धार्मिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
धार्मिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

सांप्रदायिक हिंसा 2015 नफरत और ध्रुवीकरण का साल

सांप्रदायिक हिंसा, इससे जनित ध्रुवीकरण और विभिन्न समुदायों के बीच बढ़ती नफरत, सन 2015 में भारत के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभरी। इससे सांप्रदायिक सद्भाव में कमी आई और प्रजातांत्रिक व्यवस्था द्वारा हमें दी गईं आज़ादियों पर बंदिशें लगीं। एक प्रश्न के उत्तर में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने संसद को बताया कि सन 2015 में अक्टूबर माह तक सांप्रदायिक हिंसा की 650 घटनाएं हुईं, जिनमें 84 लोग मारे गए और 1979 घायल हुए। 'द टाईम्स ऑफ इंडिया' के अनुसार, अक्टूबर तक देश में सांप्रदायिक हिंसा की 630 घटनाएं हुईं। अखबार के अनुसार, 2014 में ऐसी घटनाओं की संख्या 561 थी। सन 2014 में सांप्रदायिक हिंसा में मरने वालों की संख्या 95 थी। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो ;एनसीआरबी; के अनुसार, देश में पिछले वर्ष 1227 सांप्रदायिक दंगे हुएए अर्थात एनसीआरबी के आंकड़े, केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों से लगभग दोगुने हैं।
गृह मंत्रालय की रपट के अनुसारए सन 2015 में कोई 'बड़ी' सांप्रदायिक घटना नहीं हुई परंतु दो 'महत्वपूर्ण' सांप्रदायिक घटनाएं हुईं। ये दो घटनाएं थीं अटाली में मस्जि़द के निर्माण को लेकर हुई हिंसा और दादरी,उत्तरप्रदेश घर में गौमांस रखने के संदेह में एक व्यक्ति की पीट.पीटकर हत्या। यह दिलचस्प है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दो वर्गों में बांटता हैरू 'बड़ी' व 'महत्वपूर्ण'। 'बड़ी' सांप्रदायिक हिंसा की घटना उसे माना जाता है जिसमें पांच से अधिक व्यक्ति मारे गए हों या दस से अधिक घायल हुए हों। 'महत्वपूर्ण' घटना वह है जिसमें कम से कम एक व्यक्ति मारा गया हो या दस घायल हुए हों।
इन आंकड़ों को ध्यान से देखने पर इस साल हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की कुछ विशेषताएं उभरकर सामने आती हैं। पहली बात तो यह है कि इस साल मरने वालों और घायल होने वालों की संख्या कम रही, यद्यपि पिछले साल की तुलना में घटनाओं की संख्या में मामूली वृद्धि हुई। जहां 2014 में सांप्रदायिक हिंसा में 90 लोग मारे गए थे, वहीं 2015 में मृतकों की संख्या 84 थी। इस तथ्य से हिंदू राष्ट्रवादियों के सत्ता में आने के बाद से, सांप्रदायिक हिंसा की प्रकृति में हुए परिवर्तन का अंदाज़ा लगता है। अब सांप्रदायिक हिंसा इस तरह से करवाई जाती है कि उससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तो हो परंतु मृतकों और घायलों की संख्या कम रहे ताकि मीडिया का ध्यान उस ओर न जाए। इन दिनों हो रही सांप्रदायिक हिंसा का मुख्य उद्देश्य, हाशिए पर पड़े वर्गों को आतंकित करना और उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक का दर्जा स्वीकार करने के लिए मजबूर करना है। कम तीव्रता की इस हिंसा के ज़रिए, हिंदू राष्ट्रवादी, समाज पर अपने नियम थोपना चाहते हैं। उनकी अपेक्षा यह है कि हाशिए पर पड़े वर्ग, विशेषकर अल्पसंख्यक, जीवित तो रहें परंतु बहुसंख्यकों की मेहरबानी पर।
अटाली ;हरियाणा; हरशूल ;महाराष्ट्र व दादरी ;उत्तरप्रदेश में हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ऐसे समुदायों के बीच भिड़ंत हुईए जो अब तक शांतिपूर्वक एक साथ रहते आए थे। अटाली के मुस्लिम रहवासियों के घर और दुकानें लूट ली गईं और उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। उनके वाहनों को जलाकर नष्ट कर दिया गया। मुसलमानों को अपनी जान बचाने के लिए अपने घर छोड़कर भागना पड़ा। इस विस्थापन के कारण उन्हें ढेर सारी परेशानियां झेलनी पड़ीं। सांप्रदायिक हिंसा के शोधकर्ता इस तरह की हिंसा को 'सबरडार' हिंसा कहते हैं। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका हैए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दो वर्गों में बांटा और हिंसा की एक.एक घटना को इन दोनों वर्गों में रख दिया। यह, इन घटनाओं और देश में व्याप्त सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को कम करके दिखाने का प्रयास है।
इसके अतिरिक्त, 2015 में सांप्रदायिक हिंसा घटनाएं शहरी क्षेत्रों के अलावा छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में भी हुईं। इसके पहले तक सांप्रदायिक हिंसा मुख्यतः शहरों तक सीमित रहती थी परंतु आंकड़ों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सांप्रदायिकता का ज़हर हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में तेज़ी से फैलता जा रहा है। पलवलए कन्नौज, पछोरा व शामली जैसे छोटे शहरों में सन 2015 में सांप्रदायिक हिंसा हुई। ग्रामीण इलाकों में छोटे पैमाने पर अलग.अलग बहानों से सांप्रदायिक हिंसा भड़काई गई। इस वर्ष सांप्रदायिक हिंसा के मुख्य केन्द्र थे पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार और हरियाणा। इन राज्यों को सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए क्यों चुना गयाए यह पॉल ब्रास द्वारा देश में बड़े सांप्रदायिक दंगों के अध्ययन के नतीजों से समझा जा सकता है। ब्रास का कहना है कि भारत में संस्थागत दंगा प्रणाली ;आई आर एस  विकसित हो चुकी है। बिहार में  2015 में विधानसभा चुनाव हुए और उत्तरप्रदेश में 2017 में होने हैं। जो राजनैतिक दल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभांवित होते हैं, वे चुनाव के पूर्व, आईआरएस का इस्तेमाल कर दंगे भड़काते हैं ताकि पहचान से जुड़े मुद्दों को लेकर विभिन्न समुदायों के बीच नफरत फैलाई जा सके और उनके वोट बटोरे जा सकें।
हमारे देश के जटिल जातिगत और धार्मिक समीकरणों के चलते, हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए अकेले यह काम करना संभव नहीं है। इसमें उन्हें उन राज्य सरकारों का अपरोक्ष समर्थन मिलता है जो दंगों को रोकने और दंगाइयों को सज़ा दिलवाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करतीं। सांप्रदायिक राजनैतिक दलए लगातार तनाव बनाए रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि समाज में अस्थिरता बनी रहे। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हुए लोकसभा आमचुनाव में भाजपा ने उत्तरप्रदेश की अधिकांश सीटों पर विजय प्राप्त की। उसे यह उम्मीद है कि इसी रणनीति को अपनाकर वह विभिन्न राज्यों.विशेषकर उत्तरप्रदेश.में विधानसभा चुनाव में विजय प्राप्त कर सकेगी।
सांप्रदायिक हिंसा की चुनौती का मुकाबला करने में राज्य और आपराधिक न्याय प्रणाली अक्षम साबित हुई। पुलिस ने दंगाइयों को सज़ा दिलवाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। हरशूल में, जहां मुसलमानों के 40 मकानों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया था, हिंसा के पहले, कुछ संगठनों द्वारा पर्चे बांटे गए थे जिनमें मुसलमानों को यह चेतावनी दी गई थी कि उन पर हमला हो सकता है। इस कारण कई मुसलमान पहले ही वहां से भाग निकले। इन पर्चों के बंटने के बाद भी पुलिस सावधान नहीं हुई। इसके पीछे पुलिस के गुप्तचर तंत्र की असफलता थी या अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की अनिच्छा, यह कहना मुश्किल है। अटाली में यद्यपि पुलिस ने मुसलमानों को बल्लभगढ़ पुलिस थाने में दस दिन तक शरण दी तथापि मई 2015 की हिंसा कारित करने वालों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करने के कारण, मुसलमानों पर जुलाई में ऐसा ही दूसरा हमला हुआ। दादरी में तो पुलिस की भूमिका अत्यंत निंदनीय रही।  उसने मोहम्मद अख़लाक के घर से जब्त मांस को फोरेन्सिक जांच के लिए भेजा ताकि यह पता लगाया जा सके कि वह गौमांस तो नहीं है। उपयुक्त कार्यवाही न करके राज्य नेए धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों को अपनी मनमर्जी करने की खुली  छूट दे दी है। उनकी हिम्मत बढ़ती जा रही है और वे देश के विभिन्न इलाकों में मुसलमानों पर इसी तरह के हमले कर रहे हैं। पुलिस की जांच में कमी के कारण दंगाई अक्सर न्यायालयों से बरी हो जाते हैं। हाशिमपुरा में मुसलमानों की गोली मारकर हत्या करने वाले पीएसी के जवानों को दिल्ली की एक अदालत ने बरी कर दिया। यह मानवाधिकारों और न्याय पर कुठाराघात था। जिन लोगों को गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का दोषी पाया गया और सजा सुनाई गई, वे भी अब जेलों से बाहर हैं।
इसके अतिरिक्त, देशभर में पिछले वर्ष चर्चों पर हमले हुए। चर्चों में तोड़फोड़ की गई और उन्हें अपवित्र किया गया। यह ईसाई समुदाय को निशाना बनाने का एक कुत्सित प्रयास और संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गतए सभी लोगों को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी पर हमला है। जब मानवाधिकार संगठनों ने इसका विरोध किया और हमलावरों के विरूद्ध कार्यवाही की मांग कीए तो सरकार ने इन हमलों को स्थानीय असामाजिक तत्वों की शरारत बताकर इनकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त, ननों के साथ बलात्कार और छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में ईसाई पादरियों को डराने.धमकाने और उनके खिलाफ हिंसा से ईसाई समुदाय भयग्रस्त है और असुरक्षित महसूस कर रहा है। कंधमाल के लोग शांति से क्रिसमस नहीं मना सके क्योंकि उसी दिन, हिंदू राष्ट्रवादियों ने बंद का आह्वान किया, ईसाईयों पर हमले किए और जिले के कई इलाकों में तनाव का वातावरण निर्मित किया।
गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में हुई सांप्रदायिक घटनाओं में से 86 प्रतिषत 8 राज्यों. महाराष्ट्रए गुजरात, बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और केरल.में हुईं। अधिकांश मामलों में धार्मिक जुलूसों पर पत्थरबाजी, दोनों समुदायों के व्यक्तियों के बीच निजी शत्रुता, धार्मिक स्थलों की ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर विवाद, कथित गौहत्या और अंतर्धामिक प्रेम संबंध व विवाह सांप्रदायिक हिंसा की वजह बने।
हिंदू राष्ट्रवादियों ने 'बेटी बचाओ, बहू लाओ' जैसे भड़काऊ नारे दिए। आरएसएस व बजरंग दल ने आगरा में 'बेटी बचाओ, बहू लाओ' आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चलाया कि उत्तरप्रदेश अल्पसंख्यक आयोग को उसका संज्ञान लेना पड़ा। बजरंग दल के सदस्य लड़कियों के कालेजों में पर्चे बांट रहे हैं जिनमें हिंदू लड़कियों को यह चेतावनी दी जा रही है वे मुस्लिम लड़कों से प्रेम न करें। यह नफरत फैलाने का अभियान हैए जिसका उद्देश्य दूसरे समुदायों के प्रति भय पैदा करना है। यह व्यक्तियों के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार पर भी हमला है। हिंदू राष्ट्रवादी, हिंदू पुरूषों को यह सलाह देते हैं कि वे मुस्लिम महिलाओं से विवाह करें और उन्हें हिंदू बनाएं। इसके पहलेए आगरा में घर वापसी अभियान को लेकर सांप्रदायिक तनाव फैलाया गया था। सांप्रदायिक तनाव फैलाने का यह सिलसिला केवल आगरा तक सीमित नहीं है। पूरे उत्तरप्रदेश में इस तरह की भड़काऊ और उत्तेजक बातें कहकर तनाव फैलाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में हिंदू राष्ट्रवादियों ने हिंदू लड़कियों और उनके परिवारों का यह आह्वान किया कि वे मुस्लिम लड़कियों से शादी करें, उन्हें हिंदू बनाएं और फिर अपनी 'सुरक्षा' के लिए भाजपा के सदस्य बनें।
जनगणना 2011 के चुनिंदा आंकड़ों का लीक किया जाना भी इसी तरह का षड़यंत्र था। ऐसा बताया गया कि मुसलमानों का देश की आबादी में हिस्सा सन् 2001 में 13.40 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 14.20 प्रतिशत हो गया है। इसके साथ.साथ यह भी कहा गया कि देश की हिन्दू आबादी में कमी आई है। यह भ्रम उत्पन्न करने की कोशिश की गई कि मुस्लिम आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उसके कारण हिन्दुओं का बहुसंख्यक का दर्जा खतरे में पड़ जाने की संभावना है। जुनून को और बढ़ाने के लिए साध्वी प्राची ने यह दावा किया कि मुसलमान लव जिहाद के जरिए'40 पिल्ले' पैदा करते हैं ताकि वे 'हिन्दुस्तान'को 'दारूल इस्लाम' बना सकें। उन्होंने हिन्दू महिलाओं से यह अपील की कि वे कम से कम चार बच्चे पैदा करें। ऐसी ही अपील साक्षी महाराज ने भी की। दोनों भाजपा के सांसद हैं और उन्होंने संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों की रक्षा करने की शपथ ली है।
इन दोनों मुद्दों के केन्द्र में है महिलाओं का शरीर और राष्ट्रवाद के विमर्ष में उसका स्थान। महिलाओं को मुख्यतः बच्चे पैदा करने वाली मशीन माना जाता जो कि राष्ट्र की आबादी बढ़ाएंगी.इस मामले में उन्हें हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने वाली मशीन के रूप में देखा जा रहा है। उनके अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है और उनकी बेहतरी के लिए किए जाने वाले प्रयासों को प्रभावी बनाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। अटाली में जब हमने मुस्लिम और जाट महिलाओं से बात की तो हमें उनकी बातें सुनकर बहुत धक्का लगा। मुस्लिम महिलाओं ने बताया कि किस तरह आसपास की वे जाट महिलाएं, जिनके साथ खेलते.कूदते वे बड़ी हुईं, जिनके साथ उन्होंने अपने दुःख और सुख सांझा किए, वे ही उनके घरों पर पत्थर फेंक रहीं थीं और आग लगा रहीं थीं। जाट महिलाओं ने भी बिना किसी झिझक के कहा कि मुसलमानों को गांव में मस्जिद बनाने का अधिकार नहीं है और उन्हें गांव में वापिस नहीं आने दिया जाना चाहिए। महिलाओं की हिंसा में भागीदारी परेशान करने वाली है क्योंकि इससे समाज का वह वर्ग नफरत और हिंसा के दुष्चक्र में फंस जाता है जिसे शांति की सबसे अधिक जरूरत है। जाट महिलाओं ने यह आरोप भी लगाया कि मुस्लिम पुरूष, जाट लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाते हैं और वे गांव की सुरक्षा के लिए खतरा हैं।
तथाकथित गौवध का इस्तेमाल भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने के लिए किया गया। अकेले उत्तरप्रदेश में जून 2014 से लेकर अक्टूबर 2015 तक केवल गौवध के मुद्दे पर सांप्रदायिक हिंसा की 330 घटनाएं हुईं। सहारनपुर में निर्दोष युवकों को केवल इस आधार पर जान से मार दिया गया कि वे वध के लिए मवेशी ले जा रहे थे।
गुज़रे साल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को गहराने और दोनों समुदायों के बीच नफरत बढ़ाने के लिए सामाजिक बहिष्कार का एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। अटाली में उन मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार किया गया जो गांव लौट आए। उनमें से अधिकांश मज़दूर थे। गांववालों ने उन्हें काम देना बंद कर दिया, उन्हें न तो सामान बेचा जाता था और ना ही उनसे कोई चीज़ खरीदी जाती थी और यहां तक कि उनके बच्चों के लिए दूध भी उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाता था। इससे मुसलमान भूख और बदहाली के शिकार हो गए। मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा संपत्ति अर्जित करने से सामंती सामाजिक यथास्थिति पर खतरा मंडराने लगता है और इसकी हिंसक प्रतिक्रिया होती है। मुसलमानों की संपत्ति की बड़े पैमाने पर लूट और आगजनी का उद्देश्य उनकी आर्थिक रीढ़ तोड़ना होता है। पुलिस और प्रशासन हिंसा का मूकदर्शक बना रहता है और उसे नज़रअंदाज करता है।
घृणा फैलाने वाले भाषणों की सांप्रदायिकीकरण और ध्रुवीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके ज़रिए सांप्रदायिक हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश होती है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री और सांसद स्तर के लोग भी नफरत फैलाने वाली भाषणबाजी कर रहे हैं। यह सचमुच दुःखद है कि उच्च पदों पर बैठे लोगए जिन्हें हमारे संविधान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, वे ही संवैधानिक मूल्यों का मखौल बना रहे हैं। इससे असामाजिक और सांप्रदायिक तत्वों की हिम्मत बढ़ती है और वे और खुलकर हाशिए पर पड़े वर्गों पर हिंसक हमले करने लगते हैं। ;अगले अंक में जारी
-नेहा दाभाड़े

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

अम्बेडकर की विचारधारा- धार्मिक राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान

म्बेडकर की विचारधारा- धार्मिक राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान
व्यापक समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए इन दिनों आरएसएस बेसिर पैर के दावे कर रहा है। कुछ महीनों पहले यह दावा किया गया था कि गांधीजी, आरएसएस की कार्यप्रणाली से प्रभावित थे। हाल ;फरवरी 15, 2015  में एक और सफेद झूठ हवा में उछाला गया और वह यह कि अम्बेडकर, संघ की विचारधारा में यकीन करते थे। यह दावा किसी छोटे.मोटे आदमी ने नहीं बल्कि संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया।
आरएसएस और अम्बेडकर की विचारधारा में जमीन.आसमान का अंतर था। जहाँ अम्बेडकर भारतीय राष्ट्रवादए धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यकीन करते थे वहीं संघ की विचारधारा केवल दो पायों पर टिकी हुई है.पहला, हिन्दू धर्मं की ब्राह्मणवादी व्याख्या और दूसरा, हिन्दू राष्ट्रवाद, जिसका अंतिम लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र की स्थापना।
हिंदुत्व की विचारधारा के सम्बन्ध में अम्बेडकर की सोच क्या थी ? वे हिन्दू धर्म को ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्र बताया करते थे। हम भी यह जानते हैं कि हिन्दू धर्मं में ब्राह्मणवाद का बोलबाला है। उन्हें यह अहसास था कि हिन्दू धर्म का प्रचलित संस्करण, मूलतः, जाति व्यवस्था पर आधारित है और यह व्यवस्थाए अछूतों और दलितों के लिए अकल्पनीय पीड़ा और संत्रास का स्त्रोत बनी हुई है। शुरुआत में अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म के अन्दर से जाति प्रथा की बेडि़यों को तोड़ने की कोशिश की। दलितों को पीने के पानी के स्त्रोतों तक पहुँच दिलवाने के लिए उन्होंने चावदार तालाब और मंदिरों के द्वार उनके लिए खोलने के लिए कालाराम मंदिर आन्दोलन चलाये। उन्होंने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति दहन के कार्यक्रम भी आयोजित किये क्योंकि उनका मानना था कि यह ब्राह्मणवादी ग्रन्थ, जातिगत व लैंगिक पदक्रम का प्रतीक है। उन्होंने हिन्दू धर्म व ब्राह्मणवाद पर कटु व चुभने वाले प्रहार किये। परन्तु समय के साथ वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उन्हें हिन्दू धर्म त्याग देना चाहिए। अपनी पुस्तक श्रिडिल्स ऑफ हिन्दुइज्मश्, जिसका प्रकाशन महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी 1987 में किया गया था, में अम्बेडकर हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी संस्करण के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हैं। अपनी पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, 'यह पुस्तक उन आस्थाओं की व्याख्या करती है जिन्हें ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्र कहा जा सकता है' 'मैं लोगों को यह बताना चाहता हूँ कि हिन्दू धर्म सनातन नहीं है' इस पुस्तक का दूसरा उद्देश्य है हिन्दू आमजनों को ब्राह्मणों के तौर.तरीकों से परिचित करवाना और उन्हें स्वयं इस पर विचार करने के लिए प्रेरित करना कि ब्राह्मण उन्हें किस तरह पथभ्रष्ट करते रहे हैं और किस प्रकार उन्हें धोखा देते आये हैं.।
अम्बेडकर 1955 के आसपास से ही हिंदू धर्म से दूर होने लगे थे, जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि वे हिंदू के रूप में जन्मे अवश्य हैं परंतु हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं। सन् 1956 में उन्होंने एक सिक्ख मिशनरी कान्फ्रेंस में भी हिस्सा लिया था और सिक्ख धर्म अपनाने पर विचार भी किया था। सन् 1936 में उन्होंने 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' ;जाति का उन्मूलन शीर्षक पुस्तिका प्रकाशित कीए जो कि लाहौर में आयोजित.जांतपांत तोड़क मंडल. की सभा में अध्यक्ष बतौर उनका वह भाषण था जो अंततः वे दे न सके थे। अपने लिखित भाषण के अंत में उन्होंने जोर देकर यह कहा कि उन्होंने हिंदू धर्म को छोड़ने का निर्णय ले लिया है।
उन्होंने कहाए'मैंने अपना निर्णय कर लिया है। मेरा धर्मपरिवर्तन करने का इरादा पक्का है। यह परिवर्तन मैं किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं कर रहा हूं। मैं अगर अछूत भी बना रहूंए तो भी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता। मैं केवल अपने आध्यात्मिक नजरिये के कारण धर्मपरिवर्तन कर रहा हूं। मेरा अंतःकरण हिंदू धर्म को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मेरा स्वाभिमान मुझे हिंदू धर्म से जुड़े रहने की इजाजत नहीं देता। परंतु आपको धर्मपरिवर्तन से आध्यात्मिक और भौतिक' दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त होंगे। कुछ लोग भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए धर्मपरिवर्तन करने का मजाक बनाते हैं और उस पर हंसते हैं। मुझे ऐसे लोगों को मूर्ख कहने में कोई हिचक नहीं है।'
भगवान राम, आरएसएस द्वारा प्रतिपादित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रमुख प्रतीक हैं। आईए, हम देखें कि अम्बेडकर भगवान राम के बारे में क्या कहते हैं  ' सीता के जीवन का तो मानो कोई महत्व ही नहीं था। महत्व केवल उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और नाम का था। उन्होंने पुरूषोचित राह अपनाकर उन अफवाहों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया जो एक राजा के बतौर वे कर सकते थे और जो एक ऐसे पति के बतौर, जो अपनी पत्नी के निर्दोष होने के संबंध में आश्वस्त थाए करना उनका कर्तव्य था'। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं,'बारह साल तक वे लड़के वाल्मिकी के आश्रम में रहे, जो अयोध्या, जहां राम का शासन था, से बहुत दूर नहीं था। इन 12 सालों में इस आदर्श पति और पिता ने कभी यह पता लगाने की कोशिश तक नहीं की कि सीता कहां हैं, जिन्दा हैं या मर गईं'। सीता ने राम के पास लौटने से बेहतर मर जाना समझा क्योंकि राम का उनके साथ व्यवहार पशुवत था'। हिन्दुत्वादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में दलितों के साथ क्या व्यवहार होगा, यह राम के स्वयं के जीवन से स्पष्ट है' वह शम्भूक नाम का शूद्र था, जो सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तपस्या कर रहा था और उन्होंने बिना किसी चेतावनी या स्पष्टीकरण के उसका सिर काट दिया';रिडल्स ऑफ राम एण्ड कृष्ण
अम्बेडकर का सपना ष्जाति का उन्मूलनष् थाए जो स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी अधूरा है। कई कारणों से जातिए इस देश में आज भी एक महत्वपूर्ण कारक बनी हुई है। अम्बेडकर 'जाति के उन्मूलन' की बात करते थे जबकि संघ परिवार, 'विभिन्न जातियों में समरसता' की बात कहता है और इसलिए उसने 'सामाजिक समरसता मंच' नामक एक संस्था भी बनाई है। क्या अब भी इस बात में कोई संदेह रह जाता है कि जहां तक सामाजिक मुद्दों का सवाल हैए अम्बेडकर और आरएसएस के विचार परस्पर धुर विरोधी हैं।
आरएसएस की राजनैतिक विचारधारा के मूल में है हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद। अम्बेडकर ने इस मुद्दे पर बहुत गहराई से विचार किया था। उनके विचार उनकी विद्वतापूर्ण पुस्तक 'थाट्स आन पाकिस्तान' ;पाकिस्तान पर विचार में उपलब्ध हैं। इस पुस्तक में वे आरएसएस की हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा के जनक सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद और जिन्ना की मुस्लिम राष्ट्रवाद की विचारधारा की तुलना करते हुए कहते हैं, 'यह अजीब लग सकता है परंतु जहां तक एक राष्ट्र बनाम द्विराष्ट्र के मुद्दे का प्रश्न है, श्री सावरकर और श्री जिन्ना में कोई विरोध नहीं है। उल्टे, वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं.सहमत ही नहीं बल्कि जोर देकर यह कहते हैं.कि भारत में दो राष्ट्र हैं.एक हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र'। उनके मतभेद सिर्फ इस मुद्दे पर हैं कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों के अधीन रहना होगा। जिन्ना का कहना है कि भारत को पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बांट दिया जाना चाहिए। मुस्लिम राष्ट्र को पाकिस्तान में रहना चाहिए और हिन्दू राष्ट्र को हिन्दुस्तान में। दूसरी ओर, श्री सावरकर का जोर इस बात पर है कि यद्यपि भारत में दो राष्ट्र हैं तथापि भारत दो भागों में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए, जिनमें से एक भाग मुसलमानों का हो और दूसरा हिन्दुओं का। बल्कि, दोनों राष्ट्र एक ही देश में रहेंगे जिसका एक संविधान होगा और यह कि यह संविधान ऐसा होगा जो हिन्दू राष्ट्र को प्राधान्य देगा और मुस्लिम राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र के अधीन रहना होगा';थाट्स ऑन पाकिस्तान,खण्ड 3, अध्याय 7ध।
वे समग्र भारतीय राष्ट्रवाद के हामी थे।'क्या यह तथ्य नहीं है कि मोन्टेग्यू.चेम्सफोर्ड सुधार के अंतर्गत अगर सभी नहीं तो अधिकांश प्रांतों मे मुसलमानों, गैर.ब्राह्मणों और दमित वर्गों ने एकता स्थापित की और एक टीम की तरह सुधारों को लागू करने के लिए 1920 से 1937 तक कार्य किया। यह हिन्दुओं और मुसलमानों में साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने और हिन्दू राज के खतरे को समाप्त करने का सबसे मुफीद तरीका है। श्री जिन्ना आसानी से इस राह पर चल सकते हैं और ना ही उनके लिए इस राह पर चलकर सफलता प्राप्त करना मुश्किल है' ;थाट्स ऑन पाकिस्तान, पृष्ठ 359।
वे हिन्दू राज्य की अवधारणा के पूरी तरह खिलाफ थे। इस पुस्तक के'मस्ट देयर बी पाकिस्तान' खण्ड में वे लिखते हैं,' अगर हिन्दू राज स्थापित हो जाता है तो निःसंदेह वह इस देश के लिए एक बहुत बड़ी आपदा होगी। हिन्दू चाहे कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इसी कारण वह प्रजातंत्र के साथ असंगत है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।   
इसी तरहए धार्मिक अल्पसंख्यकों का समाज में स्थान व उनके अधिकार और कमजोर वर्गों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता जैसे मुद्दों पर भी अम्बेडकर और आरएसएस के विचारों में न केवल कोई साम्य नहीं है बल्कि वे परस्पर विरोधाभासी हैं। जहाँ अम्बेडकर संविधान के निर्माता थे, वहीं संघ परिवार, भारतीय संविधान को हिन्दू.विरोधी बताता है और हिन्दू धर्मग्रंथों पर आधारित, नया संविधान बनाने का पक्षधर है। अम्बेडकर को आरएसएस की विचारधारा से जोड़ने का मोहन भगवत का प्रयास, लोगों की आँखों में धूल झोंकना है। संघ, दरअसल, उन लोगों का समर्थन हासिल करना चाहता है, जो अम्बेडकर की विचारधारात्मक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
-राम पुनियानी

शनिवार, 8 नवंबर 2014

मुसलमानों की राजनैतिक लामबंदी: बदलता स्वरूप


स्वतंत्रता के बाद से,भारत में, राजनीतिज्ञों ने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए पारंपरिक रूप से मुख्यतः तीन श्रेणियों के मुद्दों का उपयोग किया है.सुरक्षा,धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान व मुसलमानों को देश की समृद्धि में उनका वाजिब हक दिलवाना। हाल में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव में आल इंडिया मजलिस.इत्तिहादुल.मुसलमीन के उम्मीदवारों की विजय ने यह साबित किया है कि एक चौथे मुद्दे का उपयोग भी मुस्लिम मतों को पाने के लिए किया जा सकता है और वह है, हिन्दू राष्ट्रवादियों का मुकाबला करने के लिए धार्मिक आधार पर एक होना। अलग.अलग समय पर इन मुद्दों का उपयोग, बदलती हुई रणनीतियों के तहत किया जाता रहा है। ये हैं 1. चुनावी राजनीति से दूरी बनाना 2. उन राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता लेना, जिनमें मुसलमानों का बहुमत नहीं है व 3. मुसलमानों की अपनी राजनैतिक पार्टियां बनाना।
राजनैतिक रणनीतियां 
पाकिस्तान में बसने के लिए भारत छोड़ने से पहले,मौलाना मौदूदी ने कहा था कि यदि भारत के मुसलमान अपने अधिकारों पर जोर देंगे तो उनके प्रति हिन्दुओं का पूर्वाग्रह बढ़ेगा। अतः, उनकी यह सलाह थी कि मुसलमानों को सरकार और प्रशासन से दूर ही रहना चाहिए ताकि हिन्दू राष्ट्रवादी आश्वस्त रहें कि उनके मुकाबिल मुस्लिम राष्ट्रवादी ताकतें लामबंद नहीं हो रही हैं। मौलाना के अनुसार, यही वह एकमात्र रास्ता था जिसके जरिए मुसलमान, इस्लाम के संबंध में बहुसंख्यक समुदाय के पूर्वाग्रहों को दूर करने में सफल हो सकते थे। साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों की दृष्टि में समाज में या तो किसी सम्प्रदाय का वर्चस्व हो सकता है या वह पराधीन हो सकता है। उन्हें बीच का यह रास्ता दिखता ही नहीं है कि दो समुदायों के सदस्य,मिलजुलकर,शांतिपूर्वक रह भी सकते हैं। यही समस्या मौलाना मौदूदी के साथ थी। मौलाना मौदूदी के पाकिस्तान जाने के बाद, उनके द्वारा स्थापित जमायते इस्लामी ने चुनावी राजनीति में भाग नहीं लिया। परंतु मौलाना की सलाह उन मुसलमानों के लिए किसी काम की नहीं थी जो कि अपनी रोजाना की जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगे हुए थे।
देवबंदी उलेमाओं के संगठन जमायत उलेमा.ए.हिन्द ने हमेशा पाकिस्तान का विरोध किया। जमात ने कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन का इस उम्मीद में समर्थन किया कि स्वाधीन भारत में मुसलमानों को उनके धर्म का पालन करने की आजादी होगी और उनके पर्सनल लॉ से कोई छेड़छाड़ नहीं की जायेगी। जमायत का यह मानना था कि मुस्लिम सांस्कृतिक पहचान के लिएए गैर.मुस्लिम साथी देशवासी उतना बड़ा खतरा नहीं हैं जितने कि अंग्रेज। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद में आस्था ने जमायत को यह विश्वास करने का और मजबूत आधार दिया। राजनैतिक व्यवस्था में मुस्लिम समुदाय को उसका वाजिब हिस्सा दिलवाने में जमायत की कोई रूचि नहीं थी। उसकी रूचि केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ को संरक्षित रखने में थी। दूसरी ओर,जिन्ना और अन्य मुस्लिम राष्ट्रवादियों का लक्ष्य मुसलमानों को सत्ता में उनका वाजिब हक दिलवाना था और वे आधुनिक विचारों का स्वागत करते थे। जहां देवबंदी उलेमा मुसलमानों की एक विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान बनाना और उसकी रक्षा के लिए समुदाय को एक रखना चाहते थे,वहीं जिन्ना और मुस्लिम राष्ट्रवादी, मुसलमानों को एक अलग राजनैतिक समुदाय और अलग राष्ट्र मानते थे।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद, जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद जैसे लोगों के सत्तासीन होने के कारण मुसलमान अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त थे। वैसे भीए विभाजन के दौर में हुए दंगे शांत होने के बाद से,सुरक्षा, मुस्लिम नेताओं के लिए चिंता का कोई बड़ा मुद्दा नहीं थी। उस समय जोर इस बात पर था कि अल्पसंख्यक तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब उन्हें बहुसंख्यकों का सद्भाव हासिल हो। जो मुसलमान भारत में रह गए थे उनमें मुख्यतः कारीगर, मजदूर, भूमिहीन किसान और पिछड़ी जातियां थीं और उनके लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में अपने वाजिब हिस्से की मांग उठा सकते हैं। जमायत और मुस्लिम राजनैतिक नेताओं ने मुसलमानों को उनकी धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे को लेकर कांग्रेस का साथ देने के लिए राजी कर लिया। इस मुद्दे के तीन भाग थे.पहला यह कि भारतीय राज्य,मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं करेगा, दूसरा, उर्दू भाषा को प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जाएंगे और तीसरा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। सन 1990 के दशक में इस सूची में एक और मुद्दा जुड़ गया और वह था बाबरी मस्जिद की रक्षा का.जिसे अंततः सन् 1992 में ढ़हा दिया गया।
मुस्लिम नेतृत्व, समुदाय की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति के लिए कुछ भी करने का इच्छुक नहीं था। वह केवल मुसलमानों की धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखना चाहता था और इसके लिए वह समुदाय के गौरवपूर्ण अतीत का गुणगान करता रहता था। इसमें शामिल था भारत को महान बनाने में मुस्लिम शासकों का योगदान, ताजमहल जैसी इमारतें और स्वाधीनता संग्राम में समुदाय की हिस्सेदारी। नेतृत्व के सामने एक चुनौती यह थी कि मुस्लिम समुदाय अत्यंत विविधतापूर्ण था। इसमें अनेक पंथ और बिरादरियां थीं। इसके अतिरिक्तए भाषाई, सांस्कृतिक व नस्लीय अंतर भी थे और कई अलग.अलग परंपराएं और रीतिरिवाज भी।
कांग्रेस के भीतर का मुस्लिम नेतृत्व इस तथ्य पर ध्यान नहीं दे रहा था कि मुसलमानों और गैर.मुसलमानों के बीच के सांस्कृतिक अंतर पर जोर देने और मुसलमानों की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का निर्माण करने की कोशिश से, हिन्दू राष्ट्रवादी मजबूत हो रहे थे। उस समय महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ होने और स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी न करने के कारण, हिन्दू राष्ट्रवादी समाज के हाशिए पर थे। वे शनैः.शनैः आमजनों के बीच यह प्रचार करने लगे कि मुसलमानों द्वारा अपनी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को मजबूती देने से अलगवावादी प्रवृत्ति बढ़ेगी। जबकि तथ्य यह है किधार्मिक.सांस्कृतिक स्वतंत्रता के आश्वासन ने ही देवबंदी उलेमाओं को मिलेजुले भारतीय राष्ट्रवाद की ओर आकर्षित किया था और उन्हें विभाजन व मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का विरोध करने के लिए प्रेरित किया था। देवबंदी उलेमाओं का प्रयास यह था कि वे संस्कृति का इस्तेमाल एक धार्मिक समुदाय को राजनैतिक समुदाय के रूप में पुनर्परिभाषित करने के लिए करें और राजनैतिक व्यवस्था में अपना वाजिब हक मांगें। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों का दानवीकरण शुरू कर दिया। वे कहने लगे कि मुसलमानए मूलतः अलगाववादी हैं, वे पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं और बहुपत्नी प्रथा का इस्तेमाल कर अपनी आबादी को इतना बढ़ा लेना चाहते हैं कि उनकी संख्या हिन्दुओं से अधिक हो जाए और वे भारत को इस्लामिक राज्य में बदल सकें। कांग्रेस इस बेजा प्रचार का मुकाबला करने की अनिच्छुक व इसमें असमर्थ थी। बल्कि कांग्रेस को लगता था कि अगर मुसलमान असुरक्षित महसूस करेंगे तो वे मजबूर होकर उसके साथ जुड़ेंगे। कांग्रेस ने मुसलमानों को शिक्षा, बैंक कर्जों,सार्वजनिक नियोजन,सरकारी ठेकों इत्यादि में बराबरी के अवसर दिलवाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए और ना ही यह कोशिश की कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ मुसलमानों तक पहुंचें। इस दिशा में पहली बार कुछ अनमने से प्रयास सन् 2006 में सच्चर समिति की रपट आने के बाद किए गए और इन प्रयासों का मुख्य लक्ष्य भी प्रचार पाना था। नौकरशाहों ने मुसलमानों के लिए बनाई गई विशेष कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखाई और मुसलमानों को बहुत कम वास्तविक लाभ मिला।
सन् 1961 के जबलपुर दंगों ने पहली बार मुसलमानों की कांग्रेस के प्रति आस्था को झकझोरा। नेहरू के हस्तक्षेप के बाद भी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा जारी रही। उस मुस्लिम नेतृत्व, जो अपनी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान बनाने की कोशिशों में लगा हुआ था, के लिए जबलपुर दंगे एक चेतावनी थे। परंतु उन्होंने उसे नजरअंदाज कर दिया। सन् 1952 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को,  बिहार,उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और संपूर्ण भारत में मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों का क्रमश:64,72,56 व 57 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ। सन् 1957 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को इन्हीं राज्यों व संपूर्ण भारत में सभी मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों के क्रमश: 65, 58, 51 व 52 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। सन् 1962 में यह प्रतिशत क्रमश: 52,47, 52 व 52 रह गया। सन् 1967 में कांग्रेस को मिलने वाले मुसलमानों के मतों में भारी कमी आई और इन तीन राज्यों और संपूर्ण भारत में क्रमश: उसे केवल 39, 36, 47 और 40 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। सन् 1960 के दशक के अंत में देश में कांग्रेस के विरूद्ध वातावरण था और इसका असर मुसलमानों पर भी पड़ा। जैसा कि आंकड़ों से स्पष्ट हैए खासी मुस्लिम आबादी वाले इन तीन राज्यों में मुसलमानों में कांग्रेस की पैठ तेजी से कम हुई।
मुसलमान बहुत तेजी से कांग्रेस से दूर खिसकने लगे क्योंकि पार्टी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में तो असफल रही ही थी, शासन व्यवस्था और आर्थिक संपन्नता में भी उन्हें उनका वाजिब हक नहीं दिलवा सकी थी। कांग्रेस का जोर केवल उनकी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने पर थाए जिसकी मांग पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले देवबंदी उलेमा करते थे। धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के बदलेए राजनैतिक समर्थन पाने की कोशिशों के उदाहरण थे सलमान रूशदी के उपन्यास 'सेटेनिक वर्सेस' पर रोक और शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए नए कानून का निर्माण आदि।
सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद,मुसलमानों का कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया। इस घटना से मुसलमानों को यह लगने लगा कि कांग्रेस उनकी विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने में भी सक्षम नहीं है।
पिछड़े मुसलमान
जहां देववंदी उलेमाओं के लिए मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान का मुद्दा केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ, उर्दू व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इर्दगिर्द घूमता था, वहीं पिछड़े मुसलमानों, जो कि कुल आबादी के 85 फीसदी से ज्यादा थे, की सांस्कृतिक पहचान की परिभाषा भिन्न थी। वे जातिगत ऊँचनीच और भेदभाव का सामना कर रहे थे। जहां इस्लाम उन्हें समान दर्जा और न्याय का वायदा करता था वहीं अशरफ मुसलमान.जो कि या तो ऊँची जातियों के हिंदुओं से धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बने थे या दावा करते थे कि उनकी रगों में बादशाहों का खून बह रहा है.पिछड़े मुसलमानों को अपने बराबर दर्जा देने के लिए तैयार नहीं थे। अजलफ ;नीची जातियों से धर्मपरिवर्तन कर बने मुसलमान, जिन्हें पसमांदा भी कहा जाता है, सांस्कृतिक दृष्टि से स्वयं को हिंदू नीची जातियों के सदस्यों के अधिक नजदीक पाते थे। उन्हें इस्लाम और बिरादरी की संस्कृति, दोनों विरासत में प्राप्त हुए थे। पसमांदाओं को लामबंद करने के लिए सामाजिक न्याय और सामाजिक समावेश के मुद्दों का इस्तेमाल किया गया। पिछड़े मुसलमानों को उर्दू से कोई विशेष प्रेम नहीं था और ना ही उन्हें दूरदराज स्थित एक विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से कोई लेनादेना था, विशेषकर तब, जबकि उनके बच्चो के लिए पड़ोस के स्कूल में दाखिला पाना भी एक संघर्ष था। उन्हें वहाबी.देववंदी परिवार संहिता से भी कोई मतलब नहीं था। उनका जोर इस बात पर था कि उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके और उनके बच्चे पढ़ लिख सकें। दक्षिण भारतए विशेषकर तमिलनाडु और कर्नाटक व तेलगांना के ग्रामीण इलाकों में, मुसलमान अपनी द्रविड़ पहचान और सामाजिक न्याय के आंदोलनों से अधिक जुड़े हुए थे।

सुरक्षा का मुद्दा
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बादए मुसलमान मतदाता कांग्रेस से दूर होते गए क्योंकि कांग्रेस उनके धार्मिक.सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा करने में असफल रही थी। सन् 1990 के दशक में सुरक्षा का मुद्दा,धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन गया। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल मुसलमानों को यह आश्वासन देकर अपनी ओर खींचने में सफल रहे कि वे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व ने उच्चतम न्यायालय के उन कई फैसलों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कि जिनके द्वारा मुसलमानों के धार्मिक.सांस्कृतिक चरित्र पर अतिक्रमण किया जा रहा था। उदाहरणार्थ,सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का कोई विरोध नहीं हुआ कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना राज्य द्वारा की गई है और इसलिए उसे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं माना जा सकता। इसी तरह,सलमान रूशदी और तस्लीमा नसरीन को वीजा दिए जाने का विरोध टीवी स्टूडियों में तो हुआ परंतु सड़कों पर नहीं। मुस्लिम महिला ;तलाक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1986,जिसे संसद ने शाहबानो प्रकरण में निर्णय को पलटने के लिए बनाया था, की उच्चतम न्यायालय ने इस तरह व्याख्या की कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का अपने पूर्व पतियों से मुआवजा पाने का अधिकार और मजबूत हो गया। इस निर्णय का भी कोई विरोध नहीं हुआ। ऐसे अनेक धार्मिक.सांस्कृतिक मुद्दे हैंए जिनमें राज्य या न्यायालयों द्वारा हस्तक्षेप किया गया परंतु उन देववंदी उलेमाओं व अन्यों ने उनका कोई विरोध नहीं कियाए जो ये दावा करते थे कि वे मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करेंगे।
आरजेडी का बिहार में 15 साल का शासन दंगा मुक्त रहा। उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में भी सांप्रदायिक दंगों की संख्या और उनकी भयावहता में जबरदस्त गिरावट आयी। परंतु समाजवादी पार्टी व आरजेडी दोनों ने ही पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रवक्ता के रूप में केवल अशरफ नेतृत्व को गले लगाना ही बेहतर समझा। उनकी निगाहों में मुसलमान एकसार धार्मिक.सांस्कृतिक समुदाय थे। यह धारणा उनके द्वारा प्रस्तावित एम.वाय गठजोड़ से भी जाहिर होती है। मुलायम सिंह यादव ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि स्कूलों के मुस्लिम विद्यार्थियों को रविवार की जगह शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश मिला करेगा। परंतु इस निर्णय का मुसलमानों द्वारा ही इतना विरोध किया गया कि उसे वापस लेना पड़ा। अगले अंक में जारी
-इरफान इंजीनियर
Share |