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सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

मोदी साहब ! देश इंसानी कसाईंखाना मत बनाइए


मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की सेंट्रल जेल से भागे सभी आठ सिमी आतंकियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया है। आतंकी सोमवार तड़के जेल में एक प्रधान आरक्षक की हत्या कर जेल से फरार हो गए थे। इसके बाद पुलिस ने इन्हें गुनगा थाना क्षेत्र में ईंटखेड़ी गांव के पास घेर कर एनकाउंटर में ढेर कर दिया। इन आतंकियों में जाकिर हुसैन सादिक, मोहम्मद सलीक, महबूब गुड्डू, मोहम्मद खालिद अहमद, अकील, अमजद, शेख मुजीब और मजीद शामिल थे। सभी आतंकियों पर 5-5 लाख का इनाम घोषित कर दिया था। पुलिस के अनुसार  सोमवार तड़के साढ़े तीन बजे जेल के बी ब्लॉक में बंद सिमी के आठ आतंकियों ने बैरक तोड़ने के बाद हेड कांस्टेबल रमाशंकर की हत्या कर दी। इसके बाद चादर की मदद से आतंकी दीवार फांदकर फरार हो गए थे। कारागार में जहाँ कैदी बंद किये जाते हैं     उस कमरे के बाद तीन बड़ी दीवालें होती हैं और हर जगह पहरा होता है शाम को जब एक बार कैदी बैरक के अन्दर बंद कर दिया जाता है तो सुबह ही बैरक खोला जाता है इसलिए वार्डन की हत्या कर कैदियों का भाग जाना कहीं से भी संभव नहीं प्रतीत होता है. जिसकी पुष्टि
 ईंटखेड़ी गांव के प्रत्यक्षदर्शियों ने आईबीसी 24 चैनल को बताया कि उनलोगों ने कुछ लोगों को भागते हुए देखा था। जब उनलोगों ने उसे रोकने की कोशिश की तो आतंकी उन पर रोड़े बरसाने लगे। इसके तुरंत बाद गांववालों ने पुलिस को इसकी सूचना दी। मौके पर तुरंत पहुंची पुलिस ने थोड़ी ही देर में एनकाउंटर में इन सभी आतंकियों को मार गिराया।विशेष बात यह भी है की घटनास्थल  पर कोई असलहा आतंकवादियो के पास से नही पाया गया है. भोपाल में सिमी के कैदियों को एनकाउंटर में मार गिराने की बात तथ्यों के विपरीत होने के कारण फर्जी मुठभेड़ हैं इसकी जांच कराए जाने की आवश्यकता है जेल से निकाल हत्या कर दी है. भोपाल सेंट्रल जेल देश के चुनिंदा आधुनिक अति सुरक्षित जेलों मे माना जाता तो ऐसे कैसे हो गया की 8 बन्दी एक गार्ड का मर्डर भी कर देते हैं और फिर भाग भी जाते हैं और किसी को कानो कां खबर भी नही हुई ?  ये कि जेल से भागने के 10 घंटे बाद भी आठों बंदी 10 किलोमीटर भी नही भाग पाये और एक साथ एक जगह छिपे रहे ?  मध्यप्रदेश सरकार के ग्रह मंत्री कहते हैं कि फरार कैदियों के पास कोई हथियार नही था तो वहीं पुलिस के आला अधिकारी कह रहे हैं की वो हथियारों से लैस थे और उन्होंने पुलिस पे फायर किये जिसके बदले मे पुलिस ने उन्हें मार गिराया। उपरोक्त परिस्थितियां इस बात को और बल देती हैं की इनकाउंटर यह फ़र्ज़ी है ऐसे क्या हालात पैदा हो गए कि पुलिस को आठों कैदियों को जान से मारना पड़ा? क्या उनमे से कोई ज़िंदा नही पकड़ा जा सकता था ? दिल्ली से अलका लांबा ने ट्वीट कर कहा है कि- पहले आठ आतंकियों का भागा जाना और फिर एनकाउंटर में एक साथ मारे जाना। इसके लिए मप्र सरकार के पास 'व्यापमं' फार्मूला था। वहीं  भारतीय क्म्युनिस्ट पार्टी  उत्तर प्रदेश  के सचिव डॉ  गिरीश ने फेसबुक पर लिखा है एक को भी जिन्दा न पकड़ पाना और जेल से भाग जाने देना भी बहादुरी है और देशभक्ति भी।            
  पत्रकार  प्रवीण दूबे   ने लिखा   ---शिवराज जी...इस सिमी के कथित आतंकवादियों के एनकाउंटर पर कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है....मैं खुद मौके पर मौजूद था..सबसे पहले 5 किलोमीटर पैदल चलकर उस पहाड़ी पर पहुंचा, जहां उनकी लाशें थीं...आपके वीर जवानों ने ऐसे मारा कि अस्पताल तक पहुँचने लायक़ भी नहीं छोड़ा...न...न आपके भक्त मुझे देशद्रोही ठहराएं, उससे पहले मैं स्पष्ट कर दूँ...मैं उनका पक्ष नहीं ले रहा....उन्हें शहीद या निर्दोष भी नहीं मान रहा हूँ लेकिन सर इनको जिंदा क्यों नहीं पकड़ा गया..? मेरी एटीएस चीफ संजीव शमी से वहीं मौके पर बात हुई और मैंने पूछा कि क्यों सरेंडर कराने के बजाय सीधे मार दिया..? उनका जवाब था कि वे भागने की कोशिश कर रहे थे और काबू में नहीं आ रहे थे, जबकि पहाड़ी के जिस छोर पर उनकी बॉडी मिली, वहां से वो एक कदम भी आगे जाते तो सैकड़ों फीट नीचे गिरकर भी मर सकते थे..मैंने खुद अपनी एक जोड़ी नंगी आँखों से आपकी फ़ोर्स को इनके मारे जाने के बाद हवाई फायर करते देखा, ताकि खाली कारतूस के खोखे कहानी के किरदार बन सकें.. उनको जिंदा पकड़ना तो आसान था फिर भी उन्हें सीधा मार दिया...और तो और जिसके शरीर में थोड़ी सी भी जुंबिश दिखी उसे फिर गोली मारी गई...एकाध को तो जिंदा पकड लेते....उनसे मोटिव तो पूछा जाना चाहिए कि वो जेल से कौन सी बड़ी वारदात को अंजाम देने के लिए भागे थे..?अब आपकी पुलिस कुछ भी कहानी गढ़ लेगी कि प्रधानमन्त्री निवास में बड़े हमले के लिए निकले थे या ओबामा के प्लेन को हाइजैक करने वाले थे, तो हमें मानना ही पड़ेगा क्यूंकि आठों तो मर गए... शिवराज जी सर्जिकल स्ट्राइक यदि आंतरिक सुरक्षा का भी फैशन बन गया तो मुश्किल होगी...फिर कहूँगा कि एकाध को जिंदा रखना था भले ही इत्तू सा...सिर्फ उसके बयान होने तक....चलिए कोई बात नहीं...मार दिया..मार दिया लेकिन इसके पीछे की कहानी ज़रूर अच्छी सुनाइयेगा, जब वक़्त मिले...कसम से दादी के गुज़रने के बाद कोई अच्छी कहानी सुने हुए सालों हो गए....आपके  भक्त
                                                                  
जेल के अन्दर से अगर निकाल कर मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं की जा रही हैं तो यह सब संघ परिवार के घिनौने चहरे को प्रदर्शित करती हैं लेकिन प्रधानमंत्री से कहना चाहूँगा कि आप संघ के प्रचारक अवश्य रहे हैं लेकिन देश के प्रधानमंत्री भी हैं और इस तरह की कार्यवहियाँ देश को इंसानी कसाईखाने के रूप में तब्दील कर रही हैं. इससे देश का चेहरा बदरंग हो रहा है.

सुमन
लो क सं घ र्ष !

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

आँख के अंधे नाम नैनसुख रखो

प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी जनता से संवाद करने के लिए आकाशवाणी से मन की बात कहते हैं. मोदी ने विकलांगो को विकलांग न कहने के लिए लोगों को प्रेरित किया और उन्हें नया नाम दिव्यांग कहने के लिए कहा. यह उसी तरह की बात है आँख के अंधे नाम नैनसुख रख दो. प्रधानमंत्री कुछ कर पाए हो न कर पाए हो लेकिन पुराने नाम को हटा कर नया नाम रखने का कार्य करने में पूर्ण कुशल हैं या यूँ कहिये की पुरानी बोतल में नयी शराब. योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग, इंदिरा गाँधी आवास योजना का भी नाम बदलने की तौयारी है, चंडीगढ़ हवाई अड्डे का नाम शहीद भगत सिंह की जगह मंगल सेन का प्रस्ताव किया जा चुका है. विकास जिसकी रट वह हमेशा लगाए रखते हैं वह महंगाई के डर से पैदा नहीं हो पा रहा है. पिछली सरकार की योजनाओं का नया नामकरण ही हो रहा है.
                   मन की बात में जो बातें की जा रही हैं, उसमें काफी बातें आधारहीन हैं जैसे पिछले मन की बात में मोदी ने कहा था- 'मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के भोजपुरा गांव में एक कारीगर दिलीप सिंह मालवीय ने एक अनूठा काम किया है।' 'उन्होंने तय किया कि अगर कोई मटेरियल प्रोवाइड करता है तो शौचालय बनाने की मज़दूरी वो नहीं लेंगे। 100 शौचालयों का निर्माण कर चुके हैं। मैं दिलीप सिंह मालवीय को ह्रदय से बहुत-बहुत बधाई देता हूं, अभिनन्दन करता हूं।' मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में 100 टॉयलेट बनवाने वाले एक शख्स की तारीफ की थी। दिलीप सिंह जिस भोजपुरा गांव में रहते हैं, वहां सिर्फ 53 घर हैं. सौ शौचालय बनवाने की बात पूर्णतय: असत्य है और दिलीप सिंह शौचालय बनवाने का पैसा भी लेते हैं और मध्य प्रदेश के मंत्री से लेकर कांग्रेस के नेताओं मन की बात को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है. 
                         प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए तर्क व तथ्य अगर गलत साबित हो रहे हैं तो निश्चित रूप से अच्छे दिन आने वाली मुहावरे की बात ही है. उनकी सभी बातें सोशल मीडिया से लेकर समाज में हंसी-मजाक की बातें ही होकर रह जा रही हैं. भारतीय गणतंत्र के 125 करोड़ नागरिकों का प्रधानमंत्री अगर इसी तरह से मन की बात करता रहेगा तो शेख चिल्ली और प्रधानमंत्री में कोई अंतर नहीं रह जायेगा. इतना अधिक आत्म मुग्धता ठीक नहीं है. 
किसान आत्महत्या कर रहे हैं. हिमाचल में उन उत्पादक अपनी भेड़ों का ऊन जला रहे हैं. मोदी साहब को आम जनता की समस्याओं से और उसके कष्टों से कोई लेना-देना नहीं रह गया हो. 

सुमन 

रविवार, 20 सितंबर 2015

मध्य प्रदेश में सर्वाधिक बलात्कार का मामले

बीड :16 साल तक बेटी से रेप करने वाला पिता गिरफ्तार, दो बार किया गर्भवती। इंदौर : बेटी के साथ सौतेले पिता ने किया कथित रेप। गोवा : 10-वर्षीय बेटी के साथ कथित रेप, आरोपी पिता गिरफ्तार। मंदसौर: पिता ने एक वर्ष तक किया दस वर्षीय पुत्री से दुष्कर्म। ये अखबारों में छपी खबरों की चंद पंक्तियां हैं, जिनसे पता चलता है कि हमारे समाज का कितना नैतिक पतन हो चुका है। यह तो एक बानगी भर है। देश का कोई कोना, कोई इलाका ऐसा नहीं है, जहां के अखबारों और टीवी चैनलों पर दो-चार खबरें ऐसी न आती हों। अगर हम सरकारी आंकड़ों की ही बात करें, तो इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि भारत में महिलाओं की दशा अत्यंत दयनीय है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध घटने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। 
इस बात पर शायद ही कोई विश्वास करे कि सन 2010 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, एक साल में दिल्ली की 66 फीसदी महिलाएं दो से पांच बार यौन शोषण का शिकार होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा बताता है कि पिछले एक दशक में 22,4000 मामले महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के दर्ज किए गए। इस आंकड़े का एक मतलब यह भी निकलता है कि हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले यानी लगभग दो-सवा दो मिनट में एक अपराध। सबसे खास बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में सबसे ज्यादा पति, पिता, भाई और पुत्र शामिल रहते हैं। पिछले दस सालों में आईपीसी 498 ए के तहत पति और रिश्तेदारों द्वारा महिलाओं को शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाने के 909713 मामले यानी हर घंटे में दस मामले दर्ज किए गए। पिछले एक दशक के दौरान महिला की लज्जा भंग करने के करीब 470,556 मामले दर्ज किए गए। इतना ही नहीं, महिलाओं को गुमराह करके भगा ले जाने या अपहरण करने के 315074 मामले, बलात्कार के 243051, महिलाओं के अपमान 104151 और दहेज हत्या के 80833 मामले पिछले दस सालों में दर्ज किए जा चुके हैं। दहेज मांगने का मामला भी कम दर्ज नहीं हुआ है। 
इन दस सालों में 66 हजार मामले दर्ज किए गए, लेकिन इनमें से कितनी महिलाओं को न्याय मिला, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। पुलिस ने मामले तो दर्ज किए, लेकिन कितने मामलों में पीडि़ताओं को न्याय मिला, कितने अपराधी जेल भेजे गए, कितने मामले अदालत की चौखट तक पहुंचे, इसका कोई आंकड़ा शायद ही सरकार के पास हो। अगर होगा भी, तो सरकार अपनी जान बचाने के लिए उसे सार्वजनिक बहुत मजबूरी में करती होगी। यह प्रवृत्ति किसी खास प्रदेश की सरकार की नहीं है, ऐसे मामलों में केंद्र से लेकर देश के विभिन्न प्रदेशों में शासन करने वाले सरकारें एक जैसी ही मानसिकता से ओतप्रोत दिखाई देती हैं। अगर हम बात करें कि किस राज्य में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले सबसे ज्यादा दर्ज किए गए, तो उसमें आंध्र प्रदेश अव्वल दिखाई देता है।
पिछले दस सालों में आंध्र प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 263839 मामले दर्ज किए गए, वहीं पश्चिम बंगाल में 239760, उत्तर प्रदेश में 236456, राजस्थान में 188,928 और मध्य प्रदेश में 175,593 दर्ज किए गए हैं। अगर हम पिछले दस सालों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ जितने अपराध हुए हैं, उसका आधा तो इन्हीं पांच राज्यों में दर्ज किया गया है। सबसे ज्यादा असंवेदनशील सरकारें भी इन्हीं राज्यों की कही जा सकती हैं क्योंकि इतने अपराधों के बावजूद महिलाओं की दशा सुधारने के कोई सकारात्मक प्रयास इन राज्यों में किए गए हों, ऐसा भी दिखाई नहीं दिया है।
पिछले तीन सालों में महिलाओं के अपहरण के मामले में 264 फीसदी (करीब तीन गुना) की वृद्धि हुई है। वर्ष 2005 में जहां महिलाओं के अपहरण के 15,750 मामले दर्ज किए गए थे, वहीं वर्ष 2014 में 57,311 मामले दर्ज किए गए। 58,953 मामलों के साथ इस मामले में उत्तर प्रदेश सबसे पहले स्थान पर है। पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश में सर्वाधिक बलात्कार का मामले (34,143) दर्ज किए गए हैं। 19,993 मामलों के साथ पश्चिम बंगाल दूसरे, 19,894 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश तीसरे एवं 18,654 आंकड़ों के साथ राजस्थान चौथे स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा 2013 में की गई वैश्विक समीक्षा के आधार पर बात करें, तो दुनिया भर की महिलाओं की दयनीय स्थिति साफ हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र महिला की रिपोर्ट बताती है कि करीब 35 फीसदी महिलाओं को अपने जीवन में कभी न कभी अपने पति या गैर मर्दों द्वारा यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है।
भारत में महिलाओं की स्थिति गांवों में ही नहीं, शहरों में भी काफी दयनीय है। सरकारें आंकड़ों की बाजीगरी चाहे जितनी करें, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि वे अपनी मर्जी से सब्जी तक खरीदकर नहीं खा सकती हैं। इसके लिए भी उन्हें किसी न किसी रूप में पति, पिता, पुत्र या भाई की सहमति लेनी पड़ती है। सिर्फ महिला सशक्तिकरण के दावों और नारों से बात बनने वाली नहीं है। जब तक महिलाओं को निजी संपत्ति यानी उत्पादन के समस्त साधनों पर बराबर का हक नहीं दिया जाएगा, तब तक उनकी स्थिति में कोई फर्क आने वाला नहीं है। आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं होता है। जब मातृसत्ताक व्यवस्था पर बलात कब्जा करके पुरुषों ने पितृसत्ताक व्यवस्था की स्थापना की, तो उन्होंने सबसे पहले महिलाओं को निजी संपत्ति के अधिकार से वंचित किया यानी उनके निजी संपत्ति के अधिकारों का हरण तो किया ही, उन्हें भी अपनी निजी संपत्ति बना लिया। अब यदि महिलाओं को बराबरी का दर्जा पाना है, तो उन्हें संपूर्ण समाज में निजी संपत्ति के अधिकार का ठीक वैसा ही अधिकार पाना होगा, जैसा पुराने समय में था। और यह पुरुष प्रधान समाज को शायद ही मंजूर हो।
 -जगजीत शर्मा

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

देखो ! घोटालों का बाप

'खाऊंगा ना खाने दूंगा', प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव अभियान में जनता से यही वादा किया था. भ्रष्टाचार उनका सबसे अहम मुद्दा था. यानी ना वो ख़ुद भ्रष्ट होंगे ना अपने इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार होने देंगे.लेकिन यह बात पूरी तौर से गलत साबित हो रही है. आज संसद अनिश्चितकालीन के लिए स्थगित हो गयी है और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के ललित मोदी मामले का कोई समाधान नहीं हो पाया. प्रधानमंत्री मौनी बाबा-II साबित हुए सदन में वह कुछ कहना नहीं चाहते और जन सभाओं को वह चुनावी सभा समझ कर जो मन में आया कहते रहते हैं.
        उच्चतम न्यायलय में सीबीआई ने हलफनामा देकर कहा है कि मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले के बाद इस घोटाले का बाप मध्यप्रदेश के मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में एडमिशन के लिए होने वाली परीक्षा डीमेट (डेंटल एंड मेडिकल एडमिशन टेस्ट) घोटाला है,  फर्जी डॉक्टर बनाने वाले मप्र डीमेट घोटाले के मामले में देश की सबसे ताकतवर और धारदार जांच ऐजेंसी सीबीआई भी हैरान, परेशान है कि जांच करे तो कैसे। यह इतना बड़ा घोटाला है कि सीबीआई के अफसर भी पसीना-पसीना हो गए। बुधवार को सुप्रीमकोर्ट में पेश हलफनामे में सीबीआई ने माना कि हमारे पास इतने संसाधन और मैनपावर नहीं है, जो डीमेट जैसे घोटाले की जांच कर सकें।
           दस हज़ार करोड़ का यह घोटाला है और डीमेट के जरिये गलत तरीके से अपने बच्चों और रिश्तेदारों को मेडिकल और डेंटल कॉलेज में एडमिशन दिलाने वालों की लिस्ट लंबी है। इनमें नेताओं के अलावा अफसर भी शामिल हैं। चर्चा है कि प्रदेश के पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने बेटी आकांक्षा और अवंतिका का, अजय विश्नोई ने बेटे अभिजीत का, कमल पटेल ने भतीजी प्रियंका और इंदौर की विधायक मालिनी गौड़ ने कर्मवीर गौड़ का दाखिला कराया। कटारे ने कुछ और नाम लिए थे। इनमें स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्र, शिक्षा मंत्री उमाशंकर गुप्ता, पूर्व मंत्री प्रकाश सोनकर, हरनाम सिंह राठौड़, नेहरू युवा केंद्र के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और पीस कमेटी के अखिलेश पांडे शामिल हैं। 
            प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन घोटालों की तरफ पूरी तरह से आँख मूंदे हैं और उनके आँख मूंदने का मतलब इन बड़े-बड़े घोटालों को संरक्षण देना है अन्यथा अब तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस्तीफा हो चुका होता. हमेशा आदर्श, सुचिता, नैतिकता, राष्ट्रवाद, देश भक्ति की फर्जी दुहाई देने वाला देश का संस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके प्रमुख मोहन भागवत मौनी बाबा का असाधारण रूप धारण किये हुए हैं. देश की एकता और अखंडता को नुक्सान पहुँचाने के लिए हिन्दू,मुसलमान, सिख, ईसाईयों के बीच में वैन्मस्यता कायम करने वाली नीति अपनाता है. उसकी राष्ट्रभक्ति को अमेरिकी वेबसाइट ने उसको आतंकी संगठन घोषित कर रखा है. अमेरिका में उसको आतंकी संगठन घोषित करने के लिए सिखों के संगठन ने न्यायलय में वाद दाखिल कर रखा है. इस तरह से जो चेहरे अपने को सफ़ेद साबित कर रहे थे . अब उन्ही चेहरों पर सबसे ज्यादा कालिख नजर आने लगी है. यूपीए-2 की सरकार ने इतनी बेशर्मी नहीं दिखाई थी जितनी बेशर्मी वर्तमान सत्तारूढ़ दल दिखा रहा है.

सुमन 

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

साम्प्रदायिकता के विरुद्ध बिखरीं सेक्युलर शक्तियाँ

   इस समय जब नरेन्द्र मोदी के रूप में विकास एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण का चोला पहन कर साम्प्रदायिक व साम्राज्यवादी शक्तियों से अनुमोदित देश के सामने गंभीर संकट खड़ा है और अल्पसंख्यकों व गरीब जनता के जीवन व उनकी सुरक्षा पर खतरा मँडरा रहा है, समाजवादी, साम्यवादी,  समाजसेवी एवं तथा कथित उदारवादी अल्पसंख्यक संगठन बिखरे हुए हैं। ऐसे माहौल से साम्प्रदायिक शक्तियाँ व विदेशों में बैठे उनके सहयोगी काफी उत्साहित व प्रसन्नचित नजर आ रहे हैं।
    कहने को तो देश के हर प्रमुख राजनैतिक दल का यह मानना है कि 90 के दशक में जब रामलहर रूपी साम्प्रदायिकता का ज्वार पैदा कर, देश की सामाजिक समरसता व उसकी अखण्डता पर प्रहार करने का प्रयास किया गया था, उससे कहीं अधिक संकट मोदी के रूप में भाजपा ने उत्पन्न कर दिया है, परन्तु इस तूफान को रोकने के लिए बजाए एक संयुक्त मोर्चा बनाने के सभी दल बिखरे हुए हैं। परिणाम स्वरूप गैर साम्प्रदायिक मतों के विभाजन पर ही सारी आशाएँ मोदी एण्ड कम्पनी लगाए बैठी है।
    वाम दल जो यू.पी.ए. प्रथम में राजग सरकार को परास्त करने में आगे थे और जिन्होंने न्यूनतम साझा प्रोग्राम के अन्तर्गत यू.पी.ए. सरकार को समर्थन दिया था अब अपना वही पुराना राग गैर कांग्रेस, गैर भाजपा का अलाप रहे हें जो वह पहले भी अलापते रहे हैं और जिसके चलते एक नहीं तीन बार भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र में राजग सरकार को कायम कराने में मदद दे चुके हैं, इस बार भी उनके द्वारा वही काम किया जा रहा है। उनको सबसे अधिक भरोसा उन मुलायम सिंह यादव पर है जिनका पूरा राजनैतिक इतिहास एक गैर भरोसेमन्द राजनीतिज्ञ का रहा है। बकौल उनके पुराने मित्र बेनी प्रसाद वर्मा कि उन्होंने पहले चरण सिंह फिर वी0पी0 सिंह और बाद में कांशीराम को धता बताकर सदैव सŸाा हासिल करने की राजनीति पर विश्वास किया।
    दूसरी ओर अति महत्वाकांक्षी राजनैतिक अभिलाषाओं से भरी मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी गैर कांग्रेस, गैर साम्प्रदायिक व गैर समाजवादी, सर्वसमाज की सरकार की बात कर केन्द्र में सत्ता प्राप्त करने का सलोना सपना दलितों को दिखला रही है जबकि तीन बार वह स्वयं साम्प्रदायिक शक्तियों से उत्तर-प्रदेश में हाथ मिलाकर सत्ता का उपभोग कर चुकी हैं। 2002 के गोधरा नरसंहार के पश्चात, दंगों के आरोपी नरेन्द्र मोदी के समर्थन में गुजरात जाकर चुनाव प्रचार कर चुकी हैं। मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में गैर साम्प्रदायिक मतों का विभाजन कराकर साम्प्रदायिक दलों की सरकार बनवा चुकी हैं।
    अब रही अल्पसंख्यक मुस्लिम सियासी दलों एवं धार्मिक उलेमा की बात। तो यह सदैव चुनाव के समय ही अपनी दुकानें सजाकर बैठ जाते हैं और अपीलें व फतवे जारी करके भाजपा के मुकाबले में खड़ी कांग्रेस पार्टी की मुस्लिम विरोधी नीतियों व उसके कार्यकाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों की याद अपनी कौम को दिलाने लगते हैं। चुनाव के पश्चात न तो इन्हें मस्जिद याद रहती है न वक्फ सम्पत्तियाँ और न मुसलमानों का सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ापन।
    आज भी मुल्क में मुसलमानों को अपनी स्वयं की खरीदी जमीन पर मस्जिद बनाने की आजादी नहीं, जो उनका संवैधानिक अधिकार है। चोरी छुपे एक अपराध्ीा की तरह मस्जिद का निर्माण मुसलमान करते हैं। मस्जिद से लाउडस्पीकर उतरवाना प्रशासनिक अमले की सामान्य प्रक्रिया है, वक्फ सम्पत्तियों की हजारों बीघा जमीने सरकारी कब्जे में हैं। शरीयत के कानून को देश की अदालतें स्वीकार नहीं कर रही हैं। नतीजे में हजारों, लाखों वाद देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित पड़े हुए हैं। इन सबकी परवाह किसी धार्मिक व राजनैतिक संगठन को नहीं। वक्फ सम्पत्तियाँ, मजारों व मदरसों में फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करने की फिक्र नहीं। मुसलमानों में दहेज के बदले चलन एवं शादी विवाह में फिजूल खर्ची की रोकथाम की किसी को परवाह नहीं। ऐन चुनाव के समय केवल मुस्लिम मतों के विभाजन में अपनी सहभागिता करने यह तथाकथित मुस्लिम हमदर्द कमर कस कर निकल पड़ते हैं।
 -पुष्पेन्द्र कुमार सिंह
 एडवोकेट
मो0-09838803754              लोकसंघर्ष पत्रिका  चुनाव विशेषांक से

रविवार, 13 जनवरी 2013

लड़ना जानती हैं बेटियाँ-2

एक ओर रोज़गार तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसरों का बड़े नगरों तक केन्द्रित होते जाना, विपुल सम्पदा तथा आधुनिकता की चकाचैंध का बढ़ना, दूसरी ओर सामाजिक पिछड़पन, शिक्षा व रोज़गार के अवसरों का सीमित होना, आधुनिकता के अवदानों की वंचना। फलस्वरूप ग्रामीण अंचलों, छोटे शहरों तथा अन्य पिछड़े क्षेत्रों से युवा वर्ग तथा दूसरे आयुवर्ग के लोगों का बड़े नगरों की ओर पलायन। ऐसे में युवाओं पर जीवन शैली को बदलने का दबाव बनना लाज़मी है। खुली हवा में साँस लेने के लिये बेचैन बेटियाँ जबरन थोपी गयी वर्जनाएं तोड़ती हैं, अपनी साहसिकता में कुछ ख़तरे भी उठाती हैं। मुक्ति के चिन्तन के साथ आगे बढ़ना है तो ख़तरे उठाना ही होंगे, मुक्तिबोध को याद कीजिये-
तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब
जाना होगा दुर्गम पहाड़ो के उस पार

    यही वह मक़ाम है जहाँ बदलती सोच और जीवन पद्धति तथा जड़ संस्कारों के साथ होने वाले टकराव से पैदा हुए अन्तर्विरोध सामने आते है। रिश्तों की स्वाभाविकता तथा पवित्रता पर सन्देह करने वाले मुखर होते हैं। इस स्वाभाविकता व पवित्रता पर छापा मारने के लिये वह व्याकुल हो उठते हैं।
    जि़म्मेदार व सभ्य नागरिक का विवेक व संस्कार न दे सकने वाला शिक्षा तंत्र तथा परिवार संस्था की कमज़ोरी के कारण भी हालात बिगड़े हैं। नशे के ख़तरों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा शराब की सुलभता को नित नया विस्तार देने की नीतियों ने भी सामाजिक अराजकता को नयी उठान दी है। यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है, जो संकेत करती है कि सरकारें जानता को अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहती है। आर्थिक लाभ तथा युवा पीढ़ी में संघर्षशीलता की धार को कुन्द करने की मंशा से शराब माफि़याओं से सरकारों की साँठ-गाँठ किसी से छिपी नहीं है। जनविरोधी सत्ताएँ हमेशा ही से अपने विरुद्ध प्रतिरोध की संभावना को कुन्द करने के लिये नशाखोरी का इस्तेमाल करती आयी हैं। समूचे शिक्षा तंत्र, आबकारी नीति, की क़ानून, पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रणाली की सघन समीक्षा के साथ समानुपातिक सामाजिक विकास को सिद्धान्त लागू किए बिना हालात में अपेक्षित तब्दीली संभव नहीं है। स्त्री के सम्मान को, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को सुनिश्चित कर सकने वाले सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भी उतनी ही ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि सरकारें अपने कार्यक्रमों में सजी-धजी महिलाओं को सज्जा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ऐसी सुन्दरियाँ उन्हें सम्मोहित करती हैं, जिनके अधरों पर मादक मुस्कान हो, शब्द नहीं, चेहरे पर मृदुलता हो तनाव नहीं। आंखों में चमक हो, प्रश्न नहीं।
    इसे बाज़ार वादी दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। रोजे़ रौशन की तरह यह सब पर अयाँ (प्रकट) है कि आक्रामक होते बाज़ार तथा बाज़ारवादी दृष्टिकोण ने स्त्री का संकट बढ़ाया है। उसे माल बेचने का साधन, कई बार तो स्वयं उसे माल बना दिया। उपभोक्ता को ललचाने के उपक्रम मे वो स्वयं उपभोक्ता सामग्री में बदलते हुए यौन वस्तु बन गयी है। सभी तरह के विज्ञापनों के स्त्री विरोधी चरित्र पर फ़ौरी तौर पर अंकुश लगाने की आवश्यकता तो है ही।
    विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से टी0वी0 सीरीयल्स बनाने वालों ने बाज़ारवादी शक्तियों से धृणित समझौते किए हैं। जिस प्रकार भारतीय सिनेमा ने स्त्री के साथ विराटता ग्रहण करता आघातक़ारी विश्वासघात किया ठीक उसी तरह चैनल्स भी आमतौर पर स्त्री को अवमूल्यित करने के षड्यन्त्रों का हिस्सा बने हुए हैं। इन सीरियल्स में स्त्रियाँ या तो एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रही होती हैं अथवा अपना गर्भ किराये पर उठा रही होती है। उनकी दिलचस्पी प्रायः ग़ैर वैवाहिक, इतर पति सम्बन्धांे में होती है, धार्मिक परम्पराओं, आरोपित सामाजिक मूल्यों को बचाने या फिर स्त्री की रुढि़वादी छवि को सुरक्षित रखने में। चैनल्स ने फि़ल्मों के समान ही धार्मिक अन्ध विश्वास कर्मकाण्ड तथा रुढि़वाद के महिमामण्डन से स्त्री की कठिनाई को जटिल बनाया है। उसकी सामाजिक गतिविधि को बाधित किया है तथा उसके भीतर विकसित हो सकने वाले आत्म विश्वास को पीछे की ओर धकियाया है। सिनेमा में तो तब भी एक ख़ास दौर में सही सामाजिक उद्देश्य को ख़ास महत्व प्राप्त रहा है। यर्थाथवादी सिनेमा तथा समान्तर सिनेमा की भी एक धारा रही है। स्त्री संघर्षशीलता अपनी वास्तविक ज़मीन खोजती हुई चित्रित हुई है। कुछ फि़ल्मों में तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में वो नेतृत्व कारी भूमिका में है। इन संघर्षों के सरोकार वृहत्तरता लिए हुए है। आज के सिनेमा तथा चैनल्स ने तो जैसे स्त्री की इस संघर्षशीलता का दाह संस्कार ही कर दिया। आज के सिनेमा (सब नहीं), सीरियल्स तथा विज्ञापनों के लिये स्त्री केवल देह रह गयी है। देह जिस पर हाथ फेरने मात्र से काला आदमी गोरा और मोटा आदमी स्मार्ट हो जाता है।
    16 दिसम्बर को घटित घटना के विरुद्ध बेटियों का अप्रत्याशित रूप से बड़ी संख्या में प्रतिरोध के मैदान में उतरना, उनकी जीवटता, दृढ़ता तथा ख़तरे उठाने के हौसले ने मैथिलीशरण गुप्त के ‘मर्दानी’ को झुठलाते हुए साबित किया है कि वे लड़ीं इसलिये कि वह लड़कियाँ थीं। स्त्री थीं, वह लड़ी मर्दों या मर्दानों की अपेक्षा अधिक जुझारू तरीके़ से। यक़ीनन बेटे भी लड़े, भाई भी लड़े मज़बूती से लड़े लेकिन संवेदनहीनता की सीमाएँ लाँघ जाने वाली सरकार को झुका सकने वाली धार संघर्ष को बेटियों के कारण ही प्राप्त हुई।
    भारतीय समाज की ऐतिहासिक उपलब्धि को अपेक्षित परिणामों तक पहुँचाने के लिये आवश्यक है कि बेटियाँ-बेटे, बहनें भाई सब यह समझें कि समानता के सिद्धान्त पर आधारित यौन हिंसा विरोधी सामाजिक चेतना को व्याप्तता में विकसित किए बिना यादगार संघर्ष के लक्ष्य केा प्राप्त कर पाना कठिन है। इसके लिये सघन सामाजिक विमर्श तथा व्यापक संवाद बनाना ही होगा। जिसकी शुरुआत यक़ीनन परिवार ही से करनी होगी।
    ऐसी प्रत्येक घटना को तत्ववादी शक्तियाँ सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्थिति मज़बूती करने के लिये इस्तेमाल करती आयी हैं धर्म गुरुओं की स्त्री विरोधी सोच ने उसके अवसाद को अधिक दंश कारी बनाया है। सह शिक्षा लिबास, सामाजिक सक्रियता तथा आज़ादाना विचरण हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि बलात्कार तथा दूसरे प्रकार की यौन हिंसा के पीछे स्त्री पुरुष यानी कि लड़के लड़कियों के बीच एक मोटी दीवार का, घने अजनबी पन और सान्निध्य का कुण्ठाजनक अभाव प्रमुख रूप से उपस्थित है। यौन उत्तेजना को गति देने वाले वातावरण ने लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के निकट आने की ललक को बढ़ाया है। बावजूद इसके बलात्कार के लिये इस ललक केा कारण मानना तथ्य संगत नहीं है। बलात्कार से इतर यौन हिंसा की दूसरी गतिविधियों में इस ललक की उपस्थिति संभव हो सकती है। सच पूछिये तो सह शिक्षा ने  हालात को भयावह हद तक जाने से बचाया है, अनुभव बताते हैं कि सह शिक्षा की व्याप्तता हालात को बेहतर बनायेगी बिगाड़ेगी नहीं। समाज के आधुनिक विकास के लिये स्त्री का घर से बाहर निकलना नितान्त आवश्यक है, स्वयं उसके सुख के लिये आत्मनिर्भरता बेहतर स्थिति हो सकती है। धर्मों-मजहबांे से स्त्री के सेविका स्वरूप को आदर्श स्त्री का चिंतन लेने वाले उसकी आज़ादी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक भागीदारी को कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
    समाज के आधुनिक विकास को अवरूद्ध करना आत्मघाती साबित होगा। आधुनिकता के इस महा अभियान में सबकी साझी भूमिका है फिर भी लड़कियों की तरक़्क़ी बताती है कि समाज सभ्यता तथा आधुनिकता के किस मुहाने तक पहुँच पाया है। मध्य युगीन जीवन मूल्यों से हम कितना मुक्त हो पाये हैं।
    जिस समाज में औरतों को खुली हवा में साँस लेने, खिलखिलाने, चीख़ने, ज्ञान के नये क्षेत्रों में जाने, आत्मनिर्भर होने तथा अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने अपनी अस्मिता के संघर्ष पर पाबन्दी हो, वह समाज नहीं क़ैद ख़ाना है। ऐसे कै़दख़ाने की सलाख़ों का टूटना ही बेहतर है।

     -  शकील सिद्दीक़ी
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य

शनिवार, 12 जनवरी 2013

लड़ना जानती हैं बेटियाँ-1

मंजू अरुण की एक कविता की पंक्तियाँ हैं-
 
 ‘‘बेटियाँ
    यदि ताड़ की तरह बढ़ती हैं तो,
    छतनार की तरह फैलती भी हैं।’’

    और सच आज वह फैल गयी हैं, चारों तरफ़, मुट्ठी भींचे सीना ताने। क्षोभ, क्रोध, आवेश और आहत भाव से कुछ पश्चाताप से भी कि वह बचा नहीं पायीं दरिन्दगों की दरिंदगी की निशाना बनी अपनी एक साथी को। फिर भी एक, थोड़ा झीना ही सही एक आश्वस्त भाव है उनके पास कि वह सत्ता के मद से डूबे लोकतांत्रिक तानाशाहों को कुछ तो झुका पायीं, जो कह रहे थे, सरकारें जनता के पास नहीं जाया करतीं, वह जनता की बेटी का शव लेने एयरपोर्ट तक पहुँच गये, शमशान घाट भी। अब वह जनता के पास जाने के अवसर की तलाश में है। जनता जब सरकार के द्वार पर जम की गयी, तब वह थोड़ा विचलित हुए। जनता यदि सरकार चुनती है, तो उसे उखाड़ भी फेंकती है। हालाॅकि सरकारंे तो सिर्फ़ चुनने का अधिकार देना चाहती हैं। जैसे पुरुष (अधिकांश) अपनी वासनाओं की तुष्टि, स्वादिष्ट भोजन, ढेर सारे सुखों, अपनी नस्ल चलाने तथा स्त्री को स्त्री बने रहने के लिये विवाह करता है, उसे एक घर देता है। पुरुष ज़्यादातर उस स्त्री को बहुत पसन्द करता है जो घर में रहे। उसी तरह जैसे सरकारें घर में रहने वाली जनता को बहुत पसन्द करती हैं। जनता को घर में रखने के लिये ही तो उसने इतने सारे मादक टी0वी0 चैनल्स दिए हैं, नेट का रोमांच दिया है। स्त्री जो जनता ही का हिस्सा है, कात्यायनी की एक कविता के अनुसार ‘‘यह स्त्री सब कुछ जानती है/पिंजरे के बारे में/जाल के बारे में/यंत्रणा गृहों के बारे में।’’ इसलिये कभी-कभी ही सही वह निकलती हैं घरों से बाहर। इस बार बेटियों के साथ बेटे भी थे। बहुत से लोग इस कारण चिंतित हैं कि बेटियाँ स्कर्ट और जींस में बाल लहराते हुए निकलीं। उन्होंने दुपट्टे तक नहीं ओढ़ रखे थे। वह दिन में मोमबत्तियाँ जलाती हैं, रात में डिस्को जाती हैं।  हिंसा के विरुद्ध सड़कों पर निकलती बेटियों के प्रति यह शब्द कम वीभत्स हिंसा नहीं है। इसमें अवमानना का दंश भी है। जिसकी चुभन आज भी जारी है।
    देश की राजधानी में क्रूर हिंसा की इतनी बड़ी घटना घट गयी हो और सरकार के अधीन काम करने वाला प्रशासन जि़म्मेदार मंत्री इस तरह का व्यवहार करें जैसे दरिन्दों ने पाश्विकता की सीमाएँ न तोड़ी हों, जुम्मन मियाँ की बकरी मर गयी हो। संवेदनशीलता का ऐसा भयानक ह्रास कम देखने में आया है। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान तो यह होता है कि एक वर्ग दूसरे वर्ग के संहार, स्त्री के साथ बलात्कार पर चुप रहता है, या प्रसन्न होता है, दुखी कम लोग होते हैं। गर्भवती स्त्री का पेट फाड़कर भू्रण को आग में फेंकने, बलात्कार की फोटोग्राफ़ी की घटनाएँ उसी गुजरात में घटी जहाँ शान्ति और अहिंसा का बखान सबसे अधिक होता है। जो राष्ट्र पिता की जन्मभूमि है। जहाँ आसाराम बापू का आश्रम भी है। समझना होगा कि स्त्री के साथ हिंसा के विरुद्ध कट्टर कि़स्म के निर्पेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। निर्पेक्षता का तात्पर्य चुप रहना नहीं, धर्म जाति और वर्ग के भेद से मुक्त होना है। परन्तु ऐसे अवसरों पर प्रायः सघन मौन ही प्रकट सच के रूप में सामने आया। समानता के सिद्धान्त पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों एवम् संगठनों ने अवश्य प्रतिरोध दर्ज कराया, आन्दोलन किए। बलात्कारियों के प्रति सम्मति का भाव रखने वाले नरेन्द्र मोदी तो युवा हृदय सम्राट कहे जाने लगे। दिल्ली की घटना पर विराटता, विशेष रूप से युवजन में आक्रोश का फूट पड़ना एकदम स्वाभाविक है,वह लम्बे समय में शनैः शनैः संचित कथा का विस्फोट था। निश्चय ही वह बलात्कार व स्त्री के प्रति हिंसा की जघन्यतम् घटना थी तो क्या कम जघन्य घटनाओं पर मौन और बलात्कारियों के साथ सहानुभूति को उचित मान लिया जाये। आखि़र एक राजनैतिक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी के सम्बन्ध में बलात्कार की समस्या को लेकर बलात्कार विरोधियों का क्या रवैया होना चाहिये। यह विचारणीय विषय है। स्वयं कांग्रेस की सरकारों के समय में विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों, दलित और मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूर बलात्कार हुए। भारत-पाकिस्तान सहित कुछ दूसरे देशांे में धर्म व नस्ल की आड़ में किए गये बलात्कार की घटनाओं के विरुद्ध महत्वपूर्ण लेखन दिखाई पड़ा। सआदत हसन मन्टो की कहानी खोल दो पिछले साठ वर्षों से लगातार चर्चा में है। हमारे देश में भी गुजरात की घटनाओं को लेकर तीखा बौद्धिक हस्तक्षेप हुआ है। धर्म निरपेक्ष व्यक्तियों-संगठनें ने ऐतिहासिक महत्व का काम किया है। प्रश्न बस इतना है, कि ऐसे व्यक्तियों या संगठनों की सामाजिक स्वीकृति का अनुपात क्या है? क्या वह पाकिस्तानी समाज में मन्टो की लोकप्रियता जैसा है।
कड़े क़ानूनों, कड़े दण्ड तथा उतनी ही कड़ाई से उन्हें लागू किए जाने की त्वरित अनिवार्यता से कौन इंकार कर सकता है, फिर भी स्त्री के साथ हिंसा, विशेष रूप से बलात्कार के प्रति घनी सामाजिक चेतना
के फ़ौरी निर्माण की भी उतनी ही ज़रूरत है। इसके साथ ही समानता की चेतना जिसमें लैंगिक समानता भी शामिल है, अनिवार्य सिद्धान्त के रूप जीवन में सक्रियता आवश्यक है। वरना वर्गो, धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों में विभाजित समाज में स्त्री के साथ हिंसा के ख़तरे हमेशा बने रहते हैं, बल्कि बने हुए है। समानता की प्रखर सामाजिक चेतना के अभाव मंे उनके प्रति उसी अनुपात में सम्मति का भाव भी बना रहता है। प्रतिशोध की आग बुझाने का वह आसान सा साधन जो बनी हुई है। अपराध रोकने में क़ानून तथा त्वरित कार्यवाही की उपयोगिता अपनी जगह लेकिन अपराध की संभावनाओं को कम करने के लिये अपराध विरोधी सामाजिक वातावरण का निर्माण भी लाज़मी है। क़ानूनों से अपराधियों को या अपराध करने की मंशा रखने वालों को हतोत्साहित तो किया जा सकता है, स्त्री के प्रति पुरुष की पारम्परिक सोच को नहीं बदला जा सकता। 16 जनवरी के उपरान्त लगातार घटती बलात्कार की घटनाएँ जिसका साक्षात उदाहरण है, पुलिस, न्याय व्यवस्था तथा प्रशासन में उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का संचार भी संभव नहीं। पितृ सत्ता ने अपने साम्राज्य की लम्बी अवधि में पुरुष मानसिकता को फ़ासीवादी सोच के क़रीब ला खड़ा किया है। जिसके सामंतवादी वैचारिकता से गहरे रिश्ते हैं।
    समाज की केन्द्रीय सोच और अपराध के अन्र्तसम्बन्धों को समझना कठिन नहीं है। यह स्थिति गम्भीर सांस्कृतिक संकट की ओर भी संकेत करती है। भारतीय गतिविधियों में बदलती हुई प्राथमिकताओं के अनुरूप स्पेस स्वीकार कर सकने वाले सांस्कृतिक विवेक का निर्माण नहीं हो सका है। बावजूद इसके उनकी सामाजिक सक्रियता को नया विस्तार मिला है। बहुत से लोग, जिनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलमबरदार भी हैं तथा राजनेता और वैज्ञानिक भी कि बेटियों की बढ़ती सामाजिक भागीदारी को ही उनके प्रति जघन्य होती हिंसा का मूल कारण घोषित कर रहे हैं, ऐसे में वेशभूषा का उल्लेख तो आता ही है। कुछ पुरातन पंथी सहशिक्षा के सर इन हालात का दोष मढ़ रहे हैं। यह भूलते हुए कि हमारे समाज को ज़्यादा ख़राब होने से सह शिक्षा ने ही बचाया है। वह इस हक़ीक़त की ओर से आँखें मून्द लेते हैं कि देश में बलात्कार सहित दूसरी यौन हिंसा की घटनाएँ पारपम्परिक या घरेलू वेशभूषा वाली महिलाओं के साथ अधिक घटित होती हैं। ख़ौफ़नाक आँकड़ों का सच यह है कि सड़कों, पार्कों, सिनेमा हालों, रेस्ट्रां, माल्स या इस प्रकार के दूसरे सार्वजनिक स्थलों की अपेक्षा यौन हिंसा की घटनायें घरांे, खेतों, खलिहानों, नारी व बाल आश्रमों में अधिक सुनाई पड़ती है। सम्बन्धी, पड़ोसी तथा निकट परिचित लड़कियों का यौन उत्पीड़न करने में सबसे आगे हैं। रोली शिव हरे ने अपनी एक टिप्पणी में मध्य प्रदेश के आंकड़े दिए हैं कि मात्र एक वर्ष (2011) में बलात्कार के चैंतीस हज़ार मामले दर्ज हुए, पति द्वारा की गयी हिंसा के तक़रीबन सैंतीस हज़ार मामले सामने आये। समूचे देश के स्तर पर इस प्रकार कि हिंसक घटनाएँ कितने बड़े पैमाने पर घटित होगी, अनुमान लगा पाना कठिन नहीं है। जबकि प्रत्येक तीसरे मिनट पर बलात्कार होता हो।
    अपराध के समूचे यथार्थ पर फि़लहाल बात न करें तो भी स्त्री के प्रति बढ़ते हुए अपराध की पृष्ठभूमि में सक्रिय सामाजिक विकास की असमानता बढ़ने वाली, असमानुपातिक पद्धति से पैदा हुई नक़ली चकाचैंध, विसंगतियों और कुण्ठा की भूमिका पर ध्यान दिए बिना अपने समय के सच की आँखांे में आँखें डाल पाना कठिन है। यह सहसा अथवा फि़ल्मों या टी0वी0 सीरियल्स का प्रभाव मात्र नहीं है कि हिंसा और अपराध हमारे समाज की स्थाई प्रवृत्ति बनती जा रही है। इसे आर्थिक विकास, शासन पद्धति, सामाजिक संगठनों, सभी प्रकार की धार्मिक नैतिकता तथा अध्यात्म की ऐतिहासिक विफ़लता के रूप में देखा जाना चाहिये। अनिवार्य मानवीय मूल्यों, न्यूनतम सांस्कृतिक प्रतिमानों तथा सामाजिक संहिता की भी अवसाद पूर्ण पराजय यहाँ दिखाई पड़ती है।




-शकील सिद्दीक़ी
क्रमश:

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य 

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

स्वप्नदर्शी नेहरु ने कांग्रेस में शामिल होने के लिये मुख्यमंत्री पद देने की बात कही थी


राष्ट्रपति भवन में थोड़ी देर बाद मैंने उन्हें अपनी टेबल की ओर आता देखा। मई घबरा गयी और कुछ नर्वस हो गयी। तब तक नेहरूजी मेरे पास आ पहुंचे। इतने नजदीक देखकर मुझे कुछ सूझ नही रहा था। मैं खड़ी हो गयी। वे काफी वरिष्ठ थे लेकिन उनकी उम्र से उनके व्यक्तित्व पर तब तक कोई असर नहीं पड़ा था। उनके साथ उनका कोई असिस्टेंट भी चल रहा था। मेरी ओर देखने के बाद प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसने जल्दी से अंग्रेजी में उन्हें कहा, "शी इज एन एमपी"ज वाइफ फ्रॉम एम.पी।" मुझे आज तक नहीं पता कि उस व्यक्ति को ये कैसे पता था। पर ये सुनकर नेहरूजी ने कुछ क्षण मुझे अपलक देखा और फिर आँखों में प्रश्न लाकर पूछा, "होमी दाजी?" मैंने "हाँ" में सर हिलाया लेकिन मैं क्या बताऊँ कि मेरी हालत क्या हो रही थी। नेहरूजी द्वारा पहचान लिये जाने से बहुत ख़ुशी तो हो ही रही थी लेकिन पता नहीं क्यों, शर्म भी बहुत आ रही थी।
मेरा सर हिलाना था कि नेहरूजी ने मुझे कन्धों से पकड़ लिया और बोले, "ही इज ए ब्रिलियंट बॉय।" उस वक्त दाजी सबसे काम उम्र के सांसद थे। फिर नेहरु जी बोले, "पता नहीं ये लड़का कहाँ-कहाँ से चीजें ढूंढ कर लाता है और हमसे पार्लियामेंट में इतने सवाल करता है कि हमें मुश्किल हो जाती है। तुम जरा उसकी लगाम खींचकर उसे घर में ही रखा करो ताकि हमें थोडा आराम रहे। हम रोज ये सोचकर सदन में जाते हैं कि पता नहीं आज दाजी क्या पूछेगा।" नेहरु जी के मजाकिया लहजे ने मेरी घबराहट कुछ कम कर दी। मैंने भी सम्मान से जवाब दिया, "सर, संसद बेलगाम न हो जाए, इसके लिये मैंने उनकी लगाम छोड़ दी है।" यह सुनते ही नेहरूजी ठहाका मारकर हँसे और मेरी पीठ थपथपाकर अपने साथ वाले व्यक्ति से बोले, "देखो, ये तो दाजी से भी दो कदम आगे है।" कहकर वे आगे बढ़ने लगे। मैंने उन्हें नमस्कार किया। वे तीन-चार कदम आगे चलकर रुके और वापस आकर बोले, " अगर वह मेरी पार्टी में जाए तो मैं उसे चीफ मिनिस्टर बना सकता हूँ" मैं एकदम हडबडा गयी। फिर मुंह से निकला, "सर , एक ईमानदार और समर्पित कम्युनिस्ट वहां कांग्रेस में कैसे काम कर सकता है? वह जहाँ है, वहीँ ठीक है। उसे वहीँ रहने दीजिये।" कह तो दिया लेकिन मन में बहुत घबराहट भी हुई। इतने महान, विद्वान और देशभक्त व्यक्ति को उसकी पार्टी के बारे में ऐसा कहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। पर अब क्या। अब तो बात निकल गयी। लेकिन नेहरूजी की बात ही कुछ और थी। उन्होंने हँसते हुए मेरी पीठ पर एक बुजुर्ग की तरह हाथ फेरा और चले गए।
यह बात पेरिन दाजी की किताब "यादों की रौशनी में" संपादक विनीत तिवारी से साभार लिया गया है

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

पंडित नेहरु और सार्वजानिक क्षेत्र में धोखाधड़ी

सार्वजानिक क्षेत्र के बारे में भी बहुत संक्षेप में कुछ कहना जरूरी है। सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम हमारी नयी विकसित होती अर्थव्यवस्था की मॉस-पेशियों हैं। बेशक ये ठीक ही कहा गया कि वे ही समाजवाद नहीं हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वे हमारी उम्मीदें हैं। और हमारे सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम भला कैसे चलाये जा रहे हैं ? उन्हें चलाने की जिम्मेदारी सेवानिवृत्त हो चुके, नाकाबिल अधिकारीयों को दी हुई है। जो अधिकारी किसी भी अन्य विभाग के लिये नाकाबिल समझे जाते हैं उन्हें सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों के प्रबंधक पद के लिये पूरी तरह काबिल मान जाता है। और ये अधिकारी इस प्रबंधन का पूरा सत्यानाश करते हैं।
श्रीमान, मै पूरे विश्वास और जिम्मेदारी के साथ आपको बता रहा हूँ कि इन अधिकारीयों ने खुद प्रधानमंत्री का मखौल बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
कुछ ही महीनो पहले प्रधानमंत्री जी खूब जोर-शोर के साथ भोपाल में बिजली की मोटरों का भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स (भेल) में उत्पादन का उद्घाटन करने आये थे। मै दावे के साथ कह रहा हूँ कि जो भोपाल भेल में बना बताया गया, उसमें कोई पुर्जा, कोई हिस्सा, यहाँ तक कि एक कील तक भी भोपाल में बनी हुई नहीं थी। लेकिन चूँकि वक्त पर काम ख़त्म दिखाना था इसलिए ये बदमाशी की गयी। सम्बंधित अधिकारीयों को साबित करना था कि उन्होंने दिए हुए वक्त में काम पूरा कर दिया वर्ना उनकी नौकरी चली जाती।
इसलिए इंग्लैंड में बनी हुई मोटरें लायी गयीं और उन्हें सिर्फ भोपाल हैवी इलेक्ट्रिकल्स में पेंट किया गया, उन पर रातों-रात लेबल बदला गया ताकि वे भोपाल में बनी दिखाई जा सकें और वहीँ मोटरें प्रधानमंत्री जी को दिखाई गयी जिनका उन्होंने अगले दिन जोरदार गाजे-बाजे के साथ उद्घाटन किया।
जिन कर्मचारियों ने रात में उन मोटरों को पेंट किया था, उन्ही कर्मचारियों को प्रधानमंत्री जी ने ये भाषण भी दिया कि उन्हें इन मशीनों को भोपाल में बनाये जाने पर गर्व है। वे कर्मचारी मुंह छिपाकर कनखियों से एक-दूसरे को देखते हुए हंस रहे थे और अधिकारीयों पर भी। मै ये घटना पूरी जिम्मेदारी के साथ बयान कर रहा हूँ।

पंडित जवाहर लाल नेहरु ने भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स भोपाल का उद्घाटन 6 नवम्बर 1960 को भोपाल में किया था उसके बाद कम्युनिस्ट सांसद होमी दाजी ने संसद के अन्दर उक्त भाषण दिया थायह भाषण पेरिन दाजी की किताब "यादों की रौशनी में" संपादक विनीत तिवारी से साभार लिया गया है

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

टूटते किसान- आत्महत्या कराती सरकार


डंकल -प्रस्ताव काल बनकर टूटा किसानो पर ............................
खेती के बढ़ते संकटों के साथ किसानो की बढती आत्महत्याओं पर खुद किसानो का चुप रहना आत्मघाती हैं |बढती आत्महत्याओं के कारणों व् कारको को समझने के लिए सत्ता - सरकारों के किसान विरोधी चरित्र को अब किसानो को ही समझना होगा
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वर्ष - 1995---- 10,720 किसान ,1996 में ----13,729 किसान ,1997 --- 13,622 , 1998 ----16,105 किसान , 1999 ---16,082 किसान ,2000 ---- 16,603 किसान , 2001-----16,415 किसान , 2002----- 17,791 किसान , 2003 ----17,164 किसान , 2004---- 18,२४१ किसान , 2005--- 17,131 किसान , 2006---- 17,062 किसान 2007---16,632 किसान ,2008 -----16,968 किसान , 2009 ----17,368 किसान , 2010---15,964 किसान वर्ष का योग 16 वर्ष किसानो का योग 2,56,913 किसान

अंग्रेजी दैनिक "दि हिन्दू 'में पिछले 16 सालो में किसानो की आत्महत्याओं की अधिकाधिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है | यह रिपोर्ट " नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 'द्वारा दीये गये आकड़ो और तथ्यों की सूचना और संक्षिप्त विवेचना के साथ प्रकाशित की गयी हैं | आधिकारिक आंकड़ो में 1995 से लेकर 2010 तक आत्महत्या करने वाले कुल किसानो की संख्या 2 लाख 56 हजार 9 सौ 13 बताई गयी है | फिर 1995 से लेकर 2010 तक के सालो में इसकी निम्नलिखित संख्याये भी दी गयी हैं | इन 16 वर्षो में किसानो के आत्महत्याओं की कुल संख्या से अकेले महाराष्ट्र में 50 हजार किसानो द्वारा की गयी आत्महत्याओं की रिपोर्ट है | वैसे कुल संख्या का दो तिहाई हिस्सा 5 राज्यों के किसानो का है |ये राज्य हैं - महाराष्ट्र , कर्नाटक , आंध्रप्रदेश , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ | 16 सालो के इन आंकड़ो से यह बात स्पष्ट है कि 1995 से लेकर 2002 तक कुल के कुल 8 सालो की तुलना में 2003 से लेकर 2010 तक के बाद के 8 सालो में आत्महत्याओं कि संख्या कही ज्यादा हैं | वह 121157 कि संख्या से बढकर बाद के सालो में 135756 हो गयी |कभी किसी साल में उसमे कमी आई भी तो अगले सालो में उससे बड़ी संख्या में आत्महत्या का मामला दर्ज़ हो गया | किसानो की बढती आत्महत्याओं का सिलसिला खासकर महाराष्ट्र , कर्नाटक व् आंध्र प्रदेश में कपास व अन्य गैर खाद्यान्न कि फसलो के उत्पादन से जुड़े किसानो तेज़ी से बढ़ता जा रहा हैं | काबिले गौर बात है कि किसानो को उनके अपने विकास के लिए पिछले 10 - 15 सालो से परम्परागत खाद्यान्नो के उत्पादन को छोडकर कपास जैसे पुराने और मेन्था ( पिपरमिन्ट ) जैसे आधुनिक गैर - खाद्यान्न उत्पादनों के लिए विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाता रहा है |इन उत्पादनों को उनके सामने नकदी आय बढाने और सुखी सम्पन्न बनने के कारगर उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है | आधुनिक खेती के साथ नकदी और गैर खाद्यान्न फसलो का उत्पादन करने वाले किसानो को ही सर्वाधिक विकसित किसानो के रूपलेकिन कृषि में बढती लागत और बाज़ार में कम मूल्य भाव की कही कम बढत या गिरावट की आम समस्या से जूझते किसानो के लिए , खासकर गैर खाद्यान्न फसलो मूल्य में भारी चढाव - उतार ने उन्हें और ज्यादा संकटों में फसने और फिर सरकारी एवं गैर - सरकारी कर्जो में फंसकर आत्महत्या तक कर लेने को मजबूर करता गया | इसके अलावा अन्य प्रान्तों में खाद्यान्नो के उत्पादन में लगे किसान भी खेती - किसानी के बढ़ते संकटों के चलते कर्ज़ - संकट में फंसकर टूटते और निराश व् हताश होकर आत्महत्याए करने के लिए बाध्य होते जा रहे है | 1995 से पहले किसानो के आत्महत्याओं का कोई ऐसा सिलसिला नही था | छिटपुट की घटनाओं ने कभी सैकड़ा - हजारो की संख्या पार नही किया था | लेकिन 1991 में वैश्वीकरणवादी नीतियों के लागू किए जाने के बाद और 1995 में डंकल प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद से आत्महत्याओं का यह सिलसिला चलता - बढ़ता जा रहा है | सैकड़ो से हजारो की संख्या में पहुचने लगा | क्योंकि बढती कृषि लागत , कटते अनुदान और घटती छूटो के मुकाबले बाज़ार भाव में कही कम वृद्धि के चलते किसानो पर चढ़ता कर्ज़ और उसका भुगतान न कर पाने का संकट निरन्तर बढ़ता रहा |
केन्द्रीय सरकार द्वारा 2007 - 08 में किसानो की बकाये की रकम की कर्जमाफी के लिए 70 हजार करोड़ का धन दिया जाना भी इसी संकट का एक सबूत था | लेकिन कर्ज़ माफ़ी के नाम के इस राहत पॅकेज से किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला रुकने वाला नही था और न ही रुका |फिर बढती संख्या में किसानो की आत्महत्याओं के अलावा किसानो के बढ़ते संकटों का एक दुसरा तथ्य भी आत्महत्याओं के इन आंकड़ो के साथ प्रकाशित हुआ हैं |समाचार - पत्र में यह सूचित किया गया है की 1991 की जनगणना की तुलना में 2001 की जनगणना में 70 लाख किसानो की संख्या घटी है | अर्थात उन 10 सालो में देश की बढती आबादी के वावजूद किसानो की आबादी के वावजूद किसानो की आबादी घटी हैं | क्योंकि 70 लाख किसानो ने खेती करना छोड़ दिया हैं |क्या किसी दूसरे पेशे के चलते या खेती के झंझटो के चलते ? नही ! ऐसा काम बहुत कम लोगो के साथ हुआ हैं | ज्यादातर किसानो के खेती से हटने का वास्तविक कारण खेती के बढ़ते संकटों के चलते उनके जीविकोपार्जन का न चल पाना ही रहा हैं | इसमें भूमि अधिग्रहण द्वारा भूमिहीन किए गये किसानो की संख्या भी शामिल हैं |लेकिन वह भी किसानो के उपर घहराने वाला एक दुसरा संकट हैं | लेकिन इन संकटों पर सत्ता - सरकारों और प्रचार माध्यमी विद्वानों ने वर्षो से चुप्पी साध रखी है | कभी - कभार उसके आंकड़े प्रकाशित किए जाने या कभी कभार की कर्जमाफी जैसी राहत पॅकेज दीये जाने के अलावा उस पर कही कोई गम्भीर चिन्ता - चर्चा नही चली और न ही उसके समाधान का कोई स्थायी व गम्भीर प्रयास ही किया गया | जबकि 2008 के बहुप्रचारित विश्वव्यापी वित्तीय - संकट और यूरोप व अमेरिका में बढ़ रहे कर्ज़ संकट के लिए तथा देश में संभावित निर्यात संकट के लिए और देश के धनाढ्य औद्योगिक व्यापारिक कम्पनियों को होने वाले बहुप्रचारित संकटों आदि के लिए देश की सत्ता - सरकारे सदैव तत्पर रहती हैं | उनके समाधान के लिए सरकारी खजाने का मुँह खोले रहती हैं | यह है देश की सत्ता सरकारों का धनाढ्य कम्पनियों के प्रति हितैषी और आम किसानो के प्रति विरोधी चरित्र | लेकिन खेती के बढ़ते संकटों के साथ किसानो की बढती आत्महत्याओं पर खुद किसानो का चुप रहना आत्मघाती हैं |बढती आत्महत्याओं के कारणों व कारको को समझने के लिए तथा सत्ता -सरकारों के किसान विरोधी चरित्र को अब किसानो को ही समझना पड़ेगा |फिर उनके समाधान के लिए संगठित प्रयास करना भी अब आम किसानो का ही दायित्व हैं और उसके लिए उन्ही को खड़ा होना पडेगा | जागो किसानो अब जागो अपने हक के लिए !
सरकार और धनाढ्य अपनी शिकारी नजर गाड़े है इस देश के आम किसानो को बर्बाद करने पर -फिर भी किसानो में हिम्मत है उनसे लड़ने की .........नचिकेता की यह लाइने बहुत कुछ कह जाती हैं ..............शिकारी की नज़र..........................

दुनिया को
निरखो न शिकारी की नज़रों से

वैसे तो दुनिया में ढेरों
रंग भरे हैं
यहाँ खेत
खलिहान, नदी, पर्वत, दर्रे हैं
इन्हें बचाना होगा ज़ालिम
राहबरों से

यहाँ महकते फूल
चमकते मुक्त पखेरू
दूध-भरे थन चूस रहे हैं
भूखे लेरू
इन्हें नहीं डर है
आने वाले ख़तरों से

जीना मुश्किल है
फिर भी दुनिया सुन्दर है
रूप, गंध, स्पर्श, ध्वनि
रस का आकर है
मत नोंचो
परवाज़ स्वप्न के
खुले परों से ।
में बताया व प्रचारित भी किया जाता रहा है |
..सुनील दत्ता .पत्रकार ,

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

चुनाव में पूंजीपतियों के रुपयों का प्रयोग सबसे पहले कांग्रेस ने शुरू किया

मध्य प्रदेश से कम्युनिस्ट सांसद होमी दाजी को चुनाव जीतने देने के लिये बिरला जी ने जमकर रुपया कांग्रेसी उम्मीदवार के ऊपर खर्च किया था बिरला जी ने टेबल पर गुस्से में मुट्ठी ठोककर कहा कि मै देखता हूँ अब दाजी कैसे संसद में आता हैदाजी को लोकसभा चुनाव जीतने देने के लिये पूंजीपतियों की पैसों की पोटलियाँ खुल गयींउसके पहले तक चुनाव में पैसों का ऐसा दखल नहीं होता थादाजी के सामने कांग्रेस की तरफ से प्रकाश चन्द्र सेठी थेउन्होंने दोनों हाथों से बिरला का पैसा बांटाचुनाव के समय, जब हम गाँवों में प्रचार के लिये जाते थे तो गाँव की भोली-भाली, अनपढ़ महिलाएं कहती थी कि पंजे वाले लोग हमें एक-एक साडी, एक-एक शराब की बोतल और 10 किलो गेंहू दे गए हैं
संसद में होमी दाजी ने कहा था कि मेरे प्रदेश का नाम मध्य प्रदेश से बदल कर सरकार बिरला प्रदेश क्यों नहीं रख देती ?
मुख्यमंत्री का बेटा, वित्तमंत्री का बेटा, मुख्य सचिव का बेटा, मुख्य सचिव की पत्नी का भाई, सचिव का भाई-ये सब बिरला के कर्मचारी हैंऔर ये सब किसी तकनीकी पद के लिये नहीं नियुक्त किये गए हैंये सब उनके जन संपर्क अधिकारी (पी.आर.) हैं जिनका एक मात्र काम मध्य प्रदेश के सचिवालय के चक्कर लगाना और कंपनी के लिये लाइसेंस और लीज हासिल करना है
यह तथ्य हैं कि मतदाताओं की खरीद फरोख्त का कार्य सबसे पहले कांग्रेस ने ही प्रारंभ किया था और उसके बाद जैसे-जैसे देश का विकास हुआ। उद्योगपति बढे उन्होंने अपने हितों के लिये विभिन्न राजनितिक दलों को खरीद कर चुनाव लड़ाने लगे।
लाल रंग से लिखे गए वाक्य पेरिन दाजी द्वारा लिखित तथा विनीत तिवारी द्वारा सम्पादित "यादों की रौशनी में" से साभार लिये गए हैं

सुमन
लो क सं घ र्ष !
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