्होंने गांधी-इरविन समझौते को "रणनीति, युद्ध की रणनीति" के रूप में देखा था। वास्तव में, यदि आंदोलन नीचे की ओर जा रहा है तो यह दिखावा करने का कोई मतलब नहीं है कि एक व्यक्ति अकेला झंडा लेकर चल रहा है।''
डांगे ने 1932-34 के जन आंदोलन की वापसी पर चर्चा करके गांधी के राजनीतिक नेतृत्व के इस पहलू के साथ-साथ जनता के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी चित्रित किया। उन्होंने बताया कि जब गांधीजी ने 1934 में आंदोलन बंद कर दिया तो "कोई आंदोलन नहीं बचा था (और) आंदोलन 1933 में समाप्त हो गया था"। लेकिन गांधी ने जनता को दोष नहीं दिया। इसके बजाय उन्होंने जो कारण बताया वह यह था कि "बिहार की जेल में एक प्रसिद्ध सत्याग्रही ने भूख हड़ताल पर रहते हुए एक कप दूध या चाय पी ली थी और इसलिए मैं आंदोलन बंद कर रहा हूं"। कई लोग ऐसे नेता को, ऐसा कारण बताने के लिए, "पागल आदमी" कहेंगे; लेकिन, डांगे ने कहा, गांधी "पागल आदमी नहीं थे"। उन्होंने ऐसा अजीब कारण बताया क्योंकि "वह जनता को दोष नहीं देंगे, वह नेताओं, कार्यकर्ताओं या किसी को भी दोष नहीं देंगे"। "ऐसे", डांगे ने कहा, "ऐसे थे वह आदमी"।
डांगे ने उस समय चल रही कपड़ा हड़ताल के नेताओं की कमजोरी (फरवरी 1984 में इंटरव्यू के समय) का जिक्र करके गांधीवादी नेतृत्व की इस विशेषता को दर्शाया। उस स्तर पर हड़ताल की विफलता की भविष्यवाणी करते हुए, उन्होंने कहा कि इसका परिणाम यह होगा क्योंकि नेताओं को "समझ नहीं आया कि हड़ताल कब रोकें और इसके बारे में समझौता करें...आप हड़ताल को एक साल तक नहीं खींच सकते।" यह सपना है, और कुछ नहीं।”
डांगे ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि 1930 के दशक की शुरुआत में, वह भी महात्मा गांधी को पूंजीपति वर्ग का प्रवक्ता मानते थे क्योंकि उन्होंने पूंजीपति वर्ग को नहीं छोड़ा। लेकिन डांगे तब भी देख सकते थे कि गांधी "अकेले ही जनता को आंदोलन में डाल सकते हैं" और गांधी "एक ज्वालामुखी हैं (और) जब तक वह भारत में अब शुरू नहीं करते, कोई भी आंदोलन शुरू नहीं होगा, चाहे वह बोल्शेविक हो, कम्युनिस्ट हो, श्रमिक हो, किसान हो, कांग्रेस या कुछ और'' बाद में उन्हें यह भी एहसास हुआ कि क्यूंकि गांधी हड़तालों के विरोधी थे, इसलिए उन्हें मजदूर वर्ग विरोधी नहीं माना जाना चाहिए। वास्तव में, "उनकी दरिद्र नारायण परिभाषा में सभी शामिल है"।
डांगे ने गांधी की राजनीति की दो अन्य विशेषताओं पर भी ध्यान दिया। गांधी ने "कम्युनिस्टों के खिलाफ कभी नहीं लिखा" भले ही वह हिंसा पर कम्युनिस्टों के आग्रह से सहमत नहीं थे। दूसरा, गांधी को समझने के लिए किसी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वह स्थिर नहीं थे, उन्होंने लगातार प्रगति की, जैसा कि 1929 में हिंसा की स्थिति में आंदोलन को न रोकने के उनके आश्वासन या 1943 में वायसराय को उनके जवाब से पता चलता है।
डांगे ने कांग्रेस के दक्षिणपंथ के मूल्यांकन की समस्या पर भी नई सोच प्रदान की। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्टों ने सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेस नेताओं को "गलत समझा"। “हमने उन्हें साम्राज्यवाद-विरोधी होने का श्रेय नहीं दिया। यह एक बुनियादी बात है। हो सकता है कि वे सुधारवादी, उदारवादी और ऐसे ही कुछ थे, लेकिन हमने कभी-कभी उनके बुनियादी दृष्टिकोण को नहीं मन - चाहे वे बिल्कुल ही ब्रिटिश विरोधी हों। वह अवैज्ञानिक था क्योंकि प्रत्येक पूंजीपति अपने लिए एक नियम चाहता था। इसलिए यह आशा करना कि वे ऐसा नहीं करेंगे और यह भी चाहेंगे कि अंग्रेज बने रहें, मूर्खता थी। और वह अति वामपंथ और उसकी मूर्खता की पराकाष्ठा थी”।
वह जमाना चला गया
एस ए डांगे
[श्री एस. ए. डांगे, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक विश्व के सबसे अधिक वयोवृद्ध कम्यूनिस्ट नेता, आल इन्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के भू.पू. अध्यक्ष, भूतपूर्व सांसद, स्वतन्त्रता सेनानी, मार्क्सवादी विचारक तथा लेखक, संस्कृत विद्वान।
नित्यनूतन के विशेष संवादाता बम्बई जाकर श्री डांगे से मिले । 1977 की कांग्रेस की हार के बाद, दिल्ली में हुई पहली आम सभा में मंच पर इन्दिरा जी के साथ बैठे थे एक ही नेता, श्री डांगे । उसी समय की एक तस्वीर दीवार पर टंगी थी। छियासी साल की उम्र में भी श्री डांगे की पैनी बुद्धिमत्ता, विनोदप्रियता तथा बातचीत का सहज ढंग किसी को भी प्रभावित किये बगैर नहीं रह सकता, प्रस्तुत हैं उसी भेंट वार्ता के कुछ अंश ]
नित्यनूतन संवादाता - सुना हैं कि 'इन्दिरा जी बम्बई में इसी मकान में आपसे दो तीन बार मिलने आयी थीं । इन्दिराजी से आपका वर्षों का परिचय है आप उनसे सबसे पहले कब मिले थे ?
डांगे- पण्डित नेहरू जब प्रधानमन्त्री थे, तब उनसे मिलने मैं तीन मूर्ति कभी-कभी जाता था। उस समय इन्दिरा जी हमारी बातचीत में सम्मिलित नहीं होती थी । पंडित जी ने चाय-मंगवाई तो भेज दिया करती थीं। उनसे मिलना अधिक हुआ उनके प्रधानमंत्री बनने पर। उस समय मैं संसद सदस्य था। बंगलादेश के बनने पर उन्हीं को बताकर मैं ढाका गया था। मुजीब साहब तथा वहां के कम्युनिस्ट नेताओं से मिला। लड़ाई से पहले एक बार जयप्रकाश जी मुझसे मिले और उन्होंने कहा कि इन्दिराजी से कहिये कि पूर्व पाकिस्तान में अपनी फौज भेजे। मैंने जवाब दिया कि मैं कुछ नहीं कहूंगा। वे ठीक समय पर ठीक निर्णय लेंगी। उनके सलाहकार की भूमिका अपनाना मुझे मंजूर नहीं है। क्योंकि मेरा विश्वास है कि वे बिल्कुल सही निर्णय लेंगी।
नि. सं. - नेहरू जी और इन्दिरा जी की तुलना की जाये तो क्या नजर आयेगा ?
डांगे- नेहरू जी का जमाना अलग था इन्दिरा जी का जमाना बिल्कुल अलग। हां यह लड़की ज्यादा जिद्दी जरूर थी वे सोवियत यूनियन के नेताओं को कई बार ऐसी खरी- खरी सुनाने वाली पत्र लिखती जिनके वे आदी नहीं थे। एक बार मैंने उनके एक नेता से हंसते हुए कहा, आप प्रोटेस्ट (निषेध) क्यों नहीं करते ? तो वे बोले उससे क्या लाभ होगा ? वह कभी किसी की सुनती थोड़े ही हैं । सोवियत यूनियन में पण्डित जी का बहुत असर था। अपनी सोवियत यूनियन की यात्रा समाप्त कर भारत लौटते समय पण्डित जी ने कहा था मैं अपने दिल का एक टुकड़ा यहां छोड़कर जा रहा हूं इसका वहां पर गहरा असर हुआ । पण्डित जी केवल राजनीतिझ नहीं थे कवि भी थे । पर इन्दिरा जी का सोवियत यूनियन पर डबल प्रभाव था क्योंकि वे थीं महिला ।
श्री डांगे जी के साथ सभी हंस पड़े, डांगे जी आगे बोले, जिस तरह उस देश की आम जनता इन्दिरा जी के दर्शन के लिए उमड़ पड़ती थी वह अब शायद ही किसी को नसीब होगा । दैट एज इज गान, वह जमाना अब चला गया।
नि. स.- उन दोनों में कौन-सी ऐसी बात थी, जिससे कि लोग उनकी ओर आकर्षित होते थे ?
डांगे- उनके शासन में पाइगनुर आप्रेशन (दर्दनाक दमन) कभी नहीं रहा । वैसे सभी बुर्जुवा देशों में भ्रष्टाचार रहता ही है तो यहां पर भी है । लेकिन वे दोनों स्वयं भ्रष्टाचारी कतई नहीं थे। बात ऐसी है कि इस देश को चाहिए जवाहरलाल नेहरू इन्दिरा गांधी । यह देश उनका आदी बन गया था । उन दोनों में कुछ ऐसी बात थी समथिंग अन्डिफाइन्ड [ कुछ ऐसा जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती ] जिसका इस देश पर गहरा असर हुआ। वैसे यह लड़का (राजीव गांधी) भी ठीक चल रहा है। धीरे-धीरे वह उस देश की समस्याओं को समझेगा |
नि. स. - इन्दिरा जी की सफलता क्या थी ?
डांगे – उसके एडिमिनेस्ट्रेशन (प्रशासन) पर उसका पर्सनल कलर (व्यक्तिगत रंग) चढ़ा था। वे लिवरल (उदार) जनरस (दरिया दिल ) थीं और महिला भी । एक महिला का भारत जैसे विशाल देश की प्रधानमंत्री बनना एक अनोखी अद्भुत चीज थी, जिसका रंग सब पर चढ़ा था। अब यही देखो कि अभी तक हमारे देश में महारानी विक्टोरिया की बात सुनायी जाती हैं, अडेव या जार्ज का कोई जिक्र नहीं करता। उसी तरह आगे आने वाली पीढ़ियां इन्दिरा गांधी की बातें सुनाया करेगें और किसी की नहीं हां एक अपवाद रहेगा पंडित की स्वयं ।
इन्दिरा के चेलों ने और साथियों ने गड़बड़ की और 1977 की हार हुई। जिस कारण देश को बहुत कीमत चुकानी पड़ी अगर इन्दिरा बनी रहती तो खूब जोरदार हमला करती पुरानी समाज व्यवस्था पर एक बार उन्होंने मुझसे भूमि सुधार के बारे में पूछा था । मैंने कहा 'यू आर लिब्रेटिंग लैण्ड लेस लेबर (आप भूमि हीन मज़दूरों को बन्धनों से मुक्ति दिला रही हैं ।) लेकिन यह काम बनना सम्भव नहीं दिखता, क्योंकि जमींदार वर्ग आज भी बहुत प्रभावशाली है। आप अभी तक उनके पंख काट नहीं पाई हैं, जिन बन्धुआ मजदूरों को आप मुक्ति दिला रहीं हैं उनके लिये काम देने का इंतज़ाम नहीं किया गया है । बात ऐसी है हमारी आजादी के बाद अमेरिका ब्रिटेन की जगह लेना चाहता था और हमारी ब्यूरोक्रेसी ( अफसर शाही) भी हावी है हम पर । लेकिन इन्दिरा जी ने उनका प्रभाव कम किया था। भारत की असली शान दोनों बाप-बेटी के जमाने में रही । अब चिंता लगी रहती है कि इन्दिरा के जाने के बाद कहीं सभी क्षेत्रों में प्रगतिशील दिशा की रफ्तार कम न पड़ जाए ।
नि. सं. - इंदिरा जी १९७७ में क्यों हारीं ?
डांगे – इलेक्शन इज ए ट्रिक, इट इज नाट ने वेसरिली मेजर (चुनाव एक तरकीब है, उसे हमेशा एक पैमाना नहीं माना जा सकता) एकाध परसेंट से भी कोई हार सकता है ।---......उस समय इन्दिरा जी की लोकप्रियता समाप्त नहीं हुई थी कुछ कम हुई थी उनके चेलों ने उन्हें धोखा दिया । जयप्रकाश नारायण के द्वारा रचे गए षड़यन्त्र का इन्दिरा जी ने पर्दाफाश क्रिया । पर इन्दिरा जी के अपने ही अनुयायी उनके लिये समस्या बन गये, जो उनकी हार के लिए जिम्मेदार हैं।
नि. सं. - 1980 में इन्दिरा जी फिर से सत्ता में कैसे आ सकीं ?
डांगे - लोगों के सामने दूसरा अच्छा कोई पर्याय ही नहीं था। (हंसते हुए) उन्होंने देखा कि सारे मर्द बेकार साबित हुए। यह महिला ही सबसे अच्छी है । वैसे भारत का इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि उसी तरह पुरुषों की लाइन को अस्वीकार कर महिलाओं के शासन को स्वीकार, कई बार किया गया है। चाहे महिला राजगद्दी पर बैठे या न बैठे, शासन उसी का चला है भारत की महिलायें पुरुषों से अधिक बुद्धिमान और सक्षम रही हैं। मराठों के इतिहास में शिवाजों की माता जीजाबाई बहुत अच्छे ढंग से शासन चलाती रही। उसका एक अलग आसन था। जहाँ से न्याय दिया करती थी। भारत के इतिहास की उस परम्परा का सर्वोतम रूप इन्दिराजी में निखर उठा । आज तक के इतिहास में न कभी इतना विशाल देश एक शासक के अन्त गत रहा न कभी इतना विराट् जनसमूह एक साथ रहा।
इन्दिरा जी बातें सबकी सुनती थी पर दिमाग उनका अपना ही चलता था वे इतनी उदार थीं कि और सबके साथ अच्छा व्यवहार रखती थी कि ऐसा सत्ताधीश अब नहीं मिलेगा उन्होंने जीवनभर अच्छी शिक्षा पायी, गांधी जी के साथ, पन्डित जी के साथ अन्य सभी बड़े नेताओं के साथ रहने का उन्हें अवसर मिला। इतनी बड़ी हुकूमत उनके हाथ में थी पर उन्होंने सन्तुलन कभी खोया नहीं। पण्डित जी के साथ भी यही बात थी। मोतीलाल जी के हाथ में सत्ता नहीं थी पर वे उस समय भी शान से रहते थे । लगता था जैसे हुकूमत उन्हीं के हाथ में हो । अंग्रेज गर्वनर उनके साथ हमेशा मित्रता का सलूक करता रहा । उन सभी में एक अजीब-सा गुणों का समिश्रण था ।
नि. सं. - क्या इन्दिरा जी की हत्या को रोकना सम्भव था ?
डांगे - अमेरिका का उसमें हाथ था, उसके बिना किसी प्रधानमन्त्री की हत्या होना सम्भव ही नहीं है । अमेरिका को लगा कि अब यह महिला बहुत ज्यादा शक्तिशाली बन रही हैं जो उनके लिये भारी पड़ रहा था । अमरीका चाहता था कि उसका वजन बढ़े। पर इंदिराजी ने बढ़ने नहीं देती। दोनों महाशक्तियां चाहती थीं कि अपना वजन बढ़ें पर इन्दिरा जी बताया कि भारत कोई छोटा देश नहीं है यह महान देश है। इन्दिरा जी थी धर्मनिरपेक्ष, तो सम्प्रदायवादी सिखों को उनकी लाइन कैसे जंचती ? सवाल धर्म या सम्प्रदाय का नहीं था अन्तरराष्ट्रय राजनीत का था ।
नि.स. - चीन भारत युद्ध के समय क्या नेहरू जी से आपकी भूमिका भिन्न थी ?
डांगे- उस समय कई नेताओं ने पन्डित जी से कहा कि कम्यूनिस्ट पार्टी को गैर कानूनी करार दिया जाए । सभी कम्यूनिस्टों को गिरफ्तार किया जाय। मैं उस समय कलकत्ते में था। हमारी पार्टी ने तब तक लड़ाई के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया था । दिल्ली लौटने पर मैंने पार्टी क बैठक बुलायी । पन्डित जी पर काफी दबाव सा आ रहा था । लेकिन उन्होंने कहा 'लेट अस वेट एण्ड सी व्हाट हैपन्स टू डागेंज लाइन' [हम जहा प्रतीक्षा करें और देखें कि डांगे की लाइन मानी जाती है या नहीं ] उन्हीं दिनों में मैंने उनसे कहा कि मैं सोवियत यूनियन जाना चाहता हूं । उन्होंने कहा ठीक है जाइये । मैंने पूछा कि वहां पर क्या किया जाए तो उन्होंने कहा कि वे तटस्थ रहें तो भी काफी है । उस समय उनके लिए और हमारी पार्टी के लिये भी कभी उलझन थी । सोवियत यूनियन जाने पर मुझे पता चला कि वे केवल तटस्थ नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कई ऐसे काम किये जिससे भारत की सहायता हुई ।
पन्डित जी और इन्दिरा जी के लिए मेरी एक व्यक्तिगत भावना रही है । बिना बुलाये मैं कभी उनसे मिलने नहीं जाता था और न सलाह देता था । मेरा विश्वास था कि साधारणतया वे जो भी करेंगे, ठीक ही करेंगे । जब डांगे जी से पूछा गया कि आप दिल्ली कब आ रहे हैं तो उन्होंने दर्द भरी आवाज में कहा, ‘अब किससे मिलने दिल्ली आऊं ?'
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