
कहने को तो देश के हर प्रमुख राजनैतिक दल का यह मानना है कि 90 के दशक में जब रामलहर रूपी साम्प्रदायिकता का ज्वार पैदा कर, देश की सामाजिक समरसता व उसकी अखण्डता पर प्रहार करने का प्रयास किया गया था, उससे कहीं अधिक संकट मोदी के रूप में भाजपा ने उत्पन्न कर दिया है, परन्तु इस तूफान को रोकने के लिए बजाए एक संयुक्त मोर्चा बनाने के सभी दल बिखरे हुए हैं। परिणाम स्वरूप गैर साम्प्रदायिक मतों के विभाजन पर ही सारी आशाएँ मोदी एण्ड कम्पनी लगाए बैठी है।
वाम दल जो यू.पी.ए. प्रथम में राजग सरकार को परास्त करने में आगे थे और जिन्होंने न्यूनतम साझा प्रोग्राम के अन्तर्गत यू.पी.ए. सरकार को समर्थन दिया था अब अपना वही पुराना राग गैर कांग्रेस, गैर भाजपा का अलाप रहे हें जो वह पहले भी अलापते रहे हैं और जिसके चलते एक नहीं तीन बार भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र में राजग सरकार को कायम कराने में मदद दे चुके हैं, इस बार भी उनके द्वारा वही काम किया जा रहा है। उनको सबसे अधिक भरोसा उन मुलायम सिंह यादव पर है जिनका पूरा राजनैतिक इतिहास एक गैर भरोसेमन्द राजनीतिज्ञ का रहा है। बकौल उनके पुराने मित्र बेनी प्रसाद वर्मा कि उन्होंने पहले चरण सिंह फिर वी0पी0 सिंह और बाद में कांशीराम को धता बताकर सदैव सŸाा हासिल करने की राजनीति पर विश्वास किया।
दूसरी ओर अति महत्वाकांक्षी राजनैतिक अभिलाषाओं से भरी मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी गैर कांग्रेस, गैर साम्प्रदायिक व गैर समाजवादी, सर्वसमाज की सरकार की बात कर केन्द्र में सत्ता प्राप्त करने का सलोना सपना दलितों को दिखला रही है जबकि तीन बार वह स्वयं साम्प्रदायिक शक्तियों से उत्तर-प्रदेश में हाथ मिलाकर सत्ता का उपभोग कर चुकी हैं। 2002 के गोधरा नरसंहार के पश्चात, दंगों के आरोपी नरेन्द्र मोदी के समर्थन में गुजरात जाकर चुनाव प्रचार कर चुकी हैं। मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में गैर साम्प्रदायिक मतों का विभाजन कराकर साम्प्रदायिक दलों की सरकार बनवा चुकी हैं।
अब रही अल्पसंख्यक मुस्लिम सियासी दलों एवं धार्मिक उलेमा की बात। तो यह सदैव चुनाव के समय ही अपनी दुकानें सजाकर बैठ जाते हैं और अपीलें व फतवे जारी करके भाजपा के मुकाबले में खड़ी कांग्रेस पार्टी की मुस्लिम विरोधी नीतियों व उसके कार्यकाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों की याद अपनी कौम को दिलाने लगते हैं। चुनाव के पश्चात न तो इन्हें मस्जिद याद रहती है न वक्फ सम्पत्तियाँ और न मुसलमानों का सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ापन।
आज भी मुल्क में मुसलमानों को अपनी स्वयं की खरीदी जमीन पर मस्जिद बनाने की आजादी नहीं, जो उनका संवैधानिक अधिकार है। चोरी छुपे एक अपराध्ीा की तरह मस्जिद का निर्माण मुसलमान करते हैं। मस्जिद से लाउडस्पीकर उतरवाना प्रशासनिक अमले की सामान्य प्रक्रिया है, वक्फ सम्पत्तियों की हजारों बीघा जमीने सरकारी कब्जे में हैं। शरीयत के कानून को देश की अदालतें स्वीकार नहीं कर रही हैं। नतीजे में हजारों, लाखों वाद देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित पड़े हुए हैं। इन सबकी परवाह किसी धार्मिक व राजनैतिक संगठन को नहीं। वक्फ सम्पत्तियाँ, मजारों व मदरसों में फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करने की फिक्र नहीं। मुसलमानों में दहेज के बदले चलन एवं शादी विवाह में फिजूल खर्ची की रोकथाम की किसी को परवाह नहीं। ऐन चुनाव के समय केवल मुस्लिम मतों के विभाजन में अपनी सहभागिता करने यह तथाकथित मुस्लिम हमदर्द कमर कस कर निकल पड़ते हैं।
-पुष्पेन्द्र कुमार सिंह
एडवोकेट
मो0-09838803754 लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से